मुझे सिर्फ एक दोस्त चाहिए

जब भी आप मिलते हैं किसी से

तो वाकई खुश होते हैं आप

या हंसना आ गया है आपको

हर किसी से मिलने के बाद

हाथ मिलाना आ गया है

दांत फाड़ कर और गोल कर

अपनी आंखें, जब मिलती है उससे

झूठी मुलाकात कितनी सच्ची लगती है

ऐसी तमाम मुलाकातों के बाद जब

एक भी मुलाकात बिस्तर पर याद नहीं आती

गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह

जागने के बाद उसका चेहरा याद ही नहीं आता

ऐसे तमाम झूठे मुलाकातियों से हर रोज

हाथ मिलाने का मन नहीं करता

लगता है लात मार कर भगा दूं

और ढूंढ लाऊं अपने उन दोस्तों को

जो फिक्र करते थे कभी मेरी,

कभी मेरे लिए चाय बना देते थे

फिल्म जाने से पहले किचन में

छोड़ जाते थे तसले में थोड़ी सी खिचड़ी

सिर्फ मेरे लिए

अब नहीं है वे सब...

वे भी कहीं ढूंढते होंगे मुझको हर दिन

अपनी अपनी नौकरियों में मुलाकातियों से मिलने के बाद

गहरी नींद के किसी कोने में देखे गए ख्वाब की तरह

इमोशनल अत्याचार

तौबा तेरा जलवा, तौबा तेरा प्यार। इमोशनल अत्याचार। ठेठ बिहारी टच। इमोशनल अत्याचार के इस दौर में इमोशनल होना नेशनल होना हो गया है। अनुराग की नई फिल्म देव डी का यह गाना इमोशनल अत्याचार- देवदास के नाम पर लंपट बन रहे लैलाओं और आसिफों को लाइन पर लाने का उपचार है। डी यू के दिनों में कई ऐसे यौवनबहुल युवाओं को देखा है। सेंटी हो जाते थे किसी लड़की पर, उसके बाद सेंटिमेंटल होने लगते थे रात भर। उसके आने जाने का टाइम पता किया, घर का पता और उसे नोट्स देने का इंतज़ाम। बस शुरू हो जाता था इमोशनल अत्याचार।

इमोशनल अत्याचार खुद से अपने ऊपर किया जाने वाला अत्याचार है। जहां तक मुझे लगता है। कई लोग क्लास के बाद तब तक रूकते थे जब तक वो लड़की बस से घर न चली जाए। अगर कोई लड़की कार से आ गई तो पहले से ही उसकी अमीरी को लेकर खुद पर इमोशनल अत्याचार शुरू हो जाता था। यार कहां वो..कहां..मैं। औकात में रह बेटा। बस प्रेम का दि एंड।

प्रेम की तमाम निजी अभिव्यक्तियां फिल्मों की नौटंकी से मिलती जुलती हैं। आई लभ यू बोलने से लेकर डस्टबिन में फाड़ कर फेंके गए उन तमाम ख़तों की हर अदा हम अपनी जवानी में ओरिजीनल समझ कर लुटाते रहते हैं। लेकिन ये सब आता है फिल्मों से। बहुत कम प्रेमी होते हैं जो प्रेम में ओरिजीनल होते हैं और इमोशनल अत्याचार नहीं करते।

इस बेहतरीन गाने को सुनते हुए उन तमाम लंपट हरकतों की यादें ताजा हो गईं जिसमें एक लड़का और लड़की हर दिन एक दूसरे को बिना बताये चाहते रहते हैं। जब नहीं बोल पाते तो इमोशनल अत्याचार करने लगते हैं। मुझे वो लड़की क्यों याद आ गई जिसे कोई अच्छा लगता था मगर इतना बताने से पहले वो अपने भीतर हज़ार बार अपने पिता से ज़िरह करती, अपने रिश्तेदारों के डर से कांपती हुई हर दिन सौ मौतें मरती रहती। किसी को पसंद कर उसने जो इमोशनल अत्याचार किया वो सिर्फ इमोशनल लोग समझ सकते हैं। वो लड़का क्यों याद आ गया जो झूठी पट्टी बांध कर लड़कियों के बीच नाटक करता था कि गिटार बजाते हुए उसकी उंगलियां कट गईं। पटना का साला लंपू...बाप जनम में गिटार नहीं देखा लेकिन पट्टी बांध कर सेंटियाता रहता था।

सेंटी होना एक ऐसी सेंटिमेंटल सामाजिक प्रक्रिया है जो बिहार और यूपी के लड़कों को डी यू की खूबसूरत लड़कियों की परछाई के पीछे भागने के लिए मजबूर कर देती है। उसे आते देख सिगरेट जला लेना, किताब निकाल लेना और किसी निर्मल वर्मा की तरह सोचने लगना। और नहीं मिलने पर....शराब पीना। अक्सर हम सब के आस पास ऐसे लड़के होते ही हैं जो सामने वाली लड़की के शादी के दिन शराब पीते हैं। कि वो तो अब पराई हो गई। उसके घर जाकर कहने की हिम्मत नहीं होती लेकिन शराब पीकर शादी के दिन तमाम कल्पनाओं का रचनापाठ कर सेंटिमेंटल हो जाते हैं। अनुराग ने ऐसे तमाम कार्बनकौपी देवदासों को ठिकाने पर ला दिया है।

इमोशनल हुए बिना तो हम नेशनल भी नहीं होते। सेंटिमेंटल कैसे हो जायेंगे। सेंटी और मेंटल अलग अलग प्रक्रिया है। सेंटी होने तक तो आप कुछ काबू में रहते लेकिन मेंटल होने के बाद गॉन केस हो जाते हैं। रेशनल लोग वो होते हैं जो जाकर कह देते हैं कि गोरी सुनो न..आई लभ यू....। फिर किसी पार्क में घूमते हुए, ठीक पांच बजे घर से निकलते हुए और दरियागंज के गोलचा सिनेमा में फिल्में देखते हुए नज़र आते हैं।


गाना ज़बरदस्त है। अनुराग ने फिल्माया भी खूबसूरती से है। पूरा देसी टच। पटना में एल्विस को ले आये हैं। माइकल जैक्सन से लेकर एल्विस ने पटना में पैदा न होकर जो गंवाया है उसे कोई नहीं समझ सकता। हमारे यहां ऐसी वेराइटी को टिनहईया हीरो कहते हैं। भारत देश के तमाम सेंटिमेंटल प्रेमियों को ट्रिब्यूट है यह गाना- इमोशनल अत्याचार।

हम इंडियन लोग और अमेरिकन ओबामा

वर्तमान को इतिहास की तरह देखने की आदत के समय में बराक ओबामा का शपथ। ऐतिहासिक। ओबामामय अमेरिका। लाखों लोग सिर्फ शपथ ग्रहण देखने आए। काले लोगों के चेहरे पर बहती आंसू की धारा। भीतर जमी अपमान की बर्फ पिघल रही थी। बर्फ को पिघलाने में अमेरिका के सभी लोगों का हाथ। खुशी गोरों के चेहरे पर थी। पश्चाताप की खुशी मगर गौरव के चादर में लिपटी हुई। वाह।

