सुपर पावर, आई कार्ड और नेटवर्किंग

जब से होश संभाला हूं अपने भारत को एक अजीब होड़ में देखता हूं। मर्दाना मुल्क की चाहत लिये सुपर पावर बनने की होड़।

जाने कब से भारत में प्रथम उपलब्धियों का जश्न बन रहा है। पूरा मुल्क मुझे गिनिज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड लगता है। चांद पर पहली बार,दुकान पर पहली बार,सेना में पहली महिला,राष्ट्रपति पद पर पहली महिला,पहला विश्वकप आदि आदि। अपनी हर उपलब्धि में हम पहली बार सीना तानते हैं। फिर अपनी चाल में मस्त हो जाते हैं। यह मुल्क अतीत से लेकर वर्तमान और भविष्य तक में गौरव के क्षण तलाशता दिखता है। इसी बीच में इसका एक मंत्री लेक्चर देता है कि परीक्षा खत्म कर देते हैं। ग्रेड दे देते हैं। लेकिन बाकी के वृहत्तर क्षणों को देखिये तो अखबार से लेकर टीवी पर महाविशेषज्ञों के संबोधन में भारत के सुपर पावर बनने का ख्वाब बार बार आते रहता है।

ये ख़्वाब अमेरिका से चुरा कर हम ओरिजिनल बनाकर बेच रहे हैं। करो,मरो और खटो। खटते रहो तब तक जब तक मुल्क भारत सुपर पावर न बन जाए। हिंदी में भारत पुल्लिंग है। अंग्रेज़ी में मुल्क स्त्रीलिंग है। व्याकरणों में तय ही नहीं हुआ कि मिट्टी पर सीमायें खींच कर उसके भीतर बसाई गई नगरी का लिंग क्या हो। कब दिल्ली हो जाती है और कब पटना हो जाता है। ठीक उसी तरह जैसे कुछ मर्दों का नाम पुष्पा हो जाता है। तो हम नहीं कहते हैं पुष्पा आ रही है। मुल्क के साथ क्यों होता। मर्द और औरत का तो जेंडर नहीं बदलता। मुल्क का क्यों बदल जाता है।

मुल्कों की होड़ मची है। मुल्क के भीतर होड़ मची है। पूरी मानव सभ्यता एक भयंकर किस्म के कंपटीशन में आ गई है। हर दिन रिज़ल्ट आउट होता है। सुपर पावर बन कर हम क्या करेंगे। क्या अब मुल्क की परिभाषा दो सौ साल पुरानी परिभाषाओं से तय हो सकती है? लाखों लोग अब एक मुल्क से दूसरे मुल्क की तरफ आवाजाही कर रहे हैं। वो अपने साथ एक पुरानी नागरिकता लेकर चलते हैं और नई वाली का पासपोर्ट। इसीलिए अब नागरिकों का पहचान पत्र बन रहा है।पहले हम रंग रूप,बोली और पैदाइश से समझे गए कि भारतीय है। अब नंदन निलेकणी एक कार्ड देंगे कि हम भारतीय है। संविधान ने कहा कि इस भूखंड पर जो पैदा हो गया भारतीय है। नया हुक्मरान कहता है कि पैदा होने से नहीं चलेगा। आई कार्ड भी दिखाना होगा।

दिखाओ भाई दिखाओ। सुपर पावर बनने के लिए आई कार्ड होना ज़रूरी है। ये सुपर पावर भी आईएसओ-९०० के प्रमाण पत्र जैसा हो गया है। अस्पताल या होटल के बाहर टंगा हुआ। पहला आईएसओ प्रमाणपत्र प्राप्त होटल। स्कूलों में भी यही सीखाया जाता है। सारी समस्या नागरिकता को बांधने की है। हम सब की नागरिका बदल रही है। सीमाई सोच से आगे हम कबके निकल चुके हैं। निलेकणी का आईकार्ड याद दिलायेगा कि तुम भारतीय है। तुम अमरीकी। तुम क्यूबाई। राष्ट्र राज्य की तरफ से कोशिश हो रही है कि हमारी घुलती पहचानों को और घुलने मिलने से रोकने के लिए। नागरिकों का स्पस्ट समूह ही नहीं रहेगा तो राष्ट्र किस बात का रहेगा।उसकी औकात नगर पालिका की हो जाएगी। हम सब फेसबुक आरकुट के नागरिक है। जाने कितने दोस्तों को ढो रहे हैं। फ्रेडशिप अब नेटवर्किंग है। नागरिकता पुरातन है। नागरिकता को भी नेटवर्किंग में बदल देनी चाहिए। कल को फेसबुक पर दोस्ती के आवेदन को कंफर्म करते वक्त क्या नागरिकता आई कार्ड मांगेंगे। पुलिस कहेगी कि आपने बिना पूछे और जाने कैसे किसी को दोस्ती के लिए कंफर्म कर दिया। आप संदिग्ध हैं। मामला दर्ज होगा।

