नैतिकता के आगे कोई नहीं टिकता

राजनीति कमज़ोर स्मृतियों का खूब लाभ उठाती है। इनदिनों अध्यादेश की राजनीति चरम पर है। ऐसा ही साल २००२ में था। सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया कि चुनाव लड़ने से पहले उम्मीदवार को आपराधिक पृष्ठभूमिवित्तीय देनदारी और शैक्षणिक योग्यता का ब्यौरा देना होगा। कांग्रेस बीजेपी और समाजवादी पार्टी ने इस आदेश का विरोध किया था और एनडीए सरकार ने एक अध्यादेश लाने का फैसला किया। तब के राष्ट्रपति ए पी जे कलाम ने इस अध्यादेश को लौटा दिया। तिस पर उन्हें राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाने वाले मुलायम सिंह यादव भी आग उगलने लगे थे। एनडीए सरकार ने उस अध्यादेश को जस का तस राष्ट्रपति के पास भेज दिया लिहाजा उन्हें दस्तखत करने पड़े । 

राष्ट्रपति की आपत्ति यह थी कि अध्यादेश सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना के अनुरूप नहीं है। सरकार के अध्यादेश में यह कहा गया था कि सिर्फ चुनाव जीतने वाला आपराधिक मामलों की जानकारी देगा। शैक्षणिक योग्यता की तो बात ही नहीं की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था। अदालत ने क्या कहा था यही न कि उम्मीदवार अपने आपराधिक मामलों की जानकारी दे। जब ये राजनतिक दल इतनी सी बात के खिलाफ हो सकते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य कि वे इस बात के खिलाफ न होते कि लोअर कोर्ट में सज़ा मिलने पर सदस्यता छोडनी होगी। इसके पहले राजनीतिक दलों ने जनप्रतिनिधित्व कानून में बदलाव कर यह सुविधा हासिल कर ली थी कि अपील दायर करने की स्थिति में सदस्यता रद्द नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट ने दस जुलाई के अपने आदेश में कहा है कि कानून में यह प्रावधना संविधान के खिलाफ है। कानून चुने हुए प्रतिनिधि और उम्मीदवार में अंतर नहीं कर सकता। आप जानते हैं कि अगर उम्मीदवार सज़ायाफ्ता है तो चुनाव नहीं लड़ सकता तो चुने जाने पर सज़ा होगी तो वह सदस्य कैसे बना रह सकता है।

 

इस बार भी जब सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया तो बीजू जनता दल को छोड़ कर सबने इस आदेश का विरोध किया। बीजेपी ने तो पहली ही प्रतिक्रिया में कहा था कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे। सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई। उस बैठक का उद्देश्य क्या था। यही न कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को रोकना है। मई २००२ को अगस्त २०१३ में दोहराया जा रहा था। बीजेपी के सदस्य सुझाव भी दे रहे थे कि अदालत के आदेश को पलटने वाले बिल में क्या क्या होना चाहिए। जब बिल राज्य सभा में पहुंचा तो बीजेपी ने पैंतरा बदला और स्टैंडिंग कमेटी में भेजने का सुझाव दे दिया। सर्वदलीय बैठक में अध्यादेश लाने पर विचार या सहमति हुई थी या नहीं अभी इसकी पुष्ट जानकारी नहीं है। बीजेपी के साथ कांग्रेस भी तैयार हो गई कि बिल लाया जाएगा। यहां तक दोनों बराबर हैं। बस लाइन बदलने की होड़ शुरू होती है अध्यादेश के विरोध से। पहले बीजेपी ने किया क्योंकि उसे लगा कि लालू यादव को बचाने के लिए हो रहा है। फिर राहुल गांधी ने जो हरकत की वो आपके सामने है।

 

मेरा उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लेकर है। क्या इस वक्त जो राजनीति हो रही है वो इस आदेश को लेकर हो रही है या इसे लेकर हो रही है कि किसने अपनी लाइन पहले बदली और किसने बाद में बदलते हुए शिष्टाचार की सीमा लांघ दी। हालांकि ये सवाल भी बहुत अहम हैं। लेकिन राजनतीकि दल अपनी नैतिकता का प्रदर्शन किस आधार पर कर रहे हैं। क्या ये दल बता रहे हैं कि हम अब बदल गए हैं। हम अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ हैं। हम अब आरोपी नेताओं को टिकट नहीं देंगे। ऐसा कुछ सुना क्या आपने। नरेंद्र मोदी के कैबिनेट में एक ऐसे मंत्री हैं जिन्हें गुजरात की एक अदालत ने तीन साल की सज़ा सुनाई है। उनकी अपील ऊपरी अदालतों में पेंडिंग है। मगर वे मंत्री हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश की भावना को भी लागू करें तो उन्हें तीन महीने पहले इस्तीफा दे देना चाहिए था। ये और बात है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश पिछले मामलों में दोषी पाए गए सांसदों या विधायकों के लिए नहीं हैं। इस आदेश के बाद जो दोषी पाया जाएगा उसे अपील का अधिकार तो है मगर अपील के नाम पर सांसद या विधायक बने रहने की छूट नहीं है।

