पुरानी जीन्स और हथियार...

क्या आपको नीले रंग वाली जीन्स पतलून से डर लगता है? क्या जीन्स को लेकर आप भी आधुनिकता को गंदा या भद्दा समझते हैं? क्या जीन्स को लेकर आपने भी कभी न कभी सोचा है कि यह लड़कियों के लिए नहीं है। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो ज़रूरी नहीं कि आप बिल्कुल खाप मानसिकता के ही है लेकिन यह ज़रूर है कि आप एक ऐसे कपड़े का विरोध कर रहे हैं जिसे पहनने के बाद लड़कियों की आज़ादी खास रूप से नज़र आने लगती है जो आपको खाप में बदल देती है। पहनावा एक ऐसा आखिरी मुकाम है जिसपर आप प्रतिबंध के नाम पर आधुनिकता को यानी लड़कियों को काबू में रखना चाहते हैं। अगर आप ऐसा सोचते हैं तो कुछ भी ग़लत नहीं क्योंकि आपको किसी ने बताया ही नहीं कि आपकी सोच में बुनियादी गड़बड़ी है। हमारे देश में कपड़ों का रिश्ता जाति,त्योहार से लेकर इलाका और मौसम सबसे रहा है। ऐसे में जीन्स एक ऐसा कपड़ा है जो इन सब सीमाओं या खांचे को पार करता हुआ हर तबके के पहनावे के रूप में कायम हो जाता है। जीन्स सिर्फ एक आधुनिक कपड़ा नहीं बल्कि असामनता को विशेष रूप से उभारने वाले इस आधुनिक दौर में बराबरी का एक ऐसा रूपक है जो अमीर से लेकर ग़रीब सबके बदन पर है। यही नहीं यह एक ऐसा कपड़ा है जिसका कोई जेंडर यानी लिंग नहीं है।

जीन्स का उदय अमरीका में हुआ। उन्नीसवीं सदी के मध्य में यह पहनावे के रूप में प्रचलित होने लगी। १८५० के आस पास कैलिफोर्निया में सोने की खदाने मिलने से वहां एक किस्म की भगदड़ सी मची । जिसे गोल्ड रश के नाम से जाना जाता है। यहां के खान मज़दूरों को विशेष कपड़े की ज़रूरत थी। इसी दौरान एक जर्मन नौजवान वहां पहुंचता है और कैनवस के कपड़ों से पतलून बनाने लगता है। १८७३ में लेवी स्त्रास ने अपनी डेनिम जीन्स का पेटेंट करा लिया और कंपनी कायम कर दी। १३९ साल के सफर में डेनिम जीन्स ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं। १९५० के दशक में अमरीका के स्कूलों में भी जीन्स पहनने पर रोक लगी थी। वहां भी जीन्स का विरोध हो रहा था। लेकिन १९६० तक आते आते यह विरोध धीमा पड़ने लगा। उसी दौरान एक फिल्म रिबेल विदाउट काज़ आती है और जीन्स फैशन में आ जाता है। मज़दूरों का कपड़ा पर्दे के नायक का कपड़ा बन जाता है। हमारे हिन्दुस्तान में जीन्स का आगमन यहां के उन कुलीनों के ज़रिये होता है जो महानगरों के खास इलाकों तक ही सिमटे रहे। अमेरिका में जीन्स मज़दूरों से मालिकों और युवाओं तक पहुंची। हिन्दुस्तान में जीन्स मालिकों से मज़दूरों तक पहुंची। इसमें दिल्ली के मोहनसिंह प्लेस और करोलबाग का बड़ा योगदान रहा है। कनाट प्लेस स्थित मोहनसिंह प्लेस सस्ती जीन्स का खदान बन गया। वहीं से उन लोगों ने जीन्स पहनने का तज़ुर्बा किया जो ब्रांड वाली महंगी जीन्स नहीं खरीद सकते थे। बदलते शहर,काम की प्रकृति के कारण हिन्दुस्तान भर से आए प्रवासी छात्रों और मज़दूरों को जीन्स की शरण लेनी पड़ी। जीन्स उनके आधुनिक होने की पहचान बन गई।

लेकिन क्या हमारे समाज में जीन्स का विरोध हुआ ही नहीं। ऐसा नहीं है। जीन्स को लेकर हमेशा से तकरार होती रही है। हमारे ही मित्र जीन्स अपने मां बाप से छिप कर पहनते थे। नब्बे के दशक में जब हम बिहार से दिल्ली आ रहे थे तब कई छात्रों के माता पिता ने कहा था कि जीन्स मत पहनना। लोफर पहनते हैं। शायद जिप्सियों पर बनी हरे रामा हरे रामा जैसी फिल्मों ने जीन्स की छवि ऐसे लोगों में बिगाड़ दी होगी। ऐसी चेतावनी मुझे भी मिली थी। लड़कियों को भी जीन्स पहनने पर ऐसी टिका टिप्पणी सुननी पड़ी है। आप चाहें तो जीन्स पहनने के अपने निजी प्रसंगों को इस लेख के साथ याद कर सकते हैं। यह एक छिटपुट विरोध भर था। हमारे देश एक तबके में जीन्स बागी प्रवृत्ति वाले नौजवाने से कम, बिगड़ैल प्रवृत्ति के युवाओं से जोड़ कर देखा गया है। बाद में यह आसानी से स्वीकृत भी होता गया। आज के सभी हीरो जीन्स ही पहनते हैं। अमिताभ,जीतेंद्र,मिथुन के दौर में पतलून का चलन था। इसलिए हर दर्जी उनकी पतलून की कापी करता था। पतलून की जेब से लेकर मोहरी तक फैशन बन जाया करती थी। बेल बाटम्स से लेकर पतली मोहरी का चलन हो जाता था। जीन्स में कापी करने के लिए कुछ नहीं है। आप सलाम नमस्ते या काकटेल देखने के बाद चाहें तो जीन्स का कोई भी ब्रांड खरीद ले। इतनी भयंकर समानता किसी और प्रकार के कपड़े में नहीं है। इसीलिए जीन्स का ब्रांड महत्वपूर्ण होता है। जीन्स ब्रांड के नाम से ही अलग दिखती है।

जीन्स के कपड़े की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यह किसी भी प्रकार के अंतर को समाप्त कर देती है। हुआ यह है कि गांव गांव से महानगरों में पहुंचे मज़दूरों ने बड़ी संख्या में दर्ज़ी की बनाई पतलून या फैक्ट्री की सिली हुई पतलून को त्याग दिया है। अब आप ईद या होली के मौके पर दर्ज़ियों के पास जाकर देखें। पतलून की सिलाई कितनी कम हो गई है। ज्यादातर टेलर लेडीज टेलर होकर रह गए हैं। इन मज़दूरों के साथ गांव गांव में जीन्स पहुंचा है। सस्ती और टिकाऊ होने के कारण मर्द ही इन्हें अपने इलाके में लेकर गए हैं। गांवों में लड़कियों तक जीन्स मर्दों के ज़रिये पहुंचा है। इसी चस्के ने जीन्स का देसी बाज़ार तैयार किया और नकली ब्रांड वाले जीन्स मेले से लेकर ठेले तक पर बिकने लगी। इस कपड़े ने गांवों की सीमा के भीतर लड़के और लड़कियों के बीच पहनावे के अंतर को समाप्त कर दिया है। यह कैसे हो सकता है कि वो हर चीज़ों में लड़के लड़कियों के बीच अंतर करें और पहनावे का भेद इतनी आसानी से मिट जाए।

