क्या आपको भी ऊब होती

हर काम से ऊब होती है। एक न एक दिन होती है। सबको होती है। मुझे भी होती है। लगता है जहां हूं वहां क्यों हूं। जहां नहीं हूं वहां क्यों नहीं हो जाता हूं। यह काम अच्छा नहीं है। वह काम अच्छा है। उस काम वाले से मिलता हूं तो कहता है आपका काम बड़ा अच्छा है। ऊब से कंफ्यूज़ हो जाता हूं। लगता है टीवी नहीं अख़बार ठीक है। अख़बार कहता है टीवी ठीक है। अपने दफ्तर को भला बुरा दूसरे दफ्तर को ठीक समझने लगता हूं। दूसरे दफ्तर वाले से मिलने के बाद अपने दफ्तर को ठीक समझने लगता हूं। लगता है हर अच्छी चीज़ बुरी होती है और हर बुरी चीज़ अच्छी होती है। मैं ऊब रहा हूं। इन दोनों ही स्थितियों से। कुछ नया करना चाहता हूं। पिछले दिनों जो नया किया उन्हीं से ऊब गया हूं। फिर एक और बार ऊबने के लिए कुछ और नया क्यों करना चाहता हूं।

शर्मा जी पड़ोसी थे। ज़िंदगी भर एक ही मेज़ से क्लर्की करते रिटायर हो गए। रिटायरमेंट के दिनों तक पहुंचते पहुंचते उनकी मेज़ चमकने लगी थी। सागवान की लकड़ी संगमरमर लगने लगी थी। तीस साल एक ही कुर्सी और एक ही मेज़। बैठने की एक ही जगह। दफ्तर के काम की कोई प्रगति नहीं। सिर्फ दिन बीतने की प्रगति। पहले दिन से रिटायर होने के आखिरी दिन तक पहुंचने की प्रगति। शर्मा जी ने कभी नहीं कहा कि ऊब गया हूं। हर दिन दफ्तर जाते रहे। कभी नहीं कहा कि दूसरे दफ्तर में क्यों हूं। पर दावे के साथ नहीं कह सकता कि शर्मा जी ऊब से बेचैन नहीं होंगे। एक ही करवट बैठे बैठे और हर सर्दी में पत्नी का बुना नया स्वेटर पहनते हुए वह अपनी ऊब किससे कहते होंगे पता नहीं। ऐसे तमाम लोगों पर शोध होना चाहिए। वो एक ही तनख्वाह, एक ही दफ्तर और एक ही दिशा में बैठे बैठे ऊबते क्यों नहीं हैं। हम क्यों ऊब जाते हैं। मैं क्यों ऊब जाता हूं।

12 comments:

मनीषा पांडे said...

वो पीढ़ी दूसरी थी, वो जमाना दूसरा था। तब इतनी रंगीनियां नहीं थी। समाज में इतना विभेद नहीं था और लुभाने वाली इतनी सारी चीजें नहीं। आज से दस साल पहले क्‍या कोई सोच भी सकता था कि इस देश में पत्रकारिता का परिदृश्‍य एकाएक यूं बदल जाएगा। हिंदी प्रदेशों से आए मामूली लोग एकाएक यूं पैसा पीटने लगेंगे। चैनलों के आने से कितनी लड़कियां औरतों की आजादी और आर्थिक आत्‍मनिर्भरता का गाना गाने लगी हैं, इसके पहले जिसके बारे में न उनकी कोई समझ रही होगी और न तैयारी। मेरा जीवन हर लिहाज से मेरी मां से बेहतर है, लेकिन फिर भी मुझे नहीं लगता कि मां अपनी स्थितियों पर कभी इस तरह बेचैन होती होंगी, जैसे मैं होती हूं। ये वक्‍त ही ऐसा है, विचित्र। ये बेचैनी, जो हम सबको समान रूप से त्रस्‍त किए हुए है, के अपने सामाजिक-आर्थिक कारण हैं। इस पर सचमुच और गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। वैसे इस ऊब का पर्सेंटेज मेरे यहां भी कम नहीं है।

संजय शर्मा said...

क्योंकि शर्मा जी के पास दोनों चश्मा है दूरी और नजदीकी अतः उन्हें दूर बैठा मोदी और पास बैठा लालू अच्छी तरह दिखता है .

Ashish Maharishi said...

