जाति की राजनीति कब तक?

मैं झांसी में चुनाव कवर कर रहा हूं। इस बार सोच कर गया था कि जाति की राजनीति से क्या फायदा हो रहा है। सिद्धांत रूप में मेरी राय रही है कि जातिगत चेतना से उन लोगों को आवाज़ मिली, जिनकी कोई सुनता नहीं था। जिनकी संख्या थी मगर भागीदारी नहीं थी। जातिगत राजनीति से उन लोगों को सरकार बनाने का मौका मिला, जिनके पास समाज में भी कुछ नहीं था। जाटव समाज की ऐतिहासिक भूख समझी जा सकती है, जिसके पास कोई ज़मींदारी नहीं थी। नौकरी से हैसियत मिलनी थी, नहीं मिली। नौकरी में तिरस्कृत किये गये। बीएसपी की राजनीति ने इन्हें आवाज़ दी। मगर इस आवाज़ के आगे क्या? हर दल अब बीएसपी की तरह जाति के पीछे भाग रहा है। बीएसपी के पास एक विचारधारा थी, दूसरे दलों के पास इन बेज़ुबान वोटरों को हड़पने की योजना है। दोनों सत्ता हासिल करने की सीमा तक एक हैं। किसी के पास सत्ता से आगे का कार्यक्रम नहीं है।

नतीजा यह हो रहा है कि हर दल में जाति विशेष के नेता पैदा हो गये हैं। जिनकी बीएसपी में नहीं गल रही है, वो कांग्रेस में जाकर दलितों का नेता बन जा रहा है और जिनकी कांग्रेस में दाल नहीं गलती, वो बीएसपी में जाकर नेता बन जा रहा है। हर दल में यहां वहां से आये उम्मीदवार हैं। किसी के पास अपनी विचारधारा में तपा हुआ नेता नहीं है। फतेहपुर सीकरी में बीएसपी, एसपी और आरएलडी के उम्मीदवार जाट हैं। तीनों जाट उम्मीदवार तीन महीने पहले तक अजीत सिंह की पार्टी में थे। यानी जाट बहुल इलाके में वोट पाने के लिए बीएसपी, एसपी के पास अपना कोई जाट नेता नहीं था। किराये पर लाये गये। यानी पार्टी की अहमियत खत्म हो गयी। यानी पार्टी की विचारधारा पीछे हो गयी। इससे बीएसपी की राजनीति की मंज़िल समझ में नहीं आती। मौकापरस्ती दिखती है। यही हाल कई इलाकों में है। ज़ाहिर है अब नयी राजनीति की ज़रूरत है।

यह भी देखा जाना चाहिए कि जाति की राजनीति से जाति विशेष को क्या फायदा हुआ है। क्या सिर्फ ठेकेदारी सिस्टम में प्राथमिकता मिली है? क्या सिर्फ अलग अलग जाति के ठेकेदार पैदा हुए हैं? जो स्‍कॉर्पियो लेकर चलते हैं। ईमानदारी का पैसा किसी दल के पास नही है। बसपा का मिशनरी पैसा हुआ करता था। एक एक रुपया जमा किया हुआ पैसा। लेकिन अब उसके वोट बैंक को कांग्रेस बीजेपी और एसपी से आये पैसे वाले लोग खरीद लेते हैं। पहले यही लोग वोटर को पैसा देते थे, अब उसके नेता को पैसा देकर टिकट खरीद लेते हैं। और वोटर नेता के कहने पर वोट दे देता है। यह बीमारी आयी है।