दफ्तर में बताता हूं कि मेरे फेसबुक पर हज़ार से ज्यादा लोग है तो साथी मुझे डरा देते हैं। तुम क्या बिना जाने कंफर्म कर देते हो। प्रोब्लम में फंसोगे। बचना।प्लीज़ डिलिट करो। क्योंकि फेसबुक की दोस्ती दस्तावेज़ है। आप मुकर नहीं सकते। आईपी अड्रेस से पता हो जाएगा कि किस कंप्यूटर से बैठकर फलां ने फलां को दोस्त के रूप में कबूल यानी कंफर्म किया था। हमारे रिश्ते बदल रहे हैं। नागरिकों के बरक्स और मुल्क के बरक्स। बिना भौगोलिक बदलाव के लाखों की संख्या में आबादी इधर से उधर हो रही है। कोई टैक्टोनिक शिफ्ट नहीं हुआ है। ऑस्ट्रेलिया कभी भारतीय भू खंड का हिस्सा था। मगर अब ऐसा नहीं होता।
वीज़ा लेकर हम मुल्क बदल लेते हैं। मगर मुल्क वाले एक ठप्पा लगाकर रखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि दुनिया एक दिन लौटेगी। अपने अपने कुनबों में। तब ये ठप्पा काम आएगा।

भटक जाता हूं। सुपर पावर के बाद हमारी ख्वाहिशों में एक और क्लास घुस चुका है। वर्ल्ड क्लास का। विश्व स्तरीय। आज तक नहीं समझ सका कि ये कौन सा स्तर है जिसे हम पाने के बाद छाती फाड़ कर एलान कर देते हैं। किधर से तय होता है कि विश्व स्तरीय है। कुछ दिन पहले एक स्टोरी आई। जयपुर में एक अमरीकी लड़की ने ऑटो वाले से प्यार कर लिया। हम खबरों में ऐसे कूदे जैसे अमेरिका ही झुक गया हमारे ऑटो वाले के कदमों पर। पता चला कि लड़की अमरीका की एक सामान्य नागरिक है। व्हाईट हाउस की नहीं है। घूमने आई थी शादी रचा गई। अमेरिका इतना छा गया कि स्वाभाविक प्रेम का किस्सा कहीं खो गया।

ये तो नहीं कहूंगा कि कुंठित मानसिकता है। मगर अजीब लगता है। वर्ल्ड क्लास और सुपर पावर का बोध। कितने सालों से हम बनने की कोशिश में लगे हैं। हद हो गई। लात मार देना चाहिए दोनो प्रोजेक्ट को। अपना कुछ करना चाहिए। लिख देना चाहिए कि भारत जो सुपर पावर नहीं है। अब जिसको आना है आए जिसको जाना है जाए।

ऑफिस- अ प्लेस टू लिव

दफ़्तरों की ज़िंदगी ने ख़ास किस्म की चिंताओं को साझा मुखड़ा दिया है। हर अंतरे में शब्द बदलते हैं मगर बात वही होती है। मैं दुखी हूं। मेरा कुछ नहीं हुआ। उसका ही होता है। वो करीब है। मैं किसी से दूर हूं। मुझे फर्क नहीं पड़ता,तो दूसरा कहता है कि फर्क तो मुझे भी नहीं पड़ता। कंधे की तलाश में एक सा ही कंधा मिलता है। एयरकंडीशन इमारत के नीचे वॉन हुसैन की कमीज़ और लुई फिलिप की पतलून पहनकर दुखों को एसएमएस से बांचना। अपनी बात से उसकी बात को काटना। बेहतर दलीलों की खोज। अहंकार मुझे नहीं,दूसरे को है। कहते रहना दिन भर,ताकि भरोसा बना रहे कि शिकार खोजती अनगिनत नज़रों के जंगल में मैं किसी सफेद खरगोश की तरह दुबका हुआ हूं। बचा हुआ हूं।


सब व्यर्थ लगता है। अपने तमाम वो पुराने दिन, जो काट दिये गए दफ्तरों की छोटी मोटी बातों की चिंताओं में। बचा कर रखी गई ऊर्जा किसी बड़े संकट के समय भी किसी तीस वॉट के बल्ब से ज़्यादा काम न आ सकी। किसी के करीब होने का ही फायदा मिलता होगा किसी को। मुझे तो किसी से दूर रहने की सज़ा मिलती है। सेहत के लिए मक्खन ठीक नहीं लेकिन यह मेरा स्वाभाव भी है। मक्खन नहीं लगाना। वो तो मक्खन लगाता है। फिर प्रतिभा? क्या मक्खन से फिसल कर नाली में बह जाती है?

