टीवी दौर में दलित चित्रण

जब से टीवी आया है । मतलब इसके आविष्कार से नहीं । प्राइवेट टीवी के ज़माने से । दलितों की रिपोर्टिंग के भाव बदले हैं । लोग (सवर्ण शहरी ) यह भूल गए थे कि दलितों के साथ भेदभाव इतिहास के अनुभव हैं । उन्हें लगता था कि इंडिया के प्रोग्रेस में जातिगत भेदभाव का नाश हो गया है । हम विदेश जा रहे हैं । कार में चल रहे हैं । वर्ल्ड कप जीत रहे हैं । टीम इंडिया में सब जाति धर्म के लोग हैं । जातिवाद कहां हैं । अच्छी बात है अगर यह ज़हर कहीं से, थोड़ी देर के लिए भी ग़ायब हुआ होगा तो । बहरहाल ।

टीवी के आने के बाद तस्वीरें बोलने लगीं कि कैसे एक ठाकुर मंत्री ने किसी दलित नौकर की पीठ गर्म चिमटियों से सेंक दी है । कैसे हरियाणा के एक गांव के ढाई सौ दलित घर के लोगों को दबंगों ने भगा दिया है । पांच साल पहले की बात है । उस गांव में जब मैं कैमरे के साथ गया तो यकीन नहीं हो रहा था । प्रगतिशील भारत की राजधानी से सौ किमी के दायरे में ऐसा नहीं हो सकता है । मैं सोचता रहा दबंग मुझे भी भगा देंगे । मैं चोरी छिपे उस गांव में गया । बल्कि उन घरों की तरफ गया जहां के दलित भगा दिए गए । रविदास का मंदिर । आस पास के घर । यकीन मानें ताले भी नहीं लगे थे । हम हर घर में गए । खाली पड़े चूल्हे । कुछ फटी तस्वीरें । आंगन में कुत्ता भी नहीं । कारण अब याद नहीं । जब यह तस्वीर पूरे देश में गई तो सुगबुगाहट हुई थी । हंगामा नहीं । उसके बाद ऐसे कई गांवों में जाता रहा । आज भी जाता हूं । एनडीटीवी में इस बात का मौका मिला । एनडीटीवी अकेला न्यूज़ चैनल है जो कम से कम उनके उत्पीड़न को दिखाता है । यहां काम करने वाले यह मानते हैं कि हाशिये के बहुसंख्यक समाज की स्थिति नहीं बदली है । अन्य चैनलों पर भी उत्पीड़न के मसले आते जाते रहते हैं । खैर टीवी के दौर में हम दलितों के उत्पीड़न जैसे अखबारी शब्दों की बजाए दलितों के जीवन को फिल्माने लगे । दलित कैमरे में दिखने लगा । टीवी का दलित अक्सरहां गांव में रहता है । गांव में उसके घर जलते है । कई बड़े रिपोर्टर दलितों की कहानी को सामने लाने लगे । उन्हें कई पुरस्कार भी मिले । फिर दलित रिपोर्टिंग एक ट्रेंड बन गया । और जब ट्रेंड बना तो उनकी कहानी सिर्फ उत्पीड़नों तक सीमित रह गई । इसमें कुछ गलत नहीं था । अब भी होनी चाहिए । मगर इससे बड़ा मानस नहीं बन सका । दलित उतावले हुए न सवर्णों को अपनी करनी पर अफसोस हुआ । ऐसी कहानी छोटे सवाल के तौर पेश की जाती रहीं । मसलन प्रशासन औऱ मंत्रियों की मामूली प्रतिक्रिया के अलावा कुछ भी नहीं । मगर ऐसी रिपोर्टों पर पुरस्कार ज़रुर बड़े बड़े मिले । आगे उन गांवों की कोई सुध लेने नहीं गया । जाति व्यवस्था फ्रेम में फ्रीज़ हो गई । इस बीच दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में पढ़े हमारे सहयोगी कहते रहे कि हमने तो स्कूल में कभी फील नहीं किया । जातिवाद । अनजाने में फील नहीं हुआ होगा । खैर इस पर अलग से कभी और ।

