कलर्स का भारत एक खोज

कलर्स के नए शो ने रियालिटी शो की तमाम बोरियतों को ध्वस्त कर दिया है। जिसने नहीं देखा उसने क्या देखा। बहुत दिनों बाद टीवी सेट के सामने एक घंटे से ज़्यादा बैठा रह गया। नसें उत्साहित रक्त संचारों से आह्लादित थीं। दिमाग उस भारत को खोजने निकलता ही था कि नज़रें लौटा लाती थीं कि जा कहां रहे हो,देखो न ये देखो। इसको देखो। अऱे ये क्या है। कौन लोग हैं ये। प्रतिभा को टीवी का इंतज़ार था। देश की तमाम गलियों में,मोहल्लों में ऐसे हुनरमंद लोगों की फौज बिना किसी मोर्चे पर गए प्राकृतिक मौत का शिकार हो रही थी। तमाम आरोपों और दोहनों की कहानी के बीच आज जो देखा,लगा कि टेलीविज़न क्या क्या कर सकता है। इसकी संभावनों का इस्तमाल करने वाला ही टीवी का बादशाह बनेगा। वर्ना टीवी गोबर का पहाड़ ही बनेगा। किसी ने इस गोबर के पहाड़ को उठा कर उसके नीचे से खजाना निकाल दिया है।

कोलकाता के टैलेंट हंट में उड़ीसा से आए ब्रेक डांसरों की कृष्ण लीला भूल नहीं रही है। चांदी की परतों में लिपटे नौजवान किस संतुलन से अपनी हड्डियों को मरोड़ते हुए रथ बन जा रहे थे,कृष्ण ने सुदर्शन चक्र उठाने की भंगिमा बनाई तो डांसरों की टोली रथ में बदल गई। उनकी हड्डियां में घोड़े की झलक दिखने लगी। उनकी आंखें कुरुक्षेत्र में रौद्र रूप धारण कर विहंगम नज़ारा पेश कर रही थीं। ग़ज़ब का संतुलन। अनोखा प्रदर्शन। शेखर कपूर को कहना पड़ा कि दुनिया में ऐसा प्रदर्शन नहीं देखा। इस रियालिटी शो ने ग़ज़ब का काम किया है। नहीं मालूम इसकी कमाई से कौन राजा बनेगा लेकिन जो लोगों को इसने दिखाया है,देखने वाले को राजा बना दिया है।

न्यूज़ चैनलों पर कुछ महीनों पहले लोग अजब ग़ज़ब के नाम पर टीआरपी बटोर कर लोग तालिबान पर चले गए। नाक में कील ठोंकने और बालों से ट्रक खींचने से आगे नहीं जा सके। पहचान ही नहीं सके कि भारत अद्भुत प्रतिभाओं का धनी देश है। जितने द्रोण पैदा नहीं हुए उससे कहीं ज्‍्यादा इस देश में एकलव्य पैदा हुए हैं। एक मोटा सा थुलथुल लड़का। बोल रहा था कि उसके पास लुक है न फिगर है। लेकिन जब उसने पूरब और पश्चिम की धुनों पर बेहतरीन संतुलित नृत्य पेश किया तो सब अवाक रह गए। उसके थुलथुल शरीर से ऐसी थिरकनें पैदा होने लगीं जैसे किसी ने बिरजू महाराज और किशनजी महाराज को एक साथ अपनी आत्मा में उतार लिया है।

इस तरह के लाखों प्रतिभाशाली बच्चे हर दिन भारत के तमाम स्कूलों में प्रदर्शन करते रहते हैं। लेकिन उन तक कैमरा नहीं पहुंचता। एनुअल डे का रस्मी फंक्शन समझ कर कैमरे वाले इग्नोर कर देते हैं। विकलांग बच्चों की टोली ने व्हील चेयर को नचा नचा कर भांगड़ा का जो नज़ारा पेश किया उससे आज भांगड़ा समृद्ध हो गया। और हां..वो बेली डांसर। कहती है कि दिमाग सर में नहीं बेट के बल में होता है। वाह। उसके पेट ऐसे झटक मटक रहे थे कि बंबइया लटक मटक वालियां उसके सामने पानी भर रही थीं। सबके सामने नाच कर बता गईं कि ये कला है। कैबरे नहीं। आपने नहीं देखा तो आप जानिये। मेरे मां बाप तो मुझे ऐसे नाच के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

मैं सन्न रह गया। हिंदुस्तान को खोजना कितना बड़ा काम है। पत्रकार नहीं करेंगे तो बाज़ार तो करेगा ही। इस रियालिटी शो की खास बात ये है कि इसमें बंबइया लोकप्रिय गानों और नृत्यों की नकल नहीं है। सब ओरीजिनल है भाई। कुछ अजीबो गरीब से भी आए। मदारी बने। किसी ने मरकरी अपने शरीर पर फोड़ डाली। कालेजों में रफी चाचा के मेरी महुआ गीत पर न जाने कितने ऐसे मरकरी टूटते देखे हैं। तब लगता था कि ऐसे डांस किसी थर्ड ग्रेड शामियाने के नीचे बिछे मंच के लिए बने हैं। मगर आज इसी तरह की प्रतिभाओं को खोज कर कलर्स के इंडिया गॉट टैलेंट को अविश्वसनिय बना दिया है।

पता चलता है कि लोग अपने स्तर पर कितने प्रयोग कर रहे हैं। कितना जोड़ रहे हैं। हर तरफ कला का एक ऐसा संसार है जो न्यूज़ चैनलों और सीरीयलों की बोरियत को लात मारती है। पच्चीस जून को मुंबई में स्पाइन इंजरी के शिकार लोगों का पहली बार ऐसा ही एक शो हुआ। उनका प्रेस रीलीज़ तमाम जगहों पर घूमता ही रहा। कोई राष्ट्रीय चैनल नहीं गया होगा। किसी की दिलचस्पी नहीं बनी। किसी ने उसमें एक महान कहानी नहीं देखी। ऐसे ही किसी अनजान मंचों को अब हर रात आपके घरों तक पहुंचा देने के लिए यह शो आया है। हमें तो मालूम ही नहीं कि बिना किसी ख़बर के इन किस्सों का क्या करें। कलर्स ने कहा ख़बर छोड़ों जी,पहले प्रतिभाओं को सामने तो लाओ। ठीक है कोई और कमाता है लेकिन हुनर दिखाने वाला जानता है कि इतना भी कम नहीं। तभी तो उड़ीसा की टोली के मुखिया ने कहा कि आप महान लोगों को देखकर हमें भी अच्छा करने का जोश आ गया। क्या विनम्रता थी।

इसमें भी खराबियां होंगी। लेकिन आज नज़र नहीं आईं। आएंगी तो लिखूंगा। लेकिन आज हतप्रभ हूं तो वही लिखना चाहता हूं जो लग रहा है। वो नहीं लिखना चाहता जो सोचने पर लगेगा। शेखर कपूर कहते हैं कि आप सबने साबित कर दिया कि कला के लिए रिसोर्स यानी संसाधन और मौके की ज़रूरत नहीं होती। ज़रूरत होती है दिल की और साहस की। ब्रेक डांसरों का कृष्ण डांस भूल ही नहीं पा रहा हूं। अच्छा है। मेरे जैसा दर्शक जो पूरे हफ्ते दस मिनट भी टीवी नहीं देखता,आज एक घंटा बैठ गया। पता नहीं शो आधे घंटे का था या एक घंटे का। लगा कि घंटा गुज़रा है। वाह। मज़ा आ गया।

सौ दिन सरकार के

फिल्म आई थी एक। सौ दिन सास के। पता नहीं आई भी थी या नहीं। लेकिन लगता है कि मनमोहन का यह कमबैक सिर्फ सौ दिन के लिए हुआ है। गुणा भाग का तात्कालिक हिसाब यह निकला कि बंधु के पास कोई १८२५ दिन है। लेकिन भाई साहब तो १०० दिन में ही सब निपटा देना चाहते हैं। लगता है इस बार वे बाकी के १७२५ दिन ऐश करेंगे। सारे मंत्री १०० दिन के टारगेट पर सेट हो गए हैं। नीतियों का एलान थोक में हो रहा है। सारे पुराने रिपोर्ट प्रेस कांफ्रेस में पढ़े जा रहे हैं। आज कल जिसे देखो वही १०० दिन की ज़ुबान में बात कर रहा है।

