पत्रकारिता का विचार-वाचन काल

नानाप्रकारनिगमागमसम्मत। दसवीं की हिन्दी की किताब में किसी मशहूर लेख का हिस्सा था। तुलसी के बारे में किसी महान लेखक ने लिखा था शायद। खैर यह संदर्भ ग़लत भी हो तो कोई बात नहीं। मैं पहली पंक्ति यानी प्रमेय का इतना सा मतलब समझता हूं कि एक व्यक्ति में जीवन के तमाम पहलुओं को विचारने और बोलने की क्षमता आ जाए तो वो ऐसे प्रमेयों पर खरा उतरता है। टीवी ने एक ऐसा चैट ब्रिगेड पैदा कर दिया है जो दस मिनट में किसी भी बहुमुखी समस्या पर एकमुखी जवाब देने में माहिर हैं। हबर-हबर सवालों को ठेल-ठेल कर अपने जवाबों के लिए स्पेस बना लेते हैं। वो आते हैं। आते-जाते रहते हैं। कई बार समस्याओं की ऐसी परत खोल जाते हैं जो वायुमंडल में अनियंत्रित विचरित करने लगते हैं। टीवी तो ब्रेक लेकर लौट चुका होता है मगर सुनने वालों के कानों से मस्तिष्क तक की यात्रा में उनके विचार कैसे-कैसे रूप धरते होंगे मालूम नहीं।

टीवी पर चैट ब्रिगेड अब एक हकीकत है। टीवी के उदय के साथ ही आया। अख़बारों में तो इस चैट ब्रिगेड के हवाले पांच एकड़ का संपादकीय पन्ना कर दिया जाता रहा है। जिनमें हम सभी अपना कूड़ा और सोना एक साथ उगलते रहते हैं। जनमत निर्माण की प्रक्रिया में। सरकार,सेना,विश्वविद्यालय से रिटायर हुए इन चैट गुरुओं के दम पर टीवी का काम चलेगा। पत्रकारों को अब ऐसा मौका नहीं मिलेगा कि वो मौके पर जाने के अपने अनुभवों का सार दर्शकों के सामने प्रस्तुत कर सकेंगे। इसलिए अब इन चैट गुरुओं के विशाल अनुभवों का लाभ उठाया जाने लगा है। टाइम्स नाउ ने इसे औपचारिक और सांस्थानिक रूप दे दिया है। दो घंटे तक दर्शकों का कौन वर्ग एक या दो मुद्दे पर लगातार अलग-अलग विचार वाचन सुन रहा है मालूम नहीं। सुन ही रहा होगा तभी हर तरफ उसकी अनुकृति दिखाई देती है। टाइम्स नाउ से पहले जब एनडीटीवी ने न्यूज़ आवर, बिग फाइट,मुकाबला और वी द पिपुल की शुरूआत की थी तब ऐसे शो सप्ताहांत में ठेले जाते थे। सीधी-बीत,कशमकश,मुद्दा, ज़िंदगी लाइव,सलाम ज़िंदगी,वर्सेस,अस्मिता जैसे कई शो अस्तित्व में आए। आप की अदालत ने तो पायनियर का काम किया है।

माना जाता था कि छुट्टी के दिन दर्शक विचार-वाचन सुनना पसंद करेगा। इन शो के लिए विचार वाचक खोजे गए। कई लोग इस आधार पर रिजेक्ट किए गए,जो जानकारी तो बहुत रखते थे मगर बोलने की शुरूआत पृष्ठभूमि और संदर्भ से करने लगते थे। हर सवाल का जवाब उस मुद्दे पर लिखी गई सारी किताबों का सार प्रस्तुत कर देने लगते थे। इसी ट्रायल एंड एरर में कई लोगों ने बाज़ी मार ली। उन्होंने खुद को ज़रूरतों के हिसाब से ढाल लिया। वो सवाल कोई सा हो मगर अपना जवाब तीस सेकेंड में वायुमंडल में ठेल देते हैं तो तरंगों पर सवार होकर आपके कानों तक पहुंचने लगा। बहुत से विचार-वाचक एंकर के मुकाबिल स्टार हो गए। उनकी पूछ इतनी बढ़ गई कि एक आदमी के पीछे पांच-पांच चैनल के गेस्ट रिलेशन के लोग पैदा हो गए। हर चैनल में गेस्ट रिलेशन संपादकीय टीम का हिस्सा हो गया। नेता,विचार-वाचक अब इस गेस्ट रिलेशन के लोगों के संपर्क में आ गए। पत्रकारों की जगह इन लोगों ने ले ली। जो जानकारी एक पत्रकार को होनी चाहिए कि किस विषय पर कौन कैसा बोलता है वो अब गेस्ट रिलेशन के लोग जानते हैं। इसीलिए इन्हें अब पत्रकार और संपादकीय टीम का हिस्सा मानना ही होगा। ख़बरों की भनक भी कई मामलों में इन्हें पत्रकारों से पहले लग जाती है। पर अभी इन्हें वो संपादकीय सम्मान नहीं मिला है।

