आलीशा

प्यार पॉसिबल है। दूर से चाहने वाले आशिकों की कहानी लगती है। एक खूबसूरत सी लड़की आलीशा। हिमरतन तेल बालों में चपेत कर और ढीली पतलून पहिन कर वो कुछ टेढ़ा मेढ़ा चश्मू। इस गाने को देखता हूं तो लगता है कि कोई आशिक है जो किसी को दूर से चाहता है। दूर से चाहने वाले आशिकों को कभी सराहा-समझा नहीं गया। जबकि ये वो आशिक हैं जो ट्रैफिक जाम क्रिएट नहीं करते। किसी साये की तरह अपने महबूब के पीछे चलते हैं और अपने भीतर सपनों का ढेर लगा कर उसी के नीचे दबे रहते हैं। यकीन दिलाते रहते हैं कि एक दिन जब सब कुछ उनके पास होगा तो आलीशा भी होगी। वो न जाने कितनी चिट्ठियां लिख चुके होते हैं। टेम्पू के पीछे लिखे शेर को उतार कर डायरी में लिख चुके होते हैं। खुद को हर फिल्मिया हीरों के आभासी खांचे में ढाल चुके होते हैं। बस कह नहीं पाते। रह जाते हैं।


वी चैनल पर आलीशा का गाना देख कर यही लगा। चांद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर। वो बेचारा दूर से देखे, करे न कोई शोर। बेखबर चांद न जाने किसके आसमान में निकल आता है, लेकिन चकोर को ताकने से कौन रोक सका। यही वो बेकरारी है जो किसी आशिक को लफंगा बनाने से रोकती होगी। प्यार पॉसिबल है। बालीवुड के शायरों, संगीतकारों और कहानीकारों ने जो बड़ा काम किया है, वो यही किया है। प्रेम को सार्वजनिक मान्यता दिलाई है। इसके बाद भी पंचायतें बैठ जाती हैं। प्रेमियों का कत्ल कर दिया जाता है। प्रेमी की बहन की शादी नहीं होती और प्रेमिका के घर का बहिष्कार हो जाता है। हिंदुस्तान में प्रेम इम्पॉसिबिल है। लेकिन कोशिश करें तो पॉसिबल है। जब भी यह धीरज टूटता है तभी कोई हिंदी फिल्म आकर आशिका का मन बढ़ा जाती है। वर्ना डरपोक आशिक आज भी अपनी किताबों के पन्नों के बीच गुलाब की पखुंड़ियां रखते होंगे, लड़की का गिरा रूमाल उठाकर रोज़ धोते होंगे। प्रेमी अपने नितांत एकांत क्षणों में ही सबसे अधिक सृजनशील होता है। वो अपनी क्लपनाओं में इश्क को ऐसे सजाता है, जैसे किसी राष्ट्रपति के आने से पहले मंच को फूलों से लाद दिया गया हो। जैसे बारात के आने से पहले दरवाज़े के बाहर धूल पर पानी डाल दिया गया हो। इश्क में सबसे अधिक फायदा ज़बान को होता है। आशिकों के बोलने के अंदाज़ बदल जाते हैं। रंग बदलने से पहले उनकी भाषा काल्पनिक होने लगती है। संवाद की शक्ल में बातें किसी चाही जानी वाली लड़की को प्रभावित करने के लिए की जाती हैं। लड़का बेहद सभ्य हो जाता है।

लेकिन जो दूर से चाहते हैं, उनका क्या। जो दूर से चाही जाती है वो तो बेखबर है ही। हमारे देश के दूर से चाहने वाले आशिकों का सामाजिक मानसिक अध्ययन नहीं हुआ है। मन-संसार के भीतर कल्पनाओं में कौन सी नूर उतर आती होगी, ये न तो धड़कनें बताती हैं न लब। वो चुपचाप अपने आप,चाहता है किसी को। पीछा करता है। एक बार देख कर ही आहें भर लेता है। फिर काम पर लौट आता है। इक्का दुक्का ऐसे भी हैं जो नहीं लौट पाते। पीछा करने लगते हैं। हर जगह। अपनी कल्पनाओं को रक्तरंजित कर देते हैं। न कह पाने की कमज़ोरी और स्वीकार न किये जाने का भय। प्रेम पूर्व ऐसी स्थितियां हैं,जो प्यार को इम्पॉसिबल बनाती हैं। कह दीजिए। दिल को साज़िशों और हताशाओं का अड्डा मत बनाइये। मन ही मन क्या घुटना,मन ही क्या जलना। अस्वीकार किये जाने को स्वीकार करना सीखें। कोई ना कह दें और आप ड्राम भर कर रोने लगे,नहीं चलेगा। इश्क एक बार नहीं होता है। ये उसके बाद भी होता है जब किसी से हो जाता है। सौ में एक बार तो होगा। लगे रहो मुन्ना भाई।

19 comments:

मधुकर राजपूत said...