तो मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूं कि सिर्फ एक ही तरह के संदर्भों में दलित उत्पीड़न की कहानी होने लगी । टीवी कैमरे एक ही एंगल से दलितों को देखने लगे । मसलन सताया हुआ दलित अपनी बस्ती में किनारे बैठा है । बैलगाड़ी के शाट्स हैं । कुछ बच्चे वहीं खेल रहे हैं । औरतें पानी भर रही हैं । उनके बर्तनों के शाट्स होते हैं । उनके कपड़े गंदे हैं । या साधारण । गांव में तो यही तस्वीरें मिलेंगी । पीड़ित दलित औऱ उसके परिवार के लोग क्या क्या और कहां कहां नौकरी करते हैं । कितना कमाते हैं । दलित आबादी की खास तस्वीर बनी । घटना कहानी बनती रही । मगर इन तस्वीरों में सवर्णों को नहीं दिखाया गया । बहुत कम । उन्हें हंसते हुए । मज़ा लेते हुए कि दलितों को सताया है । या इसी भाव में कि इस कुकर्म के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा है । सताने वाले सवर्णों की पढ़ाई लिखाई कहां तक हुई है । उनके परिवार में कौन कौन बड़ी नौकरी करता है । फिर भी छोटी हरकते की जा रही हैं । यह दिखाने की कोशिश नहीं हुई कि एमबीए करने वाले सवर्णों की मानसिकता नहीं बदलती । तो भारत की शिक्षा व्यवस्था जातिगत सोच को बदलने में फेल हो गई है । ऐसी तस्वीरें कम रहीं । बहस नहीं हुई । शोषक सवर्ण फ्रेम से गायब कर दिये गए । खैरलांजी कांड पर जब खबर आग की तरह फैली कि भोतमांगे की बेटी, बीबी जला दी गई है । तो बहस दलित राजनीति और नए दौर पर होने लगी । कुछ संपादकों ने लिखा कि महाराष्ट्र के दलित भटक गए हैं । वे आरक्षण पाकर अपने समाज से कट गए हैं । किसी ने उन सवर्णों की तस्वीर नहीं खिचीं । किसी ने उन सवर्णों के साथ बहस नहीं किया कि भई आप क्या चीज़ है ? हेकड़ी जाती क्यों नहीं ? आज के प्रगतिशील भारत मे भी आप ऐसा कैसे सोच सकते हैं । किसी ने भी एसएमएस पर सवाल नहीं पूछा कि क्या हमारे सवर्ण अब भी नहीं सुधरे हैं ? हां या न में जवाब दीजिए । मगर ये क्यों होता है कि दलितों पर अत्याचार होता है तो चर्चा उन्हीं की भूमिका, सक्रियता और भागीदारी की होने लगती है । मैं यही सब सुनते हुए खैरलांजी कांड के बाद मुंबई गया । देखा कि कई पढ़े लिखे दलित अपने समाज के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं । कोई दलित बेरोज़गारों को अंग्रेज़ी पढ़ा रहा है तो कोई डाक्टर हो कर भी अपनी सामाजिक चेतना की ज़िम्मेदारियों को निभा रहा है । मैं सोचता रहा कि क्या दलित रिपोर्टिंग करने वाले या पुरस्कार पाने वाले लोग इनसे मिले हैं ? क्या इस तस्वीर को दलित चेतना की तस्वीर नहीं बनने देनी चाहिए थी ? फिर क्यों अखबारों व टीवी के संपादक, महाराष्ट्र और दलित विशेषज्ञ बता रहे थे कि नौकरी पेशा दलित आरामपसंद हो गया है । क्या खैरलांजी उन्हीं की ग़लती से हुआ था ? क्या दलितों के अराजनीतिक होने से सवर्णों को उन्हें जला देने का अधिकार मिल जाता है ? क्या भैयालाल भोतमांगे को महाराष्ट्र के आरामपसंद और तरक्कीयाफ्ता दलितों को सबक सिखाने के लिए सज़ा दी गई । मैंने देखा कि कई पढ़े लिखे दलित नौकरी छोड़ पीड़ितों की मदद कर रहे हैं । वो मदद ही कर सकते हैं । क्या आपने कभी किसी पढ़े लिखे सवर्ण को नौकरी छोड़ कर सवर्णों को जातिगत सोच से आज़ाद कराने का संघर्ष करते देखा है । क्यों नहीं सवर्ण आगे आते हैं । क्यों नहीं खैरलांजी घटना के बाद सवर्णों का भोतमांगे के हक में जुलूस निकला । इस पर न तो बिगफाइट था न मुकाबला न वर्डिक्ट । न किसी अखबार में लेख । सबके एक ही विषय थे क्या महाराष्ट्र में दलित राजनीति फेल हो गई है । बहस ये होनी चाहिए कि क्या सवर्ण राजनीति और सोच दलितों को सताने में सफल हो रही है । उसे मजा आ रहा है । आज़ाद भारत में सवर्णों ने माफी तक नहीं मांगी । वो बदल ही नहीं रहे तो क्या करें । इसके लिए उन दलित युवाओं की आलोचना कर दूं कि उनकी कोशिश का दायरा बड़ा नहीं है । दलित नेता उन्हें ठग रहे हैं । मैं मुंबई में देखने लगा कि कैसे इस सिनेमाई महानगर में जातिवाद फैला हुआ है । एक एयरइंडिया के दलित इंजीनियर की गाड़ी के टायर उसके अपार्टमेंट के कल्चर्ड लोग काट देते हैं । बाहर से कुंडी लगा देते हैं । अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने वाले उसके बच्चों के साथ कोई खेलता नहीं । घर में अच्छे खिलौने हैं । मगर वह व्यक्ति आत्महत्या की बात करता है । क्या करे वो मायावती के भरोसे ज़िंदा रहे या संविधान और समाज के ।

