व्यवस्था बदलाव

इसकी बहुत कोशिशें होती हैं। कई बार व्यवस्था बदल जाती है। पुरानी की जगह नई हो जाती है। फिर उस नई व्यवस्था को बदलने की कोशिश होने लगती है। क्या व्यवस्था का बदलाव एक निरतंर प्रक्रिया है? फिर क्यों इतिहास काल से व्यवस्था बदलने वाले को क्रांतिकारियों से कम अहमियत दी जाती है? क्रांतिकारी बदलाव व्यवस्था बदलाव से बड़ा होता है। आज कल व्यवस्था बदलाव को ही क्रांतिकारी बदलाव कहने लगे हैं। क्योंकि क्रांतिकारी बदलाव हो ही नहीं रहा है। न कोई क्रांतिकारी काम कर रहा है। सिर्फ बात कर देने से उसे क्रांतिकारी कहा जाने लगा है।

इसीलिए व्यवस्था बदलाव के बाद भी कुछ नहीं होता। तब भी कुछ लोग होते हैं जो बदली हुई व्यवस्था के बदल जाने का इंतज़ार करते रहते हैं। नया नेतृत्व नए असंतोष पैदा करता है। नए सवाल खड़े करता है। नई बेचैनियों से उकताए हुए लोगों को व्यवस्था बदलने के सपने देता रहता है। क्यों हर वक्त कुछ लोग व्यवस्था बदलने की आस लिए रहते हैं? क्या इसके बदलने से सब कुछ उन्हें ही मिलता है?

अब तो व्यवस्थापक के बदल देने को व्यवस्था में बदलाव कहते हैं। सिस्टम वही रहता है। उसकी आशा निराशाएं वहीं रहती हैं। फिर बदलता क्या है? मुझे लगता है कि कुछ नहीं बदलना चाहिए। अब ज़माना बदलने का नहीं रहा। फैलने का रहा है। बाज़ार का कोई ब्रांड शहर से गांव तक फैल जाए तो उसे ज़माने में आए बदलाव के एक मानक के रूप में देखा जाता है। तो क्या हम भी बदलने के नाम पर फैल कर खुश हो जाते हैं? क्यों इंतज़ार करते हैं कि व्यवस्था बदले? क्या यह ठीक नहीं रहेगा कि आप फैल जाएं? क्या फैलने के बाद आप बदले हुए महसूस नहीं करेंगे?

क्या बदलाव कि इस चाहत का संबंध सिर्फ महत्वकांक्षा से है? महत्वकांक्षा का फैलना यानी नई जगह पाना क्या बदलाव हो सकता है? या यही बदलाव है। पहले जहां जगह नहीं मिलती थी अब मिलने लगी है। सब कुछ आपके हिसाब से ही हो क्या यही तड़प व्यवस्था बदलाव की ज़रूरत पैदा करती है? या बदलने वाले के मन में वाकई कोई बड़ा भारी विकल्प होता है? कभी आपने सोचा है कि इसकी चाहत और ख्वाब में मौजूदा वक्त कितना बर्बाद होता है। दुनिया में हर चीज़ फैल रही है। बदल नहीं रही है। पतली सड़क चौड़ी हो रही है। पुल फ्लाई ओवर हो रहे हैं। कोक मैनहैटन से मोतिहारी आ रहा है। मोबाईल दिल्ली से गांव गांव पहुंच रहा है। फिर बदल क्या रहा है? फैल ही तो रहा है। पसरने को बदलना क्यों कहते हैं? व्यवस्था की निरंतरता क्यों बनी रहती है? क्यों व्यवस्था व्यवस्थापक के बदलने के बाद भी नहीं बदलती? सिर्फ पहले से ज़्यादा फैलने लगती है। क्या फैलने की चाह ही बदलाव है? व्यवस्था का।

2 comments:

रंजन (Ranjan) said...

बदलाव भी है, और फैलाव भी.. और फैलाव है बदली हुई चीजों का..

पगडंडीयो की जगह सडको ने ली... फिर फैलाव सडको का हुआ, बदलाव पगडंडीयो का..
landline की जगह Mobile आ गया.. फैलाव Mobile का हुआ, बदलाव landline का हुआ..

प्रतिदिन प्रगति से नई - नई वस्तुऎ आती है.. पुरानी बदलती है..नई फैलती है..

या शायद मै समझ नही पाया..

अनूप शुक्ल said...

अच्छा है। लेकिन कायदे से बूझने का कोशिश जारी है!