जिस तरह से जीन्स शहरों में वक्त,परिवहन के संसाधन, पानी की उपलब्धता आदि कारणों से सुलभ हुई,गांवों में भी इन्हीं कारणों से प्रचलित हो रही है। हमारे समाज में लड़कियों को मारा जा रहा है तो दूसरी तरफ लड़कियां लड़कों से कई मामलों में तेज़ी से बदल भी रही है। उनकी गतिशीलता से गांव के बुजुर्ग या लड़के परेशान होने लगे हैं। वो अब बहाने ढूंढ रहे हैं। मोबाइल और जीन्स नए बहाने हैं जिनके ज़रिये लड़कियों पर नियंत्रण की कोशिश हो रही है। जीन्स उन्हें चुनोती दे रही है। जीन्स का विरोध और बुर्के पहनने पर ज़ोर एक ही मानसिकता की देन है। जिस्म का कोई हिस्सा न दिखें। इस बात पर कोई ज़ोर नहीं कि देखने का वैसा नज़रिया कपड़े की सिलाई से आता है या दिमाग़ की किसी बुनावट से। तभी तो सिर्फ लड़कियों के जीन्स पहनने पर रोक लगी। लड़कों पर नहीं।

इसलिए आसान है कि जीन्स को जला दें। मुज़फ्फरनगर के दूधाहेड़ी गांव में जीन्स की होली जलाई गई। गांव की सरपंच की पोतियां ही कहती मिलीं कि हम तय करेंगी कि क्या पहने। लेकिन वहां पुरुषों का दबाव इतना कि सारी लड़कियों को जीन्स देनी पड़ी होलिका दहन के लिए। लेकिन उन्होंने अपनी आज़ादी नहीं सौंपी है। वो कह रही हैं कि नौकरी की ज़रूरत के मुताबिक हम कपड़े पहनेंगे। बंगलौर या दिल्ली जायेंगे तो ये हमें बतायेंगे कि क्या पहनें। ज़रूरी है कि हम कपड़े की मानसिकता को भी पहने। जीन्स जल गई लेकिन आज़ादी और बराबरी की चाहत बाकी है जो जगह बदलने या वक्त गुज़रने के साथ पूरी कर ली जाएगी। यानी जीन्स की संभावना अब भी गांवों के लिए बची है।

लेकिन हैरानी हुई कि हमारा आधुनिक समाज जो पश्चिम की आधुनिकता को बेशर्मी से जीता है उसके विरोध के नाम पर अभी भी ढोंग करता है। स्वदेशी आंदोलन के वक्त विदेशी कपड़े जलाए गए थे। वो सिर्फ कपड़े का विरोध नहीं था बल्कि उस मानसिकता का विरोध था जो हमें उस सत्ता का उपनिवेश बनाती थी जिसकी गुलामी हम पहनकर चल रहे थे। गांधी ने हमें उस मानसिकता से आज़ाद कर दिया था। लेकिन क्या अब जीन्स को उस नज़र से देखा जा सकता है। क्या यह विदेशी कपड़ा है? नहीं है। यह देसी कपड़ा भी है। इसके पहनने से कोई अच्छा बुरा नहीं होता। खादी का क्या करेंगे। खादी पहनने वाले कई लोग लाखों करोड़ों का घोटाला कर जाते हैं। क्या अब खादी की भी होली जलेगी इस देश में? जीन्स एक शानदार और बराबरी का पहनावा है। आपके पास कोई पुरानी जीन्स हो तो निकालें और पहनें।
(शुक्रवार को यह लेख राजस्थान पत्रिका में छपा था)

मैं देश को गुजरात का नमक खिलाता हूं- नरेंद्र मोदी

(शाहिद सिद्दीकी चार दलों में रह चुके हैं। पूर्व सांसद हैं। साप्ताहिक उर्दू अख़बार के संपादक भी हैं। उन्होंने नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू किया है। सवाल जवाब शुरू होने से पहले इंतनी लंबी प्रस्तावना लिखी है। शायद उन्हें विवाद का अहसास होगा। उससे ज़्यादा यह अहसास होगा कि उनकी नीयत पर भी सवाल उठेंगे। इसलिए ये सारी बातें लिखीं हैं। छह पेज का इंटरव्यू है इसलिए टाइप करने में वक्त लगेगा मगर धीरे धीरे करके यहां डालता जाऊंगा ताकि आप हिन्दी में इस महत्वूपूर्ण इंटरव्यू को पढ़ सकें।)


दो हफ्ते पहले की बात है मैं हेमा की बेटी की शादी में शिरकत के लिए मुंबई गया था। शाम को हम बांद्रा के एक फ्लैट में बैठे थे। हमारे साथ महेश भट्ट,सलमान ख़ान के वालिद सलीम ख़ान और सनतकार(उद्योगपति) ज़फ़र सरेसवाला थे। बातों बातों में गुजरात का तस्करा(ज़िक्र) निकल आया। मोदी के ज़ुल्मों सितम की, गुजरात के मुसलमानों से नाइंसाफियों की बातें निकल आईं। सलीम ख़ान कहने लगे कि शाहिद साहब आपने दुनिया भर के लोगों का इंटरव्यू किया है, कभी नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू नहीं लिया। मैंने कहा कि मोदी हमें कभी इंटरव्यू नहीं देगा। नई दुनिया मोदी का सबसे बड़ा मुख़ालिफ़(विरोधी) है और मैं हर टीवी चैनल पर उसके ख़िलाफ़ बोलता हूं। महेश भट्ट बोले कि कोशिश कीजिए क्योंकि हमारे सामने मोदी की राय सामने नहीं आई है। नरेंद्र मोदी भी मीडिया से दूर भागता है और मीडिया भी मोदी की बात नहीं सुनना चाहता। मैंने ज़फ़र से कहा कि कोशिश करके देख लो और राज़ी हो जाएं तो मुझे कोई एतराज़ नहीं है। मैंने १९७७ में इंदिरा गांधी का इंटरव्यू उस वक्त किया था जब आपातकाल के ख़ात्मे के बाद सब उन्हें नफ़रत की निगाह से देखते थे। इंदिरा गांधी क्या सोचती थी, क्या चाहती थी यह पहली बार दुनिया के सामने मैंने पेश किया था। मैंने अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी का भी इंटरव्यू लिया। ये तो सहाफ़ी(पत्रकार) का फ़र्ज़ है। ख़ासतौर से जो मुख़ालिफ(विरोधी) है, बदनाम है, जिसकी राय से इख़्तलाफ़(असहमति) रखते हैं उसकी सोच तो हमारे सामने आनी चाहिए।

एक हफ्ता बाद मुझे संजय बावसर का फोन आया, जो नरेंद्र मोदी के सचिव हैं। उन्होंने मुझे मोदी का इंटरव्यू करने की दावत दी। मैंने कहा कि मेरी शर्त पर। पहले यह कि मोदी मेरे हर सवाल का जवाब देंगे। दूसरे ये कि मैं जो चाहूंगा उनसे सवाल करूंगा । मोदी के बारे में जानता हूं कि उन्होंने कई बार टीवी चैनलों को इंटरव्यू देते हुए किसी सवाल से नाराज़ होकर बीच में ही इंटरव्यू ख़त्म कर दिया। मैं जानता था कि मेरा इंटरव्यू कड़ा होगा,मेरे हर सवाल हिन्दुस्तान के सेकुलर इंसान के ज़हन में उठने वाले सवाल होंगे। क्या नरेंद्र मोदी इन सवालों को बर्दाश्त करेंगे। अगले दिन फिर संजय का फोन आया कि मोदी जी राज़ी हैं। आप कब आयेंगे। मेरे दिन में कशमकश थी कि मैं मोदी का इंटरव्यू करूं या न करूं। आख़ारकार मैंने फ़ैसला किया कि अपने सवाल रखने में क्या हर्ज़ है।