देश के तमाम दफ्तरों में रिश्तों की खुशफहमी के बीच नाइंसाफी का एक आंदोलन चल रहा है। अन्याय के शिकार लोग नज़रों की बोली बोलते हुए चुप रहते हैं। कुढ़ते हैं। हिंसक हो चुके लोग किसी को बर्दाश्त नहीं करते। रंज को तंज में बदल कर भड़ास निकाला जा रहा है। अब वेबसाइट पर गप्पशालायें बन रही हैं। उधर फ़ैसले लेने वाला सत्ता के केंद्रीकरण करने वाला तानाशाह बताया जाता है। लोकतंत्र यस सर के दम पर जी रहा है। बीच बीच में डेयोड्रेंट की खूबसूरत महक,पास से गुज़रती किसी लड़की के चलते छू जाती है। नज़र ही नहीं पड़ती कौन गया है। ज़िंदगी का रोमांस खत्म है। एक डांस चल रहा है। रेस में पिछड़ते जाने के ग़म से लबरेज़ एक सांस्कृतिक समारोह। जिसका उदघाटन और समापन किसी कोने में खड़े केंद्रीकरण के प्रतीक के कानों में कुछ कह कर किया जा रहा है। अच्छा टाइम और बुरा टाइम के बीच शनि की साढ़े साती का द्वंद।

तरक्की। जला कर राख़ कर देने वाली चुड़ैल। उसके मना करने पर ही तो इस शब्द का इस्तमाल कर रहा हूं। सीक्रेट यानी रहस्य। हर किसी के पास उधार है। ये किसी से न कहना। सिर्फ तुमको कहा गया है। इस हिदायत के साथ ट्रांसफर होती सीक्रेट फाइलें। किसी की होठों से निकलकर किसी के कानों में। मोबाइल के इनबाक्स में बचा कर रखे गए कुछ सीक्रेट एसएमएस। किसी वक्त के साथी के किसी भी वक्त पलट जाने पर काम आयेंगे। उसके खिलाफ। इस बीच इतने तनावों को छोड़ किसी के कंधे के पीछे खड़ा होकर भरोसा पाना। अपना होने का अहसास हाथों को टिफिन बॉक्स में पड़े पराठे के एक कोने को कतरने के लिए बढ़ा देता है। दूर से कोई देख रहा होता है। कब से कोई करीब हो रहा है। सचमुच है या नहीं है। बहस नहीं है। सत्य एक शर्त की तरह ज़बान पर आता हुआ फ़रमान में बदल जाता है। अफवाह। बिना बाप के हर दिन पैदा होने वाली औलाद है। रिश्ते तहस नहस हो रहे हैं। प्रोफेशनलिज़्म और परफार्मेंस लोगों को हिंसक बना रहे हैं। जीवन का लक्ष्य कंपनियों का टारगेट बन गया है। पैसा ज़रूरी है तभी तो यह हर साल बढ़ेगा। पैसे के लिए प्रोफेशनलिज़्म ज़रूरी है। तभी तो वो हर वक्त मरेगा।

पास बैठे लोग अब कानाफूसी छोड़ एसएमएस करने लगे हैं। दीवारों के कान बेकार पड़े हैं। कोई दीवारों के लिए आंखें तलाश रहा है। छोटे छोटे कैमरे लटका कर। ग्रुप बन रहे हैं। बिगड़ रहे हैं। हाइड्रा की तरह। एक सर कटता है तो दूसरी आकृति बनती है। दोस्तों का नाम लेने में घबराहट से निकले पसीने को पोछे जाने के बाद रूमाल छुपा लिया जाता है। दोस्ती भी छुप कर की जाती है। दोस्ती गुट है। सीढ़ियों पर चलते वक्त बनाई गई दूरी रिश्तों में हर वक्त एक डिस्टेंस का आभास बनाती है। बीच बीच में कोई नज़र छिप कर देख जाती है। मिल जाती है तो बदल जाती है।

आजकल इससे,कल तक तो उससे। फिर कोई बात है। तभी तो मुलाकात है। सारे फायदे उसी को। यही राज़ है। नौकरी के बाद तरक्की जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार के लिए किये जाने वाले फर्ज़ की तमाम कोशिशें किसी साज़िशखाने की कालिख से पुती हुई लगती हैं। हर पल कोई किसी से आगे जा रहा है। हर पल कोई नज़रें चुरा कर कहीं चला जा रहा है। कोई रातों को ठीक से सोता क्यों नहीं? दफ्तरों के भीतर एक आग सुलग रही है। किसी का सुगर लेवल बढ़ जाता है तो किसी का ब्लड प्रेशर। घर पहुंचने से पहले ही कार में बीयर की बोतल खत्म। एक जगह जो मिलकर करते हैं, दूसरी जगह ठीक वही दूसरे लोग मिलकर करते हैं। पता नहीं कब तक चलेगा। इस वाक्य के सहारे उतराती निराशा। आशा क्या है? मेरा दुख तुम्हारे दुख से बड़ा है। जैसे नहाने का ओके साबुन। सचमुच काफी बड़ा है। सबकुछ आजकल है। परेशानी रोज़ पैदा होने वाली कहानी है।