घर में मां कहती है १०० दिन में आईआईटी की तैयारी पूरी कर। बेटा कहता है कि मां आईआईटी की पढ़ाई भी पांच साल की नहीं होनी चाहिए। सौ दिन की होनी चाहिए। पूरे मुल्क में १०० मीटर की दौड़ मची है। बीसीसीआई ने एलान किया है कि मनमोहन के १०० दिन के प्रेम को देखते हुए अब जल्दी ही १०० ओवरों के वन डे मैच हुआ करेंगे। पहले बीस ओवर में प्रैक्टिस होगा। दूसरे बीस ओवर में प्रेस कांफ्रेंस होगा। तीसरे बीस ओवर में प्लानिंग होगी। चौथे बीस ओवर में रन बनेंगे और पांचवें बीस ओवर में स्लॉग ओवर होगा जिसमें दना दन रन बनाने की छूट होगी।

बेचारा मुन्ना २०-२०। अभी जवान ही नहीं हुआ कि सौ ओवरों के मैच से मरा जा रहा है। सारे मंत्रियों में होड़ मची है। वो लीक करा रहा है तो लीक बना रहा है। सब कुछ करते हुए दिखना चाहते हैं। सही कर रहे हैं मनमोहन सिंह। जब युवा हो तो दौड़ो सौ मीटर की रेस। काश कोई उठ के मनमोहन सिंह से पूछ देता- अंकल ग़रीबी कब दूर होगी। आनसर मिलता- सौ दिन में। बिजली कब आएगी- सौ दिन में। पानी कब आएगा- सौ दिन में। यहां एक एक दिन भारी पड़ रहा है। ये जनाब है कि सौ दिन की रट लगाये हैं।

जल्दी ही सौ दिन में लिखी जाने वाली कोई कालजयी रचना स्टैंड पर आने वाली है। कवि भी आज कल सौ दिन में संग्रह छपवाने पर विचार कर रहे हैं। सारा देश सौ दिन के टारगेट पर है। ओबामा ने भी सौ दिन का टारगेट सेट किया था। कहां है किसी को पता नहीं। मुश्किल ये है कि इस चक्कर में इतने फैसले हो जाएंगे कि लागू ही नहीं हो पायेगा।

दोस्तों। कल करे तो आज कर आज करे सो सौ दिन में कर। सौ दिन बाद सरकार क्या करेगी भाई। ये मनमोहन सरकार का अनाउंसमेंट काल है। घोषणा काल। जिसमें सिर्फ घोषणाएं होंगी। जो घोषणाएं चुनाव के समय होती थी वो अब चुनाव के बाद हो रही है। अच्छा है। टेंशन नहीं। इससे मंत्रियों की प्रैक्टिस हो रही है। वो सौ दिन की हड़बड़ी में मंत्रालय को तेजी से समझ रहे होंगे। रिपोर्ट पढ़ रहे होंगे।

प्यारे मनमोहन जी। वाह। आपने मंत्रियों को दौड़ा लिया है। उनको पता चल गया होगा कि किस भाई के चक्कर में पड़े हैं। अब एक बात और। काम भी नज़र आ जाए तो ठीक। वर्ना आपके पास पूरे पांच साल कम से कम सौ दिन के अभी सत्रह सेट पड़े हैं। है न। सिल्वेनिया लक्ष्मण का विज्ञापन हो गया है। सौ दिन में पूरे देश क बदल डालूंगा।

मैं टाइम से तड़पता हूं

तुम घटाओं सी गरज़ती हो
मैं धरती सा तरसता हूं
तुम देर से आती हो
मैं टाइम से तड़पता हूं
ऐ बरखा,बरस न आजकल में
झुलसता हूं मैं धान के पौधों में
तुम कब आओगी आसमान में
मैं सड़ रहा हूं एफसीआई के गोदाम में
मनमोहन से क्या मिलेगा मुझको
आश्वासन नहीं बरसते आसमान से

(फेसबुक पर स्टेटस कवित्त)

जमाई बाबू के लिए डिस्काउंट




















पश्चिम बंगाल में जून के महीने के एक दिन जमाई यानी दामाद लोगों का बड़ा आदर होता है। पूजा होती है। उस दिन सब मिठाई खरीदते हैं और कपड़े भी। दामाद जी को भेंट देने के लिए। कोलकाता टेलिग्राफ में इस विज्ञापन पर नज़र पड़ी थी। शादियों का मौसम है। बहुत सारे दामाद बनेंगे। डिस्काउंट में बहुत सामान उनको मिलेगा। नहीं मालूम कोई विरोध कर पायेगा या नहीं। लेकिन ऐसा क्या किया है इस देश के दामादों ने कि उनके नाम पर पूजा हो। जामाई षष्ठी का इतिहास तो नहीं मालूम लेकिन सोचिए जिसने दहेज लेकर शादी की हो और वो देवता की तरह पूजा जाए यह तो हद है। बहुत लोग कहते हैं कि हमने मांगा नहीं। मुंह नहीं खोला। लेकिन जो मिला वो ले लिया। काजू की बर्फी वाला तो डिस्काउंट दे रहा है। शायद वही बेटी के बाप की जेब का दर्द समझता होगा। सोचा होगा चलो दामाद लोग तो पांच रुपया छोड़ेंगे नहीं, बेचारे के लिए हमीं साठ रुपये छोड़ देते हैं। बहुत बुरी हालत है। शादियों को जश्न बनाकर माल तसील कर कौन सा बड़ा तीर मार लेते हैं समझ में नहीं आता। पर किसी को शर्म क्यों आये। बारात में जो आते हैं उनमें से पनचानवे परसेंट की शादी दहेज से होती है। पांच परसेंट जो बच्चे होते हैं वो बड़े होने के साथ साथ लिस्ट बनाते रहते हैं। सड़ गया है समाज। सड़ गए हैं हम लोग। कुछ न करें। इतना तो कर ही दें कि जिसने दहेज लिया है, उसे किसी न किसी तरह शर्म का अहसास करा दें।

सावरकर टाइम्स



















एक इनोवा कार के पीछे यह विज्ञापन छपा था। जिस तरह स्कूटर की स्टेपनी को कंपनियों ने बिलबोर्ड की तरह इस्तमाल किया उसी तरह कार के पिछले शीशे का भी होता है। बीजेपी हिंदुत्व को लेकर कंफ्यूज़ है। मानने के लिए तैयार ही नहीं कि सेकुलर हुए बिना काम नहीं चलेगा। सावरकर टाइम्स कंफ्यूज़ नहीं लगता। पता नहीं कहां से छपती है। लेकिन एलान देखकर तो लगता है कि इसका बड़ा भौकाल होगा।

गेंद की तलाश में




















खेलगढ़ वाले राजकुमार ग्वालानी कहते हैं कि गली मोहल्लों के क्रिकेट से ही टी-२० का आइडिया लिया गया है। जहां कभी पचास ओवर के मैच होते ही नहीं थे। दस से लेकर पचीस ओवर के मैच हुआ करते थे। इस तस्वीर में गली के लड़के छक्का मारने के बाद कोलकाता दूरदर्शन के अहाते में सीढ़ी लगाकर उतरने की कोशिश कर रहे हैं। स्कोर में रन जुड़ जाए और गेंद गायब हो जाए तो इससे बड़ा घाटा कुछ नहीं हो सकता। इसिलए इस तस्वीर में खेल रोक दिया गया है और गेंद की तलाश में पक्ष-विपक्ष की टीम जी जान से जुटी है।

चीनी कम





















कोलकाता में गोल्फ ग्रीन के पास एक चौराहा है। लॉर्ड्स बेकरी चौराहा। पहले कभी यहां लॉर्ड्स बेकरी हुआ करती थी। जो अब नहीं है। केक पेस्ट्री की इस दुकान ने ग़ज़ब का फ्यूज़न किया है। लंदन की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म चीनी कम का नाम लिया और लॉर्ड्स बेकरी से लॉर्ड्स लिया। औऱ बन गया एक नया नाम...चीनी कम। मधुमेह के बढ़ते मरीज़ों के लिए वैसे ही अब अलग से बिस्कुट बनने लगे हैं। अलग जूस मिलती है। एक दिन डायबिटिज़ के मरीज़ों के लिए अलग से चाय की दुकान भी होगी। चीनी कम। वैसे अभी से चाय वाले चीनी डालने से पहले पूछने लगे हैं कि सुगर तो नहीं है न।