ख़ैर,टाइम्स नाउ ने न्यूज़ आवर की परंपरा को आगे बढ़ाया। अब हर चैनल में विचार वाचन तुरंत होने लगा है। उसी दिन और उसी शाम। विचार-वाचन पत्रकारिता अब वीकेंड नहीं रही। डेली हो गई। जिस दर्शक के बारे में कहा जाता है कि समय नहीं है उसके पास ठहर कर ख़बर देखने-सुनने की इसलिए स्पीड न्यूज़ दो वही दर्शक ठहर-ठहर कर विचार सुन रहा है। वो भी रोज़। अब कोई तो बताये कि दर्शकों के पास कहां से घंटों विचार सुनने का वक्त पैदा हो गया है। हिन्दी-अंग्रेजी कोई सा भी चैनल हो किसी न किसी पर कोई न कोई गेस्ट होता ही है। विचार-वाचकों का न्यूज़ रूप में औपचारिक नाम गेस्ट होता है। जिसे एंकर लाइव होते ही जानकार बताता है। मुझे विचार-वाचक तुलसी की तरह लगते हैं। इन्हें जीवन का हर दर्शन मालूम होता है। ये हर सवाल का मुकम्मल जवाब दे सकते हैं। अखबारों में भी नए-नए विचार वाचक ढूंढे जा रहे हैं। वहां भी टीवी की प्रक्रिया का असर हो रहा है। वहां भी जानने वाले की जगह पहचाने जाने वाले को ढूंढा जा रहा है। जो फेस है वही रेस में है। जो फेस नहीं है वो आउट। विचार का संबंध जानकारी से कम पहचान से ज्यादा हो रहा है।

पाकिस्तान को लेकर ही सारी थ्योरी अपनी जगह पर स्थिर है। मगर विचार-वाचक आकर उसे प्लावित कर देते हैं। किसी भी बहस में पाकिस्तान को लेकर उम्मीद पैदा नहीं की जाती। उसके आवाम की कोई तस्वीर नहीं बनती। सिर्फ धांय-धांय बात-बम फेंका जाता रहा है। कितने साल से कहा जाता रहा है कि पाकिस्तान नाकाम और नापाक हो चुका है। मगर पाकिस्तान तो अपनी जगह पर कायम है। चुनौतियां किस मुल्क के इतिहास में नहीं आतीं। बात और है कि पाकिस्तान की यह रात थोड़ी लंबी हो गई है। पाकिस्तान को लेकर होने वाली हर बहस में भारत को जीतना ही क्यों ज़रूरी होता है। सियासी प्रवक्ता तो हर सवाल पर एक ही बात करते हैं। इनका-उनका चलता रहता है। उनकी बातों को ध्यान से सुनें तो कोई नतीजा नहीं निकलता। ऐसा लगता है कि बिना साइलेंसर वाली बाइक भड़भड़ाते हुए मोहल्ले से गुज़र गई। जब तक आपने खिड़की खोली कि हुआ क्या है तब तक न धुआं बचता है न शोर। सियासी प्रवक्ता शाम को टीवी पर आने में माहिर हो गए हैं। इनमें शरद यादव जैसे माहिर नेता भी हैं। साफ मना कर देते हैं। कहते हैं सियासी बातें ऐसे नहीं होती हैं। लेकिन बाकी लोगों को तो पार्टी की तरफ से काम दिया गया है कि टीवी में बोलना है। उनकी बात को काटने का प्रमाण तो होता नहीं। सिर्फ एंकर के भयंकर और नवीनतम सवाल होते हैं। लगता है कि बम ही छोड़ दिया लेकिन छुरछुराने के बाद कोई धमाका नहीं होता। क्योंकि कई जगहों पर अब रिपोर्टर ख़बर नहीं,गेस्ट लाने लगा है।

