70 की शोखियां,मदहोशियां और बेवकूफियां-फिल्म समीक्षा

वरदराजन, मैं उसकी स्मलिंग करता हूं जिसका इजाज़त सरकार नहीं देती। मैं उसकी स्मलिंग नहीं करता जिसकी इजाज़त ज़मीर नहीं देता। सुलतान मिर्ज़ा के रुप में अजय देवगन की संवाद अदायगी सत्तर के अमिताभ जैसी कशिश लिये तो नहीं थी मगर कम भी नहीं थी। मैंने जीने का तरीका बदला है तेवर नहीं। फिल्म के आखिरी सीन में अजय देवगन के नेताओं पर बोले हुए संवाद ने खूब तालियां बटोरी। ऐसे कई संवाद हैं जो वन्स अपॉन अ टाइम इन मुंबई को देखने लायक बनाते हैं। महान फिल्म कहीं से नहीं हैं लेकिन मज़ेदार है। सत्तर का बेहतर कोलाज है। फिल्म नोस्ताल्जिया उभारने में कामयाब हो जाती है। मुमताज की तरह साड़ी लपेटे सुल्तान की हिरोईन प्रेमिका दिलकश अदायें बिखेरती हैं। इमरान हाशमी की गर्लफ्रैंड जब बॉबी वाली डिम्पल के कपड़े पहनती है और कहानी की डिमांड के अनुसार शुएब की आगोश में आती है तो वैशाली, गाज़ियाबाद के स्टार सिनेमा में पहली बार सिटी की आवाज़ सुनाई देती है। ठीक वैसे ही जैसे पटना के वीणा सिनेमा में बेताब में सनी देओल ने जब अमृता सिंह को अपनी तरफ खींच कर चूम लिया था। आजकल के सिनेमा में नायक कब नायिका को चूम लेता है, कब बिस्तर पर बिछी चादरों की तरह रिश्ते को बदल लेता है,वो भी कंपनी का मामूली मैनेजर बनने के लिए,रोमांस का रोमांच ही पैदा नहीं होता। टिकट का पैसा बर्बाद हो जाता है।

हिन्दी फिल्में बदल गईं हैं। बदलनी भी चाहिए। लेकिन कभी कभी पुरानी कमीज़ आलमारी से निकल कर जवान होने का अहसास पैदा कर देती है। फिल्म की एक और खास बात लगी। कहानी कहने का पुराना तरीका। फ्लैश बैक के सहारे। फिल्म की शुरूआत में पुलिस अफसर अपनी और सुल्तान मिर्ज़ा की कहानी बताता है। संवाद आराम से बोले जा रहे हैं।वो कहता चलता है कि सुल्तान मिर्ज़ा चेन्नई से आया था। सड़कों पर भीख मांगता था। वो बड़ा होता है। दुआ की चाह में और मुंबई शहर के प्यार में। स्मगलरों के किस्सों में अमीरी एक अजीब से बिन बुलाई गर्लफ्रैंड की तरह लगती है। पैसे की औकात नहीं होती। सुल्तान मिर्ज़ा रेहाना को कहता है कि कोयले की खान में काम करते करते उसे काले से बैर हो गया है इसलिए कमरे में हर चीज़ सफेद है। सड़क से गुज़रता है तो चौराहे पर बुढ़िया को सौ का नोट ऐसे थमा देता है जैसे लगता ही नहीं कि इस देश को मनमोहन सिंह की ज़रूरत भी है। सुल्तान एक आदर्श बनने लगता है लेकिन नैतिक चुनौती देने के लिए खूबसूरत और बांका जवाब वो पुलिस अफसर मौजूद होता है। थियेटर स्टाइल में उसकी एक्टिंग अच्छी लगती है। आम तौर पर फिल्मों में पुलिस अफसर का परिवार होता है। घर में इतज़ार कर रही और बालकनी में अपनी जुल्फों को सुखाती कोई नायिका ज़रूर होती है। लेकिन इस फिल्म में एक बांका जवान पुलिस अफसर बिना किसी जोड़े के घूमता है। उसका कोई लव सिक्वेंस नहीं है। कोई किस सीन नहीं है।

पूरी फिल्म क्लोज़ अप में शूट है। भावनाएं साफ साफ दिखती हैं। कैमरा किरदारों से हटता नहीं है। अजय देवगन को स्टाइलिश बनाता है। इमरान हाशमी ने भी अच्छा काम किया है। जिद्दी चोर से मुंबई का बादशाह बनने का सपना लिये जब वो घड़ी की दुकान खोलता है तो लगता है कि वो घड़ी बेचने के लिए पैदा नहीं हुआ है। शराब की बोतल लेकर अपनी प्रेमिका के पास चला जाता है। कहता है कि वही तो लाया हूं जिससे देखकर मेरे दोस्त सबसे ज्यादा खुश होते हैं। आज का काम कल करूंगा तो आज नाराज़ हो जाएगा। सत्तर की फिल्मों की यही खूबी थी। सबके डॉयलॉग होते थे। कुछ बेवकूफियां भी हैं। सुल्तान मिर्ज़ा को दयालु बनाने के लिए रेट की पटरियों को जोड़ने का सिक्वेंस। गृहमंत्री के बेडरूम में अमिताभ स्टाइल में सुल्तान मिर्ज़ा का पहुंच जाना। वो भी तब जब गृहमंत्री अपने घर में लेटा हुआ है। यहां निर्देशक को दिमाग लगाना चाहिए था। कम से कम किसी गेस्ट हाउस में किसी वैम्प की आगोश में गृहमंत्री को होना चाहिए था। फिल्म का अंत थोड़ा कमज़ोर है। सत्तर के लिहाज़ से अंत ऐसा होना चाहिए था जिसमें आप खुश हों। चलते चलते फिर से ताली बजा दें या ऐसा भावुक क्षण हो कि आप रो ही पड़ें। शुएब सुल्तान को मार तो देता है कि लेकिन कोई सिम्पथी नहीं बटोर पाता। लेकिन एक दर्शक के तौर पर हम खुश कर घर लौट आते हैं। गाने अच्छे हैं।

आम औरतों की आज़ादी साइकिल के बिना मुकम्मल नहीं

क्या आपको भी लगता है कि साइकिल चलाती हुई औरतें बदलाव का प्रतीक है। मुझे तो पक्का लगता है। गांव हो या शहर, दफ्तर हो या खेत अब हर जगह पर औरतें काम के लिए बाहर निकल रही हैं। लेकिन लचर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था के कारण औरतों को काफी धक्का मुक्की का सामना करना पड़ता है। काफी पैसा बस के किराये में खर्च हो जाता है। ऊपर से औरतों को,खासकर असंगठित क्षेत्र में,को मज़दूरी भी कम मिलती है। ऐसे में उन्हें रफ्तार की सख्त ज़रूरत हो जाती है।

मैं दिल्ली के बसंत कुंज इलाके में गया था। वहां बंगाल से आई कामगार महिलाएं पास की अमीर कालोनियों में काम करने जाती हैं। इलाका इतना अमीर है कि सरकारी डीटीसी की बस भी कम ही चलती है। महंगे आटो का इस्तमाल इनके बस की बात नहीं। बंगाल के ग्रामीण इलाकों में महिलाएं सहज रूप से साइकिल चलाती देखी जा सकती हैं। सो उन्होंने साइकिल का इस्तमाल शुरू कर दिया। इसके कई फायदे हुए। वे जल्दी पहुंचने लगीं और ज्यादा घरों में काम करने लगीं जिससे उनकी कमाई बढ़ गई।

रिक्शा और साइकिल के लिए समान सड़क अधिकार पर काम करने वाले राजेंद्र रवि और उनके साथियों की नज़र पड़ी तो उन्होंने सोचा कि दूसरी जगह की कामगार महिलाओं को साइकिल की ट्रेनिंग देते हैं। दिल्ली फरीदाबाद सीमा पर बसे गौतमपुरी गांव में पचास- साठ साइकिलों से यह प्रयास शुरू हुआ। इस काम को देख रही एक महिला ने बताया कि बसंत कुंज में सारी महिलाएं बंगाली थीं। इसलिए उन्हें संघर्ष नहीं करना पड़ा। लेकिन कहां बिहार-यूपी के कई ज़िलों के लोग रहते हैं। मर्दों ने महिलाओं को तंग करना शुरू कर दिया। ताने देने लगे। साइकिल चला रही हैं. फिर भी बस्ती की पचास साठ महिलाओं ने साइकिल चलाना सीख लिया। वो बहुत दूर तो नहीं जाती लेकिन साइकिल से नजदीक के ज़रूरी काम करने लगीं। लेकिन यहां पूर्वांचल के मर्दों ने महिलाओं को साइकिल चलाने की आजादी नहीं दी। नतीजा यहां की लड़कियां दो-तीन किमी धूप में पैदल चलकर स्कूल जाती हैं। मां बाप इतने नहीं कमाते कि बस या ऑटो का किराया भर सकें।

इसलिए आम औरतों की आज़ादी साइकिल के बिना मुकम्मल नहीं हो सकती। औरतों ने साइकिल का तरह तरह से इस्तमाल करना सीख लिया है। जो औरत साइकिल चलाना नहीं जानती वो भी इसका इस्तमाल कर रही है. दिल्ली की कई झुग्गियों में मैंने देखा है कि औरतें पानी से भरे गैलन को साइकिल की दोनों तरफ लटका देती हैं। उसके बाद पैदल खींच कर साइकिल को घर तक ले आती हैं। वर्ना उन्हें सर पर दो या तीन गैलन पानी भर कर घर पर लाने का असंभव काम करना पड़ता।