गीता ने कहा है कि कर्म करो,फल की चिंता मत करो। कृष्ण,तुमने नौकरी नहीं की। की होती तो बात नहीं करते। लाखों सरों को तीर से कलम कर देने का कर्म ही फल की चिंता से मुक्त हो सकता है। बस तीर चल जाए। किसी न किसी का सर तो कलम होगा ही। फल की चिंता के बिना किया जाने वाला कर्म एक किस्म की सांस्कृतिक लापरवाही है। किस लिए कर्म करें। उद्यम करें। कहीं ये भी एक साज़िश तो नहीं। फल नहीं देने की। संतोष और डिज़ायर की लड़ाई है। भूख और हंगर में अंतर है। सड़कों के किनारे सूखी अंतड़ियों में लिपटे हुए लोग भूख की तस्वीर हैं। दफ्तरों में टाई सूट में लिपटे हुए कुछ पाने की अभिलाषा में कर्मयोगी हंगर की तस्वीर हैं। उनके पेट का हंगर उन्हें शिखर पर ले जाने की बेचैनी है। एक रास्ता है। अंडर पास है। गीता को मत पढ़ो। भजन भजोगे तो वैराग्य से दफ्तर नहीं चलेगा। किसी को पा लेने की ख्वाहिश हर पल पलती रहे। बारी का इंतज़ार सबसे बड़ा धीरज है। खुद को महान घोषित करने का धीरज। है न।

कितनी नज़रें उठती हैं अस्तित्ववाद के समर्थन में। कितनी मुकर जाती हैं उसके विरोध में। बीच के एक रास्ते पर चलने का रास्ता फिसलन भरा है। बिसात पर बिछी चालों के बीच से बच कर निकलना। सामने बैठा सिपाही घोड़ा बनने के इंतज़ार में है। कब ढाई घर चल कर मात दे दे कहना मुश्किल है। हर वक्त कोई किसी आशंका की सूचना देता है। पहले वैसा था लेकिन अब वैसा नहीं। कोई कुर्सी है,जो घूम रही है,जो देखने वालों की नज़रें बदलती हैं। उन्हें नचाती है। हर बात की खिचड़ी है। जो खाने के लिए नहीं,उतारने के लिए पकती है। दूसरी खिचड़ी चढ़ेंगी तभी तो फिर से उतारने की क्रिया शुरू होगी। इन सबके बीच एकाध रिश्ता बचा लेना कितनी बड़ी कामयाबी होगी। वर्ना उधार के दोस्तों के साथ खुशियों को बांटना होगा।सारे संबंध किराये पर लाये हुए लगते हैं। अपनी अपनी चिंता में। इस छोटे से ब्रह्मांड में मैं कहां हूं। पता पूछते रहते हैं। भटकने के डर से मरे रहते हैं। छाती पर अपने पदनामों की तख़्ती लगाये हर दिन ईमेल से जारी होने वाले फरमान। इतिहास के किस काल में मानव मस्तिष्क की संरचना को समझने के काम आयेंगे। शक की बुनियाद पर बने रिश्तों की कहानी कब लिखी जाएगी।

टूटी चप्पल पहनना एक रियायत है हमारे समय में। बिजनेस और इकोनोमी दो ही क्लास है। बाकी सब जात पात हैं। कुर्तों के नीचे से झांकते मर्दों की निगाहें,उनसे बचती औरतें। उनकी कामयाबी के पीछे कोई एक औरत। इनकी कामयाबी के पीछे कई मर्द। छी। नहीं,मुझे घिन नहीं आती। तरस भी नहीं। दफ्तर में रिश्ते दफन नहीं होंगे तो और कहां होंगे। कब्रिस्तान से लेकर श्मशान तक सब सिमेंटेड हो गए हैं। रिश्ते से रिसने वाली राख ज़मीन में नहीं मिलती। काले पोलिथिन में उठाकर गंगा में बहा दी जाती है। सब के सब जटिल हैं। कुटिल हैं। हम अच्छे हैं। काम से खुद को बचा लेने की दलीलें। हर कत्ल प्रोफेशलन होने के नाम पर। हर साज़िश प्रोफेशनल होने के नाम पर। हम सब ख़राब होने के इस दौर में आमसहमति से एक दूसरे को नीचा दिखा कर हैसियत के टांके से खुद टांक कर अस्पताल से छोड़े गए मरीज़ की तरह लगते हैं। पट्टियों में लिपटा हुआ हमलावर भी तो मरीज़ है।
(कुछ दिन पहले मेरे घर पर दोस्त आए। तीन मित्र भारत की सबसे बड़ी कंपनियों में नौकरी करते हैं। जब बात हुई तो लगा कि नौकरी और ऑफिस को लेकर सब एक ही तरह से परेशान हैं। सब शिकायतों से भरपूर हैं। सब शक करते हैं और शक किये जाने को मसला बनाते हैं। उन्हीं की बातचीत के बात ये लेख निकल आया। हम मिले थे मस्ती के लिए लेकिन सबका मन भारी हो गया। कई लोग सोच रहे हैं कि ये मेरी आपबीती है। बिल्कुल नहीं है। पर ऐसा भी नहीं कि अपने अनुभवों को सामने नहीं रखा। ज़रूर रखा लेकिन उनकी बातों के लिए। और फिर जो भी है आपके सामने है)

परफेक्ट हिंदी- भाषा का विकास























यह तस्वीर भी गाज़ियाबाद के लाइसेंस दफ्तर के सामने की है। अर्जेंट शब्द को अपना कर इन भाई साहब ने कमाल कर दिया है। हेडलाइन की तरह इस्तमाल किया है। बिना किसी संपादक से पूछे।