आप देखते रहिए माफ कीजिएगा सुनते रहिए टीवी।पर एक बात है अच्छा बोलने वाला मिले, धज और धमक से तो बहस में वाकई मज़ा आ जाता है। नई दलील आ जाए,नई बात आ जाए तब। कई बार यही गेस्ट रिपोर्ट की अधूरी ख़बर को अपनी जानकारियों से पूरी भी कर देते हैं। यह शुक्ल पक्ष है। बहरहाल,विचार-वाचन पत्रकारिता का औपचारिक स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि ये मौजूद तो टीवी के आने के समय से ही है। टीवी दिखाने की जगह बोलने की चीज़ हो गया है। लोकसभा टीवी से लेकर तमाम टीवी में लंबी-लंबी चर्चाएं हो रही हैं। अमर्त्य सेन ने ठीक ही कहा है कि हम बातुनी इंडियन हैं। हर जगह वही लोग बोल रहे हैं। वही लोग सुन रहे हैं। कुछ लोग बहुत अच्छा बोल रहे हैं। कुछ लोग वही बात बार-बार अच्छा बोल रहे हैं। जो बोलता है वो दिखता है। नया फार्मूला। वैसे है पुराना। नया कहने से थोड़ा कापीराइट का क्लेम आ जाता है।

लूटों इन किसानों को, विकास बचा लेगा तुम्हें

खेती के विकास के लिए कभी आपने नेताओं की इतन सक्रियता देखी है? ग्रेटर नोएडा से लेकर देश के सैंकड़ों स्थानों पर किसानों की ज़मीन विकास के लिए ली जा रही है। खुद खेती संकट के दौर से गुज़र रही है। अनाजों को रखने के लिए अभी तक गोदाम नहीं बन सके हैं। फल-सब्ज़ियों के उत्पाद को बचाने के लिए वातानुकूलित स्टोरेज की व्यवस्था तक नहीं कर पाये। किसान का कर्ज़ा माफ करके और उस पर कर्ज़ लाद कर उसे वहीं का वहीं रख छोड़ा जा रहा है। किसानों के साथ विकास के नाम पर मज़ाक हो रहा है। गांवों में आप स्कूल,सड़कों और बिजली की हालत देख लीजिए। किसानों के बच्चे किस स्तर की शिक्षा पा रहे हैं। बीबी-बच्चों का अस्पताल जिन सरकारी अस्पतालों में होता है उनकी हालत देख लीजिए। इन सब हालात में सुधार के लिए तो कोई राजनीतिक दल आगे नहीं आता। उनके लिए अब तक कि सबसे बड़ी परियोजना यही सोची जा सकी कि उनकी दिहाड़ी मज़दूरी तय कर देते हैं। एक तरफ उन्हें पिछड़ा बनाए रखो और दूसरी तरफ उन्हें ख़ैरात बांट दो और इस खैरात का भार न पड़े इसलिए रोज़ाना पंद्रह रुपये से अधिक कमाने वाले को ग़रीब से अमीर घोषित कर दो। गांवों और किसानों के विकास के नाम पर बनी तमाम योजनाओं संपादकों के कॉलम में ही ज्यादा बेहतर और नियोजित नज़र आती हैं। ज़मीन की तस्वीर वही है जो बीस साल पहले थी। कुछ सरकार से भावनात्मक आशीर्वाद प्राप्त पत्रकार तो अब यह दलील देने लगे हैं कि देखिये गांवों में लोग टीवी खरीद रहे हैं, डिश टीवी आ रहा है, बाइक की सेल्स बढ़ गईं हैं, वहां कोई गरीबी नहीं हैं। गांवों में पैसा है।

हमारे किसानों और गांवों को बाज़ार में भी बराबरी से उतरने का मौका नहीं दिया जा रहा है। सरकार ने तो उन्हें गैर बराबरी के नीचे दबाये रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। ग्रेटर नोएडा से आगरा तक की दूरी सिर्फ पचास किमी कम हो जाए इसके लिए हज़ारों हेक्टेयर उपजाऊ ज़मीन ले ली गई। किसानों को भूमिहीन बना दिया गया। इसी के साथ खेती पर निर्भर तमाम तरह के खेतिहर मज़दूर भी बेकार हो गए। टप्पल से लेकर ग्रेटर नोएडा तक ऐसे कई किसानों से मिला जो पहले ज़मींदार थे। छोटी जोत के। ये सब अब भूमिहीन हो गए हैं। बैंकों में इनके साठ लाख की फिक्स्ड डिपोज़िट ज़रूर होगी मगर ये बेकार हो चुके हैं। दूसरे गांवों में ज़मीन लेना और बसना इतना आसान नहीं होता। पारंपरिक पेशे से उजड़ने और ज़मीन से जुड़ी सामाजिक मर्यादा के नुकसान की भरपाई मुआवज़े की राशि में नहीं होती है। इस बात का तो अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है कि ज़मीन से बेदखल होने का गांव के पारंपरिक सामाजिक संबंधों पर क्या असर पड़ता है। राजनीतिक नारेबाज़ियों के बीच टप्पल में ही कई दलित किसानों से मिला। कानूनी अड़चनों के कारण उनकी ज़मीन का बाज़ार भाव कम होता है। दलितों ने बताया कि हमें तो अधिक दाम मिला लेकिन वो पैसा जल्दी ही घर बनाने और शादी ब्याह में खत्म हो गया. हम भी जाटों की तरह ही बेकार और विस्थापित हो गए।