दुतल्ला पार्किंग




















अपार्टमेंट में जगह कम है। मेरे पड़ोस में एक अपार्टमेंट बन रहा है। इसमें इलेक्ट्रानिक पार्किंग की व्यवस्था है। स्विच दबाइये और एक गाड़ी ऊपर और फिर नीचे वाले तल में दूसरी गाड़ी। पहले पार्किंग रेलवे स्टेशन या सिनेमा हॉल में ही होती थी। वहां भी कार से ज़्यादा साइकिल की पार्किंग बड़ी होती थी। एक पर एक लदी साइकिलें। घर में जहां कार खड़ी होती थी उसे गराज कहते थे या फिर कुछ नहीं कहते थे। अब तो जहां भी कार खड़ी कीजिए उसे पार्किंग कहते हैं। अपार्टमेंट में भी गाड़ियों की ठेलमठेल है। इसी से निपटने के लिए अब इस तरह की पार्किंग आ रही है। फिर धीरे धीरे इतनी कारें हो जाएंगी कि पार्किंग का यह तल्ला बढ़ता चला जाएगा और आप अपनी बालकनी के बगल में कार खड़ी कर सकेंगे। लिफ्ट से उतरने की बजाय कार में बैठिये, बटन दबाइये और कार में बैठे बैठे नीचे पहुंच जाइये। बार बार उतरने बैठने का झंझट खत्म।

नाज़िया हसन के नाम एक ख़त

(आवाज़ एक शानदार ब्लॉग है। संगीत के साधकों का ऐसा जमावड़ा जहां गए तो लौट कर आना मुश्किल हो जाता है। हिन्दयुग्म की इस साइट पर हर रविवार कॉफी के साथ एक पुराना गीत भी होता है। इस बार नाज़िया हसन के गाने हैं। सुनकर नाज़िया से बातें करने लगा। बहुत देर तक उसकी आवाज़ को अपने कमरे में घूमने के लिए खुला छोड़ दिया। बातें करने लगा। नाज़िया हसन से जो बातें हुईं वो आपके सामने है।)


नाज़िया

३५ साल की उम्र में तुम तो चली गईं अल्लाह के घर। लेकिन हम तुम्हारी उम्र तक पहुंचने के सफर में न जाने कितनी बार तुम्हारी खूबसूरत आवाज़ के साये में थिरकते रहे। अस्सी के दशक में जब भी तुम्हारा गाना बजता था, पटना पेरिस हो जाता था। पाकिस्तान से आई तुम्हारी आवाज़ पछुआ पवन की तरह हाड़ कंपाती हुई,रूह को थिरकाने लगती थी। तब तक हमने पाकिस्तान की कोई तस्वीर नहीं देखी थी। सरकारी किताबों में विभाजन के वक्त की कत्लेआम की तस्वीरें और तुम्हारे और हमारे हुक्मरानों की तस्वीरें। इन सब के बीच तुम्हारा आना जाना। हम पाकिस्तान को नहीं जानते थे। तुमको जानते थे। अपने से बड़ों को सुनते हुए बेहोशी की हालत में देखते थे तो लगता था कि नाज़िया सबको पागल कर देगी। तमाम तरह की सियासी हवाओं से रास्ता बनाकर तुम्हारी वो पतली सी खनकती आवाज़। कैसेट के ऊपर माइक पकड़ी तुम। लगता था कि झपट लें और गाने लगें तुम्हारे साथ साथ।

नाज़िया तुम दुनिया में छा रही थी। पटना के नौजवानों को देखा है मैंने। बंद कमरों में, दोपहर के वक्त, जब मांएं सो रहीं होती थीं और बाप दफ्तर में खोए रहते थे,कई जवान लड़के लड़कियों को मैंने तुम्हारे गीतों पर झूमते देखा था। सरस्वती के विसर्जन में जयकारे के साथ रिक्शे पर बंधे लाउडस्पीकर से निकल कर तुम्हारी आवाज़ मोहल्लों के घरों में घुस जाती थी।


डिस्को दीवाने...आहा...। हमने बोनी एम को बाद में जाना था। तुम्ही हमारी बोनी एम थी। तुम और तुम्हारे भाई ने क्या जादू कर दिया था।

तुम किसी बच्ची की तरह आई थी। आओ न हम और तुम प्यार करें...आओ न। कुछ दिन की है ज़िंदगी...। वो सारे गाने हमारे कानों में बचे रहे। हम भी नौजवानी की उम्र में मोनो टेपरिकार्डरों के अहसानमंद होते रहे। सिर्फ इसलिए कि उन पर नाज़िया का कसैट बजता था। तुम गाती थी और हम मन ही मन थिरकते हुए लगते थे।

तुम पाकिस्तान की कभी लगी ही नहीं। एक ऐसे झोंके की तरह आती थी कि कभी किसी को लगा ही नहीं कि तुम किसी बंदिशों के मुल्क में घिरी हो। तालिबानियों को सुनाने का मन करता है तुम्हारा गाना। रस्सी से बांध कर। पक्का यकीन है तुम्हारी आवाज़ पर वे बंदूक फेंक कर नाचने लगेंगे।

नाज़िया तुमने अपनी खूबसूरत आवाज़ से एक दौर बनाया है। उस दौर में हम बड़े हुए। तुमने कभी लगने ही नहीं दिया कि हम माइकल जैक्सनवा और मैडोनवा को नहीं समझने परंतु उन पर झूमने वाली पीढ़ी में आउट ऑफ मार्केट हैं। हम तो यही कहते थे कि भाई हम तो नाज़िया के दीवाने रहे हैं। तुम्हारी आवाज़ पर भरोसा तो इससे भी ज़्यादा था लेकिन जो मज़ा आया वो एक कर्ज़ है। अल्लाह तुम्हें शांति दे।

रवीश कुमार

खाली मकान को भरता सामान

कितना बड़ा लगता था मेरा ये खाली मकान
छोटा होता चला गया, भरता गया सामान
डिस्काउंट से लेकर लोन के जुगाड़ों से खरीदा मैंने
तश्तरियों को शीशे की आलमारी में सजा कर
पीने पीलाने वाले कट ग्लासों का सेट बना कर
ऐसे ही सामानों से भरता चला गया मेरा मकान
पर्दों के बाद हमने चिक लगवा दिये, चिक के नीचे एसी
धूप से लड़ने की हेठी पाल ली, जिस दिन से खरीदा मकान
कुछ कुर्सियां फेंक कर, सोफे का कवर लगा दिया,सजा दिया
ड्राइंग रूम हमेशा किसी सिपाही की तरह 'यस सर' की मुद्रा में
तैयार दिखता है मेहमानवाज़ी के लिए, बीच की मेज़ पर रखे कंकर पत्थर
और सिगरेटदानी
लात रखने के काम आती है बीच की मेज़ जब नहीं होते मेहमान
डाइनिंग टेबल रेहड़ी पटरी के ठेले की तरह अटा पड़ा है
दवाई की शीशी, आम, नमकदानी और गुलदस्ते से
बाकी बची जगहें थाली रखने के काम आती हैं
धक्कामुक्की करते बर्तनों से छलक जाती है दाल
जब भी हाथ बढ़ाता हूं सब्ज़ी की तरफ
चटनी बेचारी नज़र आती है किसी कोने में दबी हुई
अचानक याद आता है, बारात के बुफे सिस्टम को हमने
अपने घर की डाइनिंग टेबल पर लागू कर दिया है
अकेला होता हूं फिर भी कतार में खड़ा लगता हूं
सामान से भरे पड़े अपने मकान में
अब खाली होना संभव नहीं है इस मकान को
हर खाली जगह, भरे जाने की गुज़ाइशों सी नज़र आती है
मकान को भरते जाना खुद को खाली करने जैसा लगता है
सामानों के बीच से निकलने की जद्दोज़हद में
टकराता हुआ भीतर ही भीतर बजता रहता हूं