दूर से चाहने वाले प्रेमी, मून मिशन पर लगे होते हैं। भीगा भीगा चांद ढूंढने में चंद्रयान को कितनी मशक्कत करनी पड़ी। चांद के गिर्द तमाम चक्कर काटे और खुद के इंजन फेल करा बैठा, लेकिन सकून है नतीजे तो राहत वाले मिले। ये बेचारे पीछे पीछे घूमते फेंफड़ों की धौंकनी बना डालते हैं और नतीजे इन्हें खुद नहीं पता होते। अमेरिका को देखो ठोंक दिया राकेट। नतीजा जो हो सो हो। पानी मिले या ना मिले कोशिश तो की। इज़हार से डरने वाले आशिकों को एक सलाह।
हर इक दाग़े तमन्ना को कलेजे से लगा लिया करो,
कि घर आई दौलत को ठुकराया नहीं जाता।

JC said...

वाह! वाह! चाँद ने कम से कम मन रुपी चकोर को पंख तो दे दिये! अथवा मानसरोवर के सूखने के भय से मानव के संभावी भविष्य के दुखद स्वप्नों को तोड़ (राम के शिव-धनुष सामान) मन रुपी मानसरोवर को बहाव तो दे दिया :) वर्ना 'नालियों' अथवा चंनेल्स ने डरा के रखा हुआ है - "राम तेरी गंगा मैली हो गयी" कह-कह कर...नहीं तो अधिकांश चले गए थे "मैं कम्बल को छोड़ता हूँ पर कम्बल ही मुझे नहीं छोड़ता" स्तिथि में :)

शनि गृह में भी पानी है, थोडा नहीं, बहुत...वहाँ क्यूँ नहीं चले जाते 'आधुनिक वैज्ञानिक' ? वो पश्चिम के हों या उनकी नक़ल करने वाले वर्तमान पूर्वीय...सब को नहीं लेजा सकेंगे - ज्यादह से ज्यादह चन्द्र-मुखी, किसी चाँद सी सोणी कुड़ी, को ही ले जायेंगे :)

JC said...

वाह! वाह! चाँद ने कम से कम मन रुपी चकोर को पंख तो दे दिये! अथवा मानसरोवर के सूखने के भय से मानव के संभावी भविष्य के दुखद स्वप्नों को तोड़ (राम के शिव-धनुष सामान) मन रुपी मानसरोवर को बहाव तो दे दिया :) वर्ना 'नालियों' अथवा चंनेल्स ने डरा के रखा हुआ है - "राम तेरी गंगा मैली हो गयी" कह-कह कर...नहीं तो अधिकांश चले गए थे "मैं कम्बल को छोड़ता हूँ पर कम्बल ही मुझे नहीं छोड़ता" स्तिथि में :)

शनि गृह में भी पानी है, थोडा नहीं, बहुत...वहाँ क्यूँ नहीं चले जाते 'आधुनिक वैज्ञानिक' ? वो पश्चिम के हों या उनकी नक़ल करने वाले वर्तमान पूर्वीय...सब को नहीं लेजा सकेंगे - ज्यादह से ज्यादह चन्द्र-मुखी, किसी चाँद सी सोणी कुड़ी, को ही ले जायेंगे :)

Sanjay Grover said...

शुरु की 95 पंक्तियों में आपने ‘दूरदर्शन’, ‘दूरगामी’ प्रेमियों को हर तरह से हताश किया। आखिरी 5 लाइनों में हौसला बढ़ा रहे हैं। अब इस उम्र में आकर किस-किस से कहें बेचारे। अब तो गिनती भी भूल गए कि कितनों को चाहा कितनों को भूला। जो पहले कुंवारियों से नहीं कह पाए अब शादीशुदाओं से कैसे कहें ! पहले ही उन्हें आत्मविश्वास का टोटा था ऊपर से आपकी 95 मारक पंक्तियों का सोटा पड़ गया। अब निचली 5 लाइनों ने कुछ चमत्कार किया तो कुछ-कुछ कह भी दें बेचारे।

Anonymous said...

रवीशजी, अब लव का फॉरमेट जरा बदल गया है। सन ९० तक लव ऐसे ही चला करता था पर २००० आते-गुजरते यह मोबाइल, एसएमएस और फेसबुक में कनवर्ट हो गया। आगे न जाने अभी और क्या-क्या होगा रब जाने।

Sanjay Grover said...