मेरे गांव में भी लोग ओबामा को जानते हैं। अंबेडकर को तो जानते ही थे। बीच में ईंट पर राम लिख कर सिमेंट और बालू के लिए चंदा मांग रहे आडवाणी भी आए। इन दिनों ईंट फेंक आडवाणी एक करोड़ स्टिकर चस्पां कर रहे हैं। स्कूटर और पार्किंग में खड़ी कारों पर चुपके से लगा दिया जा रहा है।

आडवाणी को पीएम बनाओ। भगोड़ा हो गए कल्याण सिंह। राम मंदिर मुद्दे की ऐसी तैसी। क्या गरम खून होता था उस वक्त। इस वक्त आडवाणी को कम्पोज़िट कल्चर की बात समझ आ रही है। सभी धर्मों के साथ रहना चाहते हैं आडवाणी। तुष्टीकरण के तलवार के नीचे और मंदिर को राष्ट्रीय स्वाभिमान का रंग देकर हिंदू राष्ट्र का वह दिवास्वपन कभी उमा तो कभी कल्याण के आते जाते खत्म हो चुका है।

कांग्रेस अपने युवराज को राजा बनाने की ट्रेनिंग दे रही है। बीजेपी को अब गलत नहीं लगता। इनके यहां भी नेताओं के बच्चे बड़े हो गए हैं। वो अब युवराज बन रहे हैं। पंजाब में अकाली दल भी कांग्रेस हो चुकी है। सुखबीर बादल उपमुख्यमंत्री हो चुके हैं। कश्मीर में अब्दुल्ला शेख हैं। पिछड़ी राजनीति के नेता अब समाज के उस हाशिये की राजनीति नहीं करते बल्कि दलबदल और दलालों की राजनीति कर रहे हैं। पिछड़ावाद बेमौत मर गया है। एक दलित राजनीति से उम्मीद थी वो चंदा वसूली करने में फंस गई है। सामाजिक बदलाव का अभियान सत्ता पर कब्ज़ा करने के प्रयास में बदल चुका है।

भारत के लोकतंत्र में भी गौरव के कई लम्हे हैं। अंबेडकर, कलाम, नारायणन, मनमोहन,मायावती,लालू,मुलायम। अब इनमें से कई गौरवमय नेता फटीचर हो चुके हैं। वो अब उस सपने की नुमाइंदगी नहीं करते जिसे देखकर समाज का दबा कुचला तबका इनके पीछे हो लिया था। ओबामा की तरह इनकी भी कभी धूम थी। मगर चारा से लेकर चंदा और धंधा की सियासत ने घालमेल कर दिया। पिछड़ावाद और दलित राजनीति प्रोग्रेसिव नहीं हो सकी।

मायावती ने यूपी में ब्राह्मणो को मिलाकर एक बड़ी राजनीतिक घटना को जन्म दिया। पहले कभी नहीं हुआ कि दलित की बेटी के सत्तारोहण में ब्राह्मण सहायक बने। यह एक बड़ा राजनीतिक प्रयोग था मगर विकास की राजनीति के साये में पल रहे दलालों की भेंट चढ़ गया। इस समीकरण में इतना दम था कि इसके सहारे मायावती आगे बढ़ सकती थीं। मगर सोच में वो मुलायम विरोधी राजनीति के आगे नहीं देख सकीं। कल को भारत इन्हें प्रधानमंत्री बना दे मगर ओबामा नहीं बन सकेंगी। बनने की ज़रूरत भी क्या है।

जो आज अमेरिका में हुआ है वो अपने यूपी में हो चुका है। खांटी सामंती और जातिवादी प्रदेश में एक दलित की बेटी चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी है। यूपी का साइज़ भी किसी देश से कम नहीं है। इधर भी मिलियन और बिलियन पिपुल लोग रहते हैं। एक दलित नेता कांशीराम ने सायकिल पर घूमकर बीएसपी को खड़ा कर दिया। खांटी लोकतांत्रिक तरीके से। लड़कर, भिड़कर और गिरकर। उसी का चरम था- दो साल पहले जो यूपी में हुआ। आज़ाद भारत की एक बड़ी राजनीतिक घटना। ब्राह्मण और दलित का संगम।

कांग्रेस में दलित सवर्ण के साथ रह चुके हैं। मगर पीछे पीछे। बीएसपी के दलितों का आत्मविश्वास था कि उन्होंने सवर्णो को कहा आइये हमसे हाथ मिलाइये। हम वहां ले चलेंगे आपको जहां हम पहुंचने का सपना देखते हैं। मगर भारत की लोकतांत्रिक स्थिति ने इस घटना को क्रांतिकारी नहीं बनने दिया। खुद नेता भी ज़िम्मेदार हैं। दलित नेता के नाम पर उन्हीं दलितों को आगे किया गया जो समाज का कुरुप(दलाल) चेहरा हैं। उन दलितों को मौका नहीं मिला जो भारत को एक नई सामाजिक सदी में ले जा सकते हैं। सिर्फ भावनाओं के सहारे किसी को भी नाव का खेवनहार बना दिया गया। यही वजह रही कि दलित राजनीति के क्रांतिकारी परिणामों के बाद आज एक भी क्रांतिकारी दलित नेता हमारे सामने नहीं है।


लालू मुलायम ने भी यही किया। खुद पिछड़ावाद के नेता बने। लेकिन कोई और न बन सके इसलिए पिछडी जाति के कुरुप( क्रिमिनल,दलाल)चेहरे को आगे किया। पढ़े लिखे यादव,कुर्मी,दलित आगे नहीं आ सके। वो एक नए भारत की नई राजनीतिक तस्वीर नहीं बन सके।

फिर भी भारतीय लोकतंत्र की कई महान उपलब्धियां हैं। हम भी गर्व कर सकते हैं। शायद इसलिए भी हमारी दिलचस्पी थी ओबामा के शपथ में। हम यह महसूस कर पा रहे थे जो आज अमेरिका महसूस कर रहा है। हमनें भी ऐसे लम्हे टुकड़ों टुकड़ों में भोगे हैं।

आउटलुक का सेक्स संस्करण

सेक्स पर सर्वे आया है। प्रिंट में है। आउटलुक पत्रिका में। तब तो यह माना ही जाए कि गंभीर अटेम्प्ट है। समाज में सेक्स को समझने के लिए। कौन सा तबका कितने बजे किन किन से, किस करवट सेक्स करता है। कुछ तस्वीरें भी हैं, सेक्स को समझाने के लिए। इन सेक्स पूर्व प्रतीकात्मक तस्वीरों से सेक्स हरकतों की झांकी मिलती है। और भी पत्रिकाएं और अखबार वाले सेक्स सर्वे कराते हैं। सेक्स सर्वे पत्रकारिता का पार्ट है। लेकिन क्या यह सिर्फ प्रिंट वालों का पार्ट है?