मैंने इसे और करीब से देखने के लिए कोरी समाज को चुना। झांसी में पिछले साल मेयर का चुनाव हुआ। सभी चारों दलों ने कोरी जाति से मेयर के लिए उम्मीदवार खड़े किये। तो ज़ाहिर है इस जाति के लोगों को फायदा हुआ होगा। किसी भी नेता ने नहीं कहा कि आर्थिक फायदा हुआ है। सबने यही कहा कि संख्या की दावेदारी से सिफारिश का वजन बढ़ जाता है। यानी अंग्रेजी राज के समय से सिफारिश, पैरवी की जो व्यवस्था बनी है, उसी में हिस्सेदारी के लिए यह जातिगत चेतना काम आ रही है। या फिर ज़्यादा से ज़्यादा उस जाति के मोहल्ले में कोई सड़क बन जाती है। कोई योजनागत लाभ नहीं है। संख्या की भागीदारी से राजनीति बदल रही है, मगर समाज नहीं बदल रहा है। हो यह रहा है कि बीएसपी बाकी दलों के चाल को आज़मा रही है और बाकी दल बीएसपी की नीतियों को चुरा रहे हैं। बीएसपी सभी जातियों को टिकट दे रही है। उसे सत्ता चाहिए। कांग्रेस और एसपी बीजेपी भी यही कर रही है। आज जातिगत चेतना को कौन सी पार्टी नयी मंज़िल पर ले जाने का दावा कर सकती है? जाति को तोड़ने का प्रयास नहीं है। जाति के खिलाफ राजनीति नहीं है। उत्तर प्रदेश में बीस साल से पिछड़े औऱ दलितों की सरकार बन रही है। इन्हीं के मोहल्लों, खेतों में कोई बदलाव नहीं दिखता। ठेकेदारी सिस्टम से कुछ ताकतवर लोग ज़रूर पैदा हुए हैं, जो अभी तक सिर्फ ठाकुर ब्राह्मण ही हुआ करते थे। मगर व्यापक स्तर पर नहीं। मैं इन सवालों को लेकर परेशान हो रहा हूं। पहले मानता था कि जातिगत गोलबंदी से डेमोक्रेसी का स्वरूप बदला है। यह सच भी है। मगर यह बदलाव अब रूक गया सा लगता है। आपकी राय जानना चाहता हूं। इस बात के बावजूद कि अभी भी एक दूसरे के प्रति जातिगत सोच कायम है। मगर सवाल है कि राजनीति को क्यों इस जातिगत सोच तक सीमित रहना चाहिए?

6 comments:

अनामदास said...

रवीश भाई
दिलचस्प बात तो ये है कि जाति के आधार पर राजनीति करने वाले दल जिन जातियों को अपना दुश्मन बताकर राजनीति करते रहे उन्होंने अब उन्हीं के साथ गठबंधन बना लिए हैं, अब तक दुश्मन रही जातियों के लोगों को जमकर टिकट दिए जा रहे हैं. बहुजन समाज पार्टी के अस्तित्व की बुनियाद में ब्राह्णण विरोध रहा है लेकिन अब ब्राह्णण-दलित गठबंधन की बात हो रही है. इसी तरह ठाकुरों और पिछड़ों का गठबंधन बन रहा है. दिलचस्प सवाल ये है कि क्या ये पार्टियाँ सत्ता स्वार्थ के लिए अपने बुनियादी सिद्धांतों से पीछे हट रही हैं और अपने समर्थकों को धोखा दे रही हैं या फिर इससे जातियों की दूरी कम हो रही है? आप तो ऊपी में घूम रहे हैं, देखिए और हमारा ज्ञानवर्धन कीजिए.
अनामदास

Atul Arora said...

लेख तो वाकई रसगुल्ला है भाई जी। ४ * ४ के क्यूबिकल में बैठकर redoiff.com बाँचने या एयरकंडीशड कमरे के सोफे पर बैठकर जीन्यूज देखने से यह कतई समझ नही आता कि जिस तरह तमिलनाडू के लोग की तरह हर पाँच साल पहले अम्मा को गरियाते और चश्मुद्दीन करीणानिधि को पूजते हैं और अगले पाँच साल अम्मा को पूजते और करूणानिधि को जूतियाते हैं वैसा अपने ऊपी वाले काहे करने लगे। खाली अपने पास विकल्प तमिलनाडू से एक ज्यादा यानि कि तीन हैं। तो अब इन्ही साँपनाथ नागनाथ में किसी को चुनने की मजबूरी है।
जमीनी हकीकत गर्म हवा के थपेड़ो के बीच बैठकर, जहरील धूँआ उगलते टेंपो के धुँये से ढके चौराहो पर बैठकर चाय लड़ाने से ही समझ आ सकती है और आप यह कर रहे हैं इसके लिये साधुवाद। बहुत अच्छा लगा आपका लेख। कृपया लिखते रहे और हमें ऐसी बारीकियाँ और दिखायें।

dhurvirodhi said...