आइडिया काल की एक तस्वीर





















यह तस्वीर गाज़ियाबाद के लाइसेंस दफ्तर के बाहर की है। मारुति वैन में फोटो स्टेट की दुकान। नागपुर शहर में आपको मारुति वैन में पानी की दुकानें दिख जायेंगी। स्कूली बच्चों को ढोने के अलावा ये वैन चलती फिरती दुकानों में तब्दील होकर कई शहरों में चाट से लेकर चाउमिन तक परोस रही है।

मन का रेडियो...हिंदी डे पर बजा

आज हिंदी डे है। कई सरकारी दफ्तरों में बाहर भगवती जागरण की बजाय पखवाड़ा वाला बैनर लगा है। पखवाड़ा। फोर्टनाइट का फखवाड़ा। इस फटीचर कांसेप्ट की आलोचना बड़े बड़े ज्ञानीध्यानी बिना बताये कर गए हैं कि पेटीकोट कैसे पुलिंग है और मूंछ कैसे स्त्रीलिंग है। हर भाषा इस तरह की दुविधाओं के साथ बनी होती है। अब हिंदी के साथ डेटिंग किया जाना चाहिए। डेट विद हिंदी।नवरतन तेल,विको वज्रदंती,डॉलर अंडरवियर और बाक्सर बाइक का उपभोग करने वाला हिंदी का बाज़ार। एक अखबार ने विज्ञापन दिया कि इस दीवाली पर हमारे पाठक पांच लाख वाशिंग मशीन खरीदेंगे। आप विज्ञापन देंगे न। हद है। यही ताकत है हिंदी की। और भाषा की ताकत क्यों हो। भाषा को कातर ही होना चाहिए। रघुवीर सहाय ने क्यों लिखा कि ये दुहाजू(स्पेलिंग सही हो तो) की बीबी है। मुझे तो ये दुहाई हुई गाय लगती है। जिसका अब दिवस नहीं मनना चाहिए। जिसके साथ अब डेटिंग करना चाहिए। चैट करनी चाहिए। चैट स्त्रीलिंग है या पुलिंग। किसने बताया कि क्या है।

देवनागरी में लिखे इंग्लिश मीडियम और साठ दिन में अंग्रेजी सीखा देने के बोर्ड। ६० दिन में हिंदी का रोग मिटा देने वाले और अंग्रेज़ी का भूत भगा देने वाले इंग्लिश बाबाओं के ज़ोर और पुण्य प्रताप से अंग्रेज़ी पहले से कहीं बड़ी भाषा है। चेतन भगत से सब अखबार लिखाना चाहते हैं। हमारे हिंदी के साहित्यकारों को गोष्ठियों ने ऐसा खपा लिया है कि कोई पूछता नहीं। लिखते भी हैं तो संस्मरण छाप। सत्तर के दशक में समाजवादी चिंतनों में धंस गए हैं। लोहिया पर विशेषांक निकालते हैं। हाशिया और विडंबना जैसे घिसे पिटे शब्दों के साथ अपनी चिंताओं की चासनी परोसते हैं।

हिंदी के चिंतकों में जीवन के प्रति उल्लास नहीं है। हमेशा दूसरों की गरीबी और दुख से निराश हैं। जैसे मार्क्स ने ये थ्योरी दी है कि अंग्रेजी बोलने वाले समाज में भिखारी नहीं होते। वहां सब शासक होते है। एक बार मेरे चाचा ने पड़ोस के लड़के से पूछ दिया कि भिन्न कितने प्रकार का होता है। लंगड़ा भिन्न जानते हो तो वो भकुआ गया। मैंने कहा कि ये इंग्लिश मीडियम में पढ़ता है। तो चाचा गुस्सा गए। भाषा जानना कोई योग्यता नहीं है। आप हिंदी या बांग्ला संयोग से जानते हैं। पैदा हो गए और सीख गए। अंग्रेजी के लिए अलग से मेहनत करनी होती है। बस इतने का फर्क है। लंगड़ा भिन्न नहीं आया तो बेकार हैं आप।

उसी दिन से ये लैंग्वेज का पोलिटिक्स साफ हो गया। हिंदी व्याकरण की तीन तीन किताबों को ओखली में कूट के फेंक दिया। कर्म को कहा तू कर्ता से पहले लग और करण को कहा तू भांड में जा। तभी एक गाना कानों में ऐसा धंसा कि निकला ही नहीं।
उल्फत के दुश्मनों ने कोशिश हज़ार की...सोलह बरस की बाली उमर को सलाम। लगा कि वाह क्या कारीगरी है भाषा की।