रविश जी पीढि़यों के हिसाब से मानसिकता भी बदल जाती है। शर्मा जी और आज की पीढ़ी में जमीन आसमां का अंतर आ गया है लेकिन हमारे ही कई युवा साथी शर्मा जी के कदमों पर चलने के लिए तैयार हो रहे हैं। और इसके लिए और कोई नहीं हम ही जिम्‍मेदार हैं

Anil Dubey said...

क्या बात है मनीषा जी! आपने एकदम सही पकडा है.

Pankaj Dixit said...

Ravish Ji Main apko ek story bhejna chahta hoon jo ki apke interest ki hai. Please mail ur Mail ID or sms me on my Phone 9415333325.
My Email akanksha47@gmail.com
Pankaj Dixit
Zee News
Farrukhabad-U.P.

Anonymous said...

सही कह रहे हैं आप, हम ऊबते क्यों नही ......... एक ही चीज से क्यों चिपके रहते हैं ........... यदि सभी ऊबने लगें तो कुछ अलग करने का ख़याल आएगा और हो सकता है कुछ नया सृजित हो जाए ...... या नया सृजन होने लगे ..... रवीश मैं भी ऊबगया हूँ और कुछ नया करने की सोच रहा हूँ ................

ghughutibasuti said...

मनीषा जी कह रही हैं कि केवल आज की पीढ़ी ऊबती है । मैं ५२ वर्ष की हूँ और जानती हूँ कि आपकी पीढ़ी से कम बेचैन नहीं रही हूँ । माँ ८४ वर्ष की हैं व मुझसे भी अधिक बेचैन थीं व हैं । यह पीढ़ी की ही बात नहीं है, सोचने समझने का एक नजरिया होता है, एक आदत होती है, एक नया पाने, जानने, समझने, अनुभव करने की चाहत होती है, जो बेचैन कर देती है । खैर, ऊब से छुटकारा पाने को कुछ नया ढूँढा ही जा सकता है । ढूँढिये ।
घुघूती बासूती

harsh said...

Ye kahna ki mai ubta nahi hun, yah bhi ek ubna hi hai. Aadmi ki yah fitrat rahi hai ki wah hardam ubkai lete rahta hai. Tabhi to wah kuchh naya ejaad bhi karta hai. Riporting ke baad yah kasbai bhi to aapki ubkai ka hi natiza hai. Waise is post se aapki darshan ke bhi darshan ho gaye. Log kapde se ubkar kapda badal lete hain, bhojan bhi badal-2 kar karte hain aur bhi na jaane ubiya kar kya-2 karte hain. Unka wash chale to biwi bhi badal len. Magar majboori hi hai bhai jo Sharma ji jaise clerkon ko tis-2 saal tak ek hi kursi, ek hi table, ek hi daftar aur ek hi na jaane kya-2 se bandhe rakhta hai. Roji-roti ke saath romanch kam hi logon ko nasib hota hai. Sab jindagi ke saath samjhouta kar lete hain. Aap to fir bhi bahut lucky hain. Fir bhi ek aur baar ubne ke liye kuchh aur naya karna chahte hain, to jaroor kijiye. Ubne ka saubhagya jo prapt hai. Khushnasibon ko hi milta hai ye bar-2 ubne ka chance. Magar is chance ko hasil bhi we badi mehnat se karte hain.

मनीषा पांडे said...

घुघूती बासूती जी, मैं उस सवालों और जिज्ञासाओं से उपची बेचैनी की बात नहीं कर रही हूं, जो किसी मनुष्‍य को मनुष्‍य बनाती हैं। वो बेचैनी तो सौ साल पहले भी धरती के रहस्‍यों का पता लगाने, मनुष्‍य जीवन के तमाम सत्‍यों को उद्घाटिक करने, इतिहास, विज्ञान, गणित, दर्शन और साहित्‍य में महान रचने वाले लोगों के भीतर सबसे ज्‍यादा रही होगी। और वो लोग भी, जिन्‍हें आज बदली परिस्थि‍तियों में ये सवाल और तरह-तरह से बेचैन और व्‍यथित करते हैं। वह सदंर्भ बिल्‍कुल दूसरा है।