धन्यवाद रवीश जी, अच्छा मनन किया है.
पर अभी और सड़ने दो इस व्यवस्था को, रोग और बढे़, हद के बाहर निकले और फ़िर खत्म हो जाये.

हमें आपके अगले लेख का इन्तजार है.

Unknown said...

रवीश भाई
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति का हावी होना नई बात तो नहीं है हां बसपा का दलितों की राजनीति छोड़कर सवर्णों को रिझाना शायद इस मुद्दे को नए सिरे से उठा रहा है। दलितों को छोड़ सवर्णों को टिकट देना बसपा की मजबूरी है क्योंकि अगर जाति के आधार पर दलितों को टिकट दिए जाएं तो न तो उम्मीदवार टिकट दिए जाने की कीमत चुकाने की स्थिति में हैं न ही वो उन इलाकों में जीत सकते जहां पिछड़ों या सवर्णों की आबादी ज्यादा है ( शायद बाहुबलियों का अभाव भी एक वजह हो सकता है) ।जब जाति की राजनीति का मुद्दा बिहार में उठाया जा रहा था। तब किसी ने कहा था कि गरीब तबका लालू को इसलिए वोट देते हैं कि वो गरीबों (नंगों) से कहते हैं कि अगर तुम्हारे पास कपड़े नहीं है तो दूसरों को कपड़े पहनने का कोई हक नहीं है और वो लालू की बातों पर विश्वास करते रहे, इन नेताओं की मुश्किलें तब बढ़ती हैं जब वो नंगे दूसरों को बिना कपड़े देखकर खुश नहीं होते बल्कि अपने लिए कपड़े की मांग करते हैं। ऐसे में जाति की राजनीति करने वाले ये न सोचें कि वो लोगों को लंबे समय तक बेवकूफ बना पायेंगे ( औऱ यह केवल बसपा नहीं बल्कि सभी पार्टियां कर रही हैं)। जहां तक जातिगत गोलबंदी से डेमोक्रेसी का स्वरूप बदलने की बात है तो ३५०० से ज्यादा जातियों और उपजातियों वाले देश में जाति को राजनीति से हटाकर डेमोक्रेसी का स्वरूप बदलना संभव लगता है जाति की राजनीति से तो बिल्कुल नहीं। आप क्या सोचते हैं प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा

विवेकानंद said...

सर जी
आपकी फ़िक़र तो सही है . आपको क्या लगता है हमारे देश के हिंदू समाज में वायरस के मानींद घुसी इस बीमारी का कोई इलाज है ? यू पी की राजनीति हमेशा जाति के आधार पर चलती है . दिक़्क़त नेताओं से ज़्यादा आम जनता की है जिसमे जाति को लेकर इतना अभिमान भरा पड़ा है .

Shiv said...

"Dono satta haasil karne ki seema tak ek hain!"

'Ek hone ki seema' aur aage tak jaati hai.Satta haasil karna to meel ka ek patthar hai.Uske aage tak bhi 'dono' saath-saath jaate hain.

Netaon ki pahchaan jaati se hone lagi hai.Aur voters ki bhi.Voters khud bhi kewal voters kahlaana pasanad nahin karte.Woh Brahman voters, Thakur voters, Dalit voters, Yadav voters.....aur na jaane kya-kya kahlaana pasand karte hain.

Neta jaatiyon ke hain.Aadvasiyon ke hain.Dharmon ke hain.....Kewal janta ke nahin rahe.