आउटलुक में गंभीरता के नाम पर क्या है। सर्वे और तस्वीरों के बाद एक डॉक्टर का इंटरव्यू है। जिन्हें पढ़कर सहज बुद्धि और सहज होती है कि समाज में लोग अब ओपन हो रहे हैं। सेक्स गोपन नहीं हैं। सब ओपन है। तो क्या इससे समाज को समझने का प्रयास पूरा हो जाता है?बीमार हैं तो जाएंगे कहां? डाक्टर के पास ही न?

यही सर्वे अगर हम टीवी पर कर दें तो क्या होगा? कोहराम मचा देंगे कि घर घर में पहुंच रहा है। सर्वे के नाम पर जो तस्वीरें हैं उनसे गंदगी फैल रही है। टीवी पत्रकारिता पतन में चली गई है। अगर टीवी पर कोई वॉयस ओवर यह सवाल पढ़ रहा होता कि सुबह के वक्त कितनी फीसदी स्त्रियां कितने फीसदी पुरुषों के ऊपर होती हैं। तो आलोचक लेखक लिखते कि चीख चीख कर बोल रहा था। जैसे लिखे हुए शब्द चीखते नहीं हैं।

मुझे आउटलुक के सर्वे में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। किसी ने कहा कि अंग्रेजी में ये चीजे छपती हैं तो वैसे भी आपत्तिजनक नहीं लगतीं। इसकी जांच कर रहा हूं। लिखने का मकसद इतना ही है कि यह समझा जाए कि क्या टीवी और प्रिंट के लिए आलोचना के मानदंड(मुझे यह पूरा लफंदर शब्द लगता है)अलग होते हैं?मानदंड पाखंड होते जा रहे हैं? इसका मतलब यह भी नहीं कि टीवी की बुराइयों को इग्नोर कर रहा हूं।

वैसे आउटलुक के सेक्स सर्वे में गंभीर भी कुछ नहीं था। यह समझने की कोशिश कम थी कि सेक्स के ज़रिये स्त्री-पुरुष संबंध में कोई बदलाव आ रहा है या नहीं। क्या कोई सामाजिक वर्जनाएं टूट कर स्त्रियों को आज़ादी दे रही हैं या वही पुरुषवादी नैतिकता हावी है। दिन के किस वक्त सेक्स,और कितनी बार सेक्स। सेक्स की बारंबारता में कमी एक मेडिकल समस्या है। अव्वल तो इसके कारण में आतंकवाद से जुड़ी चिंताएं भी जोड़ दी गई हैं।

हंसी आ रही है कि आतंकवाद से चिंतित होकर लोगों की सेक्स बारंबारता( फ्रिक्वेंसी) कम हो गई है। मंदी में लोग सेक्स कम करते हैं। अजीब अजीब किस्म के कारण हैं। आतंकवादियों ने हमारी सेक्स लाइफ को भी डिस्टर्ब कर दिया है। धत्त तेरी की।

बहरहाल मुझे जवाब नहीं मिला कि कोई न्यूज़ चैनल सेक्स सर्वे करे ( वैसे करते ही हैं) तो क्या उसकी आलोचना नहीं होती? होती तो किस प्रकार की होती?

आओ मिलकर मीडिया की आलोचना करें

१९८४ के दंगे के हालात में नया प्रस्तावित सेंसरशिप किस तरह लागू होगा। अभी तक आश्वासन मिला है कि नहीं लागू होगा मगर ये फाइल अभी बाबू की मेज़ पर है। संपदकों की एकजुटता और राजनेताओं की दिलचस्पी का नतीजा तो यह निकला कि खतरा टल गया है। मगर खत्म नहीं हुआ है। तीन हज़ार लोग मार दिए जाते रहेंगे। आप पत्रकार न्यूज़ रूम में चाय पीते रहेंगे और पांच बजने का इंतज़ार करेंगे। सवा पांच बजे तक डीसीपी ईस्ट आएगा और एक फुटेज देगा। छोटी सी बाइट देगा। आप शाम को खबर चला देंगे कि डीसीपी ईस्ट ने कहा है कि स्थिति सामान्य है।

इस प्रस्ताव का खतरा यह है कि उग्र कानून व्यवस्था की स्थिति में भी ज़िलाधिकारी मीडिया पर लगाम कस देगा। ज़िलों में पत्रकार पहले से ही नक्सली बनाकर जेल मे ठूंसे जाते रहे हैं अब डीएम की समझ के नेशनल इंटरेस्ट में अंदर जायेंगे। सवाल जेल जाने के डर का नहीं है। सवाल है कि ये डीएम और बाबू कौन होता है हमें नेशनल इंटरेस्ट समझाने वाला। नेशनल इंटरेस्ट क्या गवर्मेंटल इंटरेस्ट ही होता है??

इस तरह की पत्रकारिता से मीडिया को ज़िम्मेदार बनाने के ठेकेदारों की बुद्धि पद्म श्री के लायक है। भारत देश सर्वदा संकट काल से ग्रसित एक भूखंड है। यहां कोई राजू कोई टाइटलर कोई मेहता कोई गौतम दिन दहाड़े घपला कर जाते हैं। सत्यम का राजू हो या डीडीए घर घोटाले का एक आरोपी क्लर्क एम एल गौतम। इनमें से किसी के बारे में आप ज़्यादा बता दें तो लोगों को परेशानी होने लगती है। होनी चाहिए। क्योंकि हमारा समाज एक भ्रष्ट समाज है। मैंने पहले भी लिखा है। आप दहेज के खिलाफ एक शो बना कर देख लीजिए। टीवी देखने वाला ज़्यादातर दर्शक जब दहेज में मिले टीवी पर शो देखेगा तो उसे अचानक इंडियन आइडल की याद आएगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम दहेज के खिलाफ न दिखायें। ज़रूर दिखायें और बार बार दिखाते रहें। लेकिन भ्रष्ट समाज के बारे में जानना ज़रूरी है।

क्या हम अखबारों के लिए तय कर सकते हैं कि मुंबई धमाके की खबर सिंगल कालम छपेगी। उसमें डिटेल नहीं होंगे। क्या टीवी और अखबारों के डिटेल में कोई फर्क है। क्या हमला करने वाले आतंकवादी टीवी देखने आए थे? क्या सरकार ने कोई ठोस सबूत दिये हैं कि टीवी कवरेज की वजह से उनका आपरेशन कामयाब नहीं हुआ। ओबेराय होटल में भी हमला हुआ। लेकिन मीडिया को ढाई सौ मीटर से भी ज़्यादा की दूरी पर रोक दिया गया। पूरे कवरेज़ में ओबेरॉय की सिर्फ बिल्डिंग दिखाई देती रही। यहां ज़रूर कोई समझदार अफसर रहा होगा जिसने मीडिया को दूर कर दिया होगा। किसी को ध्यान भी है कि ओबेराय के कवरेज़ में इतना एक्शन क्यों नहीं था।