 

 

क्या कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का विरोध नहीं किया कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार के तहत आते हैं। उन्हें जानकारी देनी चाहिए। अगर वे पारदर्शिता के इतने ही हिमायती हैं तो विरोध क्यों किया। आप जानते हैं कि इन दोनों की मिलीभगत से आर टी आई के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर रखने का बिल लाया गया । राहुल गांधी ने अध्यादेश को बकवास तो कह दिया मगर उनकी पार्टी या सरकार ने अभी तक यह नहीं बताया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन होना चाहिए। जो सज़ा पायेगा वो सदस्य नहीं रहेगा। जिस जनभावना के दबाव में बीजेपी और कांग्रेस के अपनी लाइन बदलने की बात कही जा रही है वो क्या है। क्या वो सिर्फ अध्यादेश के खिलाफ है या अध्यादेश में जो बातें हैं उसके भी खिलाफ है। राजनीतिक दल जानते हैं कि राजनीति अपनी नैतिकता से नहीं चलती। कानून की नैतिकता कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती बन सकती है।

 

तो हमारा मूल सवाल यही होना चाहिए कि सज़ायाफ्ता सांसदों या विधायकों की सदस्यता जाने के हक में हैं या विरोध में। जब आप यह पूछेंगे तो सही जवाब मिलेगा। प्रधानमंत्री पद की गरिमा और इस्तीफा का मामला अहम होते हुए भी राजनीतिक दांव पेंच से ज्यादा कुछ नहीं है। उनके सम्मान की चिन्ता न राहुल गांधी ने की है न बीजेपी ने। कमज़ोर प्रधानमंत्री से लेकर मौनमोहन सिंह न जाने क्या क्या कहा गया है। तब भी कहा गया जब भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे और जब लगने लगे तो इसकी तीव्रता बढ़ती ही चली गई। जो स्वाभाविक भी थी। इस हंगामे के बहाने कांग्रेस और बीजेपी मूल सवाल को टाल रहे हैं। घोटालों के कारण पार्टी से निकाले गए येदियुरप्पा नरेंद्र मोदी के हक प्रस्ताव पारित कर रहे हैं और बीजेपी चुप रह जाती है। कहती भी नहीं कि आप दूर रहे हैं। जेल से निकले जगन रेड्डी को लुभाने के लिए कांग्रेस तत्पर नज़र आती है। कहती भी नहीं कि आप दूर रहें। इसलिए राजनीतिक स्मृतियां जब तक दुरुस्त नहीं रहेंगी और मुद्दे को लेकर सवाल अपनी जगह टिके नहीं रहेंगे हमारे देश की राजनीति नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी या कांग्रेस बनाम बीजेपी के गलियारे में भटकती रहेगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जो सवाल उठा है वो सिर्फ बीजेपी या कांग्रेस तक सीमित नहीं है। उसका संबंध हमारी राजनीति के बेहतर और ईमानदार होने से हैं। आपने सुना क्या किसी को इस पर बोलते हुए।

 ( यह लेख आज के प्रभात ख़बर में छप चुका है ) 





भागा भागा फेंकू भागा

दिल्ली में नरेंद्र मोदी की रैली के दूसरे दिन यानी आज कई अख़बारों के साथ ये ' पुलआउट' आया है । इसमें जा़री करने वाले का नाम कहीं भी नहीं है । मगर ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल भी नहीं कि काम किसका हो सकता है । इसके कार्टून में सरकार के काम की तारीफ़ की है जिससे साफ़ है कि कांग्रेस का काम है । 

कांग्रेस मोदी को फेंकू कहती है तो मोदी के समर्थक उससे पहले से राहुल को पप्पू कहते आये हैं । मेरे लिहाज़ से दोनों ही उचित नहीं है । लेकिन इस कार्टून वाले पोस्टर से अंदाज़ा मिलता है कि मोदी और राहुल की टीम के बीच किस किस्म का मीडिया युद्ध होने वाला है । 







कुर्ता

बहुत दिनों बाद आज कुर्ता पहना । सफ़ेद । ऐसे तो बहुत हैं मगर पहने से पहले उन पर हाथ फेर कर वापस रख देता हूँ । सालों से तह किये कुर्ते अकड़ से गए हैं । पहन ही नहीं पाता हूँ । बाबूजी के जाने के बाद कुर्ते में खुद को देखना उनको देखने जैसा लगता रहा । ऐसा लगता है जैसे वे मुझसे लिपट गए हों । उनकी यादों से दूर भागने के लिए कुर्ते से दूर रहने लगा । न वो दूर हो पाए न मैं भाग सका । 