पानी के इस भयंकर संकट में साइकिल ने औरतों से खूब दोस्ती निभाई है। दक्षिण दिल्ली के बसंत विहार के खिचड़ीपुर गांव में इसे पानी की साइकिल कहते हैं। लगभग हर औरत के पास साइकिल है। इक्का दुक्का को ही चलाने की आदत है। वर्ना ज़्यादातर महिलाएं साइकिल को खींचती हैं। रिक्शे की तरह। जब से बसों का किराया महंगा हुआ है कई औऱतों को घर बैठना पड़ा है या नजदीक की कालोनी में कम पैसे पर काम करना पड़ा है। अगर सरकारें चाहें वो किसी भी शहर की हों, साइकिल के लिए अलग से ट्रैक बनाती है तो औरतों का बडा भला होगा। गोरखपुर हो या कानपुर कहीं भी कामवाली काफी पैदल चल कर हमारे आपको घरों तक पहुंचती है। कितना वक्त बर्बाद होता है। परेशान दोनों होते है।


बिहार में साइकिल ने लड़कियों की ज़िंदगी बदल दी है। जब से नीतीश कुमार की सरकार ने साइकिल बांटी है तब से बड़ी संख्या में लड़कियां समूह में घरों से बाहर निकलने लगी हैं। वो स्कूल जाने लगी हैं। रास्ते में किसी डर की वजह से या भाई के न पहुंचाने के कारण उनका क्लास नहीं छूटता। स्कूल के अलावा वो अब घरों में भी बड़ी जिम्मेदारी का काम करने लगी हैं। साइकिल लड़़कियों में आत्मविश्वास पैदा करने का सबसे सस्ता और कारगर माध्यम है।

बारिश एक भयंकर इमेज संकट से गुज़र रही है

दिल्ली और मुंबई की बारिश का राष्ट्रीय चरित्र हो गया है। चार बूंदें गिरती हैं और चालीस ख़बरें बनती हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने अब तय कर लिया है जो इन दो महानगरों में रहता है वही राष्ट्रीय है। मुझे अच्छी तरह याद है,बिहार की कोसी नदी में बाढ़़ आई। राष्ट्रीय मीडिया ने संज्ञान लेने में दस दिन लगा दिए, तब तक लाखों लोग बेघर हो चुके थे। सैंकड़ों लोग मर चुके थे। राहत का काम तक शुरू नहीं हुआ था। वो दिन गए कि मल्हार और कजरी यूपी के बागों में रची और सुनी जाती थी। अब तो कजरी और मल्हार को भी झूमने के लिए दिल्ली आना होगा। वर्ना कोई उसे कवर भी नहीं करेगा।

बारह जुलाई को जब दिल्ली में बारिश आई तो लोग घंटों जाम में फंसे रहे। पांच-पांच घंटे तक लोग सड़कों पर अटके रहे। वैसे आम दिनों में दिल्ली में कई जगहों पर दो से ढाई घंटे का जाम होता ही है। लेकिन यह जब दुगना हुआ तो धीरज जवाब दे गया। ज़रूरी भी था कि इस दैनिक त्रासदी को कवर किया जाए लेकिन जब यही बारिश जयपुर में आती, भोपाल में आती तो कवर होता। क्या जयपुर और भोपाल की बारिश के लिए कोई न्यूज़ चैनल अपना तय कार्यक्रम गिराता। मुझे नहीं लगता है।

उसी तरह दिल्ली की गर्मी और मुंबई की उमस एक महत्वपूर्ण ख़बर है। मुंबई की लोकल में ज़रा सा लोचा आ जाए, न्यूज़ चैनलों की सांसें रुक जाती हैं। पटना में कोई मालगाड़ी पलट जाए और घंटों जाम लग जाए तो कोई अपना ओबी वैन नहीं भेजेगा। दिल्ली में डीटीसी बस का किराया एक रुपया बढ़ जाए तो न्यूज़ चैनल बावले हो जाते हैं। किसी को पता नहीं कि जयपुर में किस तरह की आधुनिक बसें चल रही हैं। अहमदाबाद में बीआरटी कॉरिडोर ने किस तरह दिल्ली की तुलना में कामयाबी पाई है। दरअसल ज़रूरी है कि पाठक और दर्शक को उनके अधिकार के बारे में बताया जाए।

राष्ट्रीय मीडिया का चरित्र बन पा रहा है न बदल पा रहा है। सारे अंग्रेज़ी चैनलों ने बारिश की त्रासदी को सीमित मात्रा में दिखाया। हिन्दी चैनलों ने जितनी देर जाम उतनी देर ख़बर के पैटर्न का अनुकरण किया। दिल्ली के लोगों की ज़रूरतों को भी अनदेखा नहीं कर सकते। लेकिन हर बार हंगामा दिल्ली को लेकर ही क्यों। दिल्ली में स्थानीय न्यूज़ चैनल तो हैं ही। फिर भोपाल और जयपुर के लोग किसी राष्ट्रीय चैनल को देखने में अपना वक्त क्यों बर्बाद करें। वैसे भी कौन सी राष्ट्र की ख़बरें होती हैं।

एक नुकसान और हुआ है। महानगरों में बारिश एक समस्या का रूपक बन गई है। जिसके आने से जाम लगता है। सड़कें टूट जाती हैं। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को राउंड पर निकलना पड़ता है। इसी बारिश में दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के जवान भींगते हुए रास्ते साफ कर रहे थे। कई जगहों पर सरकारी कर्मचारी काफी कोशिश कर रहे थे। लेकिन मीडिया ने इस प्रयास को दिखाया तक नहीं। किसी ने नहीं पूछा कि और कितनी लाख कारें सड़कों पर उतरेंगी। सिर्फ एकांगी तस्वीर पेश की कि ये जो बारिश आई है वो तबाही है तबाही। दिल्ली और मुंबई में बारिश का मतलब अब आनंद नहीं रहा। ट्रैफिक जाम के आगमन का सूचक हो गया है।

देश के ज़िलों में जाइये,बारिश होते ही लोगों के चेहरे में चमक आ जाती है। अब तो बारिश में झूमते किसानों की भी तस्वीर नहीं छपती। धान की रोपनी करने वाली महिलाओं की तस्वीरें गायब हो गई हैं। सड़कों पर पानी भरने के बाद उसमें नहाते बच्चों की तस्वीरें भी नहीं छपती हैं। याद कीजिए पहले इसी तरह की मौज मस्ती की तस्वीरें छपती थीं। दिखाईं जाती थीं। अब तो न्यूज टीवी ने बारिश को आतंकवादी बना दिया। धड़ाम से ब्रेकिंग न्यूज़ का फ्लैश आता है- दिल्ली में भयंकर आंधी। मुंबई में पांच घंटे से लगातार बारिश। लोकल ट्रेन ठप्प। दहशत होने लगती है कि हाय रब्बा जाने कौन सी आफत आने वाली है। यही हाल रहा तो कुछ दिनों के बाद दिल्ली और मुंबई की नई पीढ़ियां यकीन ही नहीं कर पायेंगी कि बारिश के मौसम में हम कजरी भी गाते थे। सावन के आने के इंतज़ार में झूला भी झूलते थे। वो सवाल करेंगे कि जब हम पांच घंटे जाम में हुआ करते थे तो कजरी कौन सुना करता था।

बारिश का मतलब अब शहरी परेशानी बन कर रह गया है। नगर निगमों की नाकामी और घूसखोर इंजीनियरों की पोल खोलने का एक लाइव इवेंट। लेकिन क्या मीडिया उन इंजीनियरों का पीछा करता है? बताता है कि फलां सड़क का ठेकेदार कौन था, इंजीनियर कौन था। वो बस शोर करता है। बारिश आई और तबाही आई। दिल्ली की सड़कों में बने गड्ढे से चैनल वाले हैरान क्यों हैं। क्या बारिश ही ज़िम्मेदार है? एक इंजीनियर ने कहा कि बारिश से हम दुखी नहीं होते। रिपेयरिंग का नया बजट मिल जाता है। कमीशन खाने के लिए। इस देश की म्यूनिसिपाल्टी को कोई सुधान नहीं सकता। जब भी आप बारिश की ख़बर देंखें. टीवी बंद कीजिए और छत पर जाइये। ये मार्केंटिंग का दौर है। बारिश एक भयंकर इमेज संकट से गुज़र रही है। करतूत घूसखोरों और नकारा प्रशासन की और बदनाम बारिश हो रही है। प्लीज़ बारिश की इन मासूम फुहारों को बचाइये।
(this article was published in rajasthan patrika)

दिल्ली का धारावी-कापसहेड़ा

मुझे भी अंदाज़ा नहीं था कि एक गांव की आबादी मज़दूरों के आने से दो लाख हो जाएगी। दस बाई दस फुट के सैंकड़ों कमरे बन जायेंगे. उन कमरों के अंधेरे में मज़दूरों की ज़िंदगी अब किसी राजनीतिक विमर्श का हिस्सा नहीं है। एक सज्जन ने कहा कि यह भी देखिये कि सबको काम मिल रहा है। छह से सात हज़ार की नौकरी। बात चल ही रही है कि रिक्शे में सवार कई मज़दूर चले आ रहे है। कोई पैदल आ रहा है। सबके कंधे पर बैग लदे हैं। एक रिक्शे पर देखा कि एक जोड़ा अभी-अभी शादी करके लौट रहा है। दस बाई दस फुट के कमरे में अपने नए सपनों को आबाद करने।

