कार्नर शॉप की महिमा..






दिल्ली शहर को ढूंढने का शौक पुराना है। कहीं भी जाता हूं तो लगता है कि एक बार चारों तरफ से घूम कर देख लूं। पिछले हफ्ते कनाट प्लेस गया था। रीगल बिल्डिंग के पीछे चलने लगा। मोहन जी प्लेस के ठीक पीछे एक गली में मटन की दो दुकानें दिखीं। कार्नर शॉप।

ऐसी दुकानें हर शहर की खासियत होती हैं। एक ऐसी जगह होती हैं जहां आपकी पहचान सबसे ज्यादा सुरक्षित होती है। कोई नहीं देख सकता और वहां कोई नहीं आ सकता। ये वो जगह होती हैं जहां आप वर्जनाओं को तोड़ने जाते हैं। सिगरेट पी लेते हैं। पान खा लेते हैं और कहीं कोने में निवृत्त भी हो लेते हैं। इस तरह की दुकानों का अलग से अध्ययन होना चाहिए। इतनी सफाई होती है कि पूछिये मत। दुकानदार को खड़े होने की जगह नहीं मिलती। बर्तन चमकते हैं। अलग किस्म का ब्रांड होता है। खड़े होकर खाना पड़ता है लेकिन कोई परेशान नहीं है। खाने का स्वाद भी बढ़िया। अपनी जगह का महत्तम इस्तमाल।

दस बजे ही मटन तैयार था। स्टील की ग्लास के भीतर प्लास्टिक की ग्लास डाल दी गई थी। उसमें क्वार्टर बोतल उड़ेली जा रही थी। दुकान पर खड़े लोग अपने दिन की शुरूआत दारू से करने आ गए थे। मटन और रोटी उनका स्वाद बढ़ा रहा था। ग्लास किसी भी तरह के गंध से दूर रहे इसलिए उसके भीतर एक और ग्लास। मटन मैंने भी खाया लेकिन दारू नहीं पी।

यहां आने वाला हर ग्राहक अपनी पहचान से चिढ़ता होगा। उसके लिए ये वो जगह होगी जहां उसके अलावा कोई और नहीं आता होगा। अजनबीयत की तलाश वाले ऐसे कई लोगों का अड्डा बन जाती है इस टाइप की दुकानें। ऐसे ग्राहकों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए शहर ऐसी दुकानों को अपने आप बना देता है। कनाट प्लेस के इलाके में काम करने वाले अस्थायी किस्म के कर्मचारी ही लगे सब। शानदार पब में नहीं जा सकते। चौराहे पर पी नहीं सकते लेकिन हनुमान मंदिर से सटे इस दुकान से उनकी तरावट बन रही है। कनाट प्लेस एक ऐसा काम्पलेक्स है जहां लीगल,इल-लीगल,धार्मिक,धंधा सब एक साथ मौजूद है। कहीं कोई टकराव नहीं है। ये छोटी सी दुकान एक पूरे परिवार का भरण-पोषण करती होगी।

सामाजिक समरसता वाले नरेंद्र मोदी का गांधी मंदिर

दैनिक भास्कर के दसवें पेज पर पड़ी इस ख़बर पर नज़र पड़ गई। महात्मा गांधी का मंदिर बनेगा। गुजरात सरकार के कर कमलों द्वारा। एक सौ बत्तीस करोड़ का मंदिर। गांधी ज्ञान का प्रसार करने के लिए नहीं,बल्कि दुनिया के पर्यटकों को बुलाने के लिए। गांधीनगर में बनने वाले इस मंदिर में सत्याग्रह से लेकर नमक आंदोलन सहित गांधीजी के जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं पर निर्माण कार्य हो रहा है। ख़बर के अनुसार लक्ष्य है कि अगले साल दिसंबर २०११ तक मंदिर का पहला चरण पूरा हो जाए ताकि वाइब्रेंट गुजरात का वैश्विक निवेशक सम्मेलन इसी स्थल पर हो सके।

गांधी मंदिर का निर्माण देश के १०० पवित्र स्थलों से लाई गई मिट्टी और कलश के ऊपर किया जाएगा। एक मई को भूमि पूजन है और इसे बनाने का ठेका एल एंड टी कंपनी को दिया गया है। गांधी का मंदिर बन जाएगा,हो सकता है टिकट भी लग जाए और तमाम मुद्राओं में गांधी वाइब्रैंट गुजरात के प्रोडक्ट हो जाएंगे। ज्यादा जानकारी नहीं है इसलिए कयास लगाना ठीक नहीं। लगता है कि नरेंद्र मोदी अब पटेल की जगह गांधी की राह पर चलने वाले हैं। मोदी जी प्रायश्चित में मंदिर बनवा रहे हैं या शोभा के लिए,ये तो वही जानें। बीजेपी के लोग अपने कई नेताओं में पटेल की छवि ढूंढते हैं। गांधी मंदिर का ख्याल उनके विचारों को फैलाने के लिए आया है या एक टूरिज्म को प्रमोट करने के लिए। वाइब्रैंट गुजरात के ब्रांड अंबेसडर गांधी भी हैं। कभी मोदी खुद को गुजतार का ब्रांड अंबेसडर समझते थे,बाद भी अमिताभ से लेकर शिल्पा तक को ढूंढने लगे। गांधी का ख्याल तो एक मिनट के लिए भी उनके दिमाग से गायब नहीं हुआ होगा। आप लोग तैयार हो जाइये। गांधी पर नरेंद्र मोदी का लेक्चर सुनने के लिए।

मगर इसी गुजरात के अहमदाबाद में गांधी विद्यापीठ है। जहां आज भी गांधीवादी जीवन शैली अपनाते हुए छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। विदेशी सैलानी वहां आते ही होंगे। इसी अहमदबाद में साबरमति आश्रम है। जहां गांधी के विचार प्रस्तर शैली में टंगे हैं। वहां भी विदेशी सैलानी आते हैं। तो क्या अब साबरमति आश्रम से सैलानी बोर हो चुके हैं। गांधी में रुचि पैदा करने के लिए क्या एक भव्य मंदिर ज़रूरी है। हर शहर में आजकल शनि और साईं मंदिर बन रहा है। अहमदाबाद और दिल्ली का अक्षरधाम मंदिर आपने देखा ही है। अराधना कम,उगाही का प्रयोजन ज्यादा लगता है। घुसते ही टिकट कटा लीजिए। गांधीनगर में गांधी मंदिर और अहमदाबाद के साबरमति आश्रम का क्या हाल करेगा,सरकार जाने।

गांधी को जानने के लिए मंदिर ही क्यों ज़रूरी है। क्या गांधी अब गुजरात के सरकारी देव हो जाएंगे। गांधी का इस्तमाल वैसे ही आजकल पेन से लेकर सूट बनाने वाली कंपनी और चश्मा बनाने वाली कंपनियां करने लगी हैं। गुजरात सरकार क्या करेगी पता नहीं। जब गांधी के संदेश का प्रसार ही करना है तो एक अरब रुपये का बजट देश के तमाम गांधीवादी संस्थाओं के लिए बनना चाहिए था,जो न्यूनतम ज़रूरतों के आधार पर बेहतरीन काम कर रहे हैं। देश के तमाम चौराहों पर सुभाष,पटेल,झांसी की रानी और गांधी,अंबेडकर खड़े नज़र आते हैं। पर्यटक वहां भी जा सकते हैं। कुछ चढ़ा कर आ जाएं तो खस्ताहाल प्रतिमाओं का कुछ उद्धार हो जाए। वैसे कई जगहों पर प्रतिमाओं का रखरखाव शानदार भी है। गुजरात में लोगों को गांधी नहीं दिखते क्या,जो सरकार मंदिर बनाने जा रही है।

कयास लगाने का मन करता है कि नरेंद्र मोदी गांधी मंदिर के बारे में कब से सोचने लगे। मोदी यह कह सकते हैं कि वो तो हमेशा से सत्य और अहिंसा की राह पर चलते रहे हैं। गांधी के दम पर ही तो वो गोधरा से अहमबदाबाद की राह पर चले होंगे। अपने राजनीतिक सत्य को तलाशने। जिस महात्मा का मंदिर चंद हज़ार रुपये में बन सकता है,उस पर एक सौ बत्तीस करोड़ का खर्चा। एक अरब से ज्यादा का मंदिर। फकीर महात्मा का मंदिर अरबपति लगेगा। लगेगा कि हां,गुजरात ने कोई रईस पैदा किया था। दीवारों पर चिपकी गांधी की मूर्तियां और उनके पीछ चलते दस पांच लोगों की प्रतिमाएं कौन सी गांधी कथा कहने वाली हैं। सरकारी अफसर पांच लाइन की एक कथा चिपका देंगे।

दैनिक भास्कर की इसी ख़बर के नीचे एक और खबर है। नरेंद्र मोदी की एक किताब आ रही है। जिसका नाम है सामाजिक समरसता। जिसका विमोचन हो चुका है। नरेंद्र मोदी सामाजिक समरसता पर लिख रहे हैं तो पढ़ना चाहिए। जिस नेता ने सामाजिक समरसता के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया,उसे नहीं पढ़ेंगे तो किसे पढ़ेंगे। मेरा ब्लॉग? महात्मा गांधी भी तो सामाजिक समरसता के लिए आंदोलनरत रहे। अब उनके बताये रास्ते पर गांधीनगर में अरब रुपये का मंदिर बनवाकर मोदी कहां कहां चलेंगे,देखियेगा।