टन टन भाजा पोटैटो चिप्स

इंटरवल होते ही यह आवाज़ कानों में गूंजने लगती थी। बीच की सीढ़ियों पर कंधे पर लकड़ी का एक विशालकाय ट्रे लादे वो चिल्लाने लगता था। गले को दबा कर और नाक को चबा कर आवाज़ निकलती थी। टन टन भाजा पोटैटो चिप्स। पटना के सिनेमाघरों में इंटरमिशन का जलपान कुछ इसी तरह आता था। टन टन भाजा पोटैटो चिप्स। दो अलग अलग चीज़ें,लेकिन कविता के किसी एक छंद की तरह खन खन खन। सिनेमाघरों में खाने पीने के सामान तो कब से बदल गए। महंगे हो गए सो अलग।

कागज़ की सफेद पुड़िया में दालमोट होता था। गरम गरम शायद। इसी को टन टन भाजा कहते थे। नमकीन चखना। चिप्स का अलग अस्तित्व होता था मगर ट्रे में एक तरफ उसका भी पैकेट रखा होता था। बेचने की कला ऐसी थी कि टन टन भाजा और पोटैटो चिप्स हीरो हीरोईन लगते थे। कागज़ की पुड़िया में मात्रा काफी कम होती थी और दाम भी। धीरे धीरे टन टन भाजा पोटैटो चिप्स गायब हो गया। अब सुनाई भी नहीं देता।

इसी तरह से चना ज़ोर गरम का भी ज़ोर खत्म हो गया है। सिनेमा हॉल के गेट पर चना ज़ोर गरम का अलग अस्तित्व था। मैं एक चना ज़ोर गरम वाले को जानता था। लोहारी। हर बात पर छंद बना देता था। दोपहर को चना कूटने के बाद जब वो घंटी बजाता हुआ,चिल्लाता हुआ गलियों से गुज़रता था, तो यकीन हो जाता था कि लोहारी जा रहा है। शाम होने को आ गई है। कहीं निकला जा सकता है। शायद लोहारी जैसा ही कोई किरदार मनोज कुमार को कहीं नज़र आया होगा,जिससे प्रभावित होकर क्रांति फिल्म में चना ज़ोर गरम का इस्तमाल गाने के साथ ही किया गया है। कई साल से किसी चना ज़ोर गरम वाले को गाते नहीं देखा। पीले या लाल रंग का टिन का बक्सा। तिकोने ठोंगे में मुट्ठी भर चना। लोग कहते हैं पटना मार्केट में आज भी चना ज़ोर गरम वाला मिल जाता है। कल ही दिल्ली के ग्रेटर कैलाश मार्केट में एक चना ज़ोर गरम वाले को रोक दिया। साइकिल से जा रहा था। बहुत छोटा बक्सा था उसका। लगा कि अब खाने वाले भी कम हो गए हैं।

खैर, सिनेमा हॉल के आस पास का खान पान बदला है। मूंगफली गायब है। चिनिया बादाम को भगा दिया जा चुका है। पॉपकॉर्न ने उपेक्षित मकई को प्रतिष्ठा दिलाई है। उबले हुए मकई के दाने। बीस रूपये का कप। हेल्दी फू़ड बनकर जेब को हल्का करता है। मॉल वाले पीवीआर टाइप के सिनेमा हॉल में सैंडविच से लेकर पेप्सी और टमाटर के स्वाद वाली तिकोनी चिप्स मिलती है। इन सबको आप ट्रे में सजा कर ला सकते हैं। इंटरवल के बाद तक खाते रह सकते हैं। कई हॉल में और भी तरह तरह के खाने के सामान मिलते हैं। कोल्ड कॉफी,हॉट कॉफी,बर्गर,डायट कोक आदि आदि। मेनू बदल गया है।

लेकिन टन टन भाजा पोटैटो चिप्स की बात ही अलग थी। वो खुद आकर दे जाता था। उसकी जेब में रेज़गारी खूब खनकती थी। चार आना और आठ आने के टकराने से भी संगीत निकलता था। लगता था कि कितना कमा रहा है। अब तो वेटर आता है। यूनिफार्म में। आर्डर ले कर जाता है और डिलिवर कर जाता है। नोट के अलावा रूपये के साथ दो और पांच रुपये के सिक्के चिपके होते हैं। खनकने की आवाज़ नहीं होती। खाने की आदत काफी बदली है। सिनेमा हॉल भी तो बदल गए।

ऐसा नहीं कि सब बदल गया। कुछ चीज़ों की निरंतरता आज भी बनी हुई है। लाल रंग की वजन बताने वाली मशीन। सिक्का डालने पर उसकी घूमती चक्री। वजन के प्रति जिज्ञासा की भूख इसी मशीन ने पैदा की होगी, जिसका फायदा आज के डायटिशियन और फिज़िशियन उठा रहे हैं। स्टेशन से लेकर सिनेमा हॉल तक मौजूद इस मशीन ने वजन के साथ भविष्य बता कर कमाल का असर डाला होगा। आज वजन से हमारा भविष्य वाकई जुड़ गया है। ये मशीन आज भी सिनेमा हॉल में दिख जाती है। नहीं दिखता है तो सिर्फ टन टन भाजा पोटैटो चिप्स।

गाय एक चौपाया जानवर है

इसमें कौन सी बड़ी बात है। गाय है ही चौपाया। हर दिन देखते थे। गांव से शहर आने के बाद भी गाय पालने की आदत बनी रही। पटना में आज भी घर में गाय है। बहुत लोगों के घर में गाय होती है। खासकर वैसे इलाकों में जो गांव और कस्बों के करीब होते हैं। तो घर में गाय होने के कारण गाय के बारे में बहुत कुछ जानता था। गाय को खाने के लिए कुट्टी लाते थे। इसे लेदी या मानक हिंदी में चारा भी कहते हैं। हम बक्कू यानी बोरे में चारा भर कर ठेले पर लाद कर लाते थे। गाय को नाद में लेदी के साथ पानी मिला कर खाने के लिए देते थे। फिर दुहने वाला आकर दूध दूह लेता था। यही काम निपुणता से नहीं कर पाते थे। लेकिन गाय को अठई(चमोकन) धर लेता था तो नीम के पत्ते से रगड़ते थे। रात में चट्टी(बोरे की चादर)ओढ़ा देते थे ताकि सर्दी न लगे। जहां गाय रहती थी उसे गैमेक्सिन पाउडर से धो देते थे ताकि अठई न लगे। हम सब्ज़ी के बचे हुए हिस्से को गाय के चारे में मिला देते थे। गाय जब बच्चा देती थी तो बांस के पत्ते खिलाते थे। मेरी ये जानकारी आज से बीस साल पुरानी है। तब शायद गाय के बारे में इससे भी ज़्यादा मालूम होगा।

लेकिन मैं गाय के बारे में अपनी जानकारी बघारने के लिए यह नहीं लिख रहा। न ही अपनी किसानी की पृष्ठभूमि जताने कि देखो इस तरह की ज़िंदगी अपनी भी रही है इसलिए महानता के थोड़े बहुत हकदार हम भी है। नहीं। मैं जताने के लिए नहीं बल्कि बताने के लिए लिख रहा हूं। अपनी स्कूली शिक्षा को समझने के लिए लिख रहा हूं। ऐसा ही अनुभव आपके साथ भी हुआ होगा।

होता यह था कि सातवीं के बाद से कई बार अंग्रेज़ी की कक्षा में गाय पर लेख लिखने के लिए कहा जाता था। अंग्रेज़ी के बारे में मैं गाय से भी कम जानता था। लेकिन अंग्रेज़ी में गाय के बारे में दो लाइन भी नहीं लिख पाता था। वो भी ओरीजनल जानकारी। मुझे मालूम नहीं था और शायद कभी ध्यान ही नहीं गया कि जिस गाय को रोज खिलाते हैं,उस पर लेख लिखने के लिए इतना रट्टा क्यों मारते हैं। अब यहीं पर हमारी शिक्षा प्रणाली की समस्या झांकती हुई लगती है। तब गाइड बुक समाधान लगते थे। आज भी लगते हैं।