दिल्ली हरियाणा सीमा पर लगा है,कापसहेड़ा गांव। यहां आते ही मज़दूरों की खूब चहल-पहल दिखती है। लोग चले जा रहे हैं। एक दूसरे से टकराते हुए। किसी के पास साइकिल भी नहीं है। ग़रीबी का एक स्तर है। ऐसा बहुत कम होता है कि एक जगह पर दो लाख लोग रहते हों उनमें से ज़्यादातर का जीवन स्तर कमोबेश एक जैसा होता है। मकानमालिक के बनाए सैंकड़ों कमरों के झुंड से जब नरमुंड के झुंड निकलते हैं तो लगता है कि किसी सिनेमा के बाद फ्रंट स्टॉल की भीड़ बाहर निकल गई हो।

दिल्ली सबकी है। सबको अपना लेती है। लेकिन दिल्ली की वही छवि टीवी पर दिखाई जा रही है जो नई दिल्ली है। वो दिल्ली जिससे भारत के सुपर पावर होने का अहसास जवान होता है। इस दिल्ली के कई अंधेरे कोने हैं जिन्हें ढूंढा जाना बाकी है। आप एक नज़र में देख सकते हैं कि कम से कम लोगों को काम तो मिल रहा है। लेकिन यह क्या काम है कि सिर्फ एक वक्त में रोटी सब्ज़ी से ज़्यादा का जुगाड़ नहीं हो पाता। एक मकान मालिक ने बताया कि वे अपनी तरफ से पानी के टैंक में क्लोरीन की टिकिया डाल देते हैं। कम से कम कीटाणुरहित पानी तो मिलेगा। बाकी लोग तो वो भी नहीं डालते। मैं नहीं कह सकता कि ये लोग साफ पानी पी रहे हैं या नहीं। एक औरत ने कहा कि यहां झोला छाप डाक्टरों को दिखाना पड़ता है। एमबीबीएस डाक्टर नहीं है। क्या करें। कापसहेड़ा में ही मेरी नज़र एक नर्सिंग होम पर प़ड़ी। बाहर भारी संख्या में मजदूर घेरा लगाकर बैठे हैं। मैं सोचता रहा कि तभी यहां के सारे मज़दूरों का स्वास्थ्य एक जैसा क्यों हैं। बीमारी से पतला है या काम से छरहरा है।

कमरों के भीतर झांक रहा था। फर्श पर चटाई। आइना। पुराना रेडियो, डीवीडी और एक टीवी सेट। तीन चार बैग रखे हैं जो हमेशा वापस लौटने की मुद्रा में तैयार दिखते हैं। किसी मज़दूर के पास बैंक अकाउंट नहीं है। ज्यादातर के पास मोबाइल फोन है। जो ज़रूरी खर्चे में गिना जाता है। हर दरो-दीवार पर मज़दूरों को अनुशासित करने के संदेश लिखे हैं। थूकने से लेकर बदतमीज़ी करने पर मनाही है। फाइन है। भाषा भोजपुरी है। सब भोजपुरी में बात कर रहे हैं और गाना सुन रहे हैं। कमरे में बाहर की हवा नहीं जा सकती। मकान मालिक कोशिश करता है कि चार लोग एक कमरे में न रहें। अगर पाया गया तो किराया बढ़ा देता है। तीन का ग्रुप बनाना मुश्किल है। सब एक दूसरे से जुड़ रहे हैं। इलाका के नाम पर और भाषा के नाम पर। छह हज़ार रुपया कमाने के लिए नियमित मेहनत। नौकरी और सोने के बीच में कोई खाली वक्त नहीं है। टीवी अखबार देखने-पढ़ने की आदत नहीं है। बस सब चलते नज़र आते हैं।

कापसहेड़ा की गलियों में गंदगी की भरमार है। दीवारों पर नौकरियां बंटने के इश्तहार हैं। मज़दूरों से बात कीजिए तो बताते हैं कि ये नौकरियां ही नौकरियां वाले कितना ठगते हैं। पांच सौ रुपये लेकर ऐसी जगह गार्ड बनाकर भेज देते हैं जहां सिर्फ मच्छर होता है। दूर दूर तक कोई आदमी नही्ं होता। आज कल ऐसे कई वीराने में अपार्टमेंट बन रहे हैं। वहां गार्ड की ज़रूरत है। दस दिन में ही नौकरी छोड़ कर भाग आता है। नई नौकरी के लिए फिर से पांच सौ रुपये देता है। कई मज़दूरों ने बताया कि फैक्ट्री वाले अंदर जाने पर बाहर से ताला बंद कर देते हैं। बाहर आने के लिए गेट पास नहीं देते। ओवर टाइम कराते हैं। उनकी मर्ज़ी होती है कि हम ओवर टाइम करें। बीमार रहने पर भी छुट्टी नहीं मिलती। कई लोगों ने कहा कि कबाड़ी की ज़िंदगी जीते हैं।

कापसहेड़ा के इस रूप को दिल्ली के लोगों ने नहीं देखा होगा। ग्रामीण लोगों ने तो देखा होगा मगर दिल्ली को दुनिया का बेहतरीन शहर बनाने की होड़ में लगे लोग शायद ही देख पाते होंगे। कई बार जहां प्रवासी जाते हैं तो उनकी पूजा संस्कृति भी चली जाती है। साठ फीसदी प्रवासी मज़दूर मुसलमान हैं। एक भी मस्जिद नहीं है। एक दुकान दिखी जिस पर लिखा था कि यहां बड़े का मांस मिलता है। हिन्दुओं के भी मंदिर नहीं हैं। अलबत्ता सबके कमरे में भगवानों और सलमानों की तस्वीरें हैं। लोगों ने बताया कि इबादत और प्रार्थना के लिए वक्त नहीं हैं। चार पैसा कमाने में ही दिन बीत जाता है। पूरे इलाके में सैंकड़ों कमरे बन गए लेकिन मंदिरों का अता पता नहीं। शनि और साईं भी यहां डिमांड में नहीं हैं।

इतनी बड़ी संख्या में आने के बाद भी खास तरह की उपभोक्ता संस्कृति नहीं बन पाई। न्यूनतम उपभोग है। खाने पानी की आदत सीमित है। सुबह शाम रोटी सब्ज़ी या दाल सब्जी। कमरे में सामान कम हैं। डीवीडी है लेकिन लोकल मेक। भोजपुरी के सस्ते डीवीडी जिनकी कीमत बीस रुपये है। मोबाइल फोन में भोजपुरी गाने ही अपलोड हैं। हिन्दी गाने नहीं हैं। लोग सिनेमा हॉल में फिल्में नहीं देख पाते। राशन की दुकानों पर तेल के कई ब्रांड दिखें। सबकी ज़ुबान पर न्यूनतम मज़दूरी है। ४२१४ रुपये। हरियाणा सरकार की तय की हुई। इस महंगाई में मज़दूरों का वेतन एक साल में दो तीन सौ से ज्यादा नहीं बढ़ता। सारी दुकानों में ज़रूरी सामान ही हैं। तड़क भड़क वाले उपभोगी आइटम नहीं। सारी कमाई मूलभूत आवश्यकता पूरी करने में ही खप जाती है। उसमें से भी वो तीन हज़ार बचाकर घर भेज देते हैं। जाहिर है इतना संयमित उपभोग होने पर कापसहेड़ा के बाज़ारों में विविधता नहीं पनप सकी है।

इन विस्थापित मज़दूरों से एक और बात का पता चलता है। इनके इलाके में पांच हज़ार रुपये के रोज़गार का सृजन नहीं हो पा रहा है। ग्लोबल अर्थव्यवस्था चंद शहरों तक ही सीमित है। रोजगार के अलावा बिहार यूपी के इलाके की तमाम व्यवस्था चरमरा गई है। कुछ भी नहीं है इसलिए पूरा परिवार विस्थापित हो रहा है। यह आर्थिक नीतियों की नाकामी है कि दिल्ली में भीड़ बढ़ रही है। हम इसलिए आने के लिए मजबूर हुए कि बिहार के विश्वविद्यालय गटर की तरह सडांध मार रहे थे। शिक्षा मंत्री, वाइस चांसलर और प्रोफेसर को देखकर लगता था कि इनको मार मार कर भूसा बना दें। वो कर नहीं सकते थे इसलिए प्रवासी छात्र बनकर दिल्ली आ गए। कारण सबको मालूम है लेकिन यह देश बहस करने वालों का हो कर रह गया है। काम हो रहे हैं लेकिन आबादी के अनुपात के सामने विकास की व्यवस्था कम है। जिलों में सुविधा का इतना अस्थायी इंतज़ाम है कि किसी को भरोसा नहीं कि कब तक रहेगा।

दिल्ली की सरकार के अपने घोटाले हैं। गांव देहात के पैसे को कामनवेल्थ के इस्तमाल में लगाया जा रहा है। एक किस्म का छद्म राष्ट्रीय गौरव उत्पादित किया जा रहा है कि इस खेल में हम सब शामिल हों। खेलिये न भाई। लेकिन लोगों से तो मत खेलिये। फ्लाइओवर बनाकर झांसा क्यों देते हैं। पता नहीं हम किस तरह का शहर देखना चाहते हैं? इन लाखों लोगों की इस शहर में क्या पहचान है? यह बात कम गर्व करने लायक नहीं कि दिल्ली सबको अपना रही है। मुंबई की तरह भगाओ आंदोलन नहीं है।