गांधीनगर में वज़ीरेआला की रिहाइश बहुत खामोश और पुरसकून इलाके में हैं। मोदी की रिहाइश में आम नेताओं वाली गहमा गहमी नहीं थी। हर चीज़ बहुत सिस्टम से थी। मोदी ने मेरी इंटरव्यू की वीडियो फिल्म बनाने का फैसला किया था। उसे टेप करने का फैसला किया था ताकि मैं उनकी कही बातों में कोई मिर्च मसाला न लगाऊं। आधी आस्तीन के गुलाबी कुर्ते में नरेंद्र मोदी मेरे सामने बैठे थे। एक शख़्स जिसे डिक्टेटर कहा जाता है, हिटलर भी, मुस्लिम दुश्मन और फ़िरकापरस्त भी। मोदी के होठों पर मुस्कुराहट थी। मगर उनकी आंखें नहीं मुस्कुरा रही थीं। मोदी ने वादे के मुताबिक मेरे तमाम सवालों के जवाब दिये। मगर बहुत से सवाल वो टाल गए,अपना दामन बचा गए। मोदी बहुत मंझे हुए सियासतदान और निहायत तज़ुर्बेकार खिलाड़ी की तरह मेरे हर बाउंसर से बचने की कोशिश कर रहे थे। मैं मोदी के बहुत से दलायल(दलील) से कत्तई सहमत नहीं हुई, उनके जवाबात से मुतमईन नहीं हूं मगर इनका इंटरव्यू जैसा है वैसा पेश कर रहा हूं ताकि आप मोदी की सोच और उसके ज़हन से वाक़िफ़ हो सकें। इंशाअल्ला अगले हफ्ते मोदी के इंटरव्यू पर अपना विश्लेषण पेश करूंगा। मोदी के सच और झूठ को बेनकाब करूंगा और फिलहाल आप नरेंद्र मोदी का पहली बार किसी उर्दू अख़बार को दिया गया तफ़्सीली इंटरव्यू मुलाहिज़ा फरमायें।

हिन्दू राष्ट्र-

शाहिद सिद्दीकी- नरेंद्र मोदी जी आपका हिन्दुस्तान का तसव्वुर क्या है। क्या आप हिन्दुस्तान को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं, अगले पचास बरस में आप कैसा हिन्दुस्तान बनाना चाहते हैं ?

नरेंद्र मोदी- हम खुशहाल भारत देखना चाहते हैं। एक मज़बूत भारत देखना चाहते हैं। इक्कसवीं सदी भारत की सदी हो यह हमारा सपना है जिसे साकार करना है।

शाहिद-कहा जाता है कि आप गुजरात को हिन्दूराष्ट्र की तज़ुर्बागाह की तरह इस्तमाल कर रहे हैं। अगर आप मरकज़ में पीएम बन कर आ गए तो आप भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहेंगे। इसमें मुसलमानों और दूसरे अक्लियतों की क्या जगह होगी?

मोदी- पहली बात तो यह कि आज गुजरात में अक्लियतों की जो जगह है वो पूरे मुल्क के मुकाबले ज़्यादा अच्छी है। दूसरे और बेहतर होने की गुज़ाइश इतनी ही है कि जितनी किसी हिन्दी की। मुसलमानों को भी आगे बढ़ने का मौका मिलना चाहिए जितना किसी हिन्दू को। अगर नफ़रत हो तो एक घर भी नहीं चल सकता। एक बहू अच्छ लगे और दूसरी न लगे तो घर में सुकून नहीं हो सकता।

शाहिद-मान लीजिए कि घर में चार बच्चे हैं। इनमें से किसी वजह से एक कमज़ोर है। पिछड़ा है तो क्या इस पर ज़्यादा तवज्जो नहीं होनी चाहिए। क्या आगे बढ़ने के बेहतर मौके नहीं मिलने चाहिए

मोदी- ये तो हमारे आईन ने भी कहा है।जो कमज़ोर है, पिछड़ा है,उसे अलग से सहारा मिलना चाहिए। अगर समाज इसकी ज़िम्मेदारी नहीं उठायेगा तो कौन उठायेगा। मान लीजिए एक ज़हनी तौर पर कमज़ोर बच्चा है तो उसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ मां बाप की नहीं बल्कि पूरे समाज की है। अगर हम ये कहें कि तुम्हारे घर पैदा हुआ सिर्फ तुम संभालो तो यह ग़लत होगा।

मुसलमानों के लिए रिज़र्वेशन-

शाहिद- इस मुल्क में जितने सर्वे हुए हैं चाहे सच्चर या रंगनाथ कमीशन, सबका कहना है कि खासतौर पर मुसलमान ज़िंदगी के हर मैदान में खुशुसन तालीम में, इक्तसादी मैदान में बहुत सी वज़ूहात के बिना पर पिछड़ गए हैं। आपके ख़्याल में इन्हें आगे लाने के लिए,इनका हक़ दिलाने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए। क्या इन्हें रिज़र्वेशन नहीं मिलना चाहिए। जबकि पचास फ़ीसदी नौकरियां रिज़र्वेशन में चली गईं हैं। बाकी पचास फीसद में मुसलमान पीछे रह जाते हैं। इसके लिए सभी दरवाज़े बंद हैं। इसे आगे लाने के लिए क्या करना चाहिए?

मोदी-ऐसा नहीं है। गुजरात में ओबीसी में छत्तीस मुस्लिम बिरादरियां हैं ऐसी हैं जो पिछड़ों में आती हैं। उन्हों वो तमाम रियायतें मिलती हैं जो दूसरे पिछड़ों को मिलती हैं, मैं भी पिछड़ी जाति से हूं। हमें रास्ता ढूंढना होगा। इसमें सबको हिस्सेदारी मिले। जैसे आज स्कूल है, टीतर हैं इसके बावजूद लोग अनपढ़ हैं। इसका हल हमने गुजरात में ढूंढा। हमने तहरीक चलाई कि गुजरात में सौ फीसद लड़कियों को तालीम मिले। सौ फीसद का मतलब सौ फीसद। जून के महीने में जब बहुत गर्मी होती है तो सारे अफसर सारे वज़ीर सारी सरकार एक हज़ार आठ सौ गांवों में घर घर जाते हैं ये देखते हैं कि सारी लड़कियां पढ़ रही हैं। आज ९९ फीसद से ज्यादा लड़कियां स्कूल में हैं। इसमें हर मज़हब की लड़की है। पहले ड्राप आउट चालीस फीसद था। आज वो मुश्किल से दो फीसद रह गया है। अब इसका फायदा किसको मिल रहा है। मेरी हिन्दू मुस्लिम फिलासफी नहीं है। मैं तो यह देखता हूं कि गुजरात में रहने वाले हर बच्चे को इसका फायदा मिले। मेरी दस साल की कोशिश में सबसे ज्यादा खुशी इस बात की है जब मैं किसी हिन्दू स्कूल में वाल्दैन की मीटिंग बुलाता हूं तो वहां साठ फीसदी वाल्दैन आती हैं। अगर मैं किसी मुस्लिम इलाके में मीटिंग करता हूं तो सौ फीसद वाल्दैन आती हैं और इसके अलावा और भी लोग आ जाते हैं।

मुसलमान ज़्यादा जाग रहे हैं-

शाहिद- आपने मुस्लिम इलाकों में ऐसी मीटिंगे की?