बहुत दिनों से कुर्ते का कपड़ा रखा था । क़मर अली को दे आया । मालूम नहीं क्यों । शायद बाबूजी को महसूस करना चाहता था । वैसा ही कालर मगर लंबाई उनके जैसी नहीं । बदन पर कुर्ता डालते ही लगा आइने में वे खड़े हैं । उनको अच्छा लग रहा है । नाप सही है या नहीं इस बहाने एक के बाद एक तीनों कुर्ते पहन डाले । सफ़ेद वाला देर तक रह गया । मालूम ही नहीं चला कि कब आँखें भींग गईं और कब कुर्ता । आज बहुत दिनों बाद उनको देखा है । मेरे बदले वही मीन मेख निकाल रहे थे । कंधे पर ठीक फाल नहीं है तो कालर ज़्यादा खड़ा हो गया है । अचानक हाव भाव और चेहरा उनसे मिलने लगा । कभी खुद को आइने के सामने इतनी देर नहीं देखा । इस तरफ़ से मैं और उस तरफ़ से वो । जैसे उन्होंने कह दिया हो फ़र्स्ट क्लास । इ नू भइल कुर्ता ! 

इसीलिए कुर्ता नहीं पहन पाता हूँ । पहनते ही लगता है  कुर्ते में मैं नहीं हूँ । बाबूजी हैं । मन अचानक उनके कुर्ते की खनक को पहचानने लगता है । याद तो बहुत आती है उनकी । हर पल । चलती कार में उन्हें पुकारने लगता हूँ । पाँच साल हो गए । दफ़्तर जाने से पहले बहनों को फ़ोन लगा देता हूँ । किसी न किसी बहाने उनके बारे में बात करने के लिए । जब तक थे हर सुबह उठ कर पहला काम उन्हें फ़ोन करना, दवाई के बारे में पूछता था । अब भी जल्दी उठता हूँ फ़ोन करने के लिए ही, फिर नींद नहीं आती । फ़ोन ख़ाली लगता है । दिन भर में तीन चार बार फोन करना । खाँस रहे हैं । खाए नहीं । सोए थे क्या । 

कुर्ता सचमुच भारी कर देता है । मैं कुर्ता ही पहनना चाहता हूँ मगर होता नहीं है । इतना ख़ालीपन भर जाता है कि बस उनके पुकारने की आवाज़ खनकती रहती है । चलेके बा, कुर्तवा न देलक ह हो । दिल्ली चल जइब त सिया न पाइ । उन्हें लगता था दिल्ली में किसी को कुर्ता सीलने की तमीज़ नहीं । मैंने भी कब और क्यूँ मान लिया पता नहीं । आज क़मर अली ने जब सील कर दिया तो पटना की कमी नहीं खली । कमी खल गई बाबूजी की । 



अलबर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है

आदरणीय राहुल गांधी जी,

चूँकि पहले ख़त का जवाब नहीं आया इसलिए ये वाला थोड़ा छोटा लिख रहा हूँ । इसे फाड़ना मना है । क्योंकि ये अध्यादेश नहीं ख़त है । 

लड़कपने में हम लट्टू खेलते थे । लट्टू के एक गेम का नाम था बेल्ला फाड़ । इसमें जो हारता था उसके लट्टू को विजेता अपने लट्टू की गूँज (कील) से फाड़ता था । एक गूँज मारता था तो पहले लट्टू का चइला ( छिल्का) दरकता था । ख़ूबसूरत लट्टू की दुर्गति देखी नहीं जाती थी । आप कहीं लट्टू तो नहीं खेल रहे । कल जो प्रेस कांफ्रेंस में किया वो बेल्ला फाड़ था क्या ? 

आपने स्टैंड लिया अच्छी बात है । लोकपाल के दौरान जनदबाव नहीं महसूस कर पाए कोई बात नही । इस बार महसूस किया तो अच्छा ही है लेकिन जो तेवर थे वो बंधु ट्वीटर वाले थे । ऐसा लगा कि आपने ग़ुस्सा कर अध्यादेश को रीट्विट किया और फिर रिएक्शन देख ब्लाक । ये भी नार्मल है । 

लेकिन जो देह भाषा थी उसे देखकर मैं दंग रह गया । प्रेस कांफ्रेंस के बीच में आ गए । पहले योजना बनाई । फिर आकर बोल गए । अध्यादेश बकवास है । फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए । बास क्या तेवर है आपके । पिछली बार समाजवादी का घोषणापत्र फाड़ने के बाद अभी तक ग़ुस्सा शांत नहीं हुआ है । क्या क्या फाड़ेंगे आप । आपने तो मनमोहन सिंह की गरिमा ही फाड़ डाली । फंडू हो या फाड़ू सर ।