कापसहेड़ा गांव के लोगों की सहनशीलता भी गज़ब की रही। किसी तरह का पूर्वाग्रह नहीं दिखा। यह ज़रूर कहा कि अब इन कमरों से हमारा रोज़गार चल रहा है। इन्हीं कमरों की बदौलत घरों में एसी चला रहे हैं। एक सज्जन ने कहा कि अब तो काफी अच्छा है। शुरू में इन मज़दूरों के लिए टिन के कमरे थे। गर्मी में फ्राई हो जाते थे। राशन की दुकान से माल खरीदने के लिए मजबूर करने पर सफाई यह थी कि हमारे पास अब खेती की ज़मीन नहीं है। सरकार ने बहुत पहले ली थी और मुआवजा काफी कम दिया था। इसलिए ये दुकान भी हमारी आय का साधन हैं। अगर हमारी दुकान से राशन नहीं खरींदेंगे तो हमारा क्या होगा। मज़दूरों की शिकायत थी कि लाला मजबूर करता है कि उनकी दुकान से ही राशन खरीदें। वर्ना कमरा खाली करने को कह देता है। लाला कहता है कि हमें यह बाज़ार चाहिए। दुकान से हमें और कमाई होती है। उनके लिए ये मज़दूर सिर्फ किरायेदार ही नहीं ग्राहक भी हैं। इन मज़दूरों का बाज़ार में कोई मोलभाव नहीं है। एकाध सौ रुपये की अधिकता के नाम पर नौकरी बदल लेते हैं। अपनी मर्ज़ी से कमरा तय नहीं कर सकते। कमरे के साथ दुकान का भी चयन करना पड़ता है। कापसहेड़ा को नए सिरे से समझने की ज़रूरत है। देखने की ज़रूरत है।

बिना इमोशनल फीलिंग की इंग्लिश गालियां

एक गाने में बुलशिट आ गया है। बुलशिट बुलशिट। अक्षय कुमार पांव पटक कर जब बुलशिट बोलते हैं तो संगीत निकलता है। इंग्लिश वाइन की तरह इंग्लिश गालियां भी क्यूट लगती हैं। दिल्ली आकर बास्टर्ड और रास्कल से साक्षात्कार हुआ था। लेकिन इन गालियों से सांस्कृतिक सामाजिक संबंध न होने के कारण गाली विरोधी स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुंचती थी। कोई किसी को बास्टर्ड बोले या रास्कल बोले लगता था कि क्विन विक्टोरिया का मेडल ही होगा। बकने दो गालियां। ऐसा क्यों होता है कि इंग्लिश की गालियों पर प्रतिरोध कम होता है। हिन्दी की भदेस गालियां सर फोड़ देने के लिए प्रेरित करती हैं।

बचपने में एक शादी में गया था। तिलक के बाद औरतें नाम पूछ पूछ कर लाउडस्पीकर से गालियां दे रही थीं। मां-बहन स्तर की गालियां। भात के मौके पर खाया नहीं गया। जब भी मेरा नाम आता और सामूहिक स्वर में गालियां उच्चरित होते हुए लाउडस्पीकर से प्रसारित मेरे कानों तक पहुंचती तो डरता देख बड़का बाबूजी कहते थे, खा न। गाली तो आशीर्वाद है। यही समाज है समझो इसको। अंदर औरतें झूम रही थीं। खिलखिला रहीं थीं। हर नाम के साथ जो गालियां मर्दों को लौटा रही थीं उसका उत्सव देखने लायक था। मर्दों की बनाई गालियों को रिटर्न गिफ्ट के तौर पर लौटाना। जैसे जैसे भात और पापड़ कड़क होते जा रहे थे औरतों के उत्साह भी बढ़ता जा रहा था. एक से एक गालियां। शरीर के सभी भौगोलिक प्रदेशों के नाम से गालियां। कहां कहां से तिलक का घटिया सामान घुसेड़ने से लेकर कुछ शालीन स्वर वाली गालियां भी थीं। किसी को बुरा नहीं लग रहा था। बाबूजी भीतर गए और बोले कि ठीक से गरियाईं रउवा लोगन। गाली में दम नहीं है। आइये हमारे यहां। देखिये हमारे यहां की गालियां।

अब ऐसे संस्कारों में मेरे लिए गाली वर्जना नहीं है। गांव में दुर्योधन मियां ब थीं। ब का मतलब पत्नी से है। दुर्योधन मियां की पत्नी और एक बूढ़ी काकी। दोनों का मुंह खुलता था और गालियां बरसती थीं। गांव में घुसते ही बोलती थीं रे बहिनचोदवा शहरे में रहबे का रे। गड़ियां में समूचा टाउन(शहर)घुसल बा तोहार। अइबे न काकी के देखे। मैं गिड़गिड़ाने लगता था कि काकी मुझे छोड़ दो। काकी गोद में बिठा कर बालों को सहलाने लगती थी और फिर गाली देने लगती थी। गांव जाते ही लगता था कि काकी को पता न चले। वो सबको गाली देती थी। पूरे गांव में उनकी गालियों की सामाजिक स्वीकृति थी। कोई इस बात से भी परेशान नहीं था कि इनकी सार्वजनिक गालियों से बच्चों की ज़ुबान बिगड़ सकती थी।

भोजपुरी समाज में गाली का विश्लेषण आप मर्दवादी सांस्कृतिक उत्पादन के तौर पर कर सकते हैं। करते भी रहिए। लेकिन पारिवारिक माहौल में भी गालियां दी जाती हैं। बड़े बुज़ुर्गों के साहचर्य में जिन गालियों को सुना है उन्हें अगर दोहरा दूं तो बास्टर्ड,रास्कल और बुलशिट जैसी ग्रेटर कैलाश टाइप गालियों की हवा निकल जाएगी। औरतों को बुरा न लगे कि मुझे इंग्लिश की गालियों में मौगई की झलक मिलती है। हिन्नी भोजपुरी की गालियों में मर्दानगी झलकती है। बात भी ठीक है कि गालियां मर्दवादी सृजन हैं। पर जो है सो है। औरतों को भी मर्दों के खिलाफ गालियों का सृजन करना चाहिए। नारीवादी आंदोलनों ने किया क्या आज तक। वैसे इंग्लिश में कुछ नारीवादी गालियां हैं जिनमें मर्दानगी को चुनौती दी जाती है। बॉल्स।

देना तो ढाई सौ ग्राम ऑक्टोपसवा

भारत एक बाबाग्रस्त देश है। इन बाबाओं का एक बाप आ गया है। ऑक्टोपस बाबा। किसी बेरोज़गार को जल्दी ही ऑक्टोपस का आयात करना चाहिए। डिब्बाबांद बाबा का धंधा चलेगा। बहुत महंगा है तो एक ऑक्टोपस मंगाइये और सभी बाबाओं की दुकानों के सामने अपनी दुकान खोल दीजिए। देखिये कितनी कमाई होती है। कहीं ऐसा न हो जाए कि स्थापित बाबा अपने आश्रम में ऑक्टोपस बाबा का एक कार्नर बना दें। ये ठीक है कि ऑक्टोपस बाबा अभी फुटबॉल की ही भविष्यवाणी कर रहा है लेकिन अगर इसे मार मार कर ट्रेनिंग दी जाए तो हर चीज़ का फोरकास्ट करेगा। शादी से लेकर गर्लफ्रैंड तक का। घर-घर में नैऋत्य कोण में एक बाबा को रख दीजिए। अपने घर में रखे अक्वेरियम को फोड़ दीजिए और फेंक डालिए। उसकी जगह पर अक्वेरियम में ऑक्टोपस बाबा लाइये। टांग तोड़िये इनकी। तभी ये जर्मनी से आगे की सोचेंगे। मुंडन से लेकर जनेऊ तक की भविष्यावाणी करनी है इनको। करनी ही पड़ेगी। वर्ना खाने की एकाध वेरायटी हम भी बना सकते हैं।

जर्मनी के प्रेमी गुस्से में है इसलिए वे इसे भून कर ऑक्टोपस बर्रा बना कर खाना चाहते हैं। मुझे लगता है कि इस बाबा का कीमा या मंचूरियन अच्छा बनेगा। बाकी जर्मनों की मर्ज़ी। स्पेन वाले इसकी हिफाज़त करना चाहते हैं। वो भी ठीक बात है। जल्दी ही चेल्सी क्लब इस बात पर विचार करेगी कि बेकहम या रोनाल्डो को लाने से पहले इस बाबा को लाओ। इसलिए ज़रूरी है कि ऑक्टोपस बाबा को ट्रेनिंग दी जाए ताकि वो क्लब लेवल की भी भविष्यवाणी करे। उसने जो काम किया है अब उस काम को आगे बढ़ाना ही होगा। वर्ना लोग ये जहां मिलते हैं वहां गोता लगाकर चले जाएंगे और उखाड़ लाएंगे। जल्दी ही ऑक्टोपस कम होने लगेंगे। फेंगशुई वाले कहेंगे कि शीशे के मर्तबान में बांसों का झुण्ड उगाने से अच्छा है कि इस बाबा को पालो। अपने घर के बूढ़े बाबाओं को भगाओ। अब यही बताएगा कि कब खाएं,कब सोएं। बताना ही पड़ेगा। फुटबॉल प्रेमी वर्ल्ड कप के बाद क्या करेंगे। उनके जीवन में और भी तो क्राइसिस हैं। उसका समाधान कौन करेगा। यही करेगा।