जब भी गाय पर लेख लिखने को कहा जाता, मैं भारती भवन के गाइड बुक पर आश्रित हो जाया करता था। उसमें गाय पर भी एक लेख था। निबंधों के कई गाइड बुक छपे हैं और तमाम पीढ़ियों ने इसे पढ़े भी हैं। लेकिन ये कौन सी व्यवस्था थी कि मैं गाय पर जानते हुए भी उस पर लेख तब लिख पाता था जब गाइड बुक के लेख को रट्टा लगाता था। जब एकाध लाइन भूल जाते थे तो लेख अधूरा रह जाता था। कमज़ोर अंग्रेजी या अंग्रेज़ी के खौफ ने मूल ज्ञान को कितना छिन्न भिन्न किया होगा। कभी किसी टीचर ने सवाल नहीं किया कि सारे बच्चे गाय पर एक जैसा ही लेख क्यों लिखते हैं। उनके लेख भी मेरे ही जैसे होते थे जिन्हें अच्छी अंग्रेज़ी आती थी और जिनके घर में गाय नहीं थी या जो गाय पर मुझसे कम जानते थे। कभी कोई टीचर बोर नहीं हुआ।

इसीलिए हमारी कक्षाओं में मौलिक बातें नहीं हो पाती होंगी। मैं अंग्रेजी के डर से काउ पर एस्से रटता रहता था। गाइड बुक की गाय ही दिमाग पर छायी रही। काउ इज़ ए फोर फुटेड एनिमल। पहली पंक्ति। यह भी समझ में नहीं आया कि गाय पर हिंदी में लेख लिखने को क्यों नहीं कहा जाता था? हो सकता है कि कहा जाता हो लेकिन मुझे याद नहीं है। अस्सी के दशक की ये बातें कोई पाठक ही बता सकते हैं।

निबंध लेखन ने तमाम छात्रों की कल्पनाओं को कुंद किया है। निबंध लेखन को फाड़ फूड़ के फेंक देना चाहिए। मैं निबंध पर प्रतिबंध की बात नहीं करना चाहता लेकिन पढ़ाने के तरीके ने इसे एक फालतू विषय में बदल दिया है, जिसने सिर्फ गाइड बुकाचार्यों के धंधे चलवाये हैं। मुझे आज तक अफसोस है कि मैं जो जानता था,वो क्यों नहीं लिख पाया। ठीक है कि अंग्रेज़ी का हाल बुरा था लेकिन कोई टीचर यही कह कर हौसला बढ़ा देता कि ठीक है हिंदी में ही लिखो। जो जानते हो वही लिखो। अगर ऐसा होता तो गाय पर लिखे मेरे निबंध की पहली पंक्ति कभी न होती कि गाय एक चौपाया जानवर है।

कमला दास सुरैया की कविताओं में कुत्ता

१. प्यार

मैंने तुम्हें पाने तक
मैंनें कविताएं लिखीं, तस्वीरें बनाईं,
और, दोस्तों के साथ गई बाहर
सैर के लिए......
और अब मैं तुम्हें प्यार करती हूं
एक बूढ़े पालतू कुत्ते की मानिंद लिपटी
मेरी जीवन बसा है,
तुम में...

२. बारिश
हमलोगों ने उस पुराने घर को छोड़ दिया
जब मेरा कुत्ता वहां मर गया,
दफनाने के बाद, दो दो बार खिले गुलाब को,
जल्दी में जड़ों से उखाड़कर
अपनी किताबों,कपड़ों और कुर्सियों के साथ
लादने के बाद,
हम एक नए घर में रहते हैं अब,
और,इसकी छत नहीं रिसती, लेकिन
जब बारिश होती है यहां, मैं देखती हूं बारिश
भिगोती है
वह खाली घर, मैं सुनती हूं इसका बरसना
जहां अब मेरा पप्पी सोया है
अकेला...

( दैनिक हिंदुस्तान से साभार)

मेरे प्यारे फेसबुक के छह सौ दोस्तों

क्या किसी के ६०० दोस्त होते होंगे? फेसबुक में फ्रेंड्स की सूची में मेरे ६०० दोस्त हो गए हैं। कभी नहीं सोचा था कि एक दिन इतने सारे दोस्तों के बीच घिरा रहूंगा। दोस्ती और दोस्ताना जैसी फिल्मों को देखते हुए बड़ा हुआ तो लगा कि दोस्त ज़रूरी हैं। बालीवुड के गानों और नायकों ने दोस्ती के किरदार को इतना भावुक बना दिया कि सब कुछ न्योछावर कर देने वाले एक अदद दोस्त की तलाश ज़िंदगी भर रही। बड़ी मुश्किल से दुनिया में दोस्त मिलते हैं...दीये जलते हैं...दौलत और जवानी एक दिन खो जाती है....नमक हराम का यह गाना कई साल तक कानों में गूंजता रहा। दोस्त ढूंढता रहा। बहुत मिले भी और बहुत ग़ायब हो गए।

मैं क्या करूं। इतराना शुरू कर दूं या शर्माना शुरू कर दूं। आज कल पांव ज़मीं पर नहीं पड़ते मेरे,गाने लगूं या मेरे दोस्त किस्सा ये क्या हो गया, सुना है कि तू बेवफा हो गया टाइप के गाने गाते हुए दिल जलाता ही रहूं। कुछ कमियां तो ज़रूर रही होंगी कि मैं किसी का अच्छा दोस्त न हो सका। बहुत कोशिश की लेकिन बहुत कम मिले। वैसा जैसा फिल्मों और गानों ने ज़हन में दोस्त की एक छवि उतार दी थी। जिसके लिए सब छोड़ देना और किसी भी हालत में राज़दार बने रहना,ये सब गुणों का होना ज़रूरी था। अब दोस्त ऐसे मिलते हैं जिन्हें राज़ बता कर कहना पड़ता है कि किसी से मत कह देना। फिर भी डर लगता है कि मेरा राज़ सुरक्षित है या नहीं। मुकद्दर का सिकंदर की दोस्ती हो या संगम का वो दोस्त जो अपने दोस्त पर शक कर बैठता है और गाने लगता है दोस्त दोस्त न रहा,प्यार प्यार न रहा। अमानतें वो प्यार की,गया था जिस पर छोड़ कर,वो मेरे दोस्त तुम ही तो थे,तुम ही थे। बाद का म्यूज़िक कानों में देर तक गूंजता रहता है।


प्रेमिका के बाद या उससे पहले दोस्ती ही वो रिश्ता है जो खानदानी नहीं होता। ये वो रिश्ता है जिसे ढूंढना पड़ता है,हासिल करना पड़ता है। मिल जाता है तो संभाल कर रखना पड़ता है। इस रिश्ते में कुछ तो था कि सैंकड़ों गीतकारों ने हज़ारों नग़्में लिखें। मैं नहीं जानता कि जिस दोस्त को ढूंढता हूं वो मेरी अपनी कल्पनाओं का है या उन छवियों की मिट्टी से बना है जिसे फिल्मों,साहित्य और कविताओं ने मेरे मन में गढ़ दी।

दोस्तों को अग्निपरीक्षा देती रहनी पड़ती है। साबित करते रहना पड़ता है। फेसबुक के ६०० दोस्तों की उम्मीदों पर खरा उतर पाऊंगा या नहीं, कहना मुश्किल है। मोहल्ले में चंद दोस्त होते थे,जिनके बीच भी कभी कभी लड़ाई हो जाया करती थी। कालेज के दिनों में दोस्त हुए तो मंदिर मस्जिद और मंडल कमंडल के झगड़ों के कारण बहुत सारी दोस्ती इधर से उधर हो गई। दफ्तर में लगता था कि कोई दोस्त हो ही नहीं सकता। सब एक दूसरे के प्रतियोगी भी हो और दोस्त भी हो,मुमकिन नहीं। ठीक उसी तरह से कि हम विरोधी हैं मगर दुश्मन नहीं है टाइप वाली सेंटी लाइनें। फिर भी यहां कुछ दोस्त तो मिले हीं जो हमेशा खास लगते हैं। लेकिन एक डर के साथ कि कहीं कोई मुझसे मेरे दोस्तों को न छिन ले। इस पेशे में कुछ दोस्त और बने। मगर फिर भी कुल संख्या दस से ऊपर नहीं गई।