पर आपकी विवशता समझ सकता हूँ । आपने यूथ कांग्रेस में कुछ चुनाव वुनाव करवा कर बदलाव लाने का प्रयास किया । फ़ेल हो गया । पदयात्रा की वो फ़ेल । यूपी में दम लगाया वो फ़ेल । जयपुर में सत्ता का ज़हर पीना पड़ा । न चाहते हुए भी सुसाइड । वो भी फ़ेल । अंदर रहकर बाहर वालों के लिए और बाहर रहकर अंदर वालों के लिए लड़ने की इमेज । जैकी और अनिल की फ़ेल फ़िल्म अंदर बाहर खूब देखी है क्या सर । अब इतनी बार जो फ़ेल होगा वो एक बार एक काग़ज़ तो फाड़ ही सकता है न । 


आप अलबर्ट पिंटो वाला तेवर छोड़ दो । इतना ग़ुस्सा क्यों आता है । लोकपाल के समय से ही पब्लिक आपकी अटेंडेंस लगा रही है । आप हैं कि खिड़की से कूद कर प्रेस क्लब आ जाते हैं । कमाल है सर । लगता है चेन्नई एक्सप्रेस देखकर सीधे वहीं आ गए और बकवास की जगह बाकवास बोल दिया । आपकी पार्टी और आपकी सरकार । बेसिक कोच्चन है कि आपको मालूम था कि नहीं । मालूम था तो आप रोक रहे था या नज़रें फेर रहे थे । अगर अध्यादेश कोर कमेटी की मीटिंग की भावना के ख़िलाफ़ है तब तो यह और भी ख़तरनाक है । ये कौन लोग हैं जो सत्ता का अपना अपना गेम खेल रहे हैं । दूसरा कोच्चन यह है कि ऐसी तैसी मुद्रा में क्यों रहते हैं । लोकपाल के टाइम भी तो पब्लिक प्रेसर था तब तो आप इसे पास कराने के हक़ में बेचैन नहीं दिखे । टप्प से आए और सदन में भाषण देकर चल दिये । लोकपाल संवैधानिक होना चाहिए । फिर उसके बाद आप नज़र नहीं आए । लोकपाल गया तेल लेने । अब आए तो सीधा मनमोहन सिंह से भीड़ गए । तब जब वो खुद आपके अंडर काम करने के लिए तैयार हैं । 

आपने मनमोहन सरकार का चइला उखाड़ दिया । अपनी सरकार है तो क्या हुआ । इसको कहते हैं बेल्ला फाड़ । एनडीए सरकार, पार्टी और संघ के बीच का तनाव ज़रा गूगल कर लीजिये । जब वाजपेयी सरकार आतंकी संगठन हिज़्बुल मुजाहिदीन से बात कर रही थी तब वीएचपी के अध्यक्ष ने रक्षा मंत्री जार्ज फ़र्नांडिस को आई एस आई का जासूस कह दिया था । ये सब चलता है पर आपने जिस तरीके से किया न सिंघम स्टाइल में वो फ़िल्मों में चलता है पोलिटिक्स में नहीं । आप नैतिकता को लेकर हाईपर क्यों हो जाते हो । वो भी चुनिंदा तरीके से । फाड़ना था तो पहले खेमका के ख़िलाफ़ चार्जशीट ही फाड़ देते । कुछ तो ग़ुस्सा कम हो जाता । सिनेमा कम देखिये । 

आप सीखिए बीजेपी से । मोदी का एक मंत्री अदालत से आरोपी साबित हुआ, मोदी ने निकाला ? नहीं न । आपने खुद ये सवाल उठाया, नहीं न । जब भी ऐसे मौक़े आए आप स्टैंड ही नहीं ले पाये । दरअसल आप मुश्किल में हैं । मुश्किल से पहले बिखरे बिखरे लगते हैं । मोदी से साधु यादव मिल आते हैं और वो फोटू खींचाते हैं कि कोई बड़ा भारी कांग्रेसी तोड़ लाए हो । इसी साधु यादव को आप लाए थे न पहले । तो आप कैसे बोलते । आप ही लाये थे न साधु को । आप नीतीश के लिए नैतिक न बनो । उन्होंने किसी बाहुबली को साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बना दिया है । आपमें और बीजेपी में जो अंतर है वो बस समय और स्मृति का है । काश कि आप अब भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के साथ होने का एलान कर देते । आरोपियों को टिकट नहीं दे । तब लगेगा कि कोई वाटेंड आ गया है । एक बार कमिटमेंट कर दी तो खुद की भी नहीं सुनता । तब तक चुलबुली पांडे की तरह राजनीति की नैतिकता पर हँसा कीजिये उससे लड़ा कीजिये । 