मैं फिर आ गया। क्या करुं विषय ही इतना आकर्षक है। दिलो-दिमाग में 12 की उमर से इकट्ठा दमित भावनाएं-कामनाएं-वासनाएं (चाहूं तो इन्हें प्रेम भी कह सकता हूं पर फिर ब्लाग पर आने का और वो भी ‘कस्बा’ पर आने का फ़ायदा क्या !) अपना जीर्णोद्धार शुरु कर देती हैं। वलवलों को फ़िर से विटामिन मिलने लगता है। वैसे भी 25-30 की उम्र होती भी क्या है ;-) ऐसे विषय छेड़ते रहा करें। शादीशुदा होना कोई अयोग्यता नहीं है ऐसे विषयों पर लिखने के लिए। कान्फीडेंस न खोएं। कई लोगों को शादी के बाद भी प्रेमिकाएं मिलीं हैं। बस, थोड़ा-सा पाखण्डी होना पड़ता है।
मैं चलता हूं। ‘कभी हां कभी ना’ की कशमकश में सुचित्रा तो निकल गयीं। देखता हूं कहीं राह में जूही चावला सामान लिए खड़ी हों। अभी एकाध बार और आउंगा।

डॉ .अनुराग said...

नहीं जी आपको गलत फहमी है .मेडिकल कोलेजो में ओर इन्जिय्र्निग कालेजो में ऐसे आशिको पर पी एच डी हुई है ...बहुतेरे चलते फिरते जीते जागते ज्ञान के सोत्र है .कभी हिलायियेगा ....देखिये कितनी मोहब्बते गिरती है ...

Sanjay Grover said...

क्या बात है इतना रोचक विषय पर ससुरा कमेंट ही नहीं आ रहा ! कहीं आज ‘मंगल को ये नहीं खाना’, ‘बुध को वो नहीं लाना’ टाइप का कोई व्रत वगैरह तो नहीं हैं कि आज के दिन लड़कियों के बारे में सिर्फ सोचना है, बोलना-लिखना कुछै नहीं है!

Sanjay Grover said...

लो जी जाते-जाते मंज़र भोपाली का दोहा माने कि शेर याद आ गया। इसे भी आपके प्रेम-ज्ञान मंदिर में चढ़ाता चलूं:-
तमाम उम्र मेरी जिसकी आरज़ू में कटी,
तमाम उमं उसी की तरफ़ नहीं देखा।
(4 comments par kuchh inaam nahiN hai kya ! rakhna chahiye.)

Kulwant Happy said...

प्यार तिजारत बन गया है। लोग कहते हैं पहली नजर में प्यार होता है, लाईक हिन्दी फिल्मों की तरह, लेकिन वो केवल आकर्षण होता है, किसी के पहनावे, स्टाईल एंड शरीरिक के प्रति। प्यार, मुहब्बत और इश्क जिस मिट्टी पर उपजता है वो मिट्टी तो कुछ और ही होती है। रवीश जी। शायद इस आशिक की तरह, या फिर चांद को देखते चकोर की भांति। या फिर बुल्ले शाह की तरह इश्क होता है।

JC said...

हैप्पी जी ने सही कहा बुल्ले शाह का भी नाम ले कर. किसी शायर के शब्द ग़ुलाम अली के मुंह से सुने थे एक गाने में "...उस मै से नहीं मतलब दिल जिस से हो बेगाना/ मक़सूद है उस मै से दिल ही में जो खिंचती हो..."

प्राचीन ज्ञानी इस प्रकार अस्थाई जीव को स्थायी खुदा की झलक खुद में देखने को कह गए...

JC said...

और, किसी ने कहा, "ये दिल दा मामला है" तो किसी ने समझाया कि मजबूरी है - कि देखती तो आँख है किन्तु वो गूंगी है, और जुबान अंधी है फिर भी बोले ही चले जाती है, सच/ झूट :)

JC said...

"...इस रंग को क्या जानें/ पूछो क्या कभी पी है?"...कुछ ऐसा गुलाम अली की उसी ग़ज़ल की एक और लाइन है...

"...इस रंग को क्या जानें/ पूछो क्या कभी पी है?"...कुछ ऐसा गुलाम अली की उसी ग़ज़ल की एक और लाइन है...

नंबर बाधा रहा हूँ ग्रोवर साहिब :)

नवीन कुमार 'रणवीर' said...