शौच के बदलते संस्कार



दिल्ली के एक अस्पताल में यह चेतावनी नज़र आई। शौचालय के इस्तमाल को लेकर सामाजिक कैटगरी तेजी से बदल रही है। फिर भी हिन्दुस्तान में तीन तरह के लोग हैं। एक जो खुले में जाते हैं,दूसरे जो इंडियन शैली की शीट का इस्तमाल करते हैं और तीसरा कमोड वाले। शौचालय के इस्तमाल को लेकर अलग अलग संस्कार रहे हैं। इंडियन शैली का इस्तमाल करने वाले जब कमोड का प्रयोग करते हैं तो गड़बड़ी हो जाती है। ज़रूरी नहीं है लेकिन ऐसे हादसे होते हैं।

अस्पताल की यह चेतावनी शौचालय के संस्कार को लेकर मरीज़ों की हैसियत में फर्क करती है। इंडियन शीट का इस्तमाल करने वालों को बाहर का रास्ता दिखा रही है। शहरीकरण के दौर में शौचालय के बदलते संस्कार को लेकर कोई अध्ययन नहीं है। कमोड को लेकर कई वाकये याद हैं। पचीस साल पहले कुछ रिश्तेदारों के साथ एक गेस्ट हाउस में ठहरने का मौका मिला। उस गेस्ट हाउस में अंग्रेज़ भारत छोड़ने से पहले कमोड लगा गए थे। आज़ाद भारत की यह दूसरी पीढ़ी जैसे ही कमोड की तरफ बढ़ी अंग्रेज़ीयत के सामने ढेर हो गई। देसी शब्द में झाड़ा ही नहीं निकला। बाथरूम से लौटकर कहा कि बैठते ही ठंडा मार दिया। सटक गया। मेरा मकसद आप लोगों की नाकों को सिकोड़ना नहीं है। लेकिन इन अनुभवों को दर्ज करने का वक्त आ गया है।

दूसरे जनाब जब अंदर गए तो कमोड के ऊपर वैसे बैठे जैसे इंडियन शीट के ऊपर बैठते हैं। कमोड के ऊपर की शीट फिसल गई और वे गिर गए। धड़ाम की आवाज़ आई। सब दौड़े और इस तरह इंतज़ाम किया गया जैसे केयरटेकर को पता ही नहीं चले कि कमोड हमारी वजह से टूटा है। जब हम शहर में आकर रहने लगे तो कई रिश्तेदार इंडियन शीट वाले बाथरूम को देखकर आतंकित हो जाते थे। गंगा नदी के किनारे टहलते हुए चले जाते थे। वहां से खाली लौटते थे। फ्लश का इस्तमाल तो बहुत बाद में आया। बाथरूम से चले आए और फ्लश नहीं किया। अपने समाजिक परिवेश में इस संस्कार को डालने में कई लोगों को मेहनत करते देखा है। आज भी यह समस्या है। रेलगाड़ियों में इंग्लिश टॉयलेट की हालत देखकर अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हम कितने अनाड़ी हैं। हर सार्वजनिक स्थल पर शौचालय के इस्तमाल की चेतावनी लिखी होती है। ज़ाहिर है कि हम भारतीय अभी तक शौच संस्कारों से एडजस्ट नहीं हो सके हैं।

टॉयलेट और बाथरूम ने हमारे खुले में शौच करने के संस्कार को पिछड़ेपन के रूप में घोषित कर रखा है। सरकार की योजना चलती है कि अब बाथरूम का इस्तमाल किया जाए। सांप वगैरह के काटने का खतरा रहता है। गांव में औरतें फौ फटने से पहले शौच के लिए निकल जाती थीं। आज भी जाती हैं। खेत में फसल न हो तो शाम से पहले कोई गुज़ाइश नहीं होती।

शहरीकरण के साथ हो रही अपार्टमेंट क्रांति ने हर मकान में इंग्लिश और इंडियन टॉयलेट की युगलबंदी का इंतज़ाम किया है। इसी बहाने बड़ी संख्या में शहरी मध्यमवर्ग इंडियन से इंग्लिश की तरफ शिफ्ट हो रहा है। इंडियन शीट अब कई मायनों में प्रैक्टिकल नहीं रही। कमोड ने कई तरह के तनावों को जन्म दिया है। धोने की समस्या से जूझ रहे कई लोगों ने बताया था कि वे शीट से उतरने के बाद नीचे नहाने की जगह पर परिमार्जन का कार्य संपन्न करते थे। हमारे एक रिश्तेदार कहीं गई। कमोड के कारण दो दिनों तक टॉयलेट ही नहीं गए। नहाने जाते तो घूर घूर कर देखते और कोसते रहते। खेत से इंडियन और इंडियन से इंग्लिश टॉयलेट के इस्तमाल की प्रक्रिया से मैं भी गुज़रा हूं। अब इंडियन बेकार लगता है। खेत का इस्तमाल करने का मौका नहीं मिलता। आप सब अपने अपने अनुभव साझा करेंगे तो बेहतर होगा।

निर्लज्ज दर्शक और क्रिकेट के दलाल विशेषज्ञ

आईपीएल का जन्म क्रिकेट के विकास के लिए हुआ था। लफंगई के इस खेल में कुछ महान विचारक क्रिकेट का भविष्य देख रहे थे। ललित मोदी को दलाली के इस दंगल के रचयिता के रूप में पूजा जा रहा था। ये विचारक उसी कैटगरी के हैं जो मान कर चलते हैं कि सरकारी विभागों में काम कराना है तो कुछ न कुछ घूस देने में एतराज़ नहीं है। चलता है। चार बंदरियों को नचाकर हर छक्के पर ताल ठोंक कर खेल का विकास हो रहा था। जैसे क्रिकेट में इसी की कमी रह गई थी कि हर छक्के पर कोई नाचने वाला नहीं मिल रहा था। एनर्जी दिखती है लोगों को ऐसे खेल में। आईपीएल से पहले हो रहे क्रिकेट में बिना एनर्जी के ही सब कुछ हो रहा था। मानो जहां आईपीएल नहीं हैं,वहां कोई खेल ही नहीं है। कोई यह बता दे कि पिछले तीन साल में क्रिकेट का कितना विकास हुआ है। जानने की इच्छा हो रही है। तीन घंटे में सीरीयल की तरह क्रिकेट देखने वाले जानकार ललित के इस शाहकार की तुलना शाहजहां के ताजमहल से कर रहे थे।

सर फोड़ने का मन तब किया जब इतने हंगामे के बाद भी निर्लज्ज दर्शक सेमिफाइनल देखने पहुंच गए। यह भारत के समाज का असली चेहरा है। भ्रष्टाचार के प्रति हमारी सामाजिक सहनशीलता इस स्तर पर चली जाएगी कि लोग आईपीएल की दलाली और दलदल की खबरों के बाद भी मुंबई इंडियन्स और डेक्कन चार्जर्स के हुल्लड़ खिलाड़ियों का मैच देखने चले गए। दलीलबाज़ कहेंगे कि कुछ लोग मेरे क्रिकेट को मैला कर बदनाम नहीं कर सकते। मैच फिक्सिंग के बाद से मैंने क्रिकेट मैच देखना बंद कर दिया था। उसके पहले भाग कर पड़ोसी के घर जाता था स्कोर देखने। क्रिकेट के भविष्य संवारने में जुटे तीन टके के दर्शकों और खेलप्रेमियों के जमात से खुद को अलग कर लिया था। अभी कुछ भी साबित नहीं हुआ है लेकिन दलाली का संगम है आईपीएल, इसका मंज़र दिखने लगा है। फिर किस खेल के प्रेम का इज़हार करने ये दर्शक स्टेडियम में गए। क्या ये वही दर्शक हैं जो दहेज की शादी में बाराती बन कर जाते हैं। जिनके लिए भ्रष्टाचार किसी तरह का सामाजिक अपरिग्रह नहीं है।

आईपीएल एक जुआ है। इस जुए का जुगाड़ पैसा कमाने के लिए किया गया था। कंपनियां बनाकर निवेश का खेल खेला गया। गलत तरीके से मुनाफा बटोरा गया। मुझे तो आईपीएल से लेकर बीसीसीआई के तक चेहरे शरद यादव की तरह लुटेरों के चेहरे लगते हैं। नवाब पटौदी ने कहा कि गवर्निंग बॉडी के बाकी सदस्यों को इसकी जानकारी होनी चाहिए थी। क्या कर रहे थे जनाब। ललित मोदी की वाहवाही। क्रिकेट प्रेमियों का जुनून देश में दलाली का ऐसा गठजोड़ पैदा करेगाय ये नहीं सोचा था। जुनून या फैन्स होने का शौक पालने वालों को सतर्क रहना चाहिए कि उनकी इन भावनाओं का इस्तमाल कोई इस तरह से कर सकता है।

