छठ है कि ईद है


नरियलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुग्गा मेड़राए, ऊ जे खबरी जनइबो अदित से,सुग्गा दिले जूठइयाए,उ जे मरबो रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरे मुरझाए ।" मैं कहीं भी रहूं किसी भी हालत में रहूं बस ये गाना किसी तरह मेरे कानों से गुज़र जाए, मैं छठ में पहुंच जाता हूं। यह गीत रूलाते रूलाते अंतरआत्मा के हर मलिन घाट को धोने लगता है,जैसे हम सब बचपन में मिलकर झाड़ू लेकर निकल पड़ते थे,सड़क-घाट की सफाई करने। मुझे मालूम है कि छठ के वक्त हम सब भावुक हो जाते हैं। आपको पता चल गया होगा कि मैं भी भावुक हूं। हर छठ में यह सवाल आता है कि छठ में घर जा रहे हो। घर मतलब गांव। गांव मतलब पुरखों की भूमि। अब घर का मतलब फ्लैट हो गया है। जिसे मैंने दिल्ली में ख़रीदा है। गांव वाला घर विरासत में मिला है। जिसने हमें और आपको छठ की संस्कृति दी है।

मेरा गांव जितवारपुर गंडक के किनारे हैं। बड़की माई छठ करती थीं। उनकी तैयारियों के साथ पूरा परिवार जो जहां बिखरा होता था, सब छठ के मूड में आ जाता था। मां पूछती ऐ जीजी केरवा केने रखाई, बाबूजी अपने बड़े भाई से पूछने लगते थे हो भइया,मैदा,डालडा कब चलल जाई अरेराज से ले आवे, आ कि पटने से ले ले आईं। कब जाना है और कब तक मीट-मछरी नहीं खाना है,सबकी योजना बन जाती थी। डालडा में ठेकुआ छनाने की खुश्बू और छत पर सूखते गेंहू की पहरेदारी। चीनी वाला ठेकुआ और गुड़ वाला ठेकुआ। एक कड़ा-कड़ा और दूसरे लेरुआया(नरम) हुआ। आपने भी इसी से मिलता जुलना मंज़र अपने घर-परिवार और समाज में देखा होगा। छठ की यही खासियत है, इसकी जैसी स्मृति मेरी है, वैसी ही आपकी होगी। आज के दिन जो भी जहां होता है, वो छठ में होता है या फिर छठ की याद में।

उस दिन मेरी नदी गंडक कोसी के दीये से कितनी सुंदर हो जाती है, क्या बतायें। अगली सुबह घाट पर प्रसाद के लिए कत्थई कोर वाली झक सफेद धोती फैलाये बाबूजी आज भी वैसे ही याद आते हैं। जब तक ज़िंदा रहे, छठ से नागा नहीं किया। दो दिनों तक नदी के किनारे हम सब होते हैं। सब अपनी अपनी नदियों के किनारे खड़े उस सामूहिकता में समाहित होते रहते हैं जिसका निर्माण छठ के दो दिनों में होता है और जिसकी स्मृति जीवन भर रह जाती है। हमारे जितने भी प्रमुख त्योहार बचे हैं उनमें से छठ एकमात्र है जो बिना नदी के हो ही नहीं सकता। बिहार को नदियां वरदान में मिली हैं,हमने उन्हें अभिशाप में बदल दिया। आधुनिकता ने जबसे नदियों के किनारे बांध को ढूंढना शुरू किया, नदियां को वर्णन भयावह होता चला गया। छठ एकमात्र ऐसा पर्व है जो नदियों के करीब हमें ले जाता है। ये और बात है कि हम नदियों के करीब अब आंख मूंद कर जाते हैं ताकि उसके किनारे की गंदगी न दिखे, ताकि उसकी तबाही हमारी पवित्रता या सामूहिकता से आंख न मिला ले। घाटों को सजाने का सामूहिक श्रम नदियों के भले काम न आया हो मगर सामाजिकता के ज़रूरी है कि ऐसे भावुक क्षण ज़रूर बनते चलें।