ताज में ऐसा क्यों नहीं हुआ। इसके लिए मीडिया दोषी है या वो अफसर जो इस तरह की कार्रवाई के विशेषज्ञ हैं। क्या हमने नौकरशाही पर उंगली उठायी। नहीं। जब भी ऐसे मौके पर सुरक्षावाले मीडिया को चेताते हैं मीडिया सतर्क हो जाता है। मामूली सिपाही ठेल कर कैमरे को पीछे कर देता है। ताज के पास क्यों नहीं हुआ। जैसे ही कहा गया कि लाइव कवरेज़ मत दिखाओ...ज़्यादातर मामलों में नहीं दिखाया गया।


एक ही फुटेज को बार बार दिखाने के पीछे की दलील देने वाले टीवी को नहीं जानते। हमारे लिए हर बुलेटिन एक एडिशन होता है। हम हर बुलेटिन उसके लिए नहीं बनाते जो दिन भर बैठकर टीवी ही देखता है। देखे तो अच्छा है। लेकिन फुटेज दोहराने की मंशा यही होती है कि अलग अलग समय में अलग अलग लोग देखने आएंगे तो उन्हें पता होना चाहिए कि क्या क्या हुआ।

मीडिया के कवरेज से एक फायदा यह हुआ आतंकवाद को मज़हबी बनाकर टेरर फाइटर नेताओं की फौज की दुकान नहीं चली। न तो आडवाणी निंदा करते दिखे न मोदी दहाड़ते। वैसे मोदी गए थे शहीदों को एक करोड़ रूपये देने। सिर्फ वर्दी वाले सिपाहियों को। बाकी डेढ़ सौ लोगों के लिए नहीं। भारत वर्ष के बाकी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को गद्दार कहा जाना चाहिए क्योंकि वो तो गए नहीं मुआवज़ा बांटने। इसी आचरण की पोल खोल दी मीडिया ने। लाखों लोगों का गुस्सा इस फटीचर किस्म की राजनीति पर भड़का। क्या गलत था।

क्या हमारी नौकरशाही इतनी योग्य हो गई है जिसके यहां मीडिया अपनी आज़ादी शाम पांच बजे तक के लिए गिरवी रख दे। संकट काल में। इनका क्या ट्रेक रिकार्ड रहा है। तब तो कल यूपी के डीजीपी जी औरैया का फुटेज ही नहीं दिखाने देते। एक इंजीनियर को चंदे के लिए मार दिया गया। आप घर बैठिये और शाम पांच बजे वीर बिक्रम फुटेज भिजवा देंगे।


सेंसर खतरनाक है। मीडिया की आलोचना सही है। भूत प्रेत और रावण का ससुराल भी सही है। लेकिन क्या मीडिया में सिर्फ इसी तरह के लोग बच गए हैं? टीआरपी की आलोचना तो टीवी के ही लोग कर रहे हैं। पेज थ्री और तांत्रिकों और सेक्स कैप्सुलों का विज्ञापन अखबार ही छापते हैं. वो क्यों नहीं मना कर देते कि जापानी तेल की सत्यता हम नहीं जानते। किसी ने इस्तमाल किया तो क्या होगा हम नहीं जानते। दवा है या नकली सामान। छापते तो हैं न।

मकसद यह नहीं कि उनकी गलती बताकर अपनी छुपा लें। टीवी की इस बुराई की आलोचना किसी दूसरे स्वर और लॉजिक के साथ हो। टीवी की आलोचना करने के लिए टीवी को समझिये। अखबार भी किसी खबर को फार्मेट करता है। बाक्स बनाता है। हेडर देता है। हेडलाइन कैची बनाता है। हम भी स्लो मो करते हैं। डिजाल्व करते हैं। म्यूज़िक डालते हैं।

फर्ज कीजिए कि सेंसर लग गया है। हमें मुंबई हमले का न्यूज़ दिखाना है.

सुबह आठ बजे का न्यूज़-

नमस्कार। मुंबई में आतंकवादी हमला हुआ है। हमले में कितने लोग मारे गए हैं शाम पांच बजे बतायेंगे। ताज होटल में कितने लोग बचे हुए हैं शाम पांच बजे बतायेंगे। अभी अभी खबर मिली है कि दक्षिण मुंबई के डीसीपी ने शादी ब्याह की शूटिंग कर रहे वीडियोग्राफरों को बुला लिया है। इसमें चुनाव आयोग के लिए फोटो आईकार्ड बनाने वाले वीडियोग्राफर भी शामिल हैं। यहीं लोग हमले की रिकार्डिंग कर रहे हैं। पांच बजे इनकी तस्वीर को हम दिखायेंगे। देश में सकंट काल है। प्लीज़ समझिये। हम अभी कुछ नहीं बता सकते लेकिन न्यूज़ देखिये। राष्ट्रहित में सरकार आतंकवादियो से मुकाबला कर रही है। इस पूरे प्रकरण में कोई भी अधिकारी या मंत्री दोषी नहीं है। हमें इनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। क्योंकि यह संकट काल है। संकट काल में भी तो हम देशभक्त हो सकते हैं। फिर बता दें कि मुंबई में हमला हुआ है। सब पांच बजे बतायेंगे जब डीसीपी बता देंगे। अगर आपको लगता है कि हमारे पास रिपोर्टर नहीं है तो गलत है। हम आपको थ्री वे बाक्स में दिखा रहे हैं कि हमारी तीनों रिपोर्टर आज आफिस आए हैं और चाय पी रहे हैं। शाम पांच बजे यही जाकर डीसीपी से खबर लेकर आयेंगे। धन्यवाद।

सुबह नौ बजे

नमस्कार। मुंबई में हमला हुआ है। मगर आगे कुछ नहीं बतायेंगे क्योंकि रिपीट हो जाएगा। बार बार एक ही न्यूज़ बताना ठीक नहीं होता। अगर बतायेंगे कि कोई अखबार में हमारी आलोचना कर आर्टिकिल लिख देगा और पांच सौ से हज़ार रुपये तक कमा लेगा। धन्यवाद।

भाई लोग। चौबीस घंटे के न्यूज़ चैनल का मतलब ही यही है कि खबर कभी भी। वो एक स्क्रीन पर पड़ा हुआ अखबार है। जैसे एक अखबार छपने के बाद से लेकर रद्दी में बेचे जाने और ठोंगा बनने तक अपने ऊपर छपी खबरों को ढोता रहता है वैसे ही हम है। अब रही बात रावण के ससुराल बीट के रिपोर्टर की तो वो आप उनके संपादक से पूछ लीजिए। तुलसीदास के रिश्तेदार लगते होंगे। डीसीपी ईस्ट तो खुद शाम पांच बजे से पहले किसी तांत्रिक को फोन करता रहता है। किसी उंगली में पुखराज तो किसी में मूंगा पहनता है। फटीचर सोसायटी के फटीचर लोगों। भाग त ईहां से रे। के कहिस है रे कि मीडिया समाजसेवा करता है। और कोई काम न है रे मीडिया को। सेंसर लगावेगा तो एक दिन कैबिनेट सेक्रेटरी बोलेगा कि बोलो कि यूपीए या एनडीए ने देश के विकास के लिए महान काम किये हैं। बोलेगा कि नहीं...जेल भेजे का तोरा। जी मालिक...बोल रहे हैं। शाम पांच बजे से पहीलहीं बोल दे कां....सोर्सेज़ लगा के...।