जब यह विवाद उठा तो कई जानकारों ने ललित मोदी के योगदान की तारीफ करनी शुरू कर दी। मोहल्ले के दस बीस ओवरों के मैच का आइडिया उठाकर लुटेरों ने आईपीएल बनाया और पैसे लेकर विदेशों में लगा दिये। ललित मोदी का योगदान इस बात में है कि क्रिकेट जैसे खेल से दलाली कर कैसे पैसा कमाया जा सकता। जानकारों का योगदान है कि कैसे ललित मोदी की तारीफ कर दलाली के पक्ष में खड़े होने का शाब्दिक हुनर हासिल किया जा सकता है।

अगर आप क्रिकेट प्रेमी है और दलाली की इन खबरों के बाद भी आईपीएल के तीन टके मैच को देखते हैं तो आपके प्रति नाराज़गी ज़ाहिर करने की अनुमति दीजिए। आप किस टाइप के दीवाने हैं। आपकी भावनाओं के दम पर घोटाला हो रहा है और आप कहते हैं कि खेल अलग है। हम तो खेल से जुड़े हैं। अजीब बात है। कायदे से तो खिलाड़ियों को भी आवाज उठानी चाहिए। लेकिन आईपीएल के इस घपले में क्रिकेट खिलाड़ी और क्रिकेट प्रेमियों की चुप्पी समझ नहीं आती। आप ही बता दीजिए। मैच फिक्सिंग के बाद एक भी मैच नहीं देखा है।आईपीएल का तो एक मिनट भी नहीं। कुछ गलती हो गई हो तो माफ कर दीजिएगा।

अब सत्तू की भी शेखी देख लीजिए..



दक्षिण दिल्ली के अंबेडकरनगर में टहल रहा था। एक साथ इतने शेखों को देखकर नज़र ठहरनी ही थी। मैंगो और बनाना शेक के एकछत्र राज में सत्तू और जौ ने सेंध मार दी है। हि्न्दी के व्याकरणाचार्यों की बिना इजाज़त के दवाइयां की जगह दवाईयां लिखने वाली दिल्ली ने शेक को शेख कर दिया है। आखिर गर्मी में इन्हीं शेकों की तो शेखी होती है। पपीता भी अब शेख कहलाने की ख्वाहिश रखता है। तरबूज ने भी लाइन में जगह बना ली है।

ग्वालियर से आए दुकानदार ने कहा कि मैंगो शेक बनाते बनाते लगा कि क्यों न सत्तू को भी ट्राइ किया जाए। बस उसने मिक्सी में दही डाला। थोड़ी देर मथने के बाद चार-पांच चम्मच जौ के सत्तू डाले। घूं-घां किया और फिर काजू बादाम पिस्ता के साथ करौंदे डाल दिये। जौ साहब शेख बनकर ग्लास में आए तो ऊपर से तरावट के लिए रूह-आफ़ज़ा ने रंग सुर्ख़ कर दिया। जब पीया तो लगा कि वाकई अंबेडकरनगर ने कुछ यूनिक काम किया है। हो सकता है दिल्ली के दूसरे इलाकों में भी सत्तू के शेख मिलते हों लेकिन एक ग्लास पानी में चार चम्मच सत्तू,नमक और नींबू डालकर पीने का अनुभव एक झटके में बदल डाला भाई ने। आवश्यकता आविष्कार की जननी है ग़लत साबित करते हुए। सत्तू शेख की खोज किसी बोरियत भरे क्षण में की गई थी। हां सत्तू का शेख पीकर बहुत मज़ा आया।

बहुत दिनों से सत्तू को स्टेटस की तलाश थी। कब्ज़ और गैस से मुक्ति दिलाने की गारंटी के कारण स्वास्थ्य कारणों से थोड़ी जगह तो मिली लेकिन क्लास नहीं बन पाया। पूरी उम्मीद है कि शेख के इस अवतार में जौ और सत्तू दोनों ऊपर वाले क्लास में भी सराहे जायेंगे। प्रवासी फू़ड है जौ और सत्तू। मज़दूरों के साथ भारत के कई हिस्सों में गया। मज़दूर मालिक बने तो सत्तू ने भी अपना स्टेटस हाई फाई कर लिया है। संगम विहार की कई दुकानों पर शेक साहब शेख साहब बन कर बिक रहे थे। ग्वालियर वाले दुकानदार ने झूठा वायदा कर दिया कि ये खोज उसकी है लेकिन जब दूसरी दुकानों पर नज़र गई तो लगा कि मामला विवादास्पद है। ख़बर की गुज़ाइश है।

करोलबाग कथाइज़ेशन- गफ़्फ़ार टू हनुमान



करोलबाग किस्सों से भरा है। कई किस्सों को जानबूझ कर छोड़ दिया। बीस मिनट की फिल्म में समाना मुश्किल था। अप्रैल १९९४ से हनुमान की यह मूर्ति बननी शुरू हुई। महंत ओम गिरी ने बताया कि नागा बाबा ने कहा कि उनके सपने में हनुमान आए थे और कह गए हैं कि मूर्ति बने। विशालकाल मूर्ति बने। धीरे-धीरे इसकी ऊंचाई बढ़ती गई। पहले इक्यावन फुट की बनी तो फिर सपना आया और इकहत्तर फुट के लिए काम होने लगा। हनुमान जी फिर आए और अब इस बार १०८ फुट की ऊंची मूर्ति के लिए काम होने लगा। १९९४ से २००७ आ गया। मूर्ति बन गई। इनके सीने में आटोमेटिक रूप से पीतल के बने राम,लक्ष्मण और सीता निकलते रहते हैं। हथेली भी मुड़ती रहती है। पंडित जी का दावा है कि हनुमान के आशीर्वाद से ही मेट्रो का आगमन हुआ है। मेट्रो के अधिकारी आशीर्वाद लेने आते थे। आज भी मेट्रो गुज़रती है तो लोग खिड़की पर आकर हनुमान को नमस्कार करते हैं। ये और बात है कि हनुमान के आशीर्वाद से मेट्रो उनकी मूर्ति के बनने के दो साल पहले आ गई।

दूसरी कहानी करोलबाग के गफ़्फ़ार मार्केट की है। १९५२ में गफ़्फ़ार मार्केट बना था। पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए। तब यहां सब्ज़ियां बिका करती थीं। बाद में पटरी पर कपड़े बिकने लगे। शरणार्थी व्यापारियों ने कपड़ों की रंगाई का काम पकड़ लिया। तभी अफगानिस्तान युद्ध हुआ और बड़ी संख्या में अफगान सिख शरणार्थी यहां आ गए। इन लोगों ने गफ़्फ़ार मार्केट की दुकानदारी का तरीका बदल दिया। एक दुकान के भीतर कई अफगान सिख काउंटर लगा कर खड़े हो गए। किसी काउंटर पर घड़ी तो किसी पर चूड़ी बेचने लगे। करोलबाग के भावी चेहरा बनने लगा।



यही वो अफगान सिख थे जिन्होंने करोलबाग के व्यापारियों को एकजुटता सीखाई। बाहर जाने लगे। एक दो दिन की यात्राएं करने लगे। हांगकांग,सिंगापुर वगैरह। वहां से घड़ी और जूते लाकर ग्रे मार्केट में बेचने लगे। विदेशी चीज़ों के लिए गफ्फार मार्केट मशहूर हो गया। विदेशी यहां अपनी घड़ी और बाइनाकूलर बेचने लगे। तब तय सीमा से ज़्यादा डॉलर लेकर नहीं आ सकते थे। पैसे की कमी से बचने के लिए विदेशी सैलानी चार पांच घड़ियां पहन कर आते थे। इस तरह के कई सामान होते थे। सिगरेट,लाइटर,परफ्यूम वगैरह। गफ्फार मार्केट की दुनिया सजने लगी। गफ्फार के कारण करोलबाग मशहूर हो गया।



फिर आया उदारवाद। इम्पोर्टेड आइटम घर घर में पहुंचने लगा। अब इसकी लेन में उन जूतों के शो रूम हैं जिन्हें यहां इम्पोर्टेड आइटम के रूप में बेचा जाता था। गफ्फार अब अपनी साख बनाने में लग गया है। व्यापारी ग्राहकों को बनाए रखने के लिए सामान लौटाते हैं,गारंटी देते हैं। मोबाइल फोन के डाक्टरों के अलावा यहां इलेक्ट्रानिक्स के आज भी एक्सपर्ट हैं।

इन सबके बीच एक कहानी है गफ़्फ़ार मार्केट व्यापार मंडल की। यह एक ऐसा व्यापार मंडल है जिसके अध्यक्ष का चुनाव बैलेट पेपर से होता है। शपथ ग्रहण समारोह होता है। मंडल का अपना कोर्ट है जहां विवादों का निपटारा होता है। नतीजा गफ्फार के झगड़े अदालत तक कम पहुंचते हैं। व्यापार मंडल के अध्यक्ष रामलाल ने बताया कि गफ़्फ़ार की पहचान इतनी तगड़ी है कि आज भी कई दुकानदार अपने पते के सामने गफ़्फ़ार लिखते हैं। लेकिन अब सब बदल गया है। अज़मल ख़ां रोड ने गफ़्फ़ार को संघर्ष में डाल दिया है। करोलबाग में पांच सौ से ज़्यादा ज्युलरी की दुकानें और शो रूम खुल गए हैं। कारों के सामान से लेकर बर्तन और क्राकरी का महाबाज़ार यहीं खुलता है। दस हज़ार से भी ज़्यादा दुकानें हैं यहां। करोलबाग व्यापारिक संघ में तीस से ज़्यादा व्यापारिक संघ हैं।मेट्रो ने करोलबाग में फिर से भीड़ बढ़ा दी है। मेट्रो से सटी दुकानों की चल पड़ी है। मेट्रो ने ग्राहक तो ला कर दे दिये लेकिन पार्किंग की समस्या से निजात नहीं मिली।