"पटना के घाट पर, हमहूं अरगिया देबई हे छठी मइया,हम न जाइब दूसर घाट, देखब हे छठी मइया। "शारदा सिन्हा जी ने इसे कितना प्यार से गाया है। पटना के घाट पर छठ करने की जिद। गंगा की तरफ जाने वाला हर रास्ता धुला नज़र आता है। सीरीज़ बल्ब से सजा और लाउड स्पीकर से आने वाली आवाज़, ऐ रेक्सा, लाइन में चलो, भाइयो और बहनो, कृष्णानगर छठपूजा समिति आपका स्वागत करती है। व्रती माताओं से अनुरोध है कि लौटते वक्त प्रसाद ज़रूर देते जाएं। कोई तकलीफ हो तो हमें ज़रूर बतायें। पूरी रात हिन्दी फिल्म के गाने बजने लगते हैं। हमारे वक्त में दूर से आवाज़ आती थी, हे तुमने कभी किसी को दिल दिया है, मैंने भी दिया है। सुभाष घई की फिल्म कर्ज का यह गाना खूब हिट हुआ था। तब हम फिल्मी गानों की सफलता बाक्स आफिस से नहीं जानते थे। देखते थे कि छठ और सरस्वती पूजा में कौन सा गाना खूब बजा। काश कि हम नदियों तक जाने वाले हर मार्ग को ऐसे ही साल भर पवित्र रखते। जो नागरिक अनुशासन बनाते हैं उसे भी बरकरार रखते।

कितने नामों से हमने नदियों को बुलाया है।गंगा,गंडक,कोसी,कमला,बलान,पुनपुन,सोन,कोयल,बागमती, कर्मनाशा, फल्गु,करेह,नूना,किऊल ऐसी कई नदियां हैं जो छठ के दिन किसी दुल्हन की तरह सज उठती हैं। आज कई नदियां संकट में हैं और हम सब इन्हें छोड़ कर अपने अपने छतों पर पुल और हौद बनाकर छठ करने लगे हैं। दिल्ली में लोग पार्क के किनारे गड्ढा खोदकर छठ करने लगते हैं। यहां के हज़ारों तालाबों को हमने मकानों के नीचे दफन कर दिया और नाले में बदल चुकी यमुना के एक हिस्से का पानी साफ कर छठ मनाने लगते है। तब यह सोचना पड़ता है कि जिस सामूहिकता का निर्माण छठ से बनता है वो क्या हमारे भीतर कोई और चेतना पैदा करती है। सोचियेगा। नदियां नहीं रहेंगी तो कठवत में छठ की शोभा भी नहीं रहेगी। घाट जाने की जो यात्रा है वो उस सामूहिकता के मार्ग पर चलने की यात्रा है जिसे सिर्फ नदियां और उनके किनारे बने घाट ही दे सकते हैं। क्या आप ईद की नमाज़ अपने घर के आंगन में पढ़ कर उसकी सामूहिकता में प्रवेश कर सकते हैं। दरअसल इसी सामूहिकता के कारण ईद और छठ एक दूसरे के करीब हैं। बिहार की एक मात्र बड़ी सांस्कृतिक पहचान छठ से बनती है। इसका मतलब यह नहीं कि अन्य सामाजिक तबकों के विशाल पर्व त्योहार का ध्यान नहीं है, लेकिन छठ से हमारी वो पहचान बनती है जिसका प्रदर्शन हम मुंबई के जूहू बीच पर करते हैं और कोलकाता के हावड़ा घाट पर करते हैं। इस पहचान की से वो ताकत बनती है जिसके आगे ममता बनर्जी बांग्ला में छठ मुबारक की होर्डिंग लगाती हैं और संजय निरुपम मुंबई में मराठी में। दिल्ली से लेकर यूपी तक में छठ की शुभकामनाएं देते अनेक होर्डिंग आपको दिख जायेंगे।

अमेरिका में रहने वाले मित्र भी छठ के समय बौरा जाते हैं। हम सब दिल्ली मुंबई कोलकाता बंगलुरू में रहने वाले होली को जितना याद नहीं करते, छठ को याद करते हैं। यह एक ऐसा पर्व है जो भीतर से बिल्कुल नहीं बदला। पूजा का कोई सामान नहीं बदला। कभी छठ में नया आइटम जुड़ते नहीं देखा। अपनी स्मृति क्षमता के अनुसार यही बता सकता हूं कि छठ की निरंतरता ग़ज़ब की है। बस एक ही लय टूटी है। वो है नदियों के किनारे जाने की। लालू प्रसाद यादव के स्वीमिंग पुल वाले छठ ने इसे और प्रचारित किया होगा। यहीं पर थोड़ा वर्ग भेद आया है। संपन्न लोगों ने अपने घाट और हौद बना लिये। बिना उस विहंगम भीड़ में समाहित होने का जोखिम उठाये आप उस पहचान को हासिल करना चाहते हैं यह सिर्फ आर्थिक चालाकी ही हो सकती है। लेकिन इसके बाद भी करोड़ों लोग नंगे पांव पैदल चल कर घाट पर ही जाते हैं। जाते रहेंगे। घाट पर नहीं जाना ही तो छठ में नहीं जाना होता है। अब रेल और बस के बस की बात नहीं कि सभी बिहारियों को लाद कर छठ में घर पहुंचा दे। इसलिए आप देखेंगे कि छठ ने अनेक नई नदियों के घाट खोज लिये हैं। यह छठ का विस्तार है।