हद हो गई है। मीडिया की आलोचना से यही समाधान निकलना था तो अब आलोचकों की जांच करवायें। ये दिन भर भूत प्रेत देखते हैं। उन्हीं के बारे में लिखते हैं और पैसा कमाते हैं। जो अच्छा काम करता है उसके बारे में कब बोलते हैं। कब लिखते हैं।

आजा ज़री वाले नीले आसमाने के तले

सुनते सुनते थिरकने थिरकने लगता है तन। मन रहमान की भागती धुनों को पकड़ने लगता है। गुनगुने पानी को हवा में फेंकता उड़ाता यह संगीत। सर्दी के मौसम को गर्म कर देता है। आजा आजा...ज़िंद...शामियाने के तले। आजा...ज़री वाले नीले आसमाने के तले। जय हो। जय हो।

या खुदा। या रहमान। संगीत से भर दिया इस संगीतकार को। रत्ती रत्ती सच्ची मैंने जान गंवायी है...सच्ची सच्ची कोयलों पर रात बिताई है। ये गाना बुलाता है। उसी प्लेटफार्म पर जहां इसे शूट किया गया है। गोल्डन ग्लोब मिला है रहमान को। स्लमडॉग मिलेनेयर के संगीत के लिए।

रहमान कहते हैं कि फिल्म के संगीत में भारतीय संगीत का बोझ कम है। चख चख ले..चख ले..ये रात शहद है। हां..दिल है..दिल आखिरी हद है। जैसे ही यह बोल आता है...रात शहद हो जाती है। आसमान में ज़री का काम करने का फन तो वही रखते हैं जिनके हाथ बचपन से ही करघे पर फिसलते रहते हैं। मज़दूरों के ज़हन से निकला यह गाना...ग्रेटर कैलाश की पार्टी में बजेगा तो शाइनिंग इंडिया के बोझ से दबे दर्द को एक खिड़की मिल जाएगी। लोग बिना मतलब समझे इस गाने पर हयात के डिस्को में नाचेंगे।

रिंगा रिंगा तक पहुंचते स्लमडॉग का संगीत शराब हो जाता है। रिंग रिंग रिंगा। ग्रेटर कैलाश के राइम को झुग्गी में लाके पटक देता है। छुआ...छुआ...हई हई या...रिंग रिंग रिंगा। रिंगा रिंगा रिंग। खटिये पे मैं पड़ी थी और गहरी नींद बड़ी थी। आगे क्या कहूं मैं सखी रे...। चुनरी में घुस गया धीरे धीरे...। गाने के बोल बचपन की मस्ती को जवानी के अल्हड़पन के बर्तन में उड़ेल देते हैं।


स्लमडॉग के संगीत में रेलगाड़ी की ध्वनि है। रिंग। रिंग। रिंगा में भी भागती रेलगाड़ी का अहसास होता है। आर डी बर्मन ने कभी दो ग्लास को टकरा कर संगीत निकाल दिया था मगर रहमान ने अपने कैसियो पर लगता है पूरी की पूरी रेल दौड़ा दी है। तनबदन में चिंगारी। मक्कारी। हईया। हईया हो। ये शब्द। ये भाव। पहले के गाने में भी रहे हैं। खलनायक का गाना कहीं से सुनाई देने लगता है। चोली के पीछे क्या है। लेकिन सब असल है। असली है।

या खुदा। या रहमान। हिंदू होकर मुस्लिम हो गए। मुस्लिम हो कर सूफी हो गए। सूफी हो कर मस्त मौला। हे मौला। कहां से पाया इतना जादू। साजो को बांध कर डमरू से हांक देने का फन। गोल्डन ग्लोब मुबारक। रहमान। आज भी थिरकता है मन में कहीं चुपके से। दिल है छोटा सा...छोटी सी आशा।

पवन, पेट्रोल और कार्टून

गजनी की हिंसा और हम हिंसक लोग

हिंसा। हम सबकी इच्छा है। सिर्फ स्वीकार नहीं करते। अहिंसा एक अभियान है। हिंसा स्वभाव। गजनी की लोकप्रियता क्या यही कहती है? इतनी मारपीट। नाम से ही समझ जाना चाहिए था कि इस फिल्म का टारगेट ही विलेन है। मेरी नसे फटने लगी थीं। आंखें तरेर चुकी थीं। बाहर निकलने के लिए बेताब। धौंकनी बढ़ने लगी थी। लोहे की छड़। पतली गलियां। भीतर से खोद खोद कर हिंसा के तार निकालने लगी। आमिर के पीछे पीछे मेरी सांसे भी भागने लगीं। दो दो बार कॉफी पी। कुछ गरम भीतर जाए तो होश आए और लगे कि नायक के पीछे पीछे हिंसक होने की ज़रूरत नहीं।

बदला लेना हिंदी फिल्मों या किसी भी सिनेमाई कहानी की नियति है। बदला लेने के क्रम में ही नायक उभरता है। उसकी भुजाएं फड़कती हैं। चीखने का मौका मिलता है। पसीने टपकते हैं। हिंदुस्तान अखबार में संजय अभिज्ञान ने लिखा है कि शोले से आगे का प्लॉट नहीं है। हमारे हीरो सब भूल सकते हैं मगर विलेन का नाम नहीं। वही याद रह जाता है क्योंकि यही किसी भी फिल्म का मकसद होता है।

गजनी की कामयाबी क्या कहती है। मुझे इसमें दिलचस्पी नहीं। आमिर का देह किसी को सेक्सी लग सकता है। मुझे उसका देह स्लेट लग रहा था। लिखने मिटाने का खेल चला उसके पुष्ट शरीर पर। छाती का उभार और ऊबड़-खाबड़ पेट,मर्द होने की नई मानसिकता हैं। कसरती बदन और नंगा सर। विषुवत रेखा मानिंद कोई लाइन। अचानक कहीं से ताकत आ गई लगती है जो संभाले नहीं संभलती। आमिर दौड़ने लगता है। दौड़ते दौड़ते हांफता भी नहीं। लग रहा था कि शरीर नहीं किसी ट्रक की बॉडी सड़क पर दौड़ रही है। हीरो ऐसे मारता है जैसे वीडियो गेम चल रहा हो। अच्छा किया गेम भी बना दिया बेचने के लिए।

गांधी आदर्श हैं। भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस और लक्ष्मीबाई हीरो। क्यों? समझने का मन नहीं करता। एक फिल्म से किसी मुल्क की मानसिकता क्यों समझें। और भी तो फिल्में हैं जिनमें हिंसा नहीं। हम एक मुल्क के रूप में कभी नहीं लड़ पाए। अहिंसा संस्कार में हैं या अभियान में है? दावे के साथ नहीं कह सकता। बिना लड़े अंग्रेजो को भगा दिया तो उससे पहले हूणों,अबदालियों और मुगलों से न लड़ पाने की कुंठा में मस्जिदों को गिराने लगे।