मगर टीवी फंसा हुआ था । संपादक फंसे हुए थे । वही तस्वीरें फिर से आने लगीं । भोतमांगे के गांव की तस्वीरें । सहमें गरीब दलित । बैलगाड़ी । गुस्सा । आंसू । गांव के गरीबों का आर्थिक विवरण । जोत का आकार । कैमरे दलितों की बस्तियों में । कोई सवर्णों की बस्तियों में नहीं घूम रहा था । किसी ने सवर्णों से नहीं पूछा कि क्यों ? भोतमांगे की बेटी के साथ ? उसका घर ? क्यों ? कई बड़े पत्रकारों ने नागपुर के अमीर दलितों का विश्वेषण कर डाला । बताया कि दलित राजनीति और युवा कहां है इस वक्त । सवर्ण राजनीति और युवा पर बहस क्यों नहीं ? अखबारों ने दलित राजनीति पर विशेषांक निकालने शुरु कर दिए ।


मैं कहना यह चाहता हूं कि टीवी ने दलित समस्याओं के चित्रण का खास फ्रेम विकसित किया है । मैंने दिल्ली और मुंबई के अपार्टमेंट में रहने वाले नौकरीयाफ्ता दलितों के साथ स्पेशल रिपोर्ट बनाई । उनके कपड़े ब्रांडेड थे । अंग्रेजी बोल रहे थे । बुरा नहीं लगे तो यह भी कह देना चाहता हूं । गोरे थे कई लोग । ड्राइंग रुम में बच्चा रंगीन सायकिल से खेल रहा था । मां कह रही थी कि वो दलितों के प्रति कुछ करना चाहती है । वो जानती है कि आरक्षण सिर्फ उसके लिए नहीं मिला है । बल्कि आरक्षण मिला है खुद मज़बूत होकर दूसरे को सहारा देने के लिए । दिल्ली के दलित अपार्टमेंट में रहने वाले लोग कहते थे कि दूसरे अपार्टमेंट के लोग उनकी गेट के सामने कूड़ा फेंक जाते थे । उनके फ्लैट के दाम बाज़ार से कम होते हैं । मुझे इन रिपोर्ट पर कई प्रतिक्रियाएं मिलीं । कुछ ने कहा आपकी स्टोरी में दलित तो कोई लग ही नहीं रहा था । टी शर्ट पहने थे । एक दलित बैंक प्रोफेशनल था । उसने टाई पहन रखी थी । लैपटाप था । मेरे जानने वाले हैरान थे कि ये भी दलित हैं । शोषण और सवर्ण के बीच दलितों की एक बहुत बड़ी दुनिया है । जिसके अपने मुद्दे हैं ।


तो मैं भी परेशान हूं कि दलित कौन है । जो गांव में बैलगाड़ी के नीचे आ जाता है या वो भी जो साफ्टवेयर इंजीनियर है । टीवी ने उन घरों में तस्वीरें क्यों नहीं उतारी जो दलित सशक्तीकरण के मिसाल हैं । जो आरक्षण के बाद कामयाब ज़िदगी जी रहे हैं । जिन्हें वेतन मिलता है । जो टीवी और वीसीडी खरीदते हैं । जिनके पास पहनने के अलावा दिन में कई बार बदलने के लिए कपड़े भी हैं । क्या ये बदलाव नहीं है । मैं इस बदलाव को सामने लाने से इसलिए नहीं डरना चाहता कि कोई आरक्षण का विरोध ही करने लगे । उसके बाद भी लाना चाहता हूं । इसलिए लाना चाहता हूं कि देखिये आरक्षण का फायदा भी होता है । बैलगाड़ी से कार तक किसी को ले आए, आपके पास और कौन सी नीति है । आपकी (सवर्ण) मानसिकता नहीं बदली मगर उनकी ज़िंदगी कहीं बदल रही है । तो ठीक है न ।

कुल मिलाकर मैं यही कहना चाहता हूं कि टीवी को अब दलित आत्मविश्वास की कहानी भी कहनी चाहिए । फ्रेम बदलना होगा । लाइट का एक्सपोज़र भी । दलितों की कामयाबी पर हैरान होना या नज़रअंदाज़ करना बंद कर दें । उनके संघर्षों से सहानुभूति जताना छोड़ दें । सवर्ण उनके संघर्षों में साथ आना शुरु कर दें । हमें चाहिए कि उनकी दुनिया में सताये जाने के साथ साथ और भी बहुत कुछ हो रहा है । उनकी और भी ज़रुरते हैं । वो सिर्फ बलात्कार और हत्या के बाद की ख़बर नहीं हैं ।

6 comments:

Neeraj Rohilla said...