इसी दौर में एक और गाना अच्छा लग रहा था- तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है। तभी बाबा नागार्जुन की कविता हाथ लग गई। ईंदु जी क्या हुआ है आपको..भूल गईँ अपने बाप को। हिंदी दमदार है भाई। जहां जहां वो लिंग विशेषज्ञों के कब्ज़े में नहीं हैं वहां वहां वो दमदार है। फिर पढ़ गया मैला आंचल तो लगा कि बाप रे क्या यथार्थ है। उसके बाद पढ़ा राग दरबारी तो पहली बार अपनी हिंदी में मुलाकात हुई ज़िंदगी से। भाषा की लंठई से। अब तो पखवाड़ा लिखा देखता हूं तो पखाना जैसा पढ़ा जाता है।


आज के दिन इन सब कमाल के रचनाकारों को सलाम। आज के दिन पखवाड़ा लिखने वालों को दुत्कार। हिंदी दिवस। क्या किसी भाषा का दिवस होना चाहिए। लिंग विशेषज्ञ और हिज्जे संपादकों की हालत का अंदाजा तभी हो गया जब दिल्ली में कृपया,कृप्या लिखा देखा। किशोर कुमार गा रहा था ज़िंदगी का सफर। हमारे अखबार लिख रहे थे जिंदगी। नुक्ता हटाओ और लगाओ का लफड़ा। जीवन लिखो न। ज़िंदगी काहे लिखते हो। ग़लत और सही हिंदी के द्वंद से परेशान हो गया। र में बड़ी ऊ और छोटी ऊ कब लगायें याद करना मुश्किल हो गया। तय किया कि जो मन कहेगा वही लिखूंगा। मन का रेडिया..बजने दे ज़रा। हिमेश रेशमिया का ये गाना कमाल का है। बैंड जब बजे तेरा तू भी साथ गा। क्या दर्शन है। गाओ न भाई। हिंदी का बैंड बज रहा है तो गाओ न। रोना क्यों रोते हो।

इंसान को किसी भी भाषा के प्रति निष्ठावान नहीं होना चाहिए। उसे भाषा में जीना चाहिए। कुछ जोड़ देना चाहिए और पुराने पड़ चुके शब्दों को घटा देना चाहिए। हमारे एक सहयोगी बार बार कहते हैं कि आक्सफोर्ड कि डिक्शनरी निकलती है तो हर साल दो चार सौ हिंदी के शब्द अंग्रेजी की लाइन में लग जाते हैं। हिंदी की कोई डिक्शनरी ही नहीं निकलती। फालतू शब्दों का भंडार बार बार छप रहा है। गोदाम में पड़े भूत की तरह संस्करणों के बहाने निकलता है।

हिंदी को कुछ नहीं हुआ। मर जाएगी तो मर जाएगी। गरीब का बच्चा भी इंग्लिश सीखना चाहता है। जो सीखने से रह गया है वो साठ घंटे में अंग्रेजी न जानने की एनिमिया से मुक्त हो जाना चाहता है। जब तक ये सांस ले रही है इसकी घड़कनों में समा जाइये। गोष्ठियों-सेमिनारों में जाना बंद कीजिए। तीन नंबर का बिस्कुट और चाय पीने।

बहुत बोर हो जाए तो कजरारे कजरारे सुनिये। किसी कवि को पढ़ते हुए आप पर्सनल से सवाल कीजिए। हिंदी में हर तरह के शब्दों को घुसाइये। हर तरह के शब्दों को अपनी तरह से लिखिये। दुकानदारों की साइन बोर्ड से सीखिये। जूस कार्नर। क्या है ये हिंदी या चोरी के शब्दों से हिंदी कहलाने की ठेठगीरी। हिज्जे की दुकानदारी बंद कीजिए। कीजिए या किजिए लिख दीजिए तो कोई फर्क नहीं पड़ता।

हिंदी पखवाड़े का विरोध कीजिए। बांग्ला डे। उर्दू डे भी मने। अब हिंदी हिंदी नहीं रही। यह न जाने कितनी बोलियों को डकार कर दुहाजू की बीबी बन कर अघा रही है। जिस भाषा में स्टेशन का अपना शब्द न हो। वो कैसे अकेले अपना जन्मदिन मना सकती है। इंटरनेट का जबरन अंतरजाल बनाकर फेंटा कसे जा रहे हैं। हिंदी सभी भाषाओं का प्रतिनिधित्व करती है। अकेले हिंदी में घंटा कुछ नहीं है। अस्तु।