घर बैठ कर एसएमएस के ज़रिये सरकार पर दबाव बना देते हैं कि पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध हो जाए। दावे के साथ कह सकता हूं। युद्ध होगा तो पूरा देश टीवी पर न्यूज़ देखेगा। हज़ार सैनिक मोर्चे पर होंगे। कोई लता मंगेशकर गा रही होगी। कोई मनोज कुमार फिल्म बना रहा होगा। हम सब पर्दे पर हिंसा देखना चाहते हैं। ट्रैफिक से लेकर पेशेवर प्रतिस्पर्धा में हम सब हिंसक हैं। हम बीमार लोग हैं।

गजनी की कामयाबी क्या यही कहना चाहती है? मेरी नसें फट रही हैं। एक फटीचर फिल्म देखने के अफसोस के साथ लिख रहा हूं। अखाड़ों में पलते हमारे पुरुषार्थ। पुरुषों की भुजायें। उनके चेहरे को फाड़ कर निकलती चीख। जो थोड़ा बहुत सुखद अहसास हुआ वो कल्पना की अदाओं से था और आमिर के भोलेपन से। लेकिन जैसे ही उसका भोलापन उसकी भुजाओं में उतरा,फिल्म असहनीय हो गई। फिल्म देखकर इतना सीरीयस नहीं होते। मैं क्यों हो रहा हूं। गजनी जाए भाड़ में। आमिर ख़ान अजय देवगन और सुनील शेट्टी की तरह बौराया हुआ लग रहा था।

अब तो ये मेरी मां का घर है

स्थायी पता वाले इस मकान का पता
पहले से थोड़ा बदल गया है
पहले बाबूजी का लगता था
अब मां का हो गया है

आते ही लगा कि मां कहां हैं
जिसका घर है वो कहां हैं
खड़ा रहा दरवाज़े पर,बेसब्र होकर
लगा कि लौट आया हूं मायके में
बेटी जैसा होकर


पहले कभी नहीं लगता था,पर
अब तो ये मां का ही घर है
मलकिनी कह देते थे बाबूजी
तब ऐसे हंस देती थी मां
मानो मालिक से मतलब है
मालिकाने से नहीं

अपनी मांओं के संग कुछ पल बिताने
सुख दुख का कुल जमा हिसाब चुकाने
बेटियां हर दम कितना मरती होंगी
मायके में अपनी मां को ऐसे देख कर
मां बन चुकीं बेटियां तड़पतीं होंगी
जब ही बिलखती हैं मायके से लौटते वक्त
रास्ते में रोती हैं मां को सोच सोच कर

रात ही भतीजी के साथ कर रही थी
तिरेपन साल के साथ का हिसाब मां
आधी सदी साथ रही थी बाबूजी के
लड़कपन में ही ससुराल आ गई थी मां
सदियां गुज़रती रही इस आधी सदी में
कभी नाम ही न ले सकी बाबूजी का,मां
जाने किस बहीखाते से निकालती रही
अपनी यादों का हिसाब किताब,मां

पचीस साल अलग रही थी बाबूजी से,मां
पचीस साल साथ साथ रही थी बाबूजी के,मां
पचीस लोगों का खाना बनाती थी गांव में,मां
पचीस लोगों के बर्तन धोती थी सुबह शाम,मां
फिर क्यों नहीं मिला खाने को दाल भात, मां
फिर क्यों खाती रही भात और मिर्च का आचार मां
ससुरालों की यही कहानी है,रिश्तेदारों की यही निशानी है
हम सब बेटियों के बाप,कभी न समझ पायेंगे
जब तक बेटा बनकर घर आते रहेंगे
अपनी मां को कभी न समझ पायेंगे

अब तो ये मां का ही घर है
लगा कि लौट आया हूं मायके में
बेटी जैसा होकर
लौट कर जाइये अपने उन तमाम घरों में
जहां एक बाप की मिल्कियत होती है और
रसोई में खाना बनाती रहती है मां की ममता
मिल्कियत के आप वारिस होते हैं
ममता मुफ्त में परोसी जाती रहती है
कभी थाली को खुद धोकर देखना दोस्तों
अपने घर में इक बार बेटी होकर देखना दोस्तों
घर जब मायका बन जाता है,घर का मतलब बदल जाता है।

अशोक चक्रधर- चक्रपाठ वाया ब्लॉग राग

अशोक चक्रधर जी के पांव में चक्कर लगे हैं। कविता से लेकर बबिता के पीछे पड़े हैं। अशोक चक्रधर जी अब ब्लॉगर बन चुके हैं। कविता कम अब ब्लॉग का पाठ ज़्यादा करने लगे हैं। आरंभ हो चुका है। समापन बाकी है। पहले पाठ में मुझे भी बुला लिया। नाम के आगे श्री बाकी था, सो लगा दिया। आलोक पुराणिक,बालेन्दु,और प्रत्यक्ष थीं प्रत्यक्षा। संगीता मनराल और अविनाश वाचस्पति। सबने अपनी अपनी ब्लागचनाओं का पाठ किया। तालियां बजीं और गुलस्दता भेंट किया गया।

अगर इसी तरह युवा ब्लॉगकारों को कोई प्रोत्साहित करने वाला मिल जाए तो एक आइडिया है। ज़िंदगी भर युवा ही रहा जाए। हमेशा प्रोत्साहित होते रहिए और मंच पर आसीन होकर ब्लॉगचनाओं का पाठ करते रहिए। अशोक जी के इस ग़ैर सरकारी प्रयास की सराहना करता हूं। सम्राट अशोक, अशोक वृक्ष, अशोक होटल की तरह अशोक चक्रधर जी को बहुत सम्मान से देखता हूं।

हम सबने पाठ किया। बकायदा माइक दिया गया। तालियां बजी फिर हम बजे। पाठ खत्म होते ही लोग उठे। चक्रधर जी ने कहा आते रहिएगा जैसी आज आपके लिए ताली बजी है, औरों के लिए भी बजाते रहिएगा।

सुंदर प्रयास। सक्रिय साहित्यकार। व्यंग्यकार। तमाम प्रकार के कारों की भीड़ में ब्लॉग पाठ का यह आइडिया हिंदी के इस मशहूर शख्स को ही आ सकता था।

मेरे लिए उनका बुलाना विशेष था। ९४-९५ की बात है। कास्टिट्यूशन क्लब सभागार गया था। अशोक जी की एक रचना रिकार्ड कर लाया था। सोचा था कि इतनी बड़ी हस्ती हैं। रिकार्ड कर लो क्या पता मौका ही न मिले। कब तक पेज नंबर बासठ पर बुकमार्क लगाते रहेंगे। रिकार्डेड रहेंगे तो अशोक जी को घर में बजाते रहेंगे। गा रहे थे अशोक जी- मनमोहना बड़े झूठे झूठे....। मनशास्त्र की व्यंग्यशास्त्र से आलोचना की जा रही थी। इस बार हैबिटेट सेंटर में उनके साथ मंचासीन होकर लगा कि रिकार्ड करने की ज़रूरत नहीं है। ये वो यादगार है जो स्मृतियों के सर्वर में हमेशा के लिए स्टोर हो चुका है।