आप भाषा और देहभाषा पर कंट्रोल रखिये । स्टैंड लेना है तो पब्लिक में आइये । बात कीजिये । कहीं मनमोहन ने इस्तीफ़ा दिया न तो गेम हो जाएगा । देखिये शीला ने किस तरह बात रखी है आपकी बात पर । सीखने में टाइम लगता है । ज़रूरी नहीं कि आप आज ही मैदान में आ जाये । राजनीति में ऐसी नादानियाँ सबने की है । लेकिन आपने जो कहा न वो राजनीतिक था न लोकतांत्रिक । आप राजनीति में ज़बरन ठेले हुए मत लगो । घाघ बनो घाघ । देखिये बीजेपी कैसे प्रधानमंत्री के पद की गरिमा की रक्षक हो गई है । और हो सके तो आर टी आई और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को रोकने के लिए बीजेपी से हाथ मत मिलाओ । अपना स्टैंड क्लियर करो । 

हाँ हो सके तो इस बार अपनी पार्टी का घोषणापत्र लैमिनेटे करवा लीजियेगा । वर्ना ग़ुस्सा आया तो आप फाड़ ही डालेंगे । ज़िम्मेदारी लीजिये । सिपाही मत बनिये । जनरल बनिये जनरल । वैसे घर में बताया था क्या कि आप प्रेस क्लब जा रहे हैं ! 



भवदीय ,

रवीश कुमार ' एंकर ' 

वीर तुम बने रहो !

आदरणीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी,

विदित हो कि मैं इनदिनों बड़े लोगों को ख़त लिखता हूँ । आज आपको लिखने का ख़्याल आया । आप इस वक्त मीरका ( मुनिरका नहीं) में हैं इसलिए मेरा कत्तई यह इरादा नहीं है कि मैं आपके पद की गरिमा कम कर दूँ । ख़ैर ये ख़त ही है । पढ़ के फाड़ दीजियेगा । 

हज़ारों जवाबों से अच्छी मेरी ख़ामोशी,
न जाने कितने सवालों की आबरू रख के । 

इस शेर को पढ़ने के लिए अगस्त 2012 में आप काठ की तरह सख़्त चलते आ रहे थे । संसद भवन से निकलते हुए कैमरे की तरफ़ । झाँसी के किसी दिवंगत शायर ने लिखा था । यही वो कोयला घोटाला था जिस पर बीजेपी आपसे इस्तीफ़ा मांग रही थी । आपने देश से कहा छिपाने को कुछ नहीं है । एक साल बाद पता लगा कि फ़ाइलें ही ग़ायब हो गई है और आप फिर से राज्य सभा के भीतर एक बयान दे रहे हैं । 

" किसी देश में ऐसा सुना है जहाँ एमपी सदन के व्हेल में जाकर चिल्लाये और नारा लगाते हों कि प्रधानमंत्री चोर है । कुछ सदस्य कुछ भी कहें मंत्री परिषद में कुछ तो इज़्ज़त रखता हूँ "

हिन्दी अनुवाद है मगर मोटा मोटी आपने यही कहा था । मैं दुनिया में ऐसे किसी देश को जानता हूँ तो वो भारत ही हैं जहाँ आपकी इज़्ज़त पर हर दूसरा तीसरा कुछ भी कह जाता है । आप जब से प्रधानमंत्री बने हैं तब से बीजेपी ने कितनी अनादरणीय बातें कहीं हैं आप गूगल कर लीजियेगा । पद, पद की गरिमा और कमज़ोर प्रधानमंत्री का नारा । न्यूक्लिअर डील में संसद के भीतर नोट रख देने का काला इतिहास । आडवाणी तो वास्तुकार रहे हैं कमज़ोर प्रधानमंत्री के मुद्दे का जिसे अब नरेन्द्र मोदी ने हथिया लिया है ।

आपने दो मौक़ों पर आडवाणी को सुनाया भी । मार्च 2011 में सदन में कहा कि " श्री आडवाणी जी समझते हैं प्रधानमंत्री होना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है इसलिए मुझे कभी माफ़ नहीं किया । इस पद को लिए अभी और साढ़े तीन साल इंतज़ार करना पड़ेगा " 

आपको भी तब अंदाज़ा नहीं था कि आडवाणी की हालत बीजेपी में आपके जैसी हो जाएगी । आपसे लड़ते लड़ते आडवाणी जी राजनीतिक रूप से भस्म हो गए और अब मोदी आ गए हैं । एक शेर गया तो दूसरा शेर आया है । हर बार मेमने की क़िस्मत अच्छी नहीं होती सर । ये भी तो आपका ही बयान है लोकसभा में मार्च 2013 का ।

" २००९ में बीजेपी ने मुझे मेमने के ख़िलाफ़ लौह पुरुष आडवाणी को उतारा था सबको पता है नतीजा क्या हुआ ।  बीजेपी फिर अहंकार के कारण हारेगी "