मोदी- बिल्कुल, ढेर सारी। बल्कि मेरा तज़ुर्बा यह है कि आज मुसलमान तालीम के ताल्लुक से ज़्यादा जागे हुए हैं। अभी आपको बताऊं कि दाता के पास एक गांव में गया, वो सत्तर फीसद मुस्लिम आबादी का था, तीन बच्चियों ने कहा कि हमें अलग से बात करनी हैं। मुझे पता नहीं था कि वो किस मज़हब से हैं। सातवीं आठवीं की बच्चियां थीं। मैंने सबको बाहर निकाल कर इनसे बात की। वो तीनों मुसलमान लड़कियां थीं। उन्होंने कहा कि हम आगे पढ़ना चाहते हैं। मगर हमारी वाल्दैन अनुमति नहीं देती हैं। आप इन्हें समझाइये। इसी बात ने मेरे दिल को छुआ कि मेरे सूबे में तीन लड़कियां ऐसी हैं जो आगे तालीम हासिल करने के लिए सीएम तक से कहने  और मदद लेने में झिझक नहीं रही हैं। मैंने इनके मां बाप को कहलवाया कि मान जायें। ये दो साल पहले की बात है। मगर ये दोनों लड़कियां आज पढ़ रही हैं।

शाहिद- आप ठीक कहते हैं कि पिछड़ों में मुसलमान को हिस्सा तो दिया गया है मगर मंडल के आने के बाद से पिछले बीस बरस में यह बात सामने आई है कि मुसलमान को इसमें इनका हक नहीं मिलता। मिसाल के तौर पर दस नौकरियां हैं और अप्लाई करने वाले पांच सौ।

मोदी- भारत के आईन बनाने वालों ने गहराई से जायज़ा लिया था कि मज़हब के बुनियाद पर कोई रिज़र्वेशन नहीं होना चाहिए। ये ख़तरनाक होगा । उस वक्त आर एस एस और बजरंग दल वाले नहीं थे।

शाहिद- मुस्लिम लीडर यहां तक कि मौलाना आज़ाद ने भी धर्म के नाम पर मुख़ालफ़त की थी, पिछले चौंसठ बरस के तुज़ुर्बे से यही सीखना भी चाहते हैं। चौंसठ बरस बाद रिज़र्वेशन देते हैं तो इसमें आपको क्या परेशानी है
मोदी- नहीं नहीं, ये वो बदलाव नहीं है। ये एक बुनियादी बात है। आईन के बुनियादी ढांचे में कोई तब्दिली नहीं हो सकती है। मगर मैं दूसरी बात कहता हूं । जिन सूबों को आप तरक्की पसंद और सेकुलर कहते हैं वहां नौकरियों में मुसलमान दो चार फीसद हैं। गुजरात में मुसलमान आबादी का नौ फीसदी और नौकरियों में बारह तेरह फीसद।

शाहिद- गुजरात में मुसलमान पहले से ही आगे थे , आपने ऐसा कोई कारनामा नहीं किया

मोदी- चलिये आपकी बात मान ले। पिछले बीस बरस से गुजरात में बीजेपी की हुकूमत है। अगर हम इन्हें बर्बाद कर रहे होते तो क्या वो इतने आगे होते। अगर हमारा रवैया मुस्लिम मुख़ालिफ़ था तो बीस बरस में पिछड़ जाते। सच्चर का सर्वे हैं। वो तो तब हुआ जब यहां मेरी हुकूमत थी। गुजरात में ८५ से ९५ कत सरकारी नौकरियों में भर्ती बंद थी। भर्ती तो मेरे ज़माने में हुई। कुल छह लाख सरकारी नौकरियों में से तीन लाख मेरे दौर में भर्ती हुए।

शाहिद- क्या आपके ज़माने में जो भर्ती हुए उनमें दस फीसद मुसलमान थे

मोदी- नहीं मैंने हिसाब नहीं लगाया। ये मेरी फिलासफ़ी नहीं है। न ही मैं हिन्दू मुसलमान के बुनियाद पर हिसाब लगाऊंगा। मेरा काम है बिना किसी भेदभाव के सबको मौका देना। अगर वो मुसलमान हैं तो उसे मिलेगा। हिन्दू है या पारसी है तो उसे मिलेगा। अगर आप सच्चर की हर बात पर यकीन करते हैं तो फिर सच्चर ने मेरे ज़माने की गुजरात पर जो रिपोर्ट दी है इस पर भरोसा क्यों नहीं करते।

दंगों में क्या हुआ-

शाहिद- अब हम गुजरात फ़सादात की तरफ़ आएं, इस दौरान क्या हुआ, गोधरा में जो लोग जले उनकी लाशों को अहमदाबाद क्यों लाया गया, क्या आपको अंदाज़ा नहीं था कि इसके नतीजे क्या होंगे ?

मोदी-इस सवाल का जवाब मैंने एस आई टी और सुप्रीम कोर्ट को भी विस्तार से दिया है। कोई भी लाश होगी तो उसे वापस तो देना होगा। जहां सबसे ज़्यादा तनाव है,वहां कोई लाश ले जा सकता है? तनाव गोधरा में था। इसलिए वहां से जली लाशें हटानी ज़रूरी थीं। ये पैसेंजर कहां जा रहे थे, ये ट्रेन अहमदाबाद जा रही थी। इनके लेने वाले सब अहमदाबाद में थे। आप बताइये, आपके पास इनके ख़ानदान की लाशें हवाले करने का क्या तरीका था?

शाहिद- आप किसी अस्पताल में लाकर खामोशी से रिश्तेदारों को हवाले कर देते, उन्हें घुमाया क्यों गया

मोदी- आप सच्चाई सुन लीजिए। इतनी लाशें रखने की गोधरा में जगह नहीं थी, लाशें वहां से हटानी थी, इंतज़ामिया(प्रशासन) ने सोचा कि रात के अंधेरे में लाशें हटाईं जाएं,उन्हें उसी रात वहां से हटाया गया, अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में ला सकते थे, वो भीड़ भाड़ का इलाका था, वहां तनाव पैदा होता। ये इंतज़ामिया की समझदारी थी कि तमाम लाशों को शोला के सिविल अस्पताल में लाया गया। शोला उस वक्त अहमदाबाद के बाहर था, जंगल था, आज तो वहां ज़िंदगी पैदा हो गई है, शोला से कोई जुलूस नहीं निकला। लाशें खामोशी से रिश्तेदारों के हवाले कर दी गईं थीं। इनमें से १३-१४ लाशें थीं जिनकी पहचान नहीं हो सकी, इनका भी खामोशी से शोला अस्पताल के पीछे दाह संस्कार कर दिया गया। इतनी एहतियात बरती गई मगर अब झूठ चल पड़ा है।

दंगे क्यों नहीं रूके?