एक बार आपका लेख पढना शुरू किया तो बीच में अधूरा नहीं छोड सका । इस विषय पर अक्सर लोग मनोभावों की आँधी में बहकर मूल विषय से भटक जाते हैं । परन्तु आपने धरातल पर खडे रहकर एक अलग पक्ष प्रस्तुत किया है ।

काफ़ी अन्तराल के बाद एक विचारोत्तेजक और संतुलित लेख पढा । आगे भी ऐसे ही लेख पढाते रहें ।

साधुवाद स्वीकार करें ।

Hitendra Gupta said...

गजबे है... पत्रकारिता में हम गांववाले भी बहुत कुछ दलिते हैं...बहुत बढ़िया.. काफी कुछ छाप दिए हैं... पहिले बताते तो और मज़ा लेते..खैर आब देखत रहेंगे...और सब निमन बा ... कभियो मिले के कोशिश करल जाय...होली मुबारक..हितेन्द्र

Unknown said...

मैंने आपकी वो स्पेशल रिपोर्ट देखी थी। अंबेडकर के जन्मदिन के दौरान आई थी। मुझे ताज्जुब था आपकी रिसर्च पर।
लेकिन मुझे ये भी याद है कि सितंबर के आख़िर में जब खैरलांजी का मामला सामने आया था। तो ये ख़बर जल्द ही सारे चैनलों के हेडलाइंस से उतर गई थी। अगर किसी ने इस मामले को बड़ा बनाया तो कुछ दिन बाद शुरू हुई हिंसा ने। जिसकी लपट धीरे-धीरे महाराष्ट्र से बाहर भी दिखाई पड़ी। हैरत की बात ये थी इस आंदोलन के पीछे कोई बड़ा दलित नेता भी नहीं था।
कहानी वही थी कि लेकिन हिंसा और आगज़नी ने इसे बिकाऊ ख़बर बनाया। तब मीडिया कहां सोई रहती है जब दलित ही क्यों किसी के भी साथ इस तरह की घटना होती है? क्यों ऐसी ख़बरें डाउनमार्केट कह कर गिरा दी जाती हैं? क्या मीडिया ख़ुद इस मामले को नहीं उठा सकता था। मेरा सवाल उन केबिन वालों मीडियाकर्मियों से है जो चैनल चलाते हैं। और जिन्हें शुरुआत में इस ख़बर में कोई दम नहीं दिखा।

अनुनाद सिंह said...

पूरा लेख बहुत ही विचारोत्तेजक और संतुलित है, किन्तु अन्तिम अनुच्छेद सर्वाधिक सकारात्मक और जागृतिजन्य है।

जन्म के आधार पर ऊंच-नीच की भावना को भारत से निर्मूल करने में हर भारतीय को हाथ बटाना चाहिये; इसके बिना भारत का सशक्तिकरण का सपना सपना ही बना रहेगा।

ghughutibasuti said...

आपका लेख पढ़ा । सोच रही हूँ क्या कहूँ । कभी भी समझ नहीं आता कि हम एक दूसरे को दुख देकर कैसे खुश हो सकते हैं । आपने समस्या को एक अलग तरह से देखा है । मेरे खयाल से जैसा कि आपने कहा है इस सब पर और चर्चा होनी चाहिए । समस्या हम सब की है, यदि समाज के किसी भी वर्ग पर अन्याय हो या वे असुरक्षित अनुभव करें या वे अपनी प्रतिभा को विकसित न कर सकें तो सारे समाज की हानि है । यदि और किसी कारण से नहीं तो अपने स्वार्थ के लिए ही हमें किसी भी तरह के अलगाववाद या कोई भी वह भावना जो एक को दूसरे से अलग करती है को मिटा देना चाहिए ।
वैसे आप जो पब्लिक स्कूल में पढ़े बच्चों व उनके किसी भी भेदभाव से अनभिग्य होने की बात कर रहे हैं तो सच में बहुत से नवयुवक ऐसे हैं जिन्होंने न कभी भेदभाव किया न प्रत्यक्ष में देखा है । उनके सबसे प्रिय मित्र दलित हैं ये वे नहीं जानते और जानने पर भी उनके सम्बन्धों की मधुरता में कोई अन्तर नहीं पड़ता और पड़े भी क्यों ? जिस दिन यह स्थिति सारे देश में होगी तब शायद ऐसी चर्चाओं की आवश्यकता नहीं होगी । तब तक जितना ही इस बारे में बात करेंगे और हल ढूँढेंगे उतना ही अच्छा है ।
घुघूती बासूती

azdak said...

दिल से, रे...