फेसबुक तो सेंसेक्स की तरह उछाल मार गया। छह सौ दोस्त। कई लोगों के दोस्त बनने के रिक्वेस्ट पड़े रहते हैं। दोस्ती के लिए आवेदन करना। मुझसे कोई क्यों दोस्ती करने के लिए आवेदन करना चाहता है? वो भी जिससे मेरी कोई मुलाकात नहीं। जिसकी गर्माहट को मैंने करीब से नहीं देखा। जिसकी धड़कनों को मैंने महसूस नहीं किया। खुद को समझता रहा कि दोस्त होने के लिए जो चीज़ होनी चाहिए, वो मुझमें नहीं हैं। आखिर ये कैसे होता रहा कि जिन लोगों ने मुझे अच्छा समझा, वो अन्य कारणों से शक करने लगे और मैं खुद को यकीन दिलाता रहा कि नहीं मैं सही हूं। कुछ ग़लत नहीं किया। वो भरोसा क्यों नहीं करता। फिर हिंदी फिल्मों ने जो दर्शन गढ़े हैं,वो बैकग्राउंड में चलने लगते हैं। कभी यह नहीं सोचा कि जो लोग मुझसे दूर गए उनमें भी कुछ कमियां होंगी। यह कमी भी बालीवुड की देन हैं। दो तरह के दोस्त बनाए। एक जो दोस्तों से अलग होकर बदला लेने लगता है और दूसरा जो दोस्तों से बिछड़ कर खुद को कसूरवार मानने लगता है। मैंने दूसरा वाला किरदार अपने लिए चुन लिया।

फेसबुक ने मेरा खालीपन भर दिया है या और खाली कर दिया है कहना मुश्किल है। सैंकडों की संख्या में मेरे दोस्त हो जायेंगे, कभी नहीं सोचा था।ऐसा क्या कर दिया है मैंने। दोस्ती हमेशा शक की नदी पार करती हुई डूबने की आशंकाओं से बना रिश्ता है। डूबने से बचने की संभावना में मज़बूती से कोई हाथ पकड़े रहता है तो कोई डूबने की आशंका में झटक देता है। कुछ लोग पार हो जाते हैं, कुछ लोग साथ डूब जाते हैं।

फेसबुक के छह सौ दोस्तों। आप सबका शुक्रिया। हर दिन स्टेटस में दिल की बात कह कर हल्का हो जाता हूं। कई बार लगता है कि स्टेटस में लिखना दरवाज़ा खटखटाने जैसा है, कि कोई है। कोई सुन भी रहा है। जवाब आता है तो लगता है कि किसी ने मेरे लिए अपना दरवाज़ा खोल दिया। छह सौ दोस्त बनने के बाद सुने जाने की बेकरारी और बढ़ गई है। एक ऐसी दोस्ती के लिए जिसमें मिलने के बाद के लिए कुछ बचा नहीं होता। मिलने से पहले ही हाल ए दिल बयां कर चुके होते हैं। हर दिन का हाल। पसंद और हाल चाल। ये दोस्त मिल भी गए तो क्या बात करेंगे पता नहीं। बिना मिले खुद को खोल कर सबके सामने रख देना, आसान नहीं होता।

यह रिश्ता बिल्कुल नया है। फेसबुक में वादा नहीं करना पड़ता है। राज़दार बने रहने की कसमें नहीं खानी पड़ती हैं। दोस्ती टूट भी जाए तो रिमूव करने का ऑप्शन बना रहता है। इसका तनाव नहीं रहता कि दोस्ती टूटने के बाद किसी दोस्त की पार्टी में मिल जायेंगे तो सामना कैसे करेंगे। फेसबुक बिना हाड़मांस की रिश्तेदारी है। चली भी जाए तो सीने में दर्द नहीं होता होगा। वैसे अभी फेसबुक में बने दोस्तों से बिछड़ने के दर्द का अनुभव नहीं हुआ है। इसलिए पक्के तौर पर नहीं कह सकता। छह सौ दोस्त। इतनी संख्या काफी है खुशियां मनाने के लिए। कम से कम पता तो चलता है कि आज कोई कनाडा में बैठा उदास है। आज कोई पटना से लौटा है। आज किसी ने साहिर लुधियानवी को सुना है तो आज किसी ने कांग्रेस पर गुस्सा निकाला है। रिश्ते ऐसे ही बनते रहते हैं और चलते रहते हैं। हर रिश्ते में यही तो होता है। फेसबुक में वही तो हो रहा है। कम से कम इतना तो लगता ही है मैं अकेला नहीं हूं।

शौचालय में अख़बार का फ्रेम





















शौचालय में अख़बार लेकर जाना पुरानी परंपरा है। इसकी शुरूआत किसी अंग्रेज़ अफसर ने की या किसी भारतीय ने,मेरी जानकारी में नहीं है। कमोड सिस्टम के आने के बाद ही शौचालय में अख़बारों को जगह मिली होगी। इंडियन सिस्टम में अखबार पढ़ना थोड़ा कष्टदायक ही होगा। शौचालय में अख़बार पढ़ने का सदुपयोग दीर्घशंका के वक्त ही किया जाता रहा होगा। मेरी इन तस्वीरों में पहली बार लघुशंका के अल्प समय का इस्तमाल अखबार पठन के लिए किया जाने लगा है। दिल्ली हवाई अड्डे के शौचालयों में अखबारों के पन्ने फ्रेम कर ऊपर टांग दिये गए हैं। हिंदी अंग्रेज़ी दोनों के अखबार हैं। कायदे से इनके पन्ने को फ्रेम में कस दिया गया है। इस फ्रेम में हर दिन अखबार बदल जाता है। जब मैंने तस्वीर ली तो उस पर सात जून की तारीख मौजूद थी। इस तारीख के कारण ही मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं। हफ्ता भर पहले जब मैं दिल्ली हवाई अड्डे पर था तो लगा कि अखबारों के ये फ्रेम सजावट के लिए हैं। कई होटलों में इस तरह का फैशन है। लेकिन उस दिन भी ताज़ा अखबार टांगा गया था। आज देखते ही समझ गया कि यह एक नया प्रयोग है। कम से कम मेरी जानकारी में। चाय की दुकानों में खड़े खड़े पेपर पढ़ते ही थे अब शौचालयों में भी समय का सदुपयोग किया जा सकेगा। अब आपको न्यूज़ के लिए बेचैन होने की ज़रूरत नहीं। न्यूज़ आपतक पहुंचने के लिए बेचैन है। मोबाइल से लेकर शौचालय तक में। आप ख़बर से बच नहीं सकते। पढ़ना ही पड़ेगा। लोटा लेकर खेत खलिहानों की तरफ जाने के ज़माने में दुनिया भर के आख्यान चलते थे। प्राइवेट बाथरूम के ज़माने में बंद हो गए। बाद में पब्लिक टॉयलेट का ज़माना आया तो आरंभ में इतने साफ सुथरे नहीं होते थे। अब तो ये घर से भी बेसी साफ होते हैं। बात करना तो अभी भी मुश्किल है। लोग कान में ईयरफोन लगाए मोबाइल पर बतियाते हुए शौचनिवृत्त होते रहते हैं। कम से कम ख़बर पढ़ लेंगे तो जानकारी तो मिल जाएगी। हवाई अड्डों पर मुफ्त में बंटने वाले अख़बारों का यह एक अच्छा इस्तमाल लगता है। पूरा पेपर पढ़ने का टाइम तो नहीं मिलेगा लेकिन वो दिन दूर नहीं जब ऐसी जगहों के लिए पचास सौ सुर्खियों वाले अखबारों के पन्ने छपने लगेंगे और फ्रेम में कस कर टांग दिये जाएंगे।

ओ से ओबामा और उ से उम्मीद

ओबामा ने अच्छा भाषण दिया। आजकल नेता लोग सच्चा भाषण देने पर ज़ोर दे रहे हैं। सब सच बोलना चाहते हैं। कुरआन शरीफ की तमाम खूबियों को गिनाते रहे और काइरो यूनिवर्सिटी के रिसेप्शन हॉल में तालियां बजती रहीं। तालियों का साउंड इफेक्ट शानदार था। ओबामा बोले जा रहे थे। इस्लाम से हमारा कोई युद्ध नहीं है। इस्लाम और अमेरिका सहचर हैं। इस्लाम ने अमेरिका की समृद्धि में योगदान दिया है। बात तो ठीक ही कह रहे थे। अफगानिस्तान, इराक और ईरान के चक्कर में अमेरिका के गरीब होने के कोई पुख्ता प्रमाण अभी तक तो नहीं मिले हैं। भाषणों की दुनिया में यह एक शानदार भाषण के रूप में याद किया जाएगा और तालियों की गड़गड़ाहट के लिए भी।