इसी के साथ यह सवाल भी उभरा कि फिर इन किसान आंदोलनों के नेतृत्व या समर्थक के पैमाने पर दलितों की भागीदारी कम या नहीं के बराबर क्यों हैं? टप्पल का विरोध बड़ा नहीं होता अगर चौधरी कहे जाने वाले किसानों की ज़मीन नहीं गई होती। मेरी समझ से यह मौजूदा किसान आंदोलनों का अंतर्विरोध है। फिर भी आप देखेंगे कि किसान आंदोलन अब किसी राजनीतिक दल के मंच से नहीं होते। ग्रेटर नोएडा से लेकर टप्पल तक अलग-अलग किसान संघर्ष समितियां हैं। वक्त पड़ने पर इनके बीच साझा ज़रूर हो जाता है मगर इनका चरित्र स्थानीय है। आगरा के भूमि बचाव संघर्ष समिति के नेता ने कहा कि मुआवज़े की लड़ाई ही नहीं हैं। हम तो ज़मीन ही नहीं देना चाहते हैं। सरकार हमें पांच सौ रुपये प्रति वर्ग मीटर( अनुमानित राशि) देती है जबकि बिल्डर को देती है दो से तीन हज़ार वर्ग मीटर के दर से। यानी पहला मुनाफा तो सरकार ने ही बनाया। फिर बिल्डर उस ज़मीन को पंद्रह से बीस हज़ार प्रति वर्ग मीटर के रेट से बेच रहा है। अगर आप इस इलाके की ज़मीन का औसत मूल्य के आधार पर भी हिसाब लगाए तो यह घोटाला तीस लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा का है। सवाल है कि सरकार क्यों नहीं किसानों को सीधे बाज़ार में उतरने दे रही है। वो उनसे ज़मीन लेकर बिल्डरों को क्यों बेच रही है। जो सरकार को मुनाफा हो रहा है वो किसानों को क्यों नहीं मिल रहा है।

दूसरी बात क्या कोई साबित कर सकता है कि बीस साल के उदारीकरण में जो विकास हुआ उसमें किसानों की भी हिस्सेदारी रही। भागीदारी तो नहीं रही उनकी। फिर किस हक से उनकी ज़मीन हड़प ली जा रही है। बुनियादी ढांचे के विकास की इतनी बेताबी है तो खेती में बुनियादी ढांचे के विकास की बात क्यों नहीं हो रही है। कितनी सिंचाई परियोजनाएं आपने इस दौरान बनती देखी है। कितनी ऐसी योजनाएं आपने देखी हैं, मधुमक्खी पालन के अलावा, जिनसे खेती का उद्योगिकरण हो रहा है।

मीडिया तो राहुल गांधी को कवरेज देगी ही। लेकिन जो सवाल है तीस लाख करोड़ रुपये के घोटाले का,उसकी कोई तहकीकात नहीं करेगा। क्योंकि ये सवाल उसे मायावती तक ले जाने से पहले प्रायोजकों के दरवाजे पर ले जायेंगे। इसलिए आप किसानों के इस आंदोलन की कवरेज में पीपली लाइव का तमाशा देखिये। ऐसा फालतू दर्शक समाज मैंने कहीं नहीं देखा और पालतू मीडिया। किसान मुआवज़े की राशि लेकर देसी शराब के ठेके पर नहीं जायेगा तो क्या करेगा। उसे क्या हमने ऐसी तालीम दी है कि वह अपना उद्योग धंधा कायम कर सके। आखिर मुआवज़े से विकास होता तो आप ग्रेटर नोएडा और गुड़गांव के किसानों का अध्य्यन तो कीजिए और पता तो लगाइये कि इतनी बड़ी राशि आने के बाद कितने किसानों ने उद्यमिता का मार्ग अपनाया। हां कुछ किसानों की शानो शौकत की खबरें आप अखबारों में ज़रूर पढ़ते रहे होंगे। ये वो कुछ किसान हैं जिनके पास बेहिसाब ज़मीन थी और राजनीतिक सत्ता से संबंध जिनके बूते इन्होंने अपने पैसा का तानाबाना बुन लिया। बाकी किसान पव्वा और अध्धा में ही व्यस्त रह गए। टेंपो ड्राइवर बन गए।

भाई साहब,किसी नेता से पूछिये तो वो किसी बिल्डर के बारे में क्यों नहीं बोल रहे। कमीशन तो उन्हें भी मिलता रहा है बिल्डरों से। माफ कीजिएगा। ये आज कल डेवलपर कहलाने लगे हैं। विकास आज के समय का सबसे बड़ा डाकू है।