अपने भीतर का कुछ गांव

अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं
पूछते रहते हैं जो हमसे सब
कैसा है तुम्हारा गांव यार
कहता रहता हूं सबसे अब
जैसा है तुम्हारा शहर यार

दोस्तों से मिले तोहफों के बदले
मैं भी कुछ उनको देना चाहता हूं
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं


क्या करूंगा सब गांव ले कर
बैलों को बांधने की जगह नहीं
अनाज रखने का खलिहान नहीं
ग्रेटर कैलाश के अपने दोस्तों को
अपने भीतर का कुछ गांव
थोड़ा थोड़ा देना चाहता हूं

जाने क्या करेंगे उन टुकड़ों का
बेचेंगे या फार्म हाउस बना देंगे
कुछ हिस्सा दिल्ली सा बना देंगे
तब जब वो मुझसे पूछेंगे
कैसा है तुम्हारा गांव यार
कह दूंगा उन सबसे तब
जैसा है तुम्हारा शहर यार
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं

दिल्ली के दोस्तों के बिना
अब कहां मैं रह पाता हूं
इतना मिलता रहता हूं
फिर भी अनजाना रहता हूं
अपनी पहचान के बदले में
कुछ उनको देना चाहता हूं
कितना कुछ उनसे मिलता है
अब उनको मैं देना चाहता हूं
अपने भीतर का कुछ गांव
उन सबको देना चाहता हूं

( दिल्ली में मिले उन तमाम दोस्तों के लिए जिनके घर किसी गांव के उजाड़ कर बसाए गए कालोनियों में हैं। लेकिन उन्होंने गांव ही नहीं देखा। पहले पूछते थे मुझसे गांव के बारे में लेकिन जब से मैं उनके जैसा हो गया, पूछना बंद कर दिया। बस याद दिलाने के लिए मैंने यह कविता लिखी है।)

6 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन भाव उकेरे हैं रविश भाई. मजा आ गया. यह है सही अभिव्यक्ति का स्वरुप. वाह!!

mamta said...

क्या बात है !!
बहुत सुन्दर रचना है।

Rajesh Roshan said...

लाजवाब, इसके भाव बेहतरीन हैं.

विनीत कुमार said...

यही तो है कविता की ताकत की चीजें खत्म भी होती चली जाए लेकिन उसके होने का बोध हमारे बीच कायम रहे,आपकी कविता इसी बोध की रचनात्मक अभिव्यक्ति है, इस बोध के लिए धन्यवाद

अभिनव said...

भाईसाहब,

भीतर का गाँव रह रह कर,
बाहर आता ही रहता है,
और जब जब गाँव बाहर आता है,
तो बहुत कुछ हर लेता है।

आपकी कविता तो ज़ोरदार होती ही है।

अनुराग द्वारी said...

वाकई शब्द एक खाका सा खींचते गए हमारे अंदर से हमारे गांव ... हमारे कस्बे के बंटने का ...
बहुत प्यारी कविता है