आप पर जब आरोप नहीं थे तब भी बीजेपी ने आपका सम्मान नहीं किया । बीजेपी आपको कमज़ोर बताने के सवाल पर २००९ हारी तो कहा गया कि आपकी ईमानदार छवि के कारण उनका अहंकार ध्वस्त हो गया । लेकिन बीजेपी को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने आपको तब भी नहीं छोड़ा । धीरे धीरे आपकी सरकार से भ्रष्टाचार के कंकाल बाहर आने लगे और बीजेपी सही साबित होने लगी । आपके मंत्री जेल गए । बीजेपी को मौक़ा मिलता गया । बात आपकी ईमानदारी पर आ गई । किस बात की ईमानदारी जब आपके मंत्री घोटाला कर रहे हैं । कोयला घोटाले की फ़ाइल का ग़ायब होना और पीएमओ के किसी अधिकारी का वो फ़ाइल देखना जिसे अदालत में पेश किया जाना था । आप घिर गए । 

इस दलदल से आप निकल जाते अगर आप लोकपाल बनवा देते मगर तब आप बीजेपी के झाँसे में आ गए । भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ खड़े आंदोलन को कुचलने लगे । अगर तब आप कोई स्टैंड लेते कि इसे एक व्यक्ति की ईमानदारी नहीं रोक सकती है इसलिए लोकपाल होना चाहिए तो जनता भावनात्मक रूप से ज़रूर आपके साथ होती । मगर आप और बीजेपी एक हो गए और लोकपाल को कमज़ोर कर दिया । 

आप आर टी आई के ख़िलाफ़ स्टैंड ले सकते थे । मगर आप और बीजेपी एक हो गए । आपको लगा कि भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं है और इस पर बीजेपी आपके साथ है । आपने फिर एक मौक़ा गँवाया । आप कमज़ोर हैं मगर मोदी जी तो नहीं है न । क्या उन्होंने आर टी आई पर कोई स्टैंड लिया ? सीबीआई पर बोलते हैं मगर आर टी आई पर नहीं । सज़ायाफ्ता सांसदों के मामले में आप सुप्रीम कोर्ट के आदेश को रोकने के लिए बीजेपी के झाँसे में आ गए और बिल बनाने लगे । तब किसी ने नहीं कहा कि लालू को बचाया जा रहा है । आप भी पार्टी के दबाव में थे । आप स्टैंड ले सकते थे कि अध्यादेश सही नहीं है । मगर आप आगे बढ़ते गए । भ्रष्टाचार के सवाल पर व्यक्तिगत पूँजी जनता के बीच गँवाते चले जा रहे थे । आप हमारी तरह रोज़गार के बुनियादी सवाल से नहीं जूझ रहे । आपको विश्व बैंक से लेकर सांसद तक का पेंशन मिलेगा जिससे ख़र्चा तो चल ही जाएगा । आपने पब्लिक की नज़र में ईमानदारों को कमज़ोर कर दिया । आपने बीजेपी को नैतिक होने का मौक़ा दे दिया । प्रधानमंत्री विदेश में हो तो विपक्ष उनकी विदेश नीति तय करे, अध्यादेश के ख़िलाफ़ राष्ट्रपति से मिलने जाए वो ठीक लेकिन राहुल अध्यादेश फाड़ दें उससे अपमान !  हद है । कह दीजिये कि आप अपमान प्रूफ़ हैं । होता ही नहीं है । 

देखिये अध्यादेश को वापस कराने राष्ट्रपति भवन गए अरुण जेटली जी ने क्या कहा है-" देश देखना चाहता है कि प्र म़ में आत्म सम्मान कितना बचा है । क्या वे अपने कैबिनेट के फ़ैसले को बकवास कहना स्वीकार करेंगे या अपनी सरकार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए कुछ करेंगे " । सर सब भेंड़ा लड़ा रहे हैं । आप चिन्ता मत करो । देश यह जानना चाहता है कि अपराधियों को रोकने वाले सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर बीजेपी कांग्रेस की क्या राय है । दोनों चुप हैं । जेटली जी अध्यादेश का समर्थन कर रहे हैं क्या ? 

आप चुनाव से पहले हार गए हैं सर । लगता है आपके ख़िलाफ़ बीजेपी के अभियान का असर कांग्रेस पर भी हो गया है । राहुल गांधी किसी और तरीके से राजनीतिक रूप से अध्यादेश वापस ले सकते थे । आख़िर बीजेपी ने भी तो इस मसले पर रातों रात ्पनी लाइन बदली तो कांग्रेस क्यों नहीं बदल सकती । प्रेस क़्लब में जो देहभाषा थी उससे आपको ज़रूर लगा होगा कि ये राहुल है या आडवाणी या अब तो मोदी । जो बचा था फाड़ फूड़ के बराबर कर दिया भाई ने । अब सब कह रहे हैं कि आप इस्तीफ़ा दे दीजिये । लोगों को झूठी सहानुभूति हो रही है । पता नहीं आप राहुल के नेतृत्व में काम करते हुए उनसे नज़रें कैसे मिलायेंगे । आज पता चल रहा है कि आपने कितना कुछ बोला हुआ है सर । 