लेकिन इन सबकी कीमत चुकानी पड़ी है रिहाइशी इलाके को। यहां के मोहल्ले खतम हो गए। पहले गेस्ट हाउस बने फिर होटल। पहाड़गंज के बाद सबसे अधिक होटल करोलबाग में ही है। कॉमनवेल्थ के कारण हर दूसरा मकान टूट कर होटल में बदल रहा है। पार्किंग की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। यहां के मोहल्लों में घूम कर देखिये तो पता चल जाएगा कि मेट्रो की वजह से कारों की भीड़ कम नहीं हुई है। हर समय दो चार गाड़ियां टो होती रहती हैं। झगड़े बढ़ गए हैं। कोई घर से निकलने से पहले सोचता है कि कार ले कर गया तो वापस उसी जगह पर नहीं लगा सकेंगे। हर गली में यहां पार्क न करें के दस-बीस बोर्ड लगे हैं। यहां के लोग घर में कम दुकानों में ज्यादा रहते हैं।

रैगरपुरा एक दिन कोलकाता हो जाएगा-करोलबाग कथाइज़ेशन



रैगरपुरा...रैगरपुरा में रहते हैं...रैगरपुरा के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे कोई जगह नहीं है। जैसे यहां खाली दलित समाज ही रहता है। आके तो देखो कितना विकास हुआ है। तब तो समझ में आएगा कि इहां बांगाली कैसे रहता है। चंडीचरण दास पूरी भाव भंगिमा के साथ मोहल्ले और अपनी पहचान को तान रहे थे। पंद्रह सालों में चंडीचरण दास मामूली मज़दूर से मालिक बन गया है। कई कारीगर इसके कारखाने में काम करते हैं और चंडीचरण दास ने रैगरपुरा में अपना एक मकान खरीद लिया है।

दिल्ली में दलित बस्ती के रूप में जाना जाता है रैगरपुरा। यहां की आबादी राजस्थान से रैगर समाज के लोगों से बनी थी। सौ साल पहले ल्युटियन दिल्ली को बनाने के लिए ये मज़दूर यहां बसाए गए। जिस बीडन साहब ने प्लाट दिलवाये,उनके नाम पर भी रैगरपुरा में बीडनपुरा है। करोलबाग की रिजर्व सीट के पीछे यहां की दलित आबादी की बहुलता का बड़ा हाथ रहा। लेकिन १९९० में वित्त मंत्री मधु दंडवते के एक फैसले ने रैगरपुरा की आबादी को बदल दिया। जौहरी अपने हिसाब से सोना रख सकते थे और इतनी बड़ी मात्रा में सोने को जवाहरात में बदलने के लिए कारीगरों की ज़रूरत पड़ने लगी। बस मिदनापुर और पुरुलिया से मज़दूर लाये जाने लगे। इन सभी को सोना जड़ने का काम सीखा दिया गया।

इसके दो परिणाम हुए। दिल्ली में सोने के काम में सुनारों का जातिगत वर्चस्व टूट गया। बंगाल से आए ये मज़दूर सभी जाति समुदाय के थे। इनकी भीड़ ने रैगरपुरा को बदल दिया। यह दूसरा बदलाव था। जो दलित चमड़े के काम में लगे थे वो मशीन के आने के बाद जूता बनाने के काम से बेदखल हो गए। करोलबाग के कई लोग याद करते हैं कि बीस साल पहले तक रैगरपुरा में हाथों से बने जूते पहना करते थे। अब रैगरपुरा में रिटेल की जगह होलसेल का कारोबार हो गया।

धीरे-धीरे ये बंगाली मज़दूर रैगरपुरा में प्रोपर्टी खरीदने लगे। दलितों को भी लगा कि अपना मकान बेचकर सस्ते में कहीं और खरीद लेते हैं। सरकारी नौकरियों के कारण बेहतर स्थिति में पहुंचे कुछ मध्यमवर्गीय दलितों ने रैगरपुरा इसलिए छोड़ दी क्योंकि दिल्ली में अब इस मोहल्ले की पहचान उनके लिए कलंक साबित हो रही थी। वो अपने नए बदलाव और रैगरपुरा की दलित पहचान में तालमेल नहीं बिठा पा रहे थे। याद रखना चाहिए की कांशीराम ने बीएसपी का पहला दफ्तर यहीं खोला था। दलित जाने लगे तो प्रवासी बंगाली मज़दूर बसने लगे।

आज रैगरपुरा और आस-पास के इलाके में चार लाख से अधिक बंगाली रहते हैं। ज़्यादातर निम्न मध्यमवर्गीय हैं। सिर्फ बांग्ला आती है। इसलिए आपको रैगपुरा में सैंकड़ों बांग्ला साइनबोर्ड दिखेंगे। लगेगा कि वाकई बंगाल में आ गए हैं। चित्तरंजन पार्क में बंगाली रहते हैं लेकिन बांग्ला के साइन बोर्ड इतनी मात्रा में नहीं हैं। इनके आने से इलाके की पूरी संस्कृति बदल गई है। रैगर समाज के तेज सिंह ने कहा कि यहां तो अब एक ही भाषा सुनाई देती है। लगता है कि पूरा कोलकाता चला आया है। एक बंगाली मज़दूर ने कहा कि यहां पर झाल मूरी और बंगाली खान-पान की नब्बे दुकानें हैं। तीन-तीन दुर्गा पूजा होती है। काफी संख्या में मराठी भी आ गए हैं इसलिए गणेश पूजा समिति भी बन गई है। उड़ीसा के भी कुछ लोग हैं। वर्चस्व की जगह सामंजस्य दिखा।



वैसे करोलबाग में १९४२ में ही दुर्गा पूजा समिति बन गई थी। विभाजन के बाद बांग्लादेश और कोलकाता से नौजवान दिल्ली आए तो इन्हें किराये का मकान मिलने लगा। क्योंकि पंजाबी मालिक सिर्फ मद्रासी और बंगाली को ही किराये पर देते थे। यह समझ कर कि लोकल से मकान खाली कराना मुश्किल होता है। धीरे-धीरे करोलबाग में मध्यमवर्गीय बंगाली बसने लगे। मद्रासी पहचान भी बनी रही। १९५८ में कुछ नौजवानों ने करोलबाग बंगिया संसद का गठन किया। लेकिन जब नब्बे के दशक में करोलबाग का व्यावसायीकरण शुरू हुआ तो पंजाबी मालिकों ने मकान खाली कराने शुरू कर दिये। इनसे किरायेदारों को काफी पैसे मिले,जिसे लेकर महावीर एनक्लेव,पटपड़गंज,कालकाजी,चित्तरंजन पार्क(शरणार्थियों के अलावा)जैसे कई जगहों पर बसने चले गए। अब मद्रासी भी कम हो गए।

मगर करोलबाग की याद इन्हें सताती रही। कभी कोलकाता के बालीगंज को बसाने के लिए बंगिया संसद बनाने वाले भोला बनर्जी अब दक्षिण दिल्ली के कालकाजी में रहते हैं। कहते हैं करोलबाग की बहुत याद आती है। करोलबाग बंगिया संसद का कोलकाता में एक चैप्टर है। रिवर्स माइग्रेशन तो सुना था लेकिन इस तरह का माइग्रेशन नहीं कि बंगाली कोलकाता जाकर करोलबाग की याद को बनाए रखने के लिए संगठित हों। वर्ना चित्तरंजन पार्की की नई पहचान ने बंगाली मानस से करोलबाग को गायब कर दिया होता। करोलबाग की बंगिया संसद ने एक लाइब्रेरी भी बनाई है। बांग्ला की दस हज़ार किताबें हैं। पांच सौ से ज्यादा सदस्य हैं जो इस लाइब्रेरी का इस्तमाल करते हैं।



इसी बीच मज़दूर बंगाली संपन्न होने लगे। उन्होंने उन मोहल्लों में मकान लेने शुरू कर दिये जहां बंगिया संसद से जुड़े बंगाली लोग रहते थे। तपन मुखर्जी ने बताया कि अब दोनों में तनाव कम हो गया है। वे भी हमारे जैसे हो गए। वर्ग का स्थायी चरित्र होता है सिर्फ उसके किरदार बदलते रहते हैं। क्लास में नए-नए लोग शामिल किये जाते रहे हैं। सामाजिक श्रेणियों की यही खासियत है। काफी लचीली होती हैं। करोलबाग आज फिर से चित्तरंजन पार्क से भी ज़्यादा बंगाली हो गया है।