लेकिन रुकिये। यहीं पर बिजनेस एंगल इंटरनेशलन हो रहा है। यूरोप की पोल खुल गई है। रेशनल बनते थे भाई लोग। एक बाबा ने जब इनकी ये गत बनाई है तो हमारे देश के सारे बाबा मिलकर कितनी गत बनायेंगे। कितना लूट सकेंगे। बल्कि सोच भी रहे होंगे। बल्कि हो भी रहा है। कई बाबा क्रूज़ ट्रीप पर भक्तों के साथ प्रवचन करने जा रहे हैं। जब यूरोप के लोग फुटबॉल को लेकर अंधविश्वासी हो सकते हैं तो उन्हें जगाया जा सकता है। अपने यहां के ज्योतिषी शो को एक्सपोर्ट कर जागरूकता लाई जा सकती है। अंधविश्वास भी बिना जागरूकता के नहीं फैलती। साला इस शब्द की फिंचाई करने का जी करता है। एकदम फटीचर शब्द है। जागरूकता। इसमें अभियान लगा दे तो पूरा म्यूनिसपाल्टी लेवल का हो जाता है। ख़ैर यूरोप में भयंकर मार्केट की संभावना है। ज्योतिष ध्यान दें। उनको भी ग्रहों नक्षत्रों के खेल में फंसा कर बताये कि आज शनिवार है। काला कपड़ा पहनो। तेल दान करो। छोड़ो ये ऑक्टोपस और व्हेल का चक्कर। एक बात है कि हमारे यहां के बाबा जब फेल होते हैं तब भी कोई उनकी मरम्मत नहीं करता। हम लोगों की बात ही कुछ और है। भारत की संस्कृति में सहिष्णुता नहीं है का। है न जी।

इस पूरे प्रकरण में हमारे स्ट्रिंगर भाइयों को बधाई। अपने-अपने ज़िलों से तोता-मैना से भविष्यवाणी करवा कर रिपोर्ट भेजने के लिए। आखिर हमारे यहां के ये तोते अभी तक कर क्या रहे थे। बहुत लेट एंट्री की। कल कई टीवी पर(हमारे यहां भी) तोता मैना आ गए। कार्ड निकालने लगे। मज़ा आ गया। साला, तोता किसी ऑक्टोपस से कम है का जी। दस बीस टांग हो गए तो ऑक्टोपसवा महान हो गया का। हूं। तोता और मैना ने भी लिफाफे से स्पेन का कार्ड निकाल दिया। हमें मालूम ही नहीं था कि रोड छाप ज्योतिष इस लेवल की भी फोरकास्ट करते हैं। जल्दी ही न्यूज़ चैनल के किसी आइडिया उत्पादक(संपादक) को ज्योतिष के शो में वेरायटी लाने के लिए तोता-मैना फोरकास्ट शुरू करना चाहिए। यूनिक आइडिया। बेलमुंड ज्योतिष के बगल में बेचारी मैना। क्यूट लगेगी। कम से कम विभत्स चेहरे के बगल में प्राकृतिक सौंदर्यबोध तो बहाल होगा।

ख़ैर कैमरे के लिए कई लिफाफों में कार्ड बदल दिए गए। स्पेन और जर्मनी डाल दिये गए। इससे पता चलता है कि ऑक्टोपस एक्सक्लूसिव नहीं है। रोड छाप है। जिस तोता छाप ज्योतिष को कोई भाव नहीं दे रहा था उसने दिखा दिया न। बस वर्ल्ड कप शुरू होने के वक्त ही ये स्टोरी आती तो स्पेन के प्रधानमंत्री,जर्मनी के राष्ट्रपति इंडिया के फुटपाथों के चक्कर लगा रहे होते। सारे तोते वाले को ढूंढवा कर राष्ट्रपति भवन बुलाया जाता। उनके दांतों से कार्ड निकलवाया जाता। एक बात और समझ में नहीं आई। किसी ज्योतिषी ने स्पेन की कुंडली निकाल कर भविष्यवाणी क्यों नहीं की है। ये लोग लेट क्यों कर रहे हैं। हमारा ज्योतिष मार्केट अरबों का है,सही है लेकिन मार्केट में कंपटीटर भी तो आ गया है। देना तो रे ढाई ढाई सौ के तीन ऑक्टोपस। रे ठीक से तौल। मारेगा डंडी। आवे का। बोखारे छोड़ा देंगे तोरा हम।

पीपली लाइव के दो पीपल

नत्थू मरेगा और नत्थू नहीं मरेगा। अनुषा रिज़वी ने पीपली लाइव में अन्यमनस्क मृत्युगामी नत्थू को लटका दिया। न आक्सीजन उसे जीने दे रहा और न मरने दे रहा। मुआवज़ा की ख़ातिर मरने के इस मीडियाकर्म पर हंसी आ रही थी। ज़माने बाद झोंटा(बालों के गुच्छे)वाले कलाकार दिखे। अपनी लाचारी को सर्वक्लासी(across class) बनाते हुए। प्रोमो के छोटे-छोटे क्लिप से फिल्म का बड़ा हिस्सा दिखने लगता है। हरेक को इस हिसाब से बनाया गया है कि फिल्म नहीं,किरदार स्थापित हो जाएं। इस फिल्म को चर्चागत बनाने में किरदारों की ही भूमिका रहेगी। प्रोमो से यही लगा। दिल्ली के मेरिडीयन होटल में कल आमिर ने प्रोमो का प्रदर्शन किया।

अम्मा मर जाएगी तब भी बोलेगी। नत्थू की मां के इस भदेसी संवाद पर जब दिल्ली के मेरीडियन होटल में जमा इंटरटेनमेंट पत्रकारों के बीच ठहाका लग सकता है तो इसका मतलब यही है कि डिज़ाइनर कपड़ों और ख़राब अंग्रेज़ी ने अभी हमारे भीतर से भदेस वर्ल्ड को ख़त्म नहीं किया है। हम अब भी गांव देहात के मुक्त छंद संवादों पर खिखियाने की काबिलियत रखते हैं। डेमोक्रेसी जैसी कुलीन शब्दावली को लात मार कर रंगरंगीला परजातंतर कह सकते हैं। अनुषा से पूछा कि भाषा सुल्तानपुर अमेठी वाली क्यों? अनुषा ने मेरे इस सवाल के जवाब में कहा कि ठीक है कि हमारी भाषा मिक्स है। यह भी देखिये कि अंग्रेज़ी आती है न हिन्दी। हमारे किरदार भदेस भाषा का इस्तमाल न करते तो मज़ा ही नहीं आता। किरदारों और उनकी बातों को देखकर लगा कि रागदरबारी सामने हैं। महमूद ने कहा कि रागदरबारी सामने थी। लेकिन आपको लगी है कि रागदरबारी की झांकी है तो मैं इसे कंप्लीमेंट समझूंगा।

हैरान हो गया प्रोमो देखकर। लगा नहीं कि रिज़वी और फ़ारूक़ी ने पहली बार फिल्म बनाई है। हालांकि ने महमूद ने कह दिया कि बिना फिल्म देखे मत लिखना। सही बात है। आमिर का आत्मविश्वास देखकर लगा कि दोनों मित्रों ने अच्छा काम किया है। शहर और गांव के बीच किसी प्रवासी की तरह पहचान खोजते इसके किरदार परजातंतर पर अपनी दांत नहीं पीसते बल्कि दांत कटकटाते हैं। हंसाते हैं।

हम लोग बहुत तनाव में हैं। खासकर मैं। पिछले बीस साल से भारत महान के विश्वशक्ति होने पर लेख पढ़ रहा हूं। मेरे लिए इंडिया अब जनरल नॉलेज का सवाल हो गया है। सबड़े बड़ा एयरपोर्ट,पहली महिला आईपीएस,पहला गांव,पहली मौत आदि आदि। बात-बात में हम वर्ल्ड लेवल के महान देश हो जाते हैं। दिल्ली में कई साल पहले हमने एशिया लेवल की सब्जी मंडी बनाई। अब जाकर एशिया और वर्ल्ड लेवल का टर्मिनल बना दिया। इंडिया का लगातार प्रमोशन हो रहा है।

लेकिन जिनका प्रमोशन नहीं हो रहा है,महमूद कहते हैं कि वो भी ज्यादा लोड नहीं लिए हैं। शायद मेरी तरह। वो ग़रीब हैं मगर ग़रीबी के दबाव में उनकी हंसी का गुरुत्वाकर्षण कम नहीं हुआ है। तंजिया संवादों से उनके भीतर बहुत कुछ ढहने वाला है जिनके भीतर कुलीनता अभी नई है। मेरे भीतर दस साल की हो चुकी कुलीनता किसी भदेस प्रहार की मांग कर रही है। हिन्दी का कुलीन पत्तरकार होने के बाद भी वो क्लास नहीं आया जो इंग्लिश के मामूली कुलीन पत्तरकारों में होता है। अब ये मत कहियेगा कि हम किसी क्लास कामना में मरे जा रहे हैं। सेल में कपड़े ख़रीदकर शाइनिंग इंडिया की पार्टी में चले गए तो कपार फोड़ दीजिएगा का जी। ग्रेट क्रैशर थोड़ो न हैं। बुलाये जाते हैं ये और बात है महफिल में आइसोलेशन की फील होती है। आइसोलेशन कई बीमारियों की जड़ है। कुंठियाना लाइव एक अलग फिल्म बननी चाहिए। बताए कि कैसे इंग्लिश कुलीनता से लतियाये गए लोगों को हिन्दी भी यह कहकर दुत्कार देती है आप कुंठियाये हैं। ब्लडी अरोगंट हिन्दी।