 शेखर गुप्ता जी ने आज के इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि जो आपकी ईमानदारी के क़ायल हैं ( वैसे कौन कौन हैं ?) उनका दिल टूट जाएगा अगर आपने इस्तीफ़ा न दिया तो । सवाल आपकी क्षमता का नहीं है सर, शेखर जी भूल रहे हैं कि सवाल आपकी राजनीतिक उपयोगिता का है । जब वो नहीं रहा तो ले देकर क्या सँभल जाएगा । 

शेखर जी ने किसी विदेश सचिव ए पी वेंकटेश्वरन का उदाहरण दिया है जब राहुल के पिता राजीव गांधी ने पाकिस्तानी पत्रकार के जवाब में कह दिया था कि जल्दी ही नया विदेश सचिव मिल जायेगा । उसी दोपहर वेंकटेश्वरन ने इस्तीफ़ा दे दिया । पिता भी पब्लिक में ऐसा काम कर चुके हैं ! जेनेटिक्स । तो शेखर जी चाहते हैं या उनके लेख की मंशा ये है कि आप भी कह दें कि नया प्रधानमंत्री खोज लीजिये । आपको जब कांग्रेस का पता ही है तो लास्ट मिनट में आडवाणी मत बनिये । क्या आडवाणी को नहीं पता था कि बीजेपी में संघ की चलती है । आडवाणी के रास्ते कांग्रेस में मत चलिये सर ।मेरी राय में शेखर जी जिस चाटुकारिता संस्कृति की आलोचना कर रहे हैं उसी के कारण तो आपका नंबर आया । आपका कोई योगदान नहीं था यह कैसे मान लें । 

नहीं सर बिल्कुल ये मत कीजियेगा । आपने एतना अपमान सहा है कि तय करना मुश्किल होगा कि कौन वाला अपमान इस्तीफ़ा देने लायक था और कौन वाला नहीं । इसी ज़ालिम गूगल से रेडिफ डाँट काम पर जी सी सोमाया की किताब 'दि आनेस्ट स्टैंड अलोन' का पता चला है । जिसमें सोमाया लिखते हैं कि जब राजीव गांधी ने योजना आयोग के सदस्यों को बंच आफ़ जोकर ( हिन्दी में जोकर गुच्छ) कहा था तो आप इस्तीफ़ा देने पर उतारू हो गए थे । तब सोमाया ने समझाया था िक राजीव अनुभवहीन और युवा है नज़रअंदाज़ कर दीजिये । आप मान गए । मुझे पूरा यक़ीन है कि पिता को माफ़ करने वाले मनमोहन जी पुत्र को भी माफ़ करेंगे । अध्यादेश था ही बकवास तो राहुल और क्या कहते । बाकवास ! 

सर अब इस्तीफ़ा देकर आपको कुछ नहीं मिलेगा । शांति से अपना टर्म पूरा कीजिये । इज़्ज़त तब भी नहीं मिली और अब भी नहीं मिलेगी । इस झाँसे में मत आइयेगा कि इस बार इस्तीफ़ा देने से सबकुछ बदल जाएगा । ऐसा किया तो आप फिर बीजेपी और शेखर जी के झाँसे में फँसेंगे । याद है न आपने लोकसभा में सुष्मा जी को क्या कहा था -

माना तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं,
तू मेरा शौक़ तो देख मेरा इंतज़ार तो देख । 

ये हुई न बात । दस साल का शौक़ और इंतज़ार पूरा करके जाइयेगा सर । पद से हटने के बाद हो सके तो राज्य सभा से इस्तीफ़ा दे दीजियेगा । प्रधानमंत्री की इज़्ज़त भले न हो, भूत पूर्व प्रधानमंत्री की तो होती है । और हाँ अपने बारे में गूगल मत कीजियेगा । क्या क्या तो निकल आता है । आपके साथ इतिहास ही न्याय करेगा, बीजेपी, गूगल और ट्वीटर नहीं । आपके साथ ही नहीं आडवाणी के साथ भी ! 

' स्पाइनलेस स्टैंड अलोन'  सर ये मेरी अगली किताब का नाम है । तब तक आप एक और अध्यादेश ले आइये । यही कि अब से सारे अध्यादेश लैमिनेटेड होंगे । 

आपके भारत का एक नागरिक,
रवीश कुमार 'एंकर' 