और रैगरपुरा सोना-चांदी के काम के लिए मशहूर। ये रवीश की रिपोर्ट का सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है। करोलबाग की ऐसी कई कहानियां मौजूद हैं। दिल्ली को फिर से समझने का वक्त है। शहरी रिश्ते बदल रहे हैं। जिन जगहों को पिछले बीस सालों से देखता आ रहा हूं,वो अब फिर से अनजाने लगने लगे हैं। देखियेगा,अपने करोलबाग को,मेरे साथ।

समय-शुक्रवार(१६अप्रैल) रात साढ़े नौ बजे,फिर शनिवार सुबह साढ़े दस बजे,रविवार शाम साढ़े पांच बजे,रविवार रात साढ़े दस बजे।

गांधी कथावाचकों को तैयार करने का मन तो है पर योजना नहीं

नारायण देसाई से मिलने की तमन्ना शनिवार को पूरी हो गई। पचासी साल के तेज़ तर्रार और ज़िन्दादिल बुज़ुर्ग से मिलकर अच्छा लगा। बताने लगे कि कैसे गांधी कथा तैयार हो गई। गुजराती में बापू की जीवनी तैयार हो रही थी। साढ़े चार साल में चार खंडों में तेईस सौ पेज का जखीरा तैयार हो गया। फिर लगा कि इसे पढ़ेगा कौन। किताब भी महंगी है। बस तभी से गांधी की कथा की तैयारी में जुट गया।

प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक का अनुभव था। नानी से कहानी सुनी थी और बच्चों को सुनाया था। इसी अनुभव को लेकर चलना शुरू किया। एक ऐसे आदमी की कथा कहने जा रहा था जिसके साथ जीया था। धीरे धीरे गांधी कथा तैयार हुई। एक साल रोज़ एक प्रसंग सुनाया,फिर फीडबैक लिया,फिर जोड़ घटाव किया। गांधी का इतिहास तो है मगर कथा नहीं। इससे पहले मैंने किसी की कथा नहीं सुनी थी। भागवत न रामायण। उन कथावाचकों के पास तो टेक्स्ट थे। मैं गांधी की आत्मकथा को टेक्स्ट बनाकर कथा नहीं कह सकूंगा। वो कथा तो १९२३ में खतम हो जाती है। इसलिए मैंने गांधी कथा को कथा का रूप देने के लिए गीत लिखे। उन गीतों की पुस्तिका तैयार कराई और कथा शुरू कर दिया। जुलाई २००४ से लेकर आज तक बयासी कथा हो चुकी है। दो हज़ार दस के साल मैं सिर्फ तरुणों को गांधी कथा सुनाऊंगा। स्कूल कालेजों में जाऊंगा। नौवीं दर्जे से नीचे के छात्रों को कथा नहीं कह सकता। मेरे पास कोई तरीका नहीं है। छोटे बच्चों को गांधी की कथा सुनाने की।
गुजरात दंगों के बाद गोधरा में भी गांधी कथा का आयोजन किया। चालीस फीसदी मुस्लिम महिलाओं ने हिस्सा लिया और फिर उन्होंने अपनी बस्तियों में गांधी कथा को बांचा।

नारायण देसाई बोलते जा रहे थे। कैमरे पर भरोसा खतम हो चुका था। लगा कि रिकार्ड नहीं कर पाया तो। बस लिखने लगा। नारायण देसाई ने अपनी कथा जारी रखी। कहा गांधी बदलने वाला आदमी था। वह डरपोक था लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य को हिला कर रख दिया। नित्य परिवर्तनशील इंसान था गांधी। वो कोई चमत्कार नहीं था। मेरी कथा में अंतर है। श्रद्धा का विषय होता है। लोग कहते हैं कि शान्ति मिलती है। मैं सुनने वालों की आंखों में झांकता हूं। देखता हूं कि रोचकता बढ़ रही है तो मेरी कथा बदलने लगती है। मुरारी बापू तो रामायण का एक प्रसंग लेकर विश्लेषण करते हैं और उसी के आस पास कहानी घूमती है। मेरी कथा तो पोरबंदर से शुरू होकर दिल्ली तक खतम होती है। कथा के लिए संगीत ज़रूरी है। माहौल ऐसा बनना चाहिए कि श्रोता द्रष्टा बन जाए। उसे सुनाई नहीं दिखाई देने लगे कि देखो बापू चल कर आ रहे हैं।

मैं तो गांधी के साथ २२ साल रहा। गांधी को जाना उनकी मृत्यु के बाद। उनसे अंतरंग परिचय हुआ। गांधी क्रांतिकारी सन्त थे। शरीर से जो प्राप्त होता है वो सुख है। आत्मा से जो प्राप्त होता है वो आनंद है। क्रांन्तिकारी वह है जिसके ह्रदय वीणा पर दूसरे के कष्ट की प्रतिध्वनि हो। विश्व की वेदना उसके ह्रदय में प्रतिध्वनित होती हो। गांधी का प्रयत्न चित्त शुद्धि और समाज क्रांति का मेल था। ध्यान योग से चित्त शुद्धि और अपने प्रयास से सामाजिक संरचना में परिवर्तन। अशुद्ध चित्त से की गई क्रांति शुद्ध नहीं है। गांधी सत्य की चोटी चढ़ते चढ़ते आरोहरण करने वाला था। हमारे देश में कई धुनें सुनाई देती हैं। सबसे पोपुलर है रघुपति राघव राजा राम, पतित पावन सीता राम। पतित को पावन करने वाला राम है। इस गांधी में रुचि है। गांधी इसलिए आदर्श है क्योंकि उसने वही करने की कोशिश की जो बोला। युवा किसी भी नेता में यही आदर्श ढूंढता है कि जो बोलता है वो करता है या नहीं। गांधी की विशेषता उनकी कोशिश थी। सत्य सहज था। जैसे बच्चे के लिए सत्य सहज होता है। सत्य के ऊपर भय आ गया तो झूठ का जन्म होता है। गांधी की खोज सत्य की थी।

नारायण देसाई से एक सवाल किया। आपके बाद इस कथा को कौन जारी रखेगा। नारायण देसाई चिन्तित नहीं दिखे। बोले अभी तो मैं हूं। सोचा है कि कुछ लोगों को प्रशिक्षित करूंगा लेकिन योजना नहीं बनी है। मैंने अपना काम कर दिया। अब लोग करेंगे। कोई रुचि लेगा तो उसे ट्रेनिंग दूंगा।

( कुछ बातें इंटरव्यू की थी और कुछ मंच से सुनी हुई। वसुंधरा के मेवाड़ कालेज में शनिवार से लेकर मंगलवार तक उनकी कथा चली। एक दिन बाकी है)

पहाड़गंज-कटरा राम गली



पहाड़गंज पर रिपोर्ट करने के सिलसिले में कटरा राम गली गया था। एक के ऊपर एक बने कमरे। २७ कमरों में पांच सौ लोग रहते हैं। एक कमरे में तीन शिफ्ट में परिवार सोता है। जीवन का ग़ज़ब का उत्सव दिखता है। लोगों ने जगह की तंगी के बाद भी कुत्ते पाल रखे हैं,मुर्गे हैं और छत पर सैंकड़ों कबूतर। आंगन की पूरी दीवार कपड़ों से ढंकी हुई है। एक सज्जन ने कहा कि पैंतीस रुपया किराया है। कोई वसूलने भी नहीं आता। किसी ने यह भी कहा कि मामला अदालत में है इसलिए ऐसा हाल है। लेकिन कटरों की ज़िंदगी की ख़ूबसूरती को नए सिरे से देखना चाहिए। इन तंग घरों की इतनी बेहतरीन सजावट की गई है कि क्या कहें। कोई जगह को लेकर रोता हुआ नहीं आया।


आप इनकी रसोई को देखिये। इस सजावट में सपने दिखते हैं।

सबसे तेज माचिस



सावदा घेवरा पर रिपोर्ट बनाने के क्रम में एक ढाबे में रूका। नज़र माचिस पर पडी। आज तक ब्रांड की लोकप्रियता पोपुलर कल्चर का भी हिस्सा है। आज तक को इस पर स्टोरी करनी चाहिए कि उसके नाम पर माचिस बिक रही है। आग भी अब आज तक से लोहा ले रही है। तीलियों की हिम्मत तो देखिये,अपना नाम आज तक रखती हैं। न्यूज़ चैनलों को गरियाने के इस काल में माचिस की डिब्बी देखकर लगा कि कुछ तो कद्र है भाई।

भूतों वाली गली



पश्चिम दिल्ली के नांगलोई जाट इलाके में भटक गया था। एक गली का नाम देख कर चौंका। भूतों वाली गली। आप तस्वीर में देख सकते हैं। एक शिक्षक से पूछा तो उन्होंने बताया कि बहुत साल पहले इस गांव के चारो तरफ खेत थे। गहलोत जाट दिन भर खेतों में काम कर जब शाम को लौटते थे तो उनके चेहरे मिट्टी से सने होते थे। वे भूत की तरह लगते थे। तभी से यह भूतो वाली गली कही जाती है। फिर भी न्यूज़ चैनल वाले इसमें अपने लिए संभावनाएं ढूंढ सकते हैं। अंधविश्वास के खिलाफ लड़ाई लड़ने के क्रम में सवाल उठा सकते हैं कि दिल्ली में कैसे भूतों के नाम पर गली हो सकती है।