बिन पाकेट कमीज़ और पतलून

बस अब पहन लूंगा
बिन पाकेट कमीज़ और पतलून
फेंक दूंगा मोबाइल और क्रेडिट कार्ड
एक चक्कर लगा आऊंगा
पैदल चल कर
कनाट प्लेस से लेकर साउथ एक्सटेंशन तक
तीस फीसदी डिस्काउंट वाली थैलियों में खुद को
ठूंस दूंगा मैं
खरीदने और बेचने के मोलभाव से मुक्त कर लूंगा
फ्री में ही सारा माल की तरह बिक जाऊंगा मैं
दांतों में दबाए हुए क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड
चबाते चबाते खा जाऊंगा सबको
प्लास्टिक का पखाना निकलेगा
उसे समेट कर सेल की थैलियों में
घुमा कर फेंक दूंगा साउथ सिटी मॉल में
हम सब बिकने के लिए अभिशप्त
क्रयशक्ति हमारी सेल पर लगी है
हर दाम के हिसाब से खुद को बेचा
पूरा दाम देकर एक सामान न खरीद सका
हताशा है यह
कमा न पाने की
खुद को बेच कर
वाजिब दाम न पाने की
ऑनलाइन दुकानों में कतारबद्ध हो रहा हूं
बिन पाकेट की कमीज़ और पतलून
पहनने की योजना बना रहा हूं
एक मैनेजर किराये पर दे दो भाई
जो मुझे बेच आए बाज़ार में
बिका हुआ माल वापस न होने की शर्त पर
बस गोदाम खाली कर जाए
मिला हुआ माल दे जाए
मैं घूम सकूं बाकी की ज़िंदगी
पहन कर
बिन पाकेट कमीज़ और पतलून
उन सबकी शोर से बहुत दूर
सेमिनारों में जो करते हैं रात दिन
बाज़ार,बाज़ार और बाज़ार
कोई ऐसी जगह बता दो भाई
जहां बाज़ार न हो और हम बिक भी जायें
बिकने के लिए ही तो निकले हैं सब
बाज़ार को गरियाते रहते हैं
पाकेट वाली पतलून और कमीज़ पहनकर
गोष्ठियों में जाते रहते हैं
मैं नहीं बदलूंगा इस समय को
जिस समय में मैं सड़ा दिया गया
उसे बचाकर रखूंगा
आने वाली पीढ़ियों के सड़ने के लिए
बिकने के लिए
टाइट कमीज़ और टाइट पैंट के लिए
क्रेडिट कार्ड की बिक्री से पलने वाले
एजेंटों के परिवारों के लिए
सब कुछ म्यूचुअल है मेरे भाई
नए फैशन में जीना है
बिन पाकेट पतलून और कमीज़
पहन कर चलना होगा
आंत की मरोड़ों को दबा कर
जीभ की लपलपाहट को शांत करना होगा
मन को मेडिटेशन से बांध कर
तन को योगा से साधना होगा
बकवास करते हो तुम मुझसे
सेल में खरीदने वालों को सांत्वना देते हो
ताकि जब तक घर तक पहुंचे वे सब
रास्ते में ही सेल की थैलियों से पहचान लिये जाए
ये है कमाने वाला
ये है खरीदने वाला
ये है बिकने वाला
पूरा दाम नहीं दे पाता
डिस्काउंट ही इसकी औकात है
छूट चाहिए सबको हर चीज़ में
आदर्शों में भी
मापदंडों में भी
समझौतों में भी
संबंधों में भी
बिन पाकेट पतलून और कमीज़
पहन कर हम सब कम से कम
खाली हाथ तो लौट आयेंगे
तुम लौट सकोगे खाली हाथ
बिना सेल की थैलियों के
ध्यान रखना
न बिका हुआ माल
गोदाम में
सड़ने के लिए रखा होता है
सड़ना चाहोगे तुम
अकड़ना चाहोगे तुम
तो पहन कर घूमो आज से
बिन पाकेट कमीज़ और पतलून

मोबाइल से शहर को देखो
































सभी तस्वीरें नदिरे(नई दिल्ली रेलवे स्टेशन का कैट नेम)के प्लेटफार्म नंबर दस से ली गईं हैं। इन किताबों के रंग और शीर्षक आपको कई टीवी चैनलों पर दिखाई देते होंगे। दुत्कारित साहित्य का ही असर है कि हम सब टीवी वाले ऐसी शीर्षककारिता करते रहते हैं। शीर्षककारिता अब पत्रकारिता का इम्पोर्टेंट सेगमेंट है। कई लोगों ने शीर्षक लगाने में महारत हासिल कर ली है। शीर्षककारिता से पहली टीवी में अनुप्रास पत्रकारिता आई। इसमें एक ही वर्ण से शुरू होने वाले कई शब्दों को ढूंढा जाता है। जैसे पाकिस्तान पर कोई हेडर लगाना हो तो अनुप्रास संपादक सबसे पहले प से शुरू होने वाले तमाम नापाक किस्म के शब्दों को ढूंढता है। जैसे- पस्त हो गया पाकिस्तान। पतली हालत पाकिस्तान की। लेकिन अनुप्रास के अगले स्तर में जब शीर्षककारिता का जन्म हुआ तो इस तरह की शीर्षक आ रहे हैं जो एक तस्वीर में दिखती भी है- १५ बम पाकिस्तान खत्म। हिंदी पत्रकारिता के इस स्वर्गगामी काल में कई प्रयोग हो रहे हैं जो अननोटिस चले जा रहे हैं। हमारे देश में तीन नंबर के कामों को श्रद्धा की नज़र से नहीं देखते। जबकि तीन नंबर के कामों की लोकप्रियता कम नहीं होती।