शाहिद- इसके बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क उठे, लोग मारे जा रहे थे, घर जलाये जा रहे थे, आप गुजरात के वज़ीरे आला थे, आपको ख़बर तो थी कि अहमदाबाद में क्या होरहा है। आपने इस ख़ून ख़राबे को रोकने के लिए क्या कदम उठाए

मोदी- इसके लिए सबसे पहला काम हमनें लोगों को अमन शांति बनाए रखने की अपील की, ये काम मैंने गोधरा से ही किया, इसके बाद अहमदाबाद आकर शाम को रेडियो टीवी से अपील की(क्या कहा गया इसकी कापी मुझे दी गई) मैंने इंतज़ामिया से कहा कि जितनी पुलिस फोर्स है, सबको लगाओ। हालांकि इतना बड़ा वाकया था कि पूरे मुल्क में पहले ऐसा नहीं हुआ था, एक वक्त वो था कि पहले वाक्या होता था, तो अखबार में दूसरे दिन खबर आती थी। फोटो आने में दो दिन लग जाते थे। इतने में एहतियाती कदम उठाने का मौका मिल जाता था। फोर्स भेजने का मौका मिल जाता था। आज टीवी पर वाकये की चंद मिनटों में ख़बर आ जाती है। तस्वीरें दिखाईं जाने लगती हैं। प्रशासन को आज टीवी के स्पीड से मुकाबला करना पड़ता है। अहमदाबाद से बड़ौदा फोन तो मैं चंद मिनटों में कर सकता हूं मगर पुलिस फोर्स भेजनी हो तो दो घंटे तो कम से कम लगेंगे। पुलिस फोर्स टीवी न्यूज़ से मुकाबला नहीं कर सकती। दूसरे मुल्क के दंगों से मैं इसका मुआज़ना(तुलना) करूंगा, जायज़ ठहराने के लिए नहीं। मैं इस बात में यकीन नहीं रखता कि १९८४ में दिल्ली में जो हुआ,इसलिए हमारे यहां हुआ, तो आखिर बात क्या है, मैं इस सोच में यकीन नहीं रखता । दंगा दंगा है। देखिये १९८४ का दंगा हुआ, एक भी गोली नहीं चली, एक भी लाठी चार्ज नहीं हुआ, लाठी चार्ज उस जगह हुआ जहां इंदिरा गांधी की डेड बाडी रखी थी, वहां इतनी भीड़ जमा हो गई थी कि उसे कंट्रोल करने के लिए लाठी चार्ज हुआ। दंगा रोकने के लिए पुलिस का इस्तमाल नहीं हुआ। गुजरात में २७ फरवरी को ही कितनी जगह गोली चली, कर्फ्यू लगाया गया लाठी चार्ज हुआ, कार्रवाई हुई।
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शाहिद सिद्दीक़ी- कहा जाता है कि आप मुल्क़ के वज़ीरे आज़म बनने की तैयारी कर रहे हैं, आप गुजरात से निकल कर कौमी सियासत की ज़िम्मेदारी संभालना चाहते हैं। अगर मुल्क़ के वज़ीरे आज़म बनें तो पांच अहम काम क्या करेंगे।

नरेंद्र मोदी- देखिये मैं बुनियादी तौर पर संगठन का आदमी हूं। कुछ ख़ास हालात में वज़ीरे आला बन गया। ज़िंदगी में मैंने कभी किसी किसी स्कूल के मोनिटर का भी चुनाव नहीं लड़ा। मैं तो कभी किसी का इलेक्शन एजेंट भी नहीं बना। मैं तो इस दुनिया का आदमी भी नहीं हूं। न हीं मेरा इस दुनिया से कोई लेना-देना है। आज मेरी मंज़िल है ६ करोड़ गुजराती । उनका सुख,उनकी भलाई। मैं अगर गुजरात में अच्छा काम करता हूं तो यूपी बिहार के दस लोगों क नौकरी लगती है। मैं हिन्दुस्तान की सेवा गुजरात की तरक्की के ज़रिये करूंगा। गुजरात में नमक अच्छा होगा तो सारा देश गुजरात का नमक खायेगा। मैंने गुजरात का नमक खाया है और सारे देश को गुजरात का नमक खिलाता हूं।

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शाहिद सिद्दीकी- आप देश के मुसलमानों को क्या पैग़ाम देना चाहेंगे ?

नरेंद्र मोदी-भाई मैं तो बहुत छोटा इंसान हूं । मुझे किसी को पैग़ाम देने का हक़ नहीं है । ख़ादिम हूं । ख़िदमत करता हूं । मैं अपने मुस्लिम भाइयों से कहना चाहूंगा कि वो दूसरे के लिए वोट बैंक बनकर न रहें । आज हिन्दुस्तान में मुसलमान को एक वोटर बना दिया गया है । हम इन्हें जीते जागते इंसान के रूप में देखना चाहते हैं । मुसलमान ख़्वाब देखें ...। उनके ख्वाब बच्चों के ख़्वाब पूरे हों । वो वोटर रहें और अपने वोट का खुलकर इस्तमाल करो मगर इसके आगे एक इंसान एक भारतीय के रूप में देखा जाए । उनकी तकलीफ को समझा जाए । मैं अगर उनके किसी काम आ सकता हूं तो आऊंगा मगर उन्हें भी खुले दिमाग़ से सोचना होगा, देखना होगा ।

हम भी अगर गट्टू होते....

गट्टू एक ऐसी फिल्म है जो हमारे भीतर के गट्टू को खोजती है। उससे मिला देती है। खोया बचपन लौटा देती है। जो आज के बच्चे हैं उन्हें एक ऐेसे बचपन से मिला देती है जिससे वो अपार्टमेंट की कैद दुनिया के कारण अनजान हो चले हैं। उनके जीवन में कोई पड़ोस नहीं है। उनके जीवन में कोई छत नहीं है। उनके जीवन में वो सब कबाड़ नहीं है जिनके चुरा लेने और उड़ा लेने से खेल बन जाता था। पतंग उड़ाना सबसे सरल और रचनात्मक काम है। यह फिल्म हमारे जीवन में पतंगों को ले आती है जो अब भी देश के कई अंचलों और महानगरों के ख़ास मोहल्लों में बची है। पतंग सिर्फ आसमान की खोज नहीं कराती बल्कि आसमान की तरफ देखती आंगन की तरह पसरी छतों से भी रिश्ता बनाती है।