चिदंबरम की उदास रातों में कुछ सवालों के रतजगे

पी चिदंबरम उदास हैं। दंतेवाड़ा में हुए हमले के बाद उनकी जो भी तस्वीरें छप रही हैं,उनमें एक किस्म की उदासी है। घटना की नैतिक ज़िम्मेदारी की भंगिमा समझ नहीं आई। चिदंबरम ने क्या सोचा था? युद्ध भी करेंगे और जान भी नहीं जाएगी। जान तो दोनों तरफ से जानी है। यही तो कहा जा रहा था कि अपने लोगों पर गोली कैसे चलायेंगे। खून चाहे इधर बहे या उधर बहे, अपना ही है। नक्सल समस्या को सामाजिक आर्थिक बताते बताते कांग्रेस अचानक चिदंबरम के नेतृत्व में नक्सलियों को आतंकवादी बताने लगी। मीडिया का इस्तमाल होने लगा। एक भाषाई मीडिया के ज़रिये चिदंबरम अपनी बात को आखिरी उपाय की तरह पेश करने लगे। चिदंबरम को जानना चाहिए कि इंग्लिश मीडिया का असर उनके सत्ता प्रतिष्ठानों के गलियारे में है। जनता में नहीं है। अपने बगल की ताकतवर इंग्लिश मीडिया के ज़रिये एक माहौल बना रहे थे कि नक्सलवाद से लड़ना है। इस दौरान चिदंबरम ने एक बार भी यह समझने की कोशिश नहीं की कि समस्या का आधार क्या है। क्या हिंसा ही आखिरी रास्ता है। बातचीत और हिंसा छोड़ने की एकाध पेशकशों को छोड़ दें तो यही लगता रहा कि गृहमंत्री युद्ध के रास्ते पर ही चलेंगे। बीच में लगे कि यह रास्ता ठीक नहीं तो पुनर्विचार करने में भी हर्ज़ नहीं है। बीजेपी के बहकावे में न आएं कि हम पूरी तरह से साथ हैं। यह पार्टी खनिज माफिया रेड्डी बंधुओं को मंत्री बनाती है।

एक राज्य की मुसीबत यह है कि वह किस संविधान के तहत किसी सैन्य आन्दोलन को मान्यता दे। इस लिहाज़ से चिदंबरम ठीक हो सकते हैं लेकिन राज्य को बताना तो पड़ेगा कि समस्या क्यों हैं। युद्ध ही आखिरी रास्ता क्यों है। साठ साल में राज्य स्थानीय परंपराओं के अनुसार विकास का मॉडल बनाने में नाकाम रहा। आदिवासियों की ज़मीन और जंगल पर उनके अधिकार पर ठीक से बात नहीं की। दो तीन साल पहले अपनी बात सुनाने के लिए आदिवासी पैदल चलकर दिल्ली आए। नक्सलवाद आज तो नहीं पनपा। नक्सलबाड़ी का उदाहरण सामने है। किसी को तो बताना पड़ेगा कि नक्सलवाद को जनसमर्थन किस बूते हासिल है। कोई लेवी देकर नक्सलवाद का समर्थन नहीं बन सकता। नक्सलवादी होने का मतलब ही है राज्य से हिंसक टकराव। इस जोखिम काम के लिए कोई लेवी देकर अपनी जान नहीं देगा। विचारधारा को आधार कैसे मिल रहा है। क्या सरकार दिल पर हाथ रख कर कह सकती है कि उसकी तरफ से या उसकी शह पर उद्योगपतियों की तरफ से आदिवासियों का शोषण नहीं हो रहा है।

एक जटिल समस्या का सरल समाधान बंदूक नहीं है। अमेरिका बंदूक और बम के दम पर कहीं भी आतंकवाद को खतम नहीं कर पाया। बल्कि बढ़ गया। लिहाज़ा ओबामा को मुसलमानों का विश्वास हासिल करने के लिए नौटंकी करनी पड़ रही है। मुस्लिम सलाहकार रखे जा रहे हैं, अमेरिकी दूतावास की तरफ से इफ्तार तक दिये जा रहे हैं। चिदंबरम से ज्यादा मीडिया अमेरिका के पास है। फिर भी बुश को पब्लिक की नाराज़गी झेलनी पड़ी। मीडिया का असर सीमित समय के लिए ही होता है। इसके ज़रिये जनमत बनाने वाले हमेशा धोखा खाते रहे हैं। चिदंबरम भी जाल में फंस गए। उन्हें लगा कि कुछ संपादकों और मीडिया के ज़रिये वो जनमत बना लेंगे लेकिन जंगलों में तो कोई टीवी का चैट शो नहीं देखता न। उन लोगों से संवाद तो करना ही होगा जिन्हें आप नक्सलियों के चंगुल से मुक्त कराना चाहते हैं। सलवा जुडूम नाम का मज़ाक हुआ। सुप्रीम कोर्ट तक ने आलोचना की। सरकारों ने आदिवासियों के भीतर के अंतर्विरोध का नाकाम फायदा उठाने की कोशिश की। फेल हो गया। तो अब किस उम्मीद,रणनीति और फैसले से ग्रीन हंट का आगाज़ कर दिया गया।

सत्ताधारियों को मेरी सलाह है। मीडिया के ज़रिये जनमत बनाने पर पांच पैसा खर्च न करें। प्रोपेगैण्डा सरकार कर सकती है तो नक्सली भी कर सकते हैं। क्या आपने एक भी आदिवासी सांसद की बाइट सुनी? जिनके इलाके में युद्ध होगा उन सांसदों को किसी प्रेस कांफ्रेंस या टीवी चैट शो में बुलाया नहीं गया। नक्सल प्रभावित इलाकों के विधायकों, पार्षदों से बात नहीं की गई। ऊपर से थोपे गए युद्ध का यही हश्र होता है और उनके बीच से लोगों को फो़ड़ने के बहाने हुए सलवा जुडूम का हाल तो आप देख ही चुके हैं। सख्ती के नाम पर विनायक सेन जैसों के घर छापे डालकर जेल में बंद कर आप कुछ हासिल नहीं कर सकते।

सरकार और नक्सली के बीच सत्ता संघर्ष चल रहा है। एक स्टेट को बचाना चाहता है तो दूसरा स्टेट बनना चाहता है। राष्ट्रीय विचारकों का एक ग्रुप है जो नक्सलवाद के खिलाफ सैन्य अभियान का विरोध करता है। एक ग्रुप समर्थन करता है। एक ग्रुप सरकार के इस अभियान का विरोध करते हुए नक्सलवाद का समर्थक नहीं होना चाहता। एक ग्रुप नक्सलवाद के समर्थन में है। नक्सलियों ने अपनी तरफ से पेशकश नहीं कि वे सत्तासंघर्ष और सत्ता छोड़ने के लिए क्या चाहते हैं। उन्होंने ग्रीन हंट का जवाब तो दे दिया लेकिन इस समस्या का जवाब कैसे देंगे। क्या आदिवासियों की समस्या का नक्सलवाद ही एकमात्र समाधान है? स्थायी समाधान है? इस बात पर बहस तो करनी ही होगी। कोई ऐसा भरोसेमंद रास्ता क्यों नहीं निकल सकता? भरोसा नहीं है तो उसके बनने का इंतज़ार क्यों नहीं हो सकता।

सीआरपीएफ के जवानों की शहादत का सम्मान किया जाना चाहिए। इन जवानों के लिए कोई कैंडिल लाइट नहीं करेगा। स्क्रोल में नाम चलेंगे। फिर भी मीडिया ने इनकी तरफ से बात तो की ही है। इनकी समस्याओं को दिखाया है। असर हुआ या नहीं ये तो सीआरपीएफ के लोग जानते होंगे। बिना प्रशिक्षण के युद्ध में झोंक दिये गए। गोलियों से ज्यादा मच्छरों से मर जाते हैं। बस एक टुकड़ी को उठाकर यहां भेजा,वहां भेजा। अजीब अजीब किस्म की नैतिकता से टकराते रहे। अपने लोगों के खिलाफ सेना नहीं लगा सकते। अर्ध सैनिक लगा सकते हैं लेकिन सेना नक्सलियों से लड़ने के लिए अर्ध सैनिक बलों को ट्रेनिंग दे दे। नाक इधर से नहीं पीछे से घुमा के पकड़ ली। भाई सेना ही क्यों नहीं लड़ सकती है। सीआरपीएफ की बहादुरी पर कोई शक नहीं है। वे जाबांज़ हैं। लेकिन ये क्या नैतिकता है कि सेना अपने लोगों के खिलाफ नहीं लड़ सकती,अर्धसैनिक बल लड़ सकते हैं? वे क्या भारतीय नहीं है। सीआरपीएफ के सभी शहीदों को सलाम। वो कायरात में नहीं मारे गए। बहादुरी से लड़े। बस किसी और की जल्दबाजी का शिकार हो गए।