अगर केशव पंडित,डार्लिंग और मनोज टाइप के लेखक हिंदी पत्रकारिता में संपादक हुए होते तो टीवी चैनलों पर ओरिजनल काम दिखता। क्या फायदा केशव पंडित के नोभल का टाइटल चुराकर टीवी पर चस्पां करने का। शादी करूंगी यमराज से। ये ख्याल क्यों किसी अशोक वाजपेयी या अमिताव घोष को नहीं आता। आज तक समझ में नहीं आया। वो क्या लिखते रहते हैं भाई।
(अनादर का इंटेंशन नहीं है।) खैर सबके अलग अलग रास्ते हैं। हर रास्ता दूसरे को काटना चाहता है। हिंदी न्यूज़ चैनल ने एक नया सोलुशन निकाला है। वो चौराहा नहीं खोजता। गोलंबर खोजता है। एक बार मिल जाता है तो सब उसी के गोल गोल गोल गोल घूमते रहते हैं। मैं भी घूम रहा हूं।

कड़ी कार्रवाई

जब कार्रवाई है ही तो कड़ी कार्रवाई क्यों हैं। इस बात को लेकर बहुत दिनों से परेशान हूं। सोच रहा हूं कि ज़रूर कार्रवाई शब्द की प्रासंगिकता खत्म हो गई होगी तभी सत्ताधारी शब्दतंत्र ने कार्रवाई के आगे कड़ी लगाकर इसकी प्रासंगिकता को बनाए रखने की कोशिश की होगी। तभी तो बीजेपी के अध्यक्ष कड़ी कार्रवाई करने की चेतावनी देते हैं। फिर भी वसुंधरा नहीं मानती है तो कड़ी के आगे एक और कड़ी लगा देते हैं। बयान देते हैं कि अनुशासन तोड़ने वाले नेताओं के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाएगी। कड़ी से कड़ी या सिर्फ कड़ी कार्रवाई शब्द नेता या सत्ताधारी के श्रीमुख से उद्धृत होता है तो उसका चेहरा देखना चाहिए। बिल्कुल अंतिम फ़रमान के माफिक। लेकिन उसे पता नहीं कि कड़ी या कड़ी से कड़ी कार्रवाई का महत्व खत्म हो चुका है। तभी तो कई लोग इसे और प्रासंगिक बनाने की कोशिश करने में लगे रहते हैं। कहते हैं कि अनुशासन तोड़ने में कोई भी शामिल हो,चाहे वो कितना बड़ा नेता क्यों न हो,उसके खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई होगी। सोचता हूं कि ये दो वेराइटी की कड़ी न होती तो कार्रवाई अकेले क्या कर लेती।

यह एक और कोशिश होती है कार्रवाई शब्द के असर को बरकरार रखने की। विश्वास दिलाया जाता है कि कड़ी से कड़ी कार्रवाई वो होती है जो किसी के खिलाफ भी की जा सकती है। तो यह मतलब निकाले कि कार्रवाई वो होती है जो हर किसी के खिलाफ नहीं की जा सकती। लोअर लेवल के खिलाफ कार्रवाई होती है,मिडिल लेवल के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई होती है और अंत जब कुछ नहीं होता तो कड़ी से कड़ी कार्रवाई किसी भी लेवल के खिलाफ यानी अपर लेवल के खिलाफ किये जाने का एलान होता है।

ज़ाहिर है,व्यवस्था तंत्र इस शब्द की महिमा को नहीं बचा सका है। आज ही अखबार में पढ़ा कि गाज़ियाबाद के एसएसपी ने कहा है कि मिलावटी धंधा करने वालों के ख़िलाफ पुलिस अभियान चलाएगी। जो भी पकड़ा जाएगा उसके खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाएगी। तो क्या कई लोग जो पकड़े जाते हैं उनके ख़िलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई नहीं होती। कड़ी कार्रवाई के तहत क्या पांच साल की सज़ा होती है और कड़ी से कड़ी कार्रवाई तहत उम्र कैद होती है? क्या किसी के ख़िलाफ़ भी कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने की बात कर प्रशासन अपना महिमामंडन करने की कोशिश करता है। कार्रवाई आश्वासन है या चेतावनी। टोन से दोनों में फर्क नहीं लगता। कभी कभी तो कड़ी से कड़ी कार्रवाई आश्वासन की तरह प्रयुक्त होता है।

क्या कार्रवाई शब्द एक नाकाम शब्द है। फिर इसे सख्त से सख्त या कड़ी से कड़ी लगाकर बचाने की कोशिश क्यों की जाती है? क्यों न इसे गाड़ दिया जाए? मान लिया जाए कि दरअसल जब कार्रवाई ही नहीं हो सकती तो कड़ी से कड़ी कार्रवाई क्यों हो? क्या स्टेप बाइ स्टेप नहीं हो। पहले कार्रवाई कीजिए। जब वो न कर सकें तो कड़ी कार्रवाई कीजिए और जब यह भी फेल हो जाए तो कड़ी से कड़ी कार्रवाई कीजिए। जब तीनों प्रकार की कार्रवाई मिट्टी में मिल जाए तो तब एलान कीजिए कि किसी के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जाएगी। यानी अब कोई नहीं बचेगा। हार री कार्रवाई। आपने कभी कड़ी से कड़ी कार्रवाई की है। ज़रा अंतर बताइयेगा।