इसीलिए प्रोमो में नत्थू लटका हुआ है। पेंडुलम की तरह। रूलाता हुआ,हंसाता हुआ। महंगाई डायन के सब हड़प लेने के बाद अगर कीर्तन की गुजाइश बची रह जाती है तो रस अभी बाकी है मेरे दोस्त। आमिर खुश न होते तो अनुषा को दूसरी फिल्म पर काम करने की बात न करते। मेरिडियन होटल के अपने कमरे में आमिर ने साफ-साफ कह दिया कि अब अगली फिल्म की सोचो। महमूद ने आमिर के कमरे में मुझे बुला लिया। घंटा भर आमिर से बतियाने का मौका मिला। अनुषा और महमूद तो आमिर के सामने नए हैं मगर बंदा ज़रा भी अरोगंट नहीं लगा। उसका यकीन कहता है कि फिल्म चलने वाली है। आमिर ने कहा डोंट वरी,तुम्हारी पत्तरकारिता भी बदलेगी। खराब साइकिल बीतने वाला है। मैं सहमत नहीं था लेकिन मेज़बान की इस आशावादी उम्मीद पर खुश हो गया।

पीपली लाइव के इन दो पीपलों को जानता हूं। महमूद उसी रात के कुछ दिनों बाद अपने फिल्मी ख्वाबों को लेकर पत्तरकारिता को छोड़ गए। जिस रात मेरे इनबॉक्स में एक मेल आया था। बिना तुमसे पूछे रिपोर्टर बनाने का फ़ैसला कर दिया गया है। कहीं तुम मना तो नहीं कर दोगे। मेरे इंग्लिश दफ्तर में लंदन रिटर्न,स्टीफंस ग्रेजुएट और दून ब्वायज़ महमूद ने अपनी अंग्रेजी का इस्तमाल किया और मेरी तरफ से बिना किसी ग़लती वाली अंग्रेज़ी में रज़ामंदी का जवाब भेज दिया। पढ़ने वाला हैरान था कि मेरी अंग्रेज़ी शानदार है और मुझ एकलिंगी रिपोर्टर को द्विलिंगी रिपोर्टर में बदलने की कवायद होने लगी। मैं बाइलिंगुअल होने से बच गया लेकिन नत्थू की तरह हिन्दी इंग्लिश के बीच लटक गया। बाद में मुझे बताना पड़ा कि जवाब मैंने नहीं लिखा था। महमूद का लिखा था। उस रात मुझसे ज़्यादा महमूद खुश था। मुझे मौका मिल रहा था। दस साल बाद मेरिडीयन के उन्नीसवें माले के कमरे में महमूद अनुषा को देखकर अच्छा लगा। इस बार उनका सपना पूरा हुआ है।

महमूद की फ़िल्म आ रही है,इसलिए सारी शुभकामनाएं। अनुषा के भीतर कोई कहानी इस तरह धंसी होगी जिसे ऊपर लाने के लिए दोनों मियां बीबी ने अपनी नौकरी छोड़ दी,कभी नहीं लगा। आफिस में अनुषा को कम बोलते देखा है। शायद फिल्म उनके बदले बोल देगी। अनुषा अपने बारे में दावा नहीं करती हैं। जैसे हम इस पत्तरकारिता के फटीचर काल में कालजयी होने का दावा नहीं करते हैं। हमारी पत्तरकारिता फटीचर न हुई होती तो जे आजै बोल देत हैं,परजातंतर का रंगरंगीला आउटलुक अनुषा को नहीं मिलता। माइक लिए जे हमन के गोतिया भाई धौगत जात हैं,करेक्टर के खानदान के पीछे,उनहीं के बदौलत संवाद लाइवली हुओ है। खटिया पर बुढ़िया जब कुमार दीपक को बिठा देती है तो पत्तरकार उसके लेवल पर आ जाता है। जब बीच इंटरव्यू में बीड़ी और माचिस मांग देती है तो गोल्ड फ्लैक टाइप जर्नो अपनी छाती को थपथपाने लगता है जैसे माचिस और बीड़ी वहीं अटकी पड़ी है,निकल आएगी,नत्थू की जान की तरह।

हम एक लाइव समय में रह रहे हैं। सीधा प्रसारण काल। गंजी बनियान सब लाइव है। ज़िन्दगी और मौत भी। अगर आप भी नत्थू की तरह जीवन की आपाधापी में अटके हैं तो फिल्म देखियेगा। शायद निकलने का रास्ता मिले। बहुत देख लिया भारत महान के अचीवमेंट को। अब गैस छो़ड़ने का टाइम आ गया है। पीपली लाइव के इन दो पीपलों को मुबारक।

मेरी किताब आ गई है



पिछले महीने ही आ गई थी। लेकिन प्रचार को लेकर संकोच कर रहा था। जब देखा कि आमिर ख़ान अपनी बीस करोड़ की फिल्म बेचने के लिए कुछ भी कर सकते हैं तो मुझे भी दो सौ पचीस रुपये की किताब बेचने के लिए सब कुछ करना चाहिए। आप ख़रीद कर पढ़ेंगे तो अच्छा लगेगा। इसे छापा है अंतिका प्रकाशन ने। संपर्क है- 0120-6475212,antika56@gmail.com,www.antika-prakashan.com।

शादी में नहीं बुलाया तो क्या हुआ-हम तो कवर करते हैं

आज न्यूज़ चैनल किसी शादी का वीडियो अल्बम लग रहे थे। ग्राफिक्स आर्टिस्टों की मदद से धोनी को शेरवानी से लेकर पगड़ी तक पहना दी गई थी।जिन पंडितों,ज्योतिषियों को धोनी की कुंडली बांचने का मौका न मिला वो स्टुडियो में आकर धोनी और साक्षी की जन्मपत्री बांच रहे थे। बता रहे थे कि गज़ब का संयोग है। जोड़ी निभेगी। अगर टूटेगी तब इन ज्योतिषियों के साथ क्या इंसाफ होगा मालूम नहीं। शायद लाइब्रेरी से निकाल कर ये टेप प्ले किये जायेंगे। देखो झूठा निकला ये ज्योतिष। आजकल लोग कई बार शादियां करते हैं इसलिए ऐसा कह रहा हूं।

ग्राफिक्स आर्टिस्टों ने क्या आइडिया निकाला। ये और बात है कि नाम आइडिया उत्पादक संपादकों का होगा। न्यूज़ रूम में कई लोग गुटका चबाते हुए कहेंगे कि ये फ्रेम मेरा आइडिया था और इस वाले का आइडिया मैंने दिया था। बीच में कोई शरारती किसी के आइडियो को अपना बताकर माहौल गरमा देगा। जैसा कि हर शादी में होता है। एकाध बाराती भड़क जाते हैं। बस मैं यह चाहता हूं कि बारात लौटे तो न्यूज़ चैनलों को इस कामयाबी में प्रोड्यूसर और ग्राफिक्स डिज़ाइनर गुमनाम न रह जाए। विनीत कुमार को ग्राफिक्स आर्ट और टीवी पर भी कुछ लिखना चाहिए।

हर देश में सेलिब्रिटी की ज़िंदगी खबर है। टाइगर वुड्स की बेवफाई पर अमेरिकी अखबारों को उठा कर देख लीजिए। हमारे हिन्दी चैनलों की तारीफ होनी चाहिए। एक शादी पर लोगों ने कितने एंगल निकाले। आजतक ने कपिल देव और मदनलाल को बिठाकर चर्चा की। कपिल से उनकी शादी की चर्चा की। लगता है धोनी ने कपिल पा को नहीं बुलाया फिर भी कपिल पा जी ने धोनी की तारीफ की कि बिना सूचना के शादी की। धोनी ने दिखावा नहीं किया। एंकर ने लेडी लक की बात कही। देखना है साक्षी से शादी धोनी को विश्वकप दिलाएगा या नहीं। बेचारी साक्षी। अगर इंडिया हार गया तो सब कहीं यह न कहने लगे कि मनहूस निकली साक्षी। इसी के कदम पड़े धोनी के जीवन में और कप हाथ से निकल गया।

आम तौर पर दूल्हों को मालूम नहीं होता कि कितनी देर घोड़ी पर बैठे। आजतक ने बताया कि धोनी पांच मिनट तक घोड़ी पर बैठे। विक्रांत के सवाल के जवाब में मदन लाल ने कहा कि मैं तो घोड़ी पर पांच मिनट से ज्यादा बैठा था। दोस्तों ने घोड़ी से उतरने नहीं दी। आज तक की यह चर्चा लाजवाब रही। कपिल पा जी ने कहा कि इस दिन को कोई नहीं भूलता। उसके बाद तुरंत गाना बजा दूल्हे का सेहरा सुहाना लगता है, दुल्हन का तो दिल दीवाना लगता है। नुसरत साहब के इस गाने से मजा आ गया।

तभी आजतक पर बारात से लौटा घोड़ी वाला फ्रेम में एंटर करता है। हिन्दी पत्रकारिता के किसी भावी स्मार्ट रिपोर्टर की तरह। उसने जो आंखें देखा हाल बयान किया उस पर अलग से लिखा जाना चाहिए। थोड़ा सा लिख देता हूं। आजतक ने घोड़ीवाले से बात की। बताया कि जॉन अब्राहम को बराबर से देखा। वो घोड़ी के बराबर खड़े थे। डांस किसी ने नहीं की। इंग्लिश गाने ही बजे। घोड़ी वाला भी पत्रकार की तरह बता रहा था कि और शादी में एक घंटा लगता है लेकिन इसमें तो मुश्किल से पांच मिनट नहीं लगे। सभी रिपोर्टर हंसने लगे। उसकी बातों से ऐसा लगा कि रिपोर्टरों ने उसे तैयार कर भेजा था कि बॉस ये ये चीज़ें देखकर आना और फिर बताना। किसी रिपोर्टर ने यह भी पूछ दिया कि खाना खाया तुमने। घोड़ी वाले ने कहा कि खाना नहीं खाया। कैसा कप्तान निकला अपना। घोड़ीवाले को बिना खिलाये भेज दिया। काहे का सेलिब्रिटी भइया। हेडलाइन बनाना चाहिए था कि कैसा निकला रे तू माही,खाना भी नहीं खिलाया घोड़ी वाले को।