कैसे हुआ कि अस्सी जवानों को मार कर नक्सली तीस किमी पैदल चल कर जाते हैं और लापता हो जाते हैं। विश्वरंजन साहब ज्ञान दे रहे हैं कि इंटेलिजेंस जासूसी किताबों से पढ़कर नहीं आता। एक पूरी कंपनी खतम हो गई और आप अब भी कहते हैं कि बिना चूक के यह सब हो गया। नक्सलियों के तीन सौ लोग मोर्चे पर थे। पांच मिनट में तो कार्रवाई खतम नहीं हुई होगी। जब कोई घायल सिपाही यूपी के मुज़फ्फरनगर फोन कर सकता है तो किसी सेंट्रल कमांड तक बात कैसे नहीं पहुंची होगी। तब सीआरपीएफ ने क्या एक्शन लिया। कितने हेलिकाप्टर आसमान में उड़ाए गए नक्सलियों की तलाश में। यह तो बताना होगा न। जबकि हमला तो सुबह हुआ था।

नक्सलियों ने प्रेस रीलीज में लिखा है कि उनकी तरफ से आठ कमांडर मारे गए हैं। सबका शहीद की तरह गांव के सैंकड़ों लोगों के बीच अंतिम संस्कार किया गया। क्या सरकार को नहीं मालूम था। अगर वाकई सरकार को पता नहीं चला तो उसे यह अभियान वापस ले लेना चाहिए और विश्वरंजन जी को जासूसी उपन्यास पढ़ने चाहिए। जितनी तैयारी चिदंबरम और उनकी सेना ने प्रेस कांफ्रेस और टीवी स्टुडियो के ज़रिये माहौल बनाने के लिए की,उससे कुछ कम तैयारी में सैनिकों को प्रशिक्षित करने में करते तो इतने जवानों की शहादत नहीं होती। नक्सली राजधानी एक्स्प्रेस की पटरी उड़ा देते हैं, ट्रेन को अगवा कर लेते हैं। सरकार को क्यों नहीं पता चलता है। सरकार को अभी तक कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिली है। इसका मतलब है कि यह समस्या जंग से दूर नहीं होगी।

नक्सलवाद के समर्थन और सरकार के विरोध में लाइन ली जा सकती है। ठीक इसके उलट भी लाइन ली जा सकती है। सरकार ने असम समस्या का हल भी तो बातचीत से ही निकाला था। सिख आतंकवाद से लड़ने के लिए किया गया आपरेशन ब्लू स्टार देश पर कितना भारी पड़ा। अंत में बातचीत तो करनी ही पड़ी। मुस्लिम आतंकवाद के नाम पर उन्माद फैलाने की कोशिश ने इस देश को क्या दिया। गोधरा से गुजरात तक के दंगे। कश्मीर में भी संवाद करना पड़ा। आज एकतरफा बातचीत के कारण मोदी गुजरात में ही सीमित रह गए। चिदंबरम भी एकतरफा फैसले के कारण आज खुद को कमज़ोर महसूस कर रहे हैं।

सरकार को बातचीत की मेज़ पर आना ही होगा या फिर यह बताना होगा कि जब बाकी समाज से आप इतनी सहानुभूति रखते हैं तो आदिवासियों से क्यों नहीं रखते। बाकी समाज में तो इतने सारे संगठन और नेता सक्रिय हैं जो मोर्चा संभाल लेते हैं। क्या आप एक भी आदिवासी नेता का नाम बता सकते हैं जो अपने स्वतंत्र विचार से ग्रीन हंट का समर्थन या विरोध करता हो। सुना ही नहीं होगा। संवाद ही आखिरी रास्ता है। संवाद होगा तो आप आदिवासियों के अधिकार की बातें सुनेंगे। यह नहीं कहेंगे कि यह रही गरीबी हटाने की साठ साल की नाकाम योजना। इसे ले लीजिए। पीएम ने बनाया है। जंगलों पर उनके अधिकार की बात दिल्ली से कीजिए। माइनिंग कानून बनाने की बात से पहले आदिवासियों से कीजिए। कर्नाटक के रेड्डी बंधु का उदाहरण बताता है कि खनन के नाम पर चोरी कौन कर रहा है।

सरकार को साफ करना होगा कि मुंबई हमले के बाद जब अमेरिका के दबाव में बातचीत हो सकती है,युद्ध को टाला जा सकता है तो नक्सलियों से क्यों नहीं बातचीत हो सकती है। उन पर युद्ध थोपने का दबाव कहां से आ रहा है। जबकि इस सरकार के अनुसार नक्सल भी आतंकवादी है। एक आतंकवादी के खिलाफ आप युद्ध नहीं करते और दूसरे के खिलाफ करते हैं। नक्सल समर्थकों के नाम पर पत्रकारों और समाजसेवियों को बंद कर देने से काम नहीं चलेगा। मीडिया के ज़रिये दिल्ली के मध्यमवर्ग के बीच नक्सलवाद के विरोध में हवा खड़ा कर इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। मध्यमवर्ग को पार्टी मत बनाइये। नक्सल प्रभावित इलाके के लोगों को पार्टी बनाइये। बात कीजिए। चोर पुलिस का खेल मत खेलिये।

इस बार बस्ती के बसने की कहानी- रवीश की रिपोर्ट



तस्वीर में दिख रही पंक्ति रिया नाम की एक लड़की ने लिखी है। अंकुर एनजीओ ने इसे सावदा घेवरा की दीवारों पर चिपका दिया है। लक्ष्मीनगर की एक झुग्गी से उजड़ कर आई थी रिया। सावदा घेवरा। दिल्ली हरियाणा की सीमा पर। रोहतक रोड से दायीं तरफ मुड़ते ही सावदा घेवरा आ जाता है। मेन रोड से पांच छह किमी अंदर। कॉमनवेल्थ गेम्स के कारण पिछले चार साल में दिल्ली की १४ बस्तियों को उजाड़ कर यहां बसाया जा रहा है। अंकुर के लोग यहां बस्ती के बसने की पूरी प्रक्रिया स्टिल और वीडियो कैमरे में दर्ज कर रहे हैं।

वाकई बस्तियों के उजड़ने की कहानी एक दौर में खूब कवर की है। अब तो ऐसी कहानियों के लिए स्पेस ही नहीं है। मगर बस्तियों के फिर से बसने की कहानी कभी नहीं की। कभी जाकर नहीं देखा कि कैसे गेहूं के खेत में प्लाट काट कर ब्लॉक बनाया गया,वहां सभी बस्तियों को बसाया गया। कई ब्लॉक बने। हर बस्ती के लोग यहां आकर बसे। चार साल में भी इनकी पुरानी पहचान नहीं बनी। आज भी ये लोग खुद को खानमार्केट,लक्ष्मीनगर के ठोकर नंबर ग्यारह,नांग्लामाची का ही नाम लेते हैं। एक महिला से पूछा कि जब आपसे पूछता है कि आप कहां की हैं तो सबसे पहले आप क्या बोलती है,जवाब मिला- खान मार्केट,सावदा घेवरा का तो नाम ही नहीं आता। इतना ही नहीं खान मार्केट के पास बसी बस्ती के लोग खुद को वीआईपी कहते हैं। वो अपनी भाषा,बोली और रहन सहन में दूसरों से फर्क करते हैं। कहते हैं लक्ष्मीनगर वाले तो तू तड़ाक करते हैं,हम खान मार्केट वालों के रहने की स्टाइल अलग है। कुछ तो अलग थी। खान मार्केट से आए लोगों के ब्लॉक के मकान बेहतर दिखे। अंदर की सजावट और स्पेस का मैनेजमेंट अलग था। बारह गज के मकान में भी शाही अंदाज़ का अत्यंत लघु रूप दिख रहा है। वाशिंग मशीन से लेकर लैब्रडर कुत्ता भी।

अंकुर ने कई कहानियों को यहां दर्ज किया है। बच्चे अपनी स्मृतियों को किस्से के रूप में दर्ज कर रहे हैं। जिसका किताबी रूप आप अंकुर और सराय के बहुरुपिया शहर में देख चुके होंगे। हरीश ने अपना कंप्यूटर सेंटर खोल लिया है। बसंती आज भी लक्ष्मीनगर काम पर जाती है। कहती है जिन कोठियों में काम करती हूं,उनसे तीस साल का रिश्ता है। जिन बच्चों को गोद में खिलाया अब उनके बच्चे हो गए हैं। सब नानी दादी कहते हैं मुझे। उन्होंने मेरा वेतन भी बढ़ा दिया है लेकिन सावदा घेवरा से लक्ष्मीनगर जाने के लिए चालीस किमी की दूरी तय करनी होती है। सुबह निकलती हूं तो रात में लौटती हूं। बसंती बोलते बोलते रोने लगी कहा कि अब तो दुख का पता ही नहीं चलता। इसी में जीते हैं बस। सुख तो पास भी नहीं आता। आप चले जाओ साहब। क्या करोगे सवाल पूछ कर।

दो दिनों तक देखता रहा कि कैसे इस बस्ती में राजनीति से लेकर त्योहार तक जीवन का हिस्सा बनता रहा। आरएसएस की शाखा लगी। शाखा लगाने वाले ने कहा कि यहां किसी की पहचान नहीं थी। इज़्‍ज़त नहीं थी किसी। शाखा में आने लगे तो पहचान मिल गई। पंडित ओमकार ने अपने प्लाट पर मंदिर बना दिया। बस्ती के बगल में श्मशान की जगह थी तो लोगों ने तो़ड़ दी। वहां पर बाल्मीकि और शंकर का मंदिर साथ साथ बना दिया। लक्ष्मीनगर और नांग्लामाची वालों ने अपनी अपनी मस्जिद बना ली।