"प्रेम" एक ऐसा विषय जिस पर बहस ना हो, केवल अनुभव साझा हो तो ज्यादा अच्छा लगता है।
प्यार कैसे होता है? प्रेम वास्तविक परिदृश्य में हमारी नदियों की भांति बदल रहा है। जैसे-जैसे वो अपनें निकास से समुद्र में मिलनें को आगे की ओर बढ़ती है, उसे दुख के कंकड़, बिरहा का कीचड़ रोकते हैं और कई बार अधूरे में ही अपनी मंजिल से पहले सूख जाना पड़ता है, कितनी बाधाएं, कितनी मानव रचित श्रंखलाएं उसे अपनें पथ से डिगानें की कोशिश करती है, पर अपनें प्रेम के प्रति समर्पित नदी आगे बढ़ती जाती है, समुद्र तो रोज़ शाम होते ही अधिक बेचैन हो उठता है, शाम को इंतज़ार की हद हो जाती है, बेचारा रोज़ हुंकार भरता है...आगे बढ़ता है, फिर इंतजा़र करता है, उसके आनें का, समुद्र की हदों को लोगों नें पिकनिक स्पॉट बना दिया,दूसरों का प्यार उसी के किनारे परवान चढ़ता है, बेचारा उसी में खुश हो जाता है, पर जब हद हो जाती है, तो मनुष्य के सारे ज्ञान-विज्ञान धरे रह जाते है...फिर नदी और समुद्र का मिलन हो कर ही रहता है। प्यार समर्पण,त्याग औऱ इंतज़ार का नाम है,यदि सच्चाई हो तो क्या नहीं मिल सकता?, कर्तव्यनिष्ठ और वचनबद्ध व्यक्ति ही अपनें प्यार से मिल पाते है औऱ नदी और समुद्र की भांति, और वो दोनों बिना भेद प्रेम पूर्वक ना जानें कितनें सीप-मोतियों को आश्रय देते है।

JC said...

रणवीर जी ने बहुत अच्छी मिसाल दी है प्रकृति की मानव जीवन में दिखाई देने वाले झलक की - जैसे हर कोई अपनी झलक भी शीशे में देखता है, अपनी ही परछाई, और उसको केवल माया जान शीशे के सामने से हटते ही भूल जाता है...

उत्सुकता और आवश्यकता दोनों ही के कारण वैज्ञानिक ही ऐसे कई मायाजाल को तोड़ने के प्रयास करता दिखाई देता है अनादि काल से - किन्तु यदि परम सत्य को पा लेता तो नाटक ही ख़तम हो जाता...

फिर भी आज के वैज्ञानिक के माध्यम से हम जान पाए हैं कि ये सूर्य और चन्द्र ही हैं जो समुद्र में उठती / गिरती लहरों के कारक हैं...और इसमें अधिक बड़ा हाथ चन्द्रमा का है यद्यपि सूर्य, सौरमंडल के राजा सामान, सब ग्रहों को अपनी अपनी कक्षा में, बच्चों की कक्षा में गुरु के सामान, नियंत्रण में रखता है, और पृथ्वी पर जल आदि तत्वों के माध्यम से समस्त जीवों को जीवन दान भी देता है...और प्राचीन योगी कह गए कि पृथ्वी पर जल चद्रमा से आया - माँ गंगा के रूप में, जिसे 'शिव' ने अपनी जता जूट में सम्हाल लिया! और वैज्ञानिक यह भी जान पाए हैं क़ि चन्द्रमा क़ि उत्पत्ति पृथ्वी से ही हुई, अथवा पृथ्वी या 'शिव' ही वो 'रहस्यमय जीव' हैं जो परदे के पीछे से माया जाल बिछाए हुए हैं अनंत काल से ! इसी कारण उन्होंने सूर्य को सूर्य देवता कहा जबकि पृत्वी को धरती माता :)

JC said...

रवीश जी के दूर से चाँद को देखने से याद आया क़ि माया को आज के बच्चों के चुटकुले के माध्यम से भी कहा गया, "दूर से देखा तो लगा अंडे उबल रहे हैं / पास से देखा तो पाया गंजे उछल रहे थे" :)

मायावी जगत की 'आलीशा' की जगह शायद 'हनुमान चालीसा' पढना अधिक लाभदायक रहे - 'भूत पिचासों' से बचाने में - जैसे अमर सिंह भी कहते हैं :)

vijay said...

chand bhi ab pahle jaise nahi vey hi chakor ko awaj dete hai

vijay said...

waise yeh chakor hota kaisa hai iska doosra naam bato

vijay said...

madhukar ji jise aap daulat samaj rahe hai usne kitno ko bedaulat kiya hai