गट्टू फिल्म देख रहा था तो खुद की गट्टू काल की यादें ताज़ा होने लगीं। पतंग उड़ाने की चाह में न जाने कितनी बार धूल उठाकर हवा का रुख़ पता करने की कोशिश की होगी। फिल्म देखने से पहले आज वही करने लगा। एसी चलाना था लेकिन नीचे किसी की प्राडो कार खड़ी होती है और उन्हें शिकायत होती है दसवीं मंज़िल से उतरती बूंदें उनकी कार के शीशें की शोखियां ख़राब कर देती हैं। फिल्म जाने से कुछ घंटे पहले धूल उठायी और हवा में छोड़ दी। फिर जाकर एसी चलाया। पर्दे पर यह काम देखकर इतना मज़ा आया कि पूछिये मत। पटना के कदमकुआं में मंझा और पतंग की दुकानें होती थीं। बब्बू वहीं से लाता था और बाज़ी मार ले जाता था। जब पता चला तो हम भी सायकिल से कदमकुआं गए थे। एक्जीबीसन रोड होते हुए। गांधी मैदान में भी जाकर पतंग उड़ाने की कोशिश। खुले आसमान की चाह पतंग उड़ाने की बेकरारी से पनपी होगी। उसी क्रम में मोहल्ले के पास के एक स्कूल की छत पर चले गए। चपरासी ने देखा तो सब कूद पड़े। हम भी कूदे। पहली मंज़िल की इमारत थी। गुरुत्वाकर्षण के बारे में तब पता नहीं था। न्यूटन पांचवी या सातवीं क्लास में हमारा इंतज़ार कर रहे थे। उससे पहले ही मैं छत से कूद गया। बाकी तो कूद कर खड़े हो गए लेकिन मैं कुछ देर के लिए धंस गया। कपार ऐसे झन्नाया कि लगा कि हम भूकंप के संपर्क में आ गए हैं। पीठ और रीढ़ बराबर। मोटी घास की परत के कारण उठ खड़े होने के काबिल हुए और दर्द छुपाते हुए घर। घईली और रूमाली तिलंगी पसंदीदा रही हैं। कई नाम भूल गया। पतंग शब्द बाद में आया। हम तो इसे तिलंगी ही जानते थे। गट्टू की बेकरारी समझ रहा था। काली पतंग को काटने की चाह किस पतंगबाज़ में नहीं होगी। लेकिन इस पतंगबाज़ी के बहाने जो कहानी बुनी गई है वो शानदार है।

यह फिल्म स्कूल सिस्टम और ग़ैर स्कूल सिस्टम के बीच टकराव की कहानी नहीं बनाती। यह फिल्म दोनों के बीच ऐसा रास्ता बनाती है जिसके बारे में हमारे सिस्टम वाले कभी सोच नहीं पाते। गट्टू वो बच्चा है जिसकी संख्या इस देश में लाखों है। वो स्कूल की दीवार पार नहीं कर पाते क्योंकि चपरासी गेट पर बैठा है। भला हो उस ऊंघते चपरासी का और उन योजनाओं का जिसके तहत कई स्कूलों के बच्चों की मिलावट की जाती है ताकि वे एक दूसरे से सीखें। सरकार की यही योजना गट्टू को मौका देती है स्कूल में दाखिल होने की। जहां वो सारे जहां से अच्छा सुनकर अकबका जाता है। किस हिन्दुस्तान को सारे जहां से अच्छा बता रहे हैं। फिर भी वो टकराव की स्थिति में कम, अचरज से हालात का मुकाबला करता है।


यहां क्लास रूम का सीन ज़बरदस्त है। गट्टू का बस्ता और बाकी स्कूल सिस्टम के बच्चों का बस्ता एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक बन जाते हैं। प्रेमचंद की कहानी ईदगाह कैसे कतरन में बदल गई है वो ब्लैक बोर्ड पर नज़र आती है। गट्टू की किताब वफादार जासूस और बाकी छात्रों की किताबें अदल बदल हो जाती हैं। चोरी से ही सही। जिसे हम चोरी कहते हैं दरअसल वो बचपन की स्वाभाविक करतूतें हैं। जिनकी पहचान स्कूल सिस्टम चोरी के रूप में ही करता है जबकि गट्टू के लिए यह चोरी नहीं है। जब वह गुरुत्वाकर्षण यानी ग्रेभिटी सीखकर निकलता है तो वहीं जाता है जहां उसके बाकी दोस्त कूड़ा बिन रहे होते हैं। वो उन्हें ग्रेभिटी बताता है। फॉरमल और नॉन फॉरमल नॉलेज के बीच एक रिश्ता बनाता है। वो भी आसानी से। फिल्म आंखें खोल देती है।

इन सबके बीच काली पतंग को काटने की चाह गट्टू की मासूमियत छीन लेती है। जिस सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान से वो अकबका जाता है अचानक वो आतंकवाद, बारूद और एसीड की बात करने लगता है। कहानी फिर भी कहानी होती है। उसे हम सरकारी की फाइल की किसी नीति के अनुसार नहीं देख सकते। गट्टू की वफादार जासूस वाली टीम योजना बनाती है और उस छत को हासिल कर लेती है जहां से काली पतंग को मात देने की लड़ाई आखिरी चरम पर पहुंचती है। ये वो छत है जिसे वो बच्चे भी हासिल कर लेते हैं जिन्हें स्कूल सिस्टम से वंचित कर दिया था। यहां दोनों सिस्टम के वंचित बचपन का ऐसा मैदान बनता है जो ऊपर आसमान के ठीक बराबर है। यह क्षण दुर्लभ लगता है।

गट्टू कमाल की फिल्म है। कहानी बेहद सरल और संपादन कच्चा पक्का। ताकि लगे कि आप रावन जैसी कोई महंगी फिल्म नहीं देख रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो गट्टू कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता। कैमरे ने पतंग को देखा है ज़बरदस्त है। निर्देशक को बधाई। पतंग को लेकर जो रोमांच रचा गया है वो सत्यजीत रे की किस्सागोई सा है। सोनार केल्ला की याद आई। संगीत भी उसी तरह की रहस्यवादी। स्लम डाग मिलेनियर की तर्ज़ पर गट्टू को दीवार पर टंगी सत्यमेव जयते की याद आती है और उसे धिक्कारती है कि झूठ क्यों बोला। गट्टू फिर सच बोलता है। अपने दोस्तों को बचा लेता है और आसानी से उस सिस्टम का पार्ट हो जाता है जिसके लिए हमारा स्कूल सिस्टम तरह तरह की योजनाओं के ज़रिये तमाम बचपनों को एक सिस्टम में कैद होने के लिए बुला रहा है। पता नहीं उसके बाद गट्टू कितना गट्टू रह पाएगा। मैं यह भी नहीं जानता कि गट्टू काइट रनर की प्रतिलिपि है या नहीं । हो भी तो कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए लिखा कि किसी ने ट्वीट पर पूछा था कि कहीं ये काइट रनर से प्रेरित तो नहीं है।

हम ऐसी फिल्मों को बाल फिल्म क्यों कहते हैं। यह तो पूरी फिल्म है। उनकी फिल्म भी है जो कभी बाल थे मगर उनके सर पर बाल नहीं रहे। अभिनय बालक का सहज है। किसी किरदार का अति अभिनय है। बहुत ही सरल है। एक्टिंग के पैकेजिंग के इस दौर में हम भूल जाते हैं कि कहानी भी कोई चीज़ होती है। गट्टू में एक्टिंग कहानी की है। इसलिए हो सके तो देख आइये । हो सके तो यह अफसोस कीजिए कि हम भी अगर गट्टू होते.....