अशोक जी एक और बड़ा काम कर रहे हैं। चाहते हैं कि हिंदी के कार-वर्ग(साहित्यकार,पत्रकार,कलमकार वगैरह)कंप्यूटर तकनीक में माहिर हो जाएं। साल दो साल कविता भले न लिखें लेकिन टाइपिंग में टाइपस्त हो जाएं। ये ठेका उठा कर जाने किस घड़ी में सरदर्द मोल ले लिया है, यही क्या कम है कि कुछ दर्द डाउनलोड कर लिया है। अशोक जी के इस प्रयास को साधुवाद। आभारी हैं और वजन से भारी भी हैं। इसलिए थैक्यूं कह कर हल्का हो लेते हैं। आपको बुलायें तो ज़रूर जाइयेगा। नाम के आगे श्री मिलेगा और मंच।

कंबल दान करें























यह तस्वीर दिल्ली के आईआईटी से सटे फ्लाईओवर के नीचे की है। दिल्ली के खंभों में ग़रीबों के दान के लिए सस्ते कंबलों के विज्ञापन खूब दिखते हैं। लगता है कि शहर में अभी भी हैं जो सर्दी में कामचलाऊ कंबल दान कर रहे हैं। यह भी पता चलता है कि दान के बहाने कामचलाऊ कंबलों का भी अपना एक कारोबार है। दान करम भी तो कारोबार ही है। लेकिन इस भागते शहर में कोई ठहर कर कंबल दान करता होगा, बोर्ड देख कर ही बड़ी राहत महसूस हुई।

मोलभाव न करें




















यह तस्वीर पटना के सोना मेडिकल की है। बेली रोड पर यह दुकान सालों से मौजूद है। दवा की दुकानदारी में भी मोलभाव होती है। ठीक ठीक अंदाज़ा नहीं था। इस बोर्ड को देख कर लगता है कि जो खरीद नहीं पाते होंगे वो कितनी कोशिश करते होंगे कि कुछ तो कम हो जाएं। मगर बोर्ड में एक चालाकी लगती है। इसमें किसी ग़रीब की तरफ इशारा नहीं लगता बल्कि किसी अमीर के बहाने किसी ग़रीब को खरीदारी का पाठ पढ़ाया जा रहा है।

बाबूजी का मकान और मकान में उनका फ्रेम

अपने मकान का हर फ्रेम जोड़ने के बाद
अपने बाद अपने ही मकान में
एक कोने में पड़े थे
एक फ्रेम में बंद हो कर
बाबूजी

सिर्फ एक तस्वीर बन जायेंगे
एक ही कमीज़ में नज़र आयेंगे
वही चश्मा अब दिखेगा बार बार
सिर्फ सीध में ही देखते मिलेंगे
देखा तो लगा नहीं कि यही हैं
बाबूजी

उनके गरियाने की आवाज़
खरीद कर लाया गया सामान
एक जोड़ा टूटा चप्पल
अब भी मां के सिरहाने
सेंटर टेबल के नीचे रखा है
पुराना साल और मफ़लर
इस जाड़े में निकला ही नहीं
सिर्फ गर्मी के कपड़े की तस्वीर
सर्दी में भी नहीं ठिठुरते दिखे
बाबूजी

सोफे पर बैठे होने का अहसास
दरवाज़े से निकल कर आते हुए
सब्ज़ियों का थैला रखते हुए
मछली का कांटा छुड़ाते हुए
रमेसर को चिल्लाकर पुकारते हुए
वो सारी हलचलें अब भी दिखाई देती हैं
फिर क्यों फ्रेम में दिखाई देते हैं
बाबूजी

( इस सर्दी में पटना जाना उस खालीपन में ही भटकते हुए बीत गया जहां मैं अपने बाबूजी की आवाज़ को ढूंढता रहा। लगता था कि कहीं से कोई आवाज़ बिल्कुल उनकी जैसी आवाज़ आ जाएगी। दफ़्तर की इतनी गहमागहमी में भी अकेला हो जाता हूं। लगता है कि बाबूजी आ जाते तो सारी अधूरी बातें कह देता। एक बार छू लेता। अब कुछ भी हासिल नहीं लगता। पहले लगता था। इसलिए लगता था कि बाबूजी को बताता था। अब न इनाम में दिलचस्पी है न पदनाम में। लगता है कि दिन भर ढूंढता ही रह जाऊं बाबूजी को। दोस्तों की बदलती निगाहें,सहयोगियों की खास निगाहें और प्रतियोगियों की बद-निगाहें अब सब फिज़ूल लगती हैं। कुछ भी पाने का अहसास खत्म हो गया है। जो मिला था उसी के गंवा देने के अफसोस में मरा जा रहा हूं। लगता है किसी से बात करूं। फिर लगता है किससे बात करूं। फिर खुद से बात करने लगता हूं। फिर रोने लगता हूं)

पवन के कार्टून-४

पवन के कार्टून- ३

पवन के कार्टून

पटना जो पेरिस न बन सका

पेरिस की तरह सजने चला था पटना। इतराने की भी हद हो गई थी। दो चार नेताओं ने वादा क्या किया शर्म से लाल हो रहा था पटना। बिना नकवी छाप लिप्स्टिक के । एस्नो पाउडर लगाये बिना पटना चमकने लगा था। एफिल टावर के इंतज़ार में पूरे शहर में मोबाइल टावर खड़े हो गए हैं। पटना स्टेशन से निकलते ही पोता अभिषेक आइडिया के बैनर तले बोलता है वेलकम टू पटना। राजधानी से उतरते ही निगाह पड़ी तो लगा कि अपने नीतीश बाबू श्याम बेनेगल की तरह पटना आने पर पोता अभिषेक से वेलकम करा रहे हैं। दो बैनर बाद बाप अमिताभ रीड एंड टेलर के विज्ञापन में सज धज कर खड़े हैं। उन्हीं के बगल में एयर टेल द्वारा प्रायोजित एक शाम बच्चन के नाम का बैनर है।

मिलन का ऐसा संयोग। सामने हनुमान मंदिर। नीचे रेक्सा वाला। ट्रैफिक पुलिस वाला डंडे से हांकता। चल बढ़ाव। जाम मत कर। आयातित मुद्रा से अमीर बने लोगों की गाड़ियाँ। हार्न का कानफोड़ू शोर। पटना जो पेरिस न बन सका।

पेरिस न बनने का दर्द सीने को और छलनी किये जा रहा था। बेली रोड पर जाम है। हार्डिंग रोड पर कभी न बन सकने वाला फ्लाई ओवर है। डाकबंगला दांत चियार कर तड़प रहा है। पूरे शहर में मोबाइल टावर एफिल टावर का भ्रम फैला रहे हैं। आइडिया,एयरटेल और बीएसएनएल और वोडा फोन के भयंकराकार बोर्ड। लगता था कि फोनियाना ही पटनियाना है। अगर आपके पास फोन नहीं है तो फोन वाले आपके पास हैं।

लोगों से पूछा। पटना जो पेरिस न बन सका। जवाब मिला। दिल्ली से आकर डिमांड मत कीजिए। एडजस्ट कीजिए। नीतीश कुमार जितना कर दिये ओतना किसी से नहीं हो सकता। फिल गुड को महसूस तो कीजिए। लोग खुश हैं। बिहार सरकार ने लोगों की ज़िंदगी नहीं बदली है लेकिन लोग खुश हैं तो सरकार का श्रेय बनता ही है। क्रेडिट पर जब बाज़ार है तो क्रेडिट पर सरकार क्यों नहीं?