शादी के सारे वीडियो अल्बम में इस्तमाल होने वाले गानों को सभी चैनलों ने बजाया। एक बार एक बैंड वाले से पूछा था कि एक गाना बताओ जो तुम गरीब से लेकर अमीर तक की शादी में बजाते हो। तो उसने कहा था कि आज मेरे यार की शादी बजाए किसी शादी से नहीं लौटा हूं। आज तक ने इसकी जानकारी दी। एनडीटीवी इंडिया के थोड़े से कवरेज में फार्मेट वीडियो अल्बम वाला ही था। बैकग्राउंड में वही गाने बजे। आज तक के विक्रांत ने कहा कि करोड़ों दर्शक जानना चाहते हैं कि शादी में किस तरह का माहौल है। जवाब में रिपोर्टर ने बताया कि फैन्स काफी दुखी है। आज तक का कवरेज थोड़ा चटकदार और चटकीला लगा। कपिल और मदन लाल की मौजूदगी अलग लुक दे रहा था।

आईबीएन सेवन ने बताया कि धोनी मांगलिक है। सुपर लगा था कि किस्मत की साक्षी। वही बात जो गांव घरों में लोग लड़की को तरसाते हैं। देखो तुम्हारी किस्मत अच्छी है इसलिए इंजीनियर से शादी हो रही है। धोनी से शादी न होती तो न जाने साक्षी की किस्मत क्या होती। खैर यह बताया गया कि धोनी मांगलिक हैं। कुंडली के बारहवें ग्रह में मंगल है। इसलिए शादी से पहले खूब पूजा हवन हुए।

आज के कवरेज पर अलग से लिखा जाना चाहिए। हिन्दी न्यूज़ चैनलों के पास आइडिया की कमी नहीं। नैतिकतावादी बहस करेंगे,रोयेंगे कि देखो पत्रकारिता का क्या हाल हो गया है। वैसे धोनी शादी नहीं करते तो भगवान जाने रविवार का दिन कैसे कटता। मुझे इसी बात का अफसोस रह गया। धोनी सोमवार को शादी करते तो बीजेपी के भारत बंद की बैंड बज जाती। एक विजुअल तक नहीं चलता। महंगाई की मारी जनता टीवी पर धोनी की शादी में मुंह मारती रह जाती। अब भी चांस है। अगर धोनी और साक्षी कल एक सेकेंड के लिए मीडिया के सामने आ जाएं तो मैं भी देखता हूं महंगाई मुद्दा है या माही।

स्टार न्यूज ने खूब कवरेज की। साक्षी के हुए माही,रांची में दीवाली और देहरादून में बारात आदि सुपर लगाए। यहां भी वीडियो अल्बम की तरह डिजाइन बनी थी। दिलाकार वाले खांचे में धोनी और साक्षी को फिट कर दिया गया था। रांची में दोस्तनुमा लफंगों को नाचते हुए दिखाया गया। धोनी रांची में शादी करते और लोकल बाराती होते तो इसी तरह के डांस होते। रिसोर्ट में भागकर धोनी ने उन्हें मौका नहीं दिया तो क्या हुआ स्टार ने कमी पूरी कर दी। हिन्दुस्तान की जनता भी ग़ज़ब है। मिठाई बांटने लगी। बच्चे गुलाल लगाने लगे। क्या जश्न था। जितना रिसोर्ट में नहीं होगा उतना न्यूज चैनलों पर था। भोपाल की दामिनी का मैसेज सरक रहा था कि धोनी तुम दोनों साथ रहो। देश भर से बधाई संदेश भेजे रहे थे। ऐसा नहीं था न्यूज चैनल ही बैंड बजा रहे थे। पब्लिक भी एसएमएस के ज़रिये धोनी की खबरिया बारात में नाच रही थी।

स्टार न्यूज़ ने शादी में बजा पहला गाना सुनाया। पंजाबी गाना था कि तैनू दूल्हा किन्ने बनाया भूतनी के। इस गाने को डीजे ने बजाया। जिस पर क्रिकेटर थिरके। दीपक चौरसिया ने इसे बिजली संकट से जोड़कर अपना टच दे दिया। कहा कि कैप्टन कूल की शादी है और यहां बिजली नहीं है। स्टार न्यूज के अनुसार धोनी ने काली शेरवानी पहनी थी लेकिन आज तक पर घोड़ी वाला बता रहा था कि शेरवानी क्रीम कलर की थी। स्टार के अनुसार साक्षी ने भूरे रंग का लहंगा पहन रखा था। स्टार न्यूज़ ने यह भी बताया कि आइये सुनाते हैं वो दूसरा गाना जिसे डीजे ने बजाया। नगाड़ा नगाड़ा बजा। अरे भाई आज मेरे यार की शादी कब बजा या बजा की नहीं,कोई बतायेगा। आजतक के अनुसार बजा था। स्टार के अनुसार तो पहले दो गानों में नहीं था। स्टार का तुर्की वा तुर्की कवरेज शानदार था। लेख लिखते वक्त दीपक चौरसिया ने मेरी आवाज सुन ली और अपने चैट में कह दिया कि लगता है कि आज मेरे यार की शादी ज़रूर बजाया गया होगा। श्योर नहीं थे लेकिन कोई बात नहीं। जवाब तो दिया न। मैं भी यह लेख लाइव रिपोर्टिंग देखकर साथ ही साथ लिख रहा था।

महेंद्र सिंह धोनी ने क्या समझ रखा है टीवी पत्रकारों को। बारात में इज्ज़त से नहीं बुलायेंगे तो ख़बर नहीं मिलेगी। हिन्दी न्यूज चैनलों ने दिखा दिया कि धोनी बंद कमरे में भी शादी करते तो भी लाइव कवरेज करने और दिखाने की ताकत हैं उनमें। कोई नहीं समझेगा कि हिन्दी के पत्रकार किस दबाव में किस तरह डिलिवर करते हैं। देखना दिलचस्प होगा कि टीआरपी की लड़ाई में बाज़ी कौन मारेगा। यह भी अंदाज़ा लगता है कि न्यूज़ चैनल किस लेवल पर कंपटीशन करते हैं। सारे चैनलों ने शानदार और मज़ेदार कवरेज किए। सब एक से बढ़कर एक। मजा आया। यही न्यूज़ चैनल थे जिन्होंने ऐश्वर्य और अभिषेक की शादी का कवरेज तो किया था लेकिन इतना शानदार नहीं। हो सकता है कि मैं स्मृति लोप का शिकार हो गया हूं मगर माही-साक्षी के कवरेज में वो भी संडे के दिन,इतने कम नोटिस पर जो कवरेज का स्तर था(अच्छा या बुरा वो सेमिनार में बोलूंगा)लाजवाब था। हिन्दी पत्रकारिता ने आज शादी काल गढ़ दिया। अब आगे से शादियां इससे भी बेहतर और व्यापक पैमाने पर कवर की जायेंगी। यह लेख भी शायद यही सोचकर लिख रहा हूं कि भावी संपादक रेफरेंस के तौर पर देख सकेंगे कि क्या क्या हुआ था और उन्हें नया क्या क्या करना है।

आज मैं उन नैतिकतावादियों में शामिल नहीं हूं जो पत्रकारिता के खत्म होने का मर्सिया पढ़ रहे होंगे। जिसकी मौत कई साल पहले हो चुकी है उस पर रोज़ रोज़ मर्सिया पढ़ कर क्या फायदा। न्यूज़ चैनलों की इस शादी के बारात में शामिल हो जाइये वर्ना कोई नौकरी भी नहीं देगा। धोनी की शादी बड़ी ख़बर तो है ही। लेकिन यही खबर है अब यह विषय फालतू हो चुका है। इस होड़ में इंग्लिश चैनल वाले भी थे लेकिन उनका कवरेज थर्ड क्लास रहा। सारी कुलीनता धरी की धरी रह गई। हिन्दी के रिपोर्टर की तरह उन्हें बारात में घुसने का रास्ता नहीं मालूम था शायद। अगर यह सब बाज़ार के दबाव में हुआ तो यह कहना चाहिए कि दबाव में चैनलों ने अच्छा काम किया। तालियां।

ब्रांड होती महबूबा और कार्ड होता महबूब

फैबइंडिया की चादर में लिपट कर
सरकाये थे जब उसने पांव अपने
वुडलैंड की चप्पलों में
लुई वित्तॉं के थैले में भर कर मेकअप का सामान
निकली थी वो बाहर जाने को मेरे साथ
उसकी खूबसूरती एक ब्रांड की मानिंद
धड़कने लगी मेरे भीतर
दुनिया के तमाम बिलबोर्ड से उतरकर
बिल्कुल करीब आ गई थी मेरी बांहों के
वैन ह्यूसन की कमीज़ का कॉलर
रे बैन के चश्मे ने मेरे चेहरे को बना दिया
दमदार और दामदार
उसकी मुस्कान से न जाने क्यों बार बार
टपक रही थी
निंबूज़ की प्यास और उसके विज्ञापन से छिटकते
पानी के फव्वारे
राडो घडी से लदी उसकी कलाई
पकड़ने को जी चाहा मगर दाम के टैग ने
दूर कर दिया मुझे
उस एकांत में सुंदरी से
पैराशूट नारियल में रात भर सोक हुए थे उसके बाल
गार्नियर की शैम्पू में धुल कर जब हल्के हुए
तो हवाओं ने भी कर ली छेड़खानी
लहराते बालों को क्या मालूम
टकराने का लोक लिहाज़
मेरे चेहरे पर अटके उसके बालों ने
वही तो कहा था
तुम्हारी महबूब किसी अप्सरा लोक से नहीं आई है
अख़बारों में छपे विज्ञापन की कटिंग से बनाई गई है
वो न जाने किस किस की अदाओं की
फोटोकॉपी है।
है तुम्हारी मोहब्बत
मगर ओरिजनल नहीं है।