मैं एक दूसरे की संदर्भ की बात कर रही हूं। उस पीढ़ी की, उन लोगों की, बेशक जिसमें मैं भी शामिल हूं, जो हमेशा एक विचित्र किस्‍म की ऊब और बेचैनी का शिकार हैं। जिन्‍हें पता नहीं कि उन्‍हें क्‍या करना है। जो बहुत तेजी के साथ बदल रही दुनिया के साथ मीजान नहीं बिठा पा रहे। और वास्‍तव में जिनके पास कोई बहुत ठोस विचार और जीवन का ठोस मकसद नहीं है। मेरी बात को अन्‍यथा न लें, खुद मेरे पास भी ऐसा कोई मकसद नहीं है। हालांकि ऐसा दावा जरूर किया जा सकता है। दावा करने में क्‍या जाता है, खुशफहमियां पालने में क्‍या जाता है।

हम फिर भी बचे हुए हैं। आज जो बच्‍चे 3-4-5 साल के हैं, 20 साल बाद उनकी स्थिति और भी ज्‍यादा बुरी होगी। ये बाजार के खेल हैं।

इंसान के मन को विचलित करने वाली, उसे उलझाने और बरगलाने वाली इतनी चीजें मेरे बचपन में नहीं थीं, जितनी आज के बच्‍चों के पास हैं। कुछ दिन पहले मैंने अपने ब्‍लॉग पर एक पोस्‍ट लिखी थी, हॉस्‍टल में आए दिन बोर होने वाली लड़कियों के बारे में। क्‍या वो कोई व्‍यंग्‍य है या कि मजाक कि वेस्‍टसाइड की शॉपिंग, डियो, शाहरुख खान और ज्‍वेलरी, लिप्‍सटिक से हमारी बोरियत थोड़ी देर के लिए दूर होती है, लेकिन फिर लौट-लौटकर आती है। वो लड़कियां इसलिए नहीं बेचैन थीं क्‍योंकि वो कुछ विचारों, सवालों से परेशान थीं। वो इसीलिए परेशान थीं कि क्‍योंकि उनके पास ऐसी कोई जिज्ञासा, कोई सवाल, कोई चिंता थी ही नहीं। उनकी सारी चिंताएं वेस्‍टसाइड के कुर्तों से शुरू होकर ग्‍लोबस के जूतों पर खत्‍म होती है। कल वेस्‍टसाइड से बड़ा कोई ब्रांड बाजार में उतरेगा और फिर वो उसके जूते, कपड़े खरीदने के लिए बेचैन होने लगेंगी। पहले हमारी बेचैनी ब्‍लैक एंड व्‍हाइट से कलर टीवी तक पहुंचने के लिए थी, फिर 21 इंच से 29 इंच के लिए और अब एलसीडी और प्‍लाज्‍मा के लिए। दो साल बाद बाजार में कुछ नया आ जाएगा, तो उसके लिए होने लगेगी। ये सुकरात और आइंस्‍टाइन की बेचैनी नहीं है। ये ऊब है, बाजार की दी हुई, ये इसीलिए है क्‍योंकि आइंस्‍टीन और सुकरात पैदा हो सकने की जमीन को बाजार लगाता बंजर कर रहा है। हमारी जिंदगी के रिमोट दिल्‍ली से लेकर वॉशिंगटन तक बैठे कुछ लोगों के हाथ में हैं। और उसका विरोध कर सकूं, इतनी ताकत मुझमें या मेरी पीढ़ी के और तमाम लोगों के भीतर नहीं है।

ghughutibasuti said...

मनीषा जी, शायद आपकी बात समझ रही हूँ । आशा है आगे भी संवाद बना रहेगा और यह संवाद पीढ़ियों के बीच पुल का काम करेगा ।
नववर्ष की शुभकामनाओं सहित
घुघूती बासूती

पुनेठा said...

क्या बात है , दुखती नब्ज पकडी है रवीश भाई...सचमुच होती है..लेकिन ये ऊब और बेचैनी है भी कमाल की... इसे मानवीय ही कहा जायेगा..नाहो तो कंहा पंहुच पायेंगे हम...ये ऊब ही तो सीन बनाती है...जो आपको भी लिखने पर मजबूर करती है...शर्माजी क्यो और कैसे कर गये , मनोचिकित्सको के लिये एक विषय हो सकता है...

Priyambara said...

jab kaam nahi hota hai to pareshani, jab hota hai to pareshani.Roz ek jaisi dincharya se pareshani. Shayad har ek ko intezar hota hai har pal kisi naye pariwartan kaa,taaki tazgi bani rahi.Nayi uchaai ko tay karna aur phir use chhone ki koshish karna. Agar ye sabkuchh zindagi me naa ho, naye challenge naa ho to oob to hogi hi.