मुस्लिम देशों और जमात के साथ ओबामा नई शुरूआत करना चाहते हैं। कुरआन के हवाले से कह रहे थे कि कुरआन हमें भरोसा करना सीखाता है। वाह जिस पर शक करते रहे उसी का भरोसे पर इतना शानदार भाषण। किसी मौलाना की तरह ओबामा इस्लाम की खूबियां गिनाने लगें। यह एक बड़ा कदम तो है ही। ईसाई राष्ट्रपति लेकिन मुस्लिम नाम वाला यह शख्स बताने से नहीं चुका कि उसका नाम किस मज़हब की देन है। मेरे पिता मुसलमान थे। किसी निर्दोष की हत्या करना मानवता की हत्या है।

यह बात अमेरिकाधिपति ओबामा कहें तो मान लेना चाहिए कि उनका दम घुट रहा है। वो अब पेंटागन की पेंच में उलझने की बजाय कुछ नया बोलना चाहते हैं। नया करेंगे भी। २०१२ तक इराक से सेना हटा लेंगे। अभी क्यों नहीं हटा रहे हैं यह नहीं बताया। फिर यह क्यों कहा कि हम लाठी के दम पर लोकतंत्र नहीं थोप सकते,ये और बात है कि हम लोकतंत्र में भरोसा करते हैं।

लेकिन मानव सभ्यता में इस्लाम की देन को स्वीकार कर ओबामा ने इस विषय पर शोध कर ज़िंदगी गुज़ार देने वाले तमाम प्रोफेसरों का जीवन धन्य कर दिया। शुक्रिया। सभी धर्म एक हैं, के बाद इस्लाम की खूबियां विशेष हैं,ओबामा जी के मुखमंडल से सुन कर मन धन्य हो गया। मैं यह लेख किसी अमेरिका विरोध की मानसिकता से किसी यूपीए से अलग होने की गलती करने के इरादे से नहीं लिख रहा हूं। अमेरिका दुनिया का बॉस नहीं बल्कि प्रोफेसर भी है। लेक्चर भी दे सकता है। हम सब क्लास रूम में बैठकर सर के लेक्चर पर ताली बजाने के लिए मजबूर हैं। कई बार लेक्चर वाकई इतना बढ़िया होता है कि ताली बज जाती है।

ईरान की लोकतांत्रिक सरकार गिरा कर अमरीका ने गलती की। प्रायश्चित क्या है,नहीं बताया। ईरान को कह दिया कि अतीत में ही अटकें रहेंगे या भविष्य का कोई रास्ता बनायेंगे। एटमी प्रसार बर्दाश्त नहीं कर सकता। उत्तर कोरिया,पाकिस्तान और भारत को बर्दाश्त कर लिया सो कर लिया। बस अब लास्ट। प्यारे ईरान तुम नहीं। ईरान से यह भी कह देते कि अगर परमाणु परीक्षण करोगे तो हम प्रतिबंध लगायेंगे और फिर तुमको हमसे न्यूक्लियर डील करनी पड़ेगी। मनमोहन सिंह से पूछ लो कितना टेंशन है ये सब करने में। लेकिन एक बार टेंशन ले लोगे तो लाइफ टाइम के लिए विरोध करने वाले करात जैसे लोग टेंशन में रहेंगे।

अमेरिकाधिपति ने कहा कि कुरआन कहता है कि सच बोलो। बाइबल,गीता सभी धर्म ग्रंथों का सार यही हैं। फिलिस्तिन का दुख देखा नहीं जाता। इज़राइल हमारा पुराना दोस्त है मगर मनमानी नहीं करने देंगे। दोनों की अपनी जायज़ मांगे हैं लेकिन हिंसा से क्या मिला। एक दूसरे के अस्तित्व को सम्मान करना पड़ेगा। बस इतनी सी तो बात थी अभी तक फिलिस्तिन और इज़राइल को यही समझ नहीं आ रही थी। ओबामा के इस भाषण को हमें दोनों मुल्कों में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि सब पढ़ लिख कर समझ जाएं कि इस प्रोब्लेम का कोई भविष्य नहीं है। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि इराक में जाने को लेकर अलग अलग सोच थी। अफगानिस्तान के संसाधनों पर हमारा कोई हक नहीं है।

खोज कर लाइये उन चौम्स्कियों और प्रोफसरों को, जो लिखते रहे कि अमेरिका अपने हित यानी तेल के संसाधनों पर एकाधिकार के लिए मध्य पूर्व में विनाश लीला करता रहा है। ओबामा ने खंडन कर दिया है। कृष्ण की तरह गीता सार वाले अंदाज़ में ओबामा जी भाषण दे रहे थे। क्या लेकर आए थे,जिसके लिए अमेरिका का इतना विरोध कर रहे हो। ओबामा सार सुनो और नया सोचो।


फिर भी यह एक बेहतर भाषण तो था ही। मंदी के इस टाइम में उम्मीद अब भाषणों से ही पैदा की जा रही है। ओबामा भी सौ दिन की कार्ययोजना बनाते हैं और मनमोहन सिंह भी बनायेंगे। चलो कुछ मत करो लेकिन अच्छी बात तो करो। क्या पता ये लोग कर ही गुज़रे। तब आलोचना में इतनी जगह बचा कर रखो कि कह सको कि वाह इसकी उम्मीद तो थी है।

गुरुवार के दिन हिंदुस्तान में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल मनमोहन सरकार की नीतियों पर अच्छा अच्छा बोल रही थीं और इसी दिन अमेरिकाधिपति काहिरा में बोल रहे थे। दोनों उम्मीद जगाने में सफल रहे हैं। जिस दिन में सौ दिन में एक फाइल नहीं घूमती, उस देश का पीएम अगर सौ दिन की कार्ययोजना बनाने की बात करें तो आप कर भी क्या सकते हैं? जब तक सौ दिन नहीं गुज़र जाते,उम्मीद कीजिए।

खैर कहां से इंडिया पर आ गए। इंटरनेशनल पर ही टिके रहते हैं। ओबामा के भाषण में प्रगतिशीलता के पूरे तत्व हैं। इसी तरह के भाषण हम लोग सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की बहसों में दिया करते थे। एक बार तो लगा कि ओबामा वीएचपी के प्रेस कांफ्रेस की प्रतिक्रिया में बोल रहे हैं। कम से कम ओबामा ने खुलकर बोलने की शूरूआत तो की। इतना तो कहा कि एक दूसरे पर शक करने का काम बंद करो। मुसलमान और अमेरिका एक दूसरे के प्रति पूर्वाग्रह न पालें। हां ये सही है कि अच्छा भाषण देने से दुनिया नहीं बदल जाती। इसी लाइन पर मुझे ओबामा से उम्मीद हो गई है। उम्मीद करना एक फैशन है। निगेटिव बात कीजिएगा तो लोग बीच बहस में ही लतियाने लगते हैं। इसलिए समूह में बने रहने के लिए पोज़िटिव बोलते रहिए। तब तक जब तक पोज़िटिव का ग्लोबल कारोबार निगेटिव न हो जाए। ओबामा जी के लिए तालियां।

अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी

बहुत दिनों से कोई हवा इधर से नहीं गुज़री है,
बाग में सर झुकाये खड़ा हूं दरख्तों की तरह,
बहुत इल्ज़ाम है मुझपर,उस माली के दोस्तों,
जिस माली ने मुझको बनाया फूल की तरह,
इज़हार ए मोहब्बत का एक ख़त अधूरा रह गया,
जिस खत में लिखा उसे महबूब की तरह।

क्या कोई पद बचा है जहां कोई पहली बार न पहुंचा हो

तस्वीरों को देखकर लगता है कि मीरा कुमार हैरान हैं। अचानक से उनके महत्व पर लिखा जाने लगा है। यह भी कहा जा रहा है कि १९८५ में उन्होंने बिजनौर में मायावती और पासवान को हरा दिया। २४ साल तक वो इधऱ उधर से हारती जीतती रहीं लेकिन न तो दलित होने के नाते और न ही महिला राजनीतिज्ञ होने के नाते उनकी कोई बड़ी भूमिका सामने आई।

अब लोग उनमें दोनों वर्गों के लिए अपार प्रतिभायें देखने लगे हैं। कांग्रेस को दलित वोट बैंक चाहिए तो मीरा कुमार का नाम चलेगा। महिला होने के नाते मीरा कुमार कॉम्बो खूबियों वाली नेता बन गई हैं। चुनाव में किसी भी नेता ने दलित वोट के लिए मीरा कुमार को प्रचार के लिए नहीं बुलाया। वे अपने इलाके में ही प्रचार करती रहीं। हालांकि इस बार भी उन्होंने सासाराम में बीएसपी के महासचिव गांधी आज़ाद को हराया है। लेकिन क्या मीरा कुमार सांकेतिक राजनीति की एक अजीबो गरीब उदाहरण नहीं हैं। क्या सिर्फ पद पर बिठा देने से सामाजिक चक्र पूरा हो जाता है? मीरा कुमार किसी एक की इच्छा का नतीजा हैं या लोकतांत्रिक प्रक्रिया का?