सर...सर..छुट्टी दे दीजिए..सर। बस चार दिन में आपना गांव से वापस लौट आयेंगे। माई इस बार छठ कर रही है, मामी भी, छोटकी चाची भी। सब लोग। कलकत्ता से बड़का भईया भी आ रहे हैं..सर..हम भी जायेंगे..सर..टिकट भी कटा लिए हैं...। सर सब कुछ तो आपका ही दिया हुआ है..यु बुशर्ट ...ये खून में मिला नमक...मेरा रोम रोम आपका कर्ज़दार है...बिहारी हैं न...पेट भरने अपने घर से मीलों दूर...आपकी फैक्ट्री में...पर सर..छठ पूजा हमारे रूह में बसता है...अब हम आपको कैसे बताएं...छठ क्या है..हमारे लिये। हम नहीं बता सकते और ना आप समझ सकते हैं।

हमारे मित्र रंजन ऋतुराज ने अपने फेसबुक पर इस काल्पनिक से लगने वाले छठ संवाद को लिखा है। क्या पता कितने लोगों ने ऐसे ही छुट्टी मांगी होगी, मिलने पर नाचे होंगे और नहीं मिलने पर उदास हो गए होंगे। सब आपस में पूछ रहे हैं, तुम नहीं गए, जाना चाहिए था। हम तो अगले साल पक्का जायेंगे। अभी से सोच लिये हैं। बहुत हुआ इ डिल्ली का नौकरी। हम सब यहां जो गंगा और गंडक से दूर हैं छठ को ऐसे ही याद करते हैं। कोई घर जाने की खुशी बता रहा है तो किसी को लग रहा है कि शिकागो में आकर भी क्या हासिल जब छठ में गांव नहीं गए। तभी मैं कहता हूं कि इस व्रत को अभी नारीवादी नज़रिये से देखा जाना बाकी है, हो सकता है इसे जातिगत सामूहिकता की नज़र से भी नहीं देखा गया हो, ज़रूर देखना चाहिए लेकिन इस त्योहार की खासियत ही यही है कि इसने बिहारी होने को जो बिहारीपन दिया है वो बिहार का गौरवशाली इतिहास भी नहीं दे सका। शायद उस इतिहास और गौरव की पुनर्व्याख्या आने वाली राजनीति कर के दिखा भी दे लेकिन फिलहाल जिस रूप में छठ हमें मिला है और हमारे सामने मौजूद है वो सर माथे पर। हर साल भाभी का फोन आता है। छठ में सबको चलना है। जवाब न में होता है लेकिन बोल कर नहीं देते। चुप होकर देते हैं। भीतर से रोकर देते हैं कि नहीं आ सके। लेकिन अरग देने के वक्त जल्दी उठना और दिल्ली के घाटों पर पहुंचने का सिलसिला आज तक नहीं रूका। छठ पूजा समिति में कुछ दे आना, उस सामूहिकता में छोटा सा गुप्तदान या अंशदान होता है जिसे हमने परंपराओं से पाया है। तभी तो हम इसके नज़दीक आते ही यू ट्यूब पर शारदा सिन्हा जी को ढूंढने लगते हैं। छठ के गीत सुनते सुनते उनके प्रति सम्मान प्यार में बदल जाता है। शारदा जी हम प्रवासियों की बड़की माई बन जाती हैं। हम उनका ही गीत सुनकर छठ मना लेते हैं।
(नोट- यह लेख आज के दैनिक प्रभात ख़बर में प्रकाशित हो चुका है। कृपया इसे अपने किसी अख़बार का हिस्सा न बनायें)