ऐसे बहुत सारे किस्से हैं रवीश की रिपोर्ट में। लेकिन हरीश की बात भूल नहीं पा रहा हूं। उसने कहा कि हमारे लिए तो कॉमनवेल्थ २००६ में ही शुरू हो चुका था। जब हमारी बस्तियां उजड़ीं। हम हर दिन बीस से पचीस किमी की दूरी तय करते हैं। बस पकड़ने के लिए तीन चार किमी की दौड़ लगाते हैं। हम तो कॉमनवेल्थ के लिए चार साल से दौड़ रहे हैं। दिल्ली वाले तो अब दौड़ेंगे। कॉमनवेल्थ में वही दौड़ेंगे जो अभी आराम कर रहे हैं।

वाकई बस्ती के बसेन की कहानी में कितने रंग होते हैं। आज रात(शुक्रवार) साढ़े नौ बजे और रविवार रात साढ़े दस बजे आप रवीश की रिपोर्ट देख सकते हैं। कार्यक्रम का नाम है रवीश की रिपोर्ट।

टीवी के आइडिया उत्पादकों का अनादर मत करो

टीवी का फटीचर काल अपने स्वर्ण युग में प्रवेश कर चुका है। सानिया की शादी को लेकर तमाम संपादकीय रणनीतिकारों ने आइडिया को त्वरति गति से पैदा करना शुरू कर दिया है। टीवी के फटीचर दर्शकों ने लेख लिखने के लिए इन तमाम कार्यक्रमों पर अपनी आंखें गड़ा दी हैं। टीआरपी फिर लौट आया है। पत्रकारिता के सारे अहंकार इस टीआरपी के जूते के नीचे रिरिया रहे हैं। यह देखकर अच्छा लगता है। अब रोने और सिसकने की सीमा से आगे जाकर दर्द दवा बन चुका है। ग़ालिब अपनी टोपी फेंक आइडिया सोच रहे हैं। सानिया की शादी का कौन सा एंगल हमारे चैनल को रेटिंग के इतिहास में दर्ज करा देगा। सानिया दर्शकों की सामुदायिक संपत्ति हैं। इससे पहले अभिषेक बच्चन की शादी में कैमरेवाले धकियाये जाने के बावजूद एक्सक्लूसिव तस्वीरें ले आए थे। भारत की महान जनता पत्रकारिता के इस आईपीएल पर ताली बजा रही है।

हिन्दी न्यूज़ चैनल आलोचकों के लेख से नहीं चलेंगे। आलोचकों ने लेख लिखकर न जाने कितने कमा लिये। हर लेख के पैसे मिलते हैं। न्यूज चैनल अपने इस पतन काल में फिल्मों को भी आइडिया परोस रहे हैं। मैं भी अब इस गंध में जीना चाहता हूं। जी करता है काश हम भी दस पांच घटिया कार्यक्रम करते जिनकी रेटिंग आती। आखिर दुनिया से अलग होकर जंगल में जीने का कोई इरादा नहीं है। मैं भी अब लंगोटिया भूत से लेकर जूली चुड़ैल की कहानी करना चाहता हूं। अहा-स्वाहा। पत्रकार फिल्ड में नहीं जा रहा है। बडे पत्रकार स्टुडियो से नक्सल पर आइडिया निकालकर लेख भांज दे रहे हैं। अच्छी पत्रकारिता भी कम फटीचर दौर में नहीं हैं। हिन्दी के तमाम अच्छे किस्म के बड़े पत्रकार शानदार लगने वाली लाइनों के सहारे दावेदारी साबित कर रहे हैं। जो अच्छा है वो भी कम बुरा नहीं है। जो बुरा है उसकी बदबू अब उत्साहित कर रही है। आइये इस पत्रकारिता के तमाम आदर्शों की चटनी बनाकर सानिया को तोहफे में भेज देते हैं।

फटीचर काल के तमाम आलोचकों पर कोड़े बरसाये जाने चाहिए। उन्हें ज़ंजीरों में बांध कर उनसे सानिया की शादी के घटिया कार्यक्रम बनवाये जाने चाहिए। आखिर दर्शकों ने जब खारिज नहीं किया तो ये कौन होते हैं। मैं कौन होता हूं। ग़लीज़ शाइरी का जलवा होता है। महफिलों में ग़ालिब नहीं सुनाये जाते। टीवी का यह लुगदी साहित्य बवाल स्तर का कमाल पैदा कर रहा है। कब तक आलोचना का काल चलेगा। कब तक। सात साल से यही चल रहा है। जिन दर्शकों ने सानिया पर बने घटिया कार्यक्रमों को देखा है और लेख लिखा है उन्हें पकड़ कर जेल भेजना चाहिए। बदनाम गली में जाते भी हैं और शरीफ कहलाने का शौक भी पालते हैं। हद है। दादागीरी की। जो लोग सानिया पर रात रात जागकर कार्यक्रम बना रहे हैं उनकी कोई बिसात नहीं है क्या। आखिर किस महान मफ्ती ने,किस महान एक्टर ने और किस महान डिजाइनर ने ऐसे शो में आने से मना किया है। किसी ने नहीं किया होगा। निकाह से लेकर दुल्हन के लहंगे तक की जानकारी देना कोई मज़ाक समझा है।

अब वक्त आ गया है। आलोचकों को मार मार कर खदेड़ने का। जो आलोचना करें उसका कपार फोड़ दीजिए। आलोचकों को भी अपनी नाकामी स्वीकार कर फटीचर काल को बदनाम करने की तमाम साज़िशों से अलग कर लेना चाहिए। टीवी के इस हाल पर जो रोता है वो नकली दर्द बयां करने का उस्ताद है। उसके आंसुओं के झांसे में मत फंसो। देखो। देखो। टीवी देखो। सानिया की शादी हो रही है। क्या इस खुशी में न्यूज़ चैनलों के शामिल होने का कोई हक नहीं? किसने कहा कि बारात में बैंड वही बजाएगा जिसे दुल्हे वाले बयाना देकर लायेंगे। बाकी लोग भी तो अपनी छतो से बजा सकते हैं। बजाइये। फिल्म में हीरोईन सीन के डिमांड पर कपड़े उतार देती है तो हिन्दी टीवी पत्रकारिता रेटिंग के डिमांड पर कपड़े क्यों न उतारे। फटीचर काल के राजकपूरों का अपमान करने वाले राम तेरी गंगा मैली वाली मंदाकिनी की ख़ूबसूरती और कहानी की मांग के अनुसार मातृत्व के सौंदर्य को नहीं समझ पा रहे हैं। फटीचर काल के राजकपूरों अपनी कल्पनाशीलता को कभी मत रूकने देना। तुमने एक काल,एक युग की रचना की है। तुम युगपुरुष हो। आओ हम सब मिलकर इन महान आइडिया उत्पादकों(संपादक का नया नाम) का सम्मान करें। अपने आप को धन्य होने का मौका दें तो हम ऐसे काल में रह रहे हैं। मत भूलो कि सैलरी सबको चाहिए। अगर कोई कहता है कि वो मिशन के लिए आया है सैलरी के लिए नहीं तो वो झूठा है।

नोट- आज इन आइडिया उत्पादकों के समर्थन में यह लेख लिख कर हल्का महसूस कर रहा हूं। धारा के साथ बहने का सुख गंवाना मूर्खता है। होली में वही लोग उदास दिखते हैं जो खेलते नहीं,घर बैठे रंगों को गरियाने लगते हैं। एक बार कीचड़ में उतर जाइये, सन जाइये तो मज़ा आता है। खेलने में भी और उसके बाद नहाने में भी।

नोट- सानिया ने अपनी खिड़कियों पर अख़बार चिपका दिये हैं। पावरफुल ज़ूम वाले कैमरे ने तब भी झांक लिया है। इंग्लिश चैनल भी सक्रिय हो गए हैं। हिन्दी चैनलों के दबाव में आकर।

नोट- हिन्दी टीवी चैनलों ने दुल्हे शोएब को जेल में ठूंसवाने का पूरा इंतज़ाम कर दिया है। एफआईआर के लेवल तक मामला तो ले ही आए हैं। अब कोई कहे कि ख़बर नहीं है। कैसे नहीं है। सानिया का दुल्हा शोएब,फरेबी,झूठा,आयशा का एंगल और धोखा। क्या कहानी है। पांच मिनट ही देख सका। फटीचर काल अपने इम्पैक्ट की तरफ बढ़ रहा है।

नोट- अगर शोएब को जेल में ठूंसा गया तो आगे से हर मशहूर हस्ती को शादी या सगाई से पहले हिन्दी न्यूज़ चैनलों के आइडिया उत्पादकों को बुलाकर बैठक करनी चाहिए। करना ही पड़ेगा। सानिया को भी समझ में आ ही गया होगा। सारी अकड़ निकालकर अपने भाइयों ने धूप में सूखा दी है। लगे रहो।