पटना जो पेरिस न बन सका। मोहल्लों के भीतर नाली का पानी। मकानों के ऊपर काई की छाईं। बड़ी कार खरीदते लोग। सायकिल चलाती लड़कियां। सुधा डेयरी का पेड़ा और स्टेशन रोड का चंद्रकला। ट्रैफिक जाम से बिलखता एक शहर। अपनी तकलीफों के साथ एडजस्ट करता एक शहर। पटना जो पेरिस न बन सका।

चोर डाकू का डर नहीं है। चोर डाकू का घर है। पंजाब नेशनल बैंक के चेस्ट से सात करोड़ रुपये गायब होने की ख़बर है तो इलाहाबाद बैंक में एक मैनेजर ने आंधे घंटे बाद बताया कि फलां बाबू पांच दिन की छुट्टी पर हैं। अपहरण, चोरी और कमीशनखोरी सब मौजूद हैं मगर खबरों में नहीं हैं। सड़के बन रही हैं और ठेकेदार भी बन रहे हैं।

निराश होने की ज़रूरत नहीं है। बहुत कुछ बदल गया है पटना में। दो चार दुकानें बंद हो गईं हैं और चार पांच खुल गईं हैं। पांच से छह साल का टारगेट लिये फ्लाई ओवर बनते रहने का खुशनुमा अहसास करा रहे हैं। कभी एशिया का सबसे लंबा पुल गंगा ब्रिज अब दरक रहा है। पुल पर जाम रहता है। हरा चना खाकर इन तकलीफों से मुक्ति मिल जाती है। बोआरी, पोटेया और कवई मछली खाकर मियाज़ टनाटन हो जाता है। दोस्तों से मिलकर मन गदगद हो जाता है। किसको टेंशन है कि पटना जो पेरिस न बन सका।

बिहार के आर के लक्ष्मण का कार्टून












पवन कारीगर का कमाल पेश है। पब्लिक का डिमांड था सो आज ही पूरा किया जा रहा है। देखिये। बताइये। बस फोटो को क्लिक कीजिए। एकदम्मे बड़का हो जाएगा तो लऊकेगा साफ साफ। पवन की पत्नी रश्मि ने कुछ परिचय भेजा है। सोलह बरीस से इ हुनरमंद कमाल कर रहा है। प्रतिष्ठित हैं। सोलह साल से प्रभात खबर, दैनिक आज, नवभारत टाइम्स और दैनिक जागरण में पवन के कार्टून छप रहे हैं। कार्टून कोना ढब्बू जी नीयत। १९७७ में पवन जन्मे हैं। तब से आंधी की तरह कार्टून बना रहे हैं। लालू प्रसाद यादव पर पवन के कार्टून लोकप्रिय रहे हैं। इन दिनों नीतीश भाई को ठीक किये हुए हैं। हर दिन याद दिला देते हैं कि भाई भाषण से ना होई। राशन बांट। आप कार्टून देखिये। भाषा देखिये और अंदाज़ भी। फिर बताइये कि मैंने आर के लक्ष्मण से तुलना कर सही किया या नहीं।

बिहार के आर के लक्ष्मण

पटना गया था। जिससे मिलता वही हिंदुस्तान के कार्टूनिस्ट पवन की चर्चा करता। पवन ने ये लिख दिया है। पवन ने वो लिख दिया है। पवनवा के पढ़े के नहीं। जा। त का पढ़े। किसी अखबार के कार्टून को लेकर इतनी बात नहीं सुनी। बिहार की बोलियों के मिश्रण से तैयार पवन की भाषा बेजोड़ है। भाषा बनने के बाद दुनिया में पैदा हुए व्याकरणविदों को शायद ही पवन का लैंग्वेजवा पसंद आए मगर जब व्याकरण का दरवाजा टूटता है तभी भाषा जीवंत होती है।

पवन के कार्टून ने कमाल कर दिया है।पढ़ कर मज़ा भी आता था। लेकिन कभी ध्यान ही नहीं गया कि कौन रच रहा है। पवन का कार्टून तो बहुत दिनों से पढ़ रहा हूं। लेकिन इस फ्लेवर का जवाब नहीं है। आम आदमी का दर्द उसकी भाषा में। यूजीसी का फरमान आया कि अब पीएचडी करना मुश्किल होगा। तो इस पर पवन व्यंग्य करते हैं कि बिहारो में हो? मैं कहता हूं बिहार की जगह बिहारो ही लिखना चाहिए। क्योंकि बिहार के लोग बोलते ही ऐसे हैं। बिहरवा या बिहारो। बोलचाल की हिंदी के ठेकेदार भी पाछे के दरवाज़े से व्याकरण की ही दुकानदारी करते हैं। इसलिए बोलचाल की हिंदी कभी लिखी ही नहीं जाती।

गज़बे लिखते हैं पवन भैया हो। बेल्लाग। अइसन चोट करते हैं कि हिंदुस्तान का बकिया खबरे पढ़ने का मनो नहीं करता है जी। वरना आज सुबह दु आदमी को फोन किए। दुन्नो बोला कि पवन का कार्टून पढ़ कर हंस रहे हैं। हम पूछे कि का लिख दिहिस है रे। तो भाई जी पढ़ कर सुनाने लगे। कि पटना चिड़ियाघर में जानवर सब मिटिंग कर रहा है कि आज पिंजड़ा से २० मीटर दूरे रहिये सब। बानर टाइम आदमी आवेला है। ऐसा ही कुछ था। बानर टाइप आदमी। वाह। अख़बारों के स्टाइलशिट पत्रकारों ने भाषा को ज़िंदा मार दिया है। पवन की भाषा या बोली या कुछ भी( घंटे से) ज़िंदा ज़ुबान लगती है। बिहारो में एगो आर लक्ष्मण पैदा ले लिहिस है। जय हो पवन भैया। लिखते रहिये। आप पटनहिया इस्टार है भाई। अबकी आवेंगे तो मिलके जावेंगे। टाइम दे दिह हो ए पवन भैया।

पवन से मिल नहीं सका। इसका अफसोस रहेगा। आवेंगे अगली बार तो भारती प्रकाशन का हिंदी व्याकरण गंगा जी में फेंक देंगे। कर्ता ने कर्म को। ने को से हे पू। भाग साला। पवन भैया के कार्टून लाव त रे। पढ़े ला हऊ।