राजा रवि वर्मा की पेटिंग में अटकी उस औरत का देह
जिस पर लिखी जानी थी कविता,
स्थगित कर कवि ने रविवार की सुबह
बाज़ार के तमाम उत्पादों के बीच अपने प्रेम का साक्षात्कार किया
कई ब्रांडों में समाई उस औरत से लिपट कर
डेबिट कार्ड से चुका दिये
इश्क के खर्चे

पत्रकार अब प्रचार भी कर रहा है

जो काम फिल्म वाले करते हैं, वहीं अब हम पत्रकार करने लगे हैं। अपनी स्टोरी या शो का सेल्फ प्रमोशन। फेसबुक का स्टेटस अपडेट कब बिलबोर्ड बन गया पता ही नहीं चला। मैं खुद अपनी रिपोर्ट का मल्टी स्तर पर प्रचार करने लगा हूं। यू-ट्यूब में प्रोमो अपलोड कर देता हूं। फेसबुक पर दो दिन पहले से टीज़ करने लगता हूं। एनडीटीवी के सोशल साइट्स पर जाइये तो वहां सारे एंकर और अब तो रिपोर्टर भी अपनी स्टोरी का विज्ञापन करते हैं। बताते हैं कि दस बजे या नौ बजे मेरी रिपोर्ट देखियेगा। नहीं देखा जाने का डर सबको सता रहा है। इतने सारे माध्यम हो गए हैं। हर माध्यम में नाना प्रकार के चैनल या अखबार। टीवी,लैपटॉप,ट्विटर,फेसबुक,आरकुट,अखबार,एफएम इत्यादि। जब एफएम पर न्यूज आने लगेगा तब घर पहुंचते पहुंचते चटपटे अंदाज़ में ख़बर मिल जाया करेगी। फिर कार से निकलकर टीवी के सामने न्यूज के लिए कोई क्यों जाएगा? जब थ्री जी से मोबाइल में ही टीवी चल जाएगा तब टीवी पर क्या देखेंगे मालूम नहीं।

पहले जब कोई रिपोर्ट करता था तो टीआरपी का आतंक नहीं होता था। क्योंकि तब टीआरपी के सौ फीसदी का बंटवारा तीन चार चैनलों में होता था। अब कई चैनलों में होता है। तब एक रिपोर्ट पर कई लोगों की प्रतिक्रिया मिलती थी। अब भी मिलती है लेकिन दर्शकों से कम। उन दर्शकों से मिलती है जो बौद्धिक कार्यों में ज्यादा संलग्न हैं। प्रतिक्रिया देने वाले ज्यादातर लोगों में से भावी पत्रकार हैं या फिर पत्रकार हैं। कई लोग इन दोनों कैटगरी से बाहर के भी हैं। फेसबुक पर सक्रियता के अनुभव से कुछ-कुछ ऐसा लगता है। यह कहने का मेरे पास कोई आधार नहीं है कि लोगों के पास टीवी देखने का वक्त नहीं है। लोग थक कर घर आते हैं तो सीरीयल ही देखते हैं। यही वजह है कि टीवी की खबरों का असर कम होने लगा है। अफसरों पर तो और भी कम हो गया है। इम्पैक्ट का वाइप( जो खबर के असर के तौर पर धांय धांय करता आता है) कम ही दिखता है।

टीवी को एसएमएस के ज़रिये इंटरएक्टिव बनाने का प्रयास हुआ। राय मंगाई गई। अब यह लगभग बंद होने लगा है। मुझे याद है जब मैंने दरभंगा से अपनी रिपोर्ट की एक पीटूसी में एसएमएस का नंबर ही बोल दिया। स्टुडियो में नग्मा और सिक्ता हंस पड़ी। न्यूज़ चैनलों ने फीडबैक के लिए ईमेल का सिलसिला शुरू किया। मुझे नहीं लगता कि बहुत फीडबैक आते हैं। आते भी हैं तो उनका खास प्रभाव नहीं है। पढ़कर अच्छा ज़रूर लगता है मगर ईमेल से हिन्दुस्तान का दर्शक एसएमएस की तरह राय नहीं भेजता है। इसके बाद न्यूज़ चैनलों ने इंटरएक्टिविटी बढ़ाने के लिए अपने अपने वेबसाइट बना डाले। वेबसाइट पर वीडियो लाइव देखने की सुविधा दे दी गई। टीवी अपनी खबरों को अखबार की तरह छापने भी लगा। अखबार तो टीवी होने का प्रयास नहीं करता। कल ही खबर देखी कि दैनिक भास्कर अपने रिपोर्टर को ऑन स्पॉट रिपोर्टिंग की सुविधा दे रहा है। मालूम नहीं कि यह किस लिए किया जा रहा है। क्या अखबार को भी अब पाठक का संकट हो रहा है जिससे जूझने के लिए वे अब टीवी की तरह बनने लगे हैं।

जो भी हो टीवी संकटग्रस्त हो गया है। यह एक जाता हुआ माध्यम लगता है। थ्री जी के आते ही बड़े बड़े ओबी वैन बेकार हो जाएंगे। कैमरे के साथ सेट टॉप जैसा बक्सा होगा जिससे आप लाइव टेलिकास्ट कर सकेंगे। इसे पूरी तरह सक्रिय होने में कम से कम तीन साल लगेंगे लेकिन थ्री जी का प्रयोग होने लगा है। क्वालिटी खराब है मगर इसका रास्ता निकल आएगा। वर्तमान में टीवी बौरा गया है। वो कभी ट्विटर से कमेंट उठाता है तो कभी फेसबुक से। वॉक्स पॉप लेने का रिवाज भी कम होता जा रहा है।टीवी आंखें ढूंढ रहा है। आंखें किस टीवी को ढूंढ रही हैं मालूम नहीं।

मैं जिस फ्लोर पर रहता हूं। उस में पांच घर हैं। नीचे के फ्लोर पर भी इतने ही हैं। इन दस घरों में से छह मुझे सीधे तौर पर जानते हैं। इनके घरों में मैं कभी भी अचानक चला जाता हूं। लेकिन कभी भी अचानक इन्हें न्यूज़ देखते हुए नहीं पाया। इनमें से एक या दो को मालूम है कि मेरे शो की टाइम क्या है। टीवी खूब देखते हैं। चलता है तो इंडियन आइडल टाइप कुछ चल रहा होता है। मेरे घर में जब बुज़ुर्ग आते हैं तो कभी उनको न्यूज देखते नहीं देखा। सास-ससुर न्यूज के लिए बांग्ला चैनल लगा कर देख लेते हैं। बहुत कम समय के लिए। उसके बाद अगर टीवी चल रहा होता है तो सिर्फ सीरीयल या क्रिकेट के लिए। टीआरपी के विशेषज्ञ एक मित्र ने कहा कि अकेले दिल्ली में न्यूज़ के दर्शकों में चालीस फीसदी की गिरावट है। टैम मीटर की सत्यता पर मेरे जैसे खिन्न पत्रकार ही सवाल उठाते हैं। आज तक किसी मीडिया मालिक को टैम को गरियाते नहीं सुना। जबकि ये काम वो हमसे बेहतर कर सकते हैं। टैम नहीं जाएगा। वो रहेगा।

नहीं देखे जाने के मलाल से सब परेशान हैं। मैं तो फेसबुक पर चैट करने वालों से पूछने लगता हूं कि आपने मेरा शो देखा? न जाने उन पर क्या बितती होगी। बेचारे गरियाते भी होंगे कि चाट है। जब देखो यही बात करता है। कुछ नहीं तो सबके चैट में शो की टाइमिग डाल देता हूं। फिर कई लोगों से पूछने लगता हूं कि देखा मेरा शो। जवाब मिलता है कि मिस कर गए तो मायूस हो जाता हूं। ये एक पत्रकार के व्यवहार में आ रहे बदलाव की आत्मस्वीकृति है। ये तो शुरूआत है। पता नहीं अंत कहां होगी। क्या पता एक दिन मैं टी शर्ट पहनकर घूमने लगूं। जिसके पीछे लिखा होगा कि आप रवीश की रिपोर्ट नहीं देखते हैं? क्या करते हैं। एनडीटीवी के सोशल साइट्स पर लोग अपनी स्टोरी या टॉपिक डालने लगे हैं। स्टेटस मन की बातों के लिए था। हम धंधे के दबाव में आ गए। आखिर सवाल तो है ही क्या हम न देखे जाने के लिए काम करें या फिर वो काम करें जो देखा जा सके। तब क्या हो जब दूसरे टाइप का काम भी करें और देखे न जाएं। मीडिया का असर कम हो रहा है। विविधता से मीडिया को क्या फायदा हुआ इसका अध्ययन किया जाना बाकी है। फिलहाल यह फैसला करना होगा कि क्या करें। बेहतर रिपोर्ट कौन तय करेगा। चार बुद्धिजीवी या फिर चालीस दर्शक।