नेशनल नहीं ये ल्युटियन जर्नलिज़्म है

हम पत्रकारिता की चुनौतियों पर बात करने की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम बात करने में भी ईमानदारी नहीं बरतते। ठीक है कि संस्थान का मालिक कैसा चाहता होगा वैसी ही पत्रकारिता होती होगी लेकिन बाज़ार और मालिक के बीच एक कड़ी के रूप में पत्रकारों की दुनिया है जिनके अपने पेशेवर अंतर्विरोध भी कम इस पेशे की लानत मलामत नहीं करा रहे हैं। आप पत्रकारिता की चुनौतियों पर होने वाली तमाम मासिक,वार्षिक संगोष्ठियों में बनने वाली मंच की तस्वीर याद कीजिए। ज़्यादातर वही लोग होते हैं जो दिल्ली या अपने राज्य की राजधानियों में सत्ता प्रतिष्ठान का भौगोलिक ज्ञान रखने के कारण वहां मौजूद होते हैं। ये कौन लोग होते हैं, क्यों यही बोलते हैं और पत्रकारिता में इनका अपना योगदान क्या होता है? सिर्फ पेशे के भीतर के पावर स्ट्रक्चर के शीर्ष पर होने के कारण क्या कोई इस बात का अधिकारी हो जाता है कि पत्रकारिता के संकट पर वही सबसे प्रमाणिक जानकारी रखता होगा। जबकि संकट का जन्मदाता वह ख़ुद है।

अगर हमारे भीतर पेशे की बीमारी को समझने की ज़रा भी ईमानदारी बची है तो जान लेना चाहिए कि हिन्दी पत्रकारिता को तीन नंबर बनाने का काम(अगर यह तीन नंबर का मान लिया गया है तब) राजनीतिक पत्रकारिता करने वाले छोटे बड़े पत्रकारों का है। पत्रकारिता के पावर स्ट्रक्चर के शीर्ष को कब्ज़ाने का सबसे अच्छा मार्ग यही है कि आप पत्रकारिता में आएं तो सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक पत्रकारिता करें। क्योंकि राजनीतिक पत्रकारिता करने भर से आप संपादक हो सकते हैं। आप के हाथ में तथाकथित दिशाहीन होती पत्रकारिता को दिशा देने के उपायों पर भाषण देने का हक भी मिल जाता है। हालांकि टीवी में कुछ लोग राजनीतिक पत्रकारिता के बग़ैर भी शीर्ष पर पहुंचे हैं क्योंकि डेस्क टीवी की कलाबाज़ी में आंतरिक रूप से शक्तिशाली होता चला जाता है। मगर फिर भी आप पूरे पत्रकारिता के स्ट्रक्चर को देखें तो ज़्यादातर ल्युटियन दिल्ली के पांच किमी क्षेत्र में रहने वाले मकानों में बसे कोई सात सौ सांसदों के यहां चक्कर लगाने वाले पत्रकारों को ही सारा इनाम इकराम मिलता रहा है। उसमें से भी ये तथाकथित राजनीतिक पत्रकार पांच दस पचीस सांसदों के घर चक्कर लगाकर ही बाल सफेद कर भयंकरावस्था में दिखने लगते हैं। अब इन मकानों के बीच दस पांच दफ्तर भी आते हैं जिनका चक्कर लगाने से आप ब्यूरो चीफ बनते हैं।

यही भौगोलिक ढांचा कमोबेश राजधानियों को भी रहा है। इनमें से कुछ ने विगत सालों में अपनी प्रतिष्ठा ज़रूर हासिल की। बारीक समझ और तटस्था को बचाते बचाते । लेकिन बाकी ने क्या हासिल किया। क्या दिया पत्रकारिता को। राजनीतिक समझ को ही कहां से कहां पहुंचा दिया? उसकी हालत देखिये। चंद महासचिवों के बदले जाने की पहली खबर या फिर उनके यहां से वहां पहुंचने की ब्रेकिंग न्यूज़ देकर ही हमारे राजनीतिक पत्रकार थक जाते है। किसी को उनके द्वारा किये गए इंटरव्यू पर शोध करना चाहिए। शोध में देखा जाए कि वो किस तरह से सवाल कर रहे हैं, क्या पूछ रहे हैं, उनकी देह भाषा क्या है और क्या बोला गया है। उनके द्वारा फाइल की हुई राजनीतिक स्टोरी की गुणवत्ता और समझ को भी शोध में शामिल किया जाना चाहिए। सब कुछ पहले और अभी कर देना ही राजनीतिक पत्रकारिता हो गई है। फिर भी शोध हो तो हमें पता चलेगा या फिर कम से कम बहस ही तो पता चलेगा कि जिन लोगों ने पीछे लकीर बनाई हैं वो कैसी है।

चलिए मैं इस सवाल को दूसरे तरीके से पूछता हूं। आज किस हिन्दी के पत्रकार की राजनीतिक गलियारे में विश्वसनीयता या प्रखरता की धमक है। बाइट लेकर कूदने की बात नहीं कर रहा मैं। ऐसा क्यों होता है कि अरुण जेटली तक का इंटरव्यू इकोनोमिक टाइम्स में छपता है। ऐसा क्यों होता है सारे बड़े राजनीतिक इंटरव्यू अंग्रेजी अखबारों से होते हुए हिन्दी अखबारों में पहुंचते हैं। ऐसा क्यों होता है कि सारे बड़े इंटरव्यू बरखा,अर्णब और राजदीप को ही मिलते हैं। शुरूआत में इन्हें हिन्दी के ही पत्रकारों से ही चुनौतियां मिलती थीं। वो कहां चले गए। क्या हमारी पत्रकारिता ने कोई बड़ा राजनीतिक पत्रकार पैदा किया। कौन सी बड़ी राजनीतिक खबर है जो पहले हिन्दी में छपी, जिसे नेता ने पहले हिन्दी के पत्रकार को बुलाकर बात की हो। तुकबंदी और फटे ढोल की तरह बजने वाले बयानों की बात नहीं कर रहा हूं। हमारी राजनीतिक पत्रकारिता जिसने पत्रकारिता को चलाने वाले नियंता दिये वो इतनी फूंकी हुई क्यों लगती है। जबकि हमारा सारा समय उन्हीं के गलियारे में गुज़रता है। हम तो उनके गांव तक का नाम जानते हैं मगर पेशेवेर आधिकारिकता में हम कहां हैं। मैं अपवाद को शामिल नहीं करता। जो बारात है आप उसकी तरफ देखिये। आप देखिये कि कौन सा राजनीतिक पत्रकार है तो लिखने में माहिर है, कौन सा राजनीतिक पत्रकार है जो अपनी समझ को टीवी के माध्यम के हिसाब से उजागर करने में कारगर है। कौन है। क्या हम कभी ईमानदारी से इसकी समीक्षा कर पायेंगे। नहीं कर पायेंगे। हम यह कभी नहीं पूछ पायेंगे कि आपका पेशेवर कौशल क्या है। क्योंकि यही मायने रखता है कि अंग्रेजी अखबारों और टीवी को इंटरव्यू मिलने के बाद हिन्दी में हमको पहले मिला है। हद है। एकाध मामलों में हुल्लड़बाज़ी और नेता को रगेद देने के उदाहरणों को भी शामिल करना बेकार है यहां।