वो भी तब जब देश में राष्ट्रपति के पद पर नारायणन रह चुके हैं। जी एम सी बालयोगी को नहीं भूलना चाहिए। देश के पहले दलित स्पीकर। क्या इससे चंद्राबाबू नायडू को दलितों का वोट मिल गया? कोई बालयोगी को याद कर रहा है? नहीं क्योंकि बालयोगी दलित होते हुए भी दलित राजनीतिक आंदोलन के केंद्र नहीं थे? क्या उनके स्पीकर बनने से दलितों के राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ बदल गए? यूपीए की चेयरपर्सन से लेकर राष्ठ्रपति के पद महिलाएं काबिज़ हो चुकी हैं। सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष से लौट आईं हैं। चंदा कोचर आईसीआईसीआई की अध्यक्ष बन चुकी हैं। यूपीएससी में लड़कियां टॉप कर रही हैं। पिछले बीस सालों में भारत की महिलाओं ने गज़ब की प्रगति की है। कहीं ऐसा तो नहीं स्पीकर का पद जबरदस्ती का ढूंढा गया है कि यही बचा है पहली महिला के लिए। शायद इसलिए कि महिलाओं की कामयाबी मीडिया की सुर्खियां आकर्षित करती है।

एक नेता ने निजी बातचीत में कहा था कि पहले लोग बेटे की नौकरी की पैरवी लेकर आते थे और अब बेटी की नौकरी की पैरवी लेकर आते हैं। कारण पूछा तो कहा कि परिवार छोटा हो रहा है। लोगों ने बेटी को उत्तराधिकारी के तौर पर स्वीकार कर लिया है। समाज अभी बदला नहीं हैं। औरतें आज भी सबसे ज़्यादा काम कर रही हैं। बेगार। मैं घरों में काम करने वाली तमाम औरतों,बहनों,बेटियों और पत्नियों की बात कर रहा हूं। जिन्हें लोग हाऊसवाइफ कहते हैं। आठ घंटे की शिफ्ट वाली औरतें वर्किंग वूमन कहलाती हैं। जबकि घरेलू कामगार नातेदार स्त्रियां चौबीसों घंटे काम करते हुए भी गृहणी कहलाती हैं। भ्रूण हत्या और दहेज हत्या का ज़िक्र कर मीरा कुमार के पहली दलित महिला स्पीकर बनने की बची खुची खुशी का भी ज़ायका खराब नहीं करना चाहता। कम से कम इतिहास तो बना ही है। जिस संसद ने महिला आरक्षण बिल पास नहीं किया उसने अपना अध्यक्ष एक महिला को चुना है।


फिर भी मायावती और मीरा कुमार में फर्क है। बहुजन समाज पार्टी खड़ी ही इस बुनियाद पर हुई थी कि कांग्रेस दलितों को सिर्फ पद देती है और भूल जाती है। कांशीराम ने साइकिल चलाकर आंदोलन खड़ा किया। कांशीराम ने इस तरह के संकेतवाद के खिलाफ दलितों को जगा दिया। मायावती एक दलित महिला होते हुए भी ब्राह्मणों को अपने नेतृत्व में ले आईं। यहां पहली बार कोई दलित किसी ब्राह्मण को दे रहा था। कांग्रेस में किसी दलित को दिया जा रहा है। यह तो होता ही रहा है। मायावती लोकतांत्रित प्रक्रिया के ज़रिये पीएम का सपना देख रही थीं। ये और बात है कि उनकी अपनी गलतियां और कमज़ोरियों ने उन्हें इस चुनाव में डूबा दिया लेकिन फिर भी दलितों की पार्टी को दूसरे समाज तक ले जाकर यूपी की सत्ता में चार बार पहुंचना कम बड़ी कामयाबी नहीं है। हां बहस हो सकती है कि क्या ये भी संकेतवाद नहीं है? शायद उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में मीरा कुमार का मनोनयन हैं। मायावती का सत्ता में होना दलितों को एक अलग भाव से भरता है और मीरा कुमार का स्पीकर बनना एक अलग भाव से भरेगा।


खुद सांसद होने के अलावा दलित राजनीति में इनका क्या योगदान रहा है? जब कांग्रेस के अनुसार यूपी के दलित बिना मीरा कुमार के राहुल गांधी के नाम पर पार्टी को वोट दे सकते हैं तो मीरा कुमार क्या कर लेंगी? पांच साल तक सामाजिक आधिकारिता मंत्री रहते हुए कांग्रेस को कभी नहीं लगा कि इनका राजनीतिक महत्व है या कोई यह तो बताए कि सिर्फ मंत्री रहते हुए ही मीरा कुमार ने क्या क्या क्रांतिकारी काम किए? हो सकता किये हों लेकिन तब कांग्रेस ने मीरा कुमार को क्यों नहीं पोजेक्ट किया। बल्कि इस बार तो उन्हें जलसंसाधन मंत्री बना दिया जो कम महत्व का विभाग माना जाता है। तब मीरा कुमार ने नहीं कहा कि एक दलित आईएफएस अफसर, दलित मंत्री और दलित सांसद की काबिलियत को कम आंका गया है। श्रीकांत जेना ने कम से कम विरोध की बत्ती तो जलाई।


इसीलिए मीरा कुमार तमाम चैनलों के फुटेज में किसी गांव से निकल कर अचानक एफिल टावर के नीचे खड़ी महिला की तरह भकुआई हुईं लग रही हैं। भौंचक्क का भोजपुरी रूप है भकुआना। सुर्खियां बटोरने के लिए पहली महिला,पहली ग्रामीण,पहली शहरी,पहले चाचा टाइप की कैटगरी ढूंढी जा रही है। बीजेपी भी दबाव में आ गई। लगा कि जब संकेत का ही खेल चल रहा है तो किसी पहले आदिवासी को निकालो। जिस करिया मुंडा को बीजेपी ने कभी भाव नहीं दिया,उन्हें सिर्फ प्रतीकात्मकता के लिए पूछा जा रहा है। न्यायपालिका में ब्राह्मणवाद के वर्चस्व के खिलाफ करिया मुंडा ने एक रिपोर्ट तैयार की थी,बीजेपी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। तमाम योग्यता के बाद भी झारखंड का मुख्यमंत्री नहीं बनाया। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के ज़माने में भी करिया मुंडा अपनी उपेक्षाओं को लेकर बाइट देते रहे। किसी ने मुड़ कर देखा तक नहीं। लेकिन अब पहले आदिवासी उप स्पीकर हैं। जबकि उनचास साल की उम्र में पी ए संगमा स्पीकर की कुर्सी पर बैठने वाले पहले अनुसूचित जनजाति के नेता बन चुके हैं।

सामाजिक विश्लेषण होता रहेगा लेकिन मीरा कुमार एक हकीकत बन गईं हैं। उनका शांत स्वभाव क्या पता उग्र होते सांसदों को भी धीमा कर दे और सदन का माहौल बदल जाए।

अधूरी उदास नज़्में- सस्ती शायरी

मैंने झूठ का एक पुलिंदा बनाया है,
आकर देखो,
सच का भूरा जिल्द चढ़ाया है,
चाक पर मिट्टी से एक दीया बनाया है,
आकर देखो,
अंधेरे का डर कैसे भगाया है,
तुम ही कहते थे फरेबी है ये दुनिया,
आकर देखो,
फरेबियों को अपने घर बुलाया है,
बंद कर दी है हमने दिल की गवाही,
आकर देखो,
कचहरियों में जजों का दिल बहलाया है,
रख लो मुझे लिखे उन ख़तों को अपने पास
आकर देखो,
एक झूठा खत खुद को भिजवाया है।