इसीलिए मेरी अब यह समझ बनने लगी है कि हिन्दी पत्रकारिता में संकट है तो इसलिए इसकी बागडोर कमोबेश तथाकथित राजनीतिक पत्रकारों के हाथ में रहती है। राजनीतिक पत्रकारिता को ही आप मुख्य पत्रकारिता मानते हैं और इसी के बरक्स पत्रकारिता की धाराओं की स्थितियां तय की जाती हैं। तब उस राजनीतिक पत्रकारिता फुटपाथी क्यों नज़र आती है। अगर राजनीतिक पत्रकारिता ही मुख्य है तो इसकी गुणवत्ता पर निर्ममता से बात होनी चाहिए। क्योंकि यही हमारे पेशे की सत्ता का सबसे ताकतवर केंद्र है. कार्यपालिका से नज़दीकियों के कारण सत्ता का लाभ हानि भी इसे ही उठाना पड़ता है। हमारी पत्रकारिता तथाकथित बुरे बाज़ार और मालिकों के चलते फटीचर हुई है तो इसमें राजनीतिक पत्रकारिता के पतन का भी उतना ही योगदान गिना जाना चाहिए। पूछा जाना चाहिए कि आपने इस पेशे का सबसे ज़्यादा लाभ लिया तो क्या मानक गढ़े। मुलाकाती ख़बरों और भीतरघाती ख़बरों को ब्रेक करने के अलावा। अगर आप संपर्क में ही माहिर थे तो उस संपर्क से पेशे को फायदा क्या पहुंचाया। ये बहाना नहीं चलेगा कि सत्ता की भाषा अंग्रेज़ी है तो अंग्रेज़ी के पत्रकार आगे हैं। हिन्दी भी सत्ता और संपर्क की भाषा है। जब आप मुख्यमंत्री तक पहुंच ही रखते हैं तो ऐसा क्यों है कि अखिलेश यादव का पहला विस्तृत इंटरव्यू टाइम्स आफ इंडिया में छपता है। क्या हमने अपना स्तर इतना गिरा दिया है। क्या हम नेताओं के सिर्फ काम ही आते रहेंगे। क्यों ऐसा है कि सभी तीन नंबर के नेता हिन्दी टीवी स्टुडियो में हैं और सभी एक नंबर के नेता अंग्रेज़ी स्टुडियो में। क्या इस सवाल का जवाब हमारी राजनीतिक पत्रकारिता के ढांचे में आई लुंज पुंजता में मिलेगा?

राजनीतिक संपादकों और राजनीतिक पत्रकारिता ने ही हिन्दी पत्रकारिता की ताकत कमज़ोर कर दी है। जनता से दूर कर दी है। हम हमेशा पत्रकारिता को सरोकारी बनाने पर लाखों शब्द और घंटों वक्त ख़र्च कर देते हैं। लेकिन कभी यह समझने की कोशिश की है अगर पूरा पेशा सिर्फ और सिर्फ एक और झुका हो तो क्या वो स्वतंत्र हो सकेगा। क्या वो सिस्टम की पूंछ नहीं बन जाएगा। जब सारे बड़े और प्रभावशाली पत्रकार राजनीतिक पत्रकारिता में ही समय गंवा देंगे और उसमें से भी पेशे को कुछ नहीं देंगे तो कौन सरोकार की बात करेगा। ल्युटिन दिल्ली की राजनीतिक पत्रकारिता से सरोकार की पत्रकारिता निकलती है क्या? सरोकार की पत्रकारिता निकलती है जनता के बीच से जहां राजनीतिक पत्रकार कभी नहीं जाता। वो चुनावों में जाता है और संसदीय क्षेत्रों का राजनीतिक देशाटन करके लौट आता है। अगर पत्रकारिता के पावर स्ट्रक्चर में एक संतुलन होता तो फिर भी पत्रकारिता की जनपक्षधरता बची रह पाती। राजनीतिक पत्रकार जनता से नहीं मिलता है। जनता के प्रतिनिधियों से संपर्क बनाते बनाते संपादक तक हो जाता है। राज्य सभा भी पहुंच जाता है। कभी आपने सुना है कि फीचर रिपोर्टिंग करते करते कोई राज्य सभा पहुंचा। और ये नामकरण जो किया गया है वो पेशे के भीतरी ढांचे में अपनी वर्चस्वता बनाए रखने के लिए किया गया है। क्या ये ढांचा बदल सकता है। नहीं। आप कब तक राष्ट्रपति चुनाव के पर्चे की खबर दिन भर देखते रहेंगे। कौन कहता है कि महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन यही महत्वपूर्ण है यह इसलिए भी मान लिया गया है क्योंकि पत्रकारिता के ढांचे के भीतर इसे कभी चुनौती नहीं दी गई है। क्योंकि यह फैसला संपादक लेता है जो मूल रूप से राजनीतिक पत्रकार होता है। इसीलिए ऐसी तथाकथित महत्वपूर्ण खबरों के चलते रहने पर किसी को अजीब नहीं लगता है। स्टुडियो में मुर्गा युद्ध होने लगा है। उससे पहले के राजनीतिक पत्रकारों की रिपोर्टिंग देखिये। उसमें भी मुर्गा युद्ध ही होता था। यहां से बयान लिया वहां से बयान लिया और फिर आखिर में अपना बयान दिया। जिसे मैं ल्युटिन जर्नलिज़्म कहता हूं। अशोक रोड से बयान लेकर निकले, अकबर रोड वाले से बयान लिया और फिर विजय चौक पर अपना बयान दर्ज कर दिया कि अब देखना है कि आने वाले दिनों में भाजपा कांग्रेस का या कांग्रेस भाजपा का क्या जवाब देती है।


ये ढांचा ही ऐसा है जो कभी सरोकारी नहीं हो सकता है। ल्युटियन दिल्ली में जनता नहीं रहती है। जनता रहती है कहीं और जहां कोई राजनीतिक पत्रकार नहीं जाता है। वहां कोई छुटभैया समझे जाने वाला, अपना करियर बना रहा पत्रकार जाता है। करियर बन जाने के बाद वो भी वही करता है जो राजनीतिक पत्रकार करते हैं। उसे भी लगता है कि कब तक सिटी बीट करेगा। पोलिटिकल बीट कब मिलेगी। पोलिटिकल बीट प्रमोशन की सबसे ऊंची मंज़िल है। उसमें भी महिला पत्रकार हाशिये पर ही हैं। पहले राजनीतिक पत्रकारिता के अपने ढांचे के भीतर का जेंडर असंतुलन ही ठीक हो जाए। इस पर कोई बात क्यों नहीं करता। क्यों लड़कियां फीचर रिपोर्टिंग करती मिलती हैं। क्यों फीचर रिपोर्टिंग करने वाला खुद को असुरक्षित महसूस करता है। उसके हिस्से दो चार अवार्ड न हों तो वो भी नसीब नहीं। कुछ ल्युटियन पत्रकार तो इसमें भी शातिर हैं। साल में दो चार दिन के लिए निकलते हैं और दिल्ली से दूर जाकर खबर कर आते हैं और फिर अवार्ड भी ले लेते हैं।


प्रभाष जोशी को याद करने के संदर्भ में ऐसा क्यों कह रहा हूं। इसलिए कह रहा हूं कि प्रभाष जोशी पत्रकारिता में आए इस असंतुलन का जवाब हैं। वो एक संतुलन का प्रतिनिधित्व करते थे। उनका रेंज देखिये। राजनीति, धर्म, समाज,जनपक्षधर आंदोलन,समाज खेल किस विषय पर एकाधिकार से नहीं लिखा है। वो जाकर लिखते थे। पता करके नहीं लिखते थे।प्रभाष जोशी दिल्ली में ही नहीं रहते थे। प्रभाष जोशी का भी आलोचनात्मक मूल्यांकन होना चाहिए। वो भी नहीं चाहेंगे कि कोई उनके पीछे सिर्फ तारीफ ही करता रहे। लेकिन वो नर्मदा पर भी लिखते थे और यमुना पर भी। वो अनुपम मिश्र पर भी लिखते तो सुनील गावस्कर पर भी और उसी एकाधिकार से अटल बिहारी वाजपेयी को भी लपेट देते थे। वो नीचे से दिल्ली को देखते थे। बाकी दिल्ली से दिल्ली ही देखते रह जाते हैं।
(यह लेख प्रभाष जोशी की स्मृति में पाखी पत्रिका के विशेष अंक के लिए लिखा गया था।)