स्वर्ण युग का भस्मासुर


राजनीति आपकी कमज़ोर स्मृतियों के सहारे ऐसे मिथक की रचना करती है जिसका कोई व्यावहारिक आधार नहीं होता है। हम हर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को जहां डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरावो भारत देश है मेरासुन कर भावविभोर होते रहते हैं। पर एक पल के लिए सोचते तो होंगे कि क्या सचमुच ऐसा कोई काल रहा होगा जब सोने की चिड़ियां डालो पर बसेरा करती होगी। आप कहेंगे कि गीतकार ने प्रतीकों के सहारे बताने का प्रयास किया है कि कभी भारत इतना खुशहाल और भरापूरा देश था। दरअसल तब भी यह हकीकत के करीब नहीं हैं। स्वर्ण युग और अंधकार युग इतिहास लेखन के शुरूआती दौर की ऐसी नादानियां हैं जिसका परित्याग करने के लिए दुनिया भर के इतिहासकारों को लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ा है। इतिहासलेखन में किसी दौर को देखने का यह मान्य पैमाना नहीं रहा कि फलां युग स्वर्ण युग था या अंधकार युग । ये और बात है कि इसके अवशेष अब भी मिल जाते हैंखासकर राजनीति में तो यह अभी भी एक दिव्य और अकाट्य तथ्य के रूप में पेश किया जाता रहता है।

स्वर्ण युग की चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि रविवार को बीजेपी के प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वाजपेयी जी का युग स्वर्ण युग था। स्वर्ण युग का प्रमाण क्या दिया उन्होने कि जीडीपी रेट ८.४ था। नरेंद्र मोदी ने यह नहीं बताया कि फिर भारत की जनता ने उस स्वर्ण युग को क्यों दो बार खारिज कर दिया। क्या जनता १९९९ से २००४ के वर्तमान में यह नहीं देख पा रही थी कि हमारे सामने से कोई स्वर्ण युग गुज़र रहा है। जिस शाइनिंग इंडिया अभियान पर हार के बाद बीजेपी के ही नेता सवाल उठा चुके हैं एक बार फिर से एन डी ए युग को शाइनिंग इंडिया का नया नाम दिया जा रहा है। स्वर्ण युग का। इसके जवाब में कांग्रेस के प्रवक्ता ने भी एलान कर दिया कि एनडीए का स्वर्ण युग नहीं था। स्वर्ण युग तो यूपीए वन का था। अरे वाहआप स्वर्ण युग में रह रहे हैं फिर भी आप महंगाई और भ्रस्टाचार से त्रस्त हैं। यह कैसा स्वर्ण युग है। शायद है क्योंकि आप में से कई तीस हज़ार प्रति ग्राम सोना खरीदने लगे हैं। देश में सोना कम आए इसके लिए वित्त मंत्री सोने का आयात रोकने के लिए आयात कर बढ़ाते जा रहे हैं। चिदम्बरम यूपीए वन को स्वर्ण युग बताने में इतने व्यस्त हो गए कि भूल गए कि कोई यूपीए द्वितीय के बारे में भी पूछ सकता है ।


ऐसा क्यों होता है कि हमारी राजनीति भविष्य की तरफ बढ़ते बढ़ते अतीत की लोककथाओं से मिथकों की चोरी सत्यकथा की तरह करने लगती है। कभी ये दल राम राज्य की बात करने लगते हैंअचानक राम राज्य को छोड़ स्वर्ण युग की बात करने लगते हैं। सबके भाषणों को आप सुनिये तो लगेगा कि देश किसी अंधकार में डूबा हुआ है। भारत ने कुछ हासिल ही नहीं किया है। फिर इसी में से कोई नेता आकर बोल देता है कि नहीं नहीं ऐसा नहीं है। ६७ साल की आज़ादी में हमने कुछ नहीं हासिल किया मगर इसमें से पांच साल हम स्वर्ण युग में थे। दिग्विजय सिंह कहते हैं कि इसी स्वर्ण युग में संसद पर आतंकी हमले हुएआतंकवादियों को उनकी पसंद की जगह तक जाकर छोड़ा गया। दरअसल इतिहासहास लेखन में भी यही होता है । जिस किसी कालखंड को स्वर्ण युग या अंधकार युग कहा गया है,जवाबी तर्कों के सहारे इन अवधारणों को चूर चूर कर दिया जाता है। सही बात है कि राजनीति के पास विकल्प के नाम पर कोई विकल्प नहीं है। यह थकी हुई और अकाल्पनिक राजनेताओं की फौज है जिसे युद्ध करना ही है इसलिए बेमन से रणभेरियां बजा रहे हैं। खुद नहीं बजा सकते तो आजकल जनसंपर्क एजेंसियों पर करोड़ों खर्च करते हैं कि भाई आप ये बिगुल बजाते रहो।
 क्या आप सोने की लंका को स्वर्ण युग कहेंगे जो भस्म हो गई । हमारी राजनीति में भारत के सुदूर अतीत में किसी सतयुग की खोज करने की आदत आज की नहीं है। यह आजादी की लड़ाई के दौरान भी थी जब भारत अपनी अस्मिता की तलाश में ऐसे युगों की खोज कर रहा था जिनसे ग़ुलामी की ग्लानि 
से उबरने में मदद मिल सके । जहां डाल डाल पर सोने की चिड़िया बैठा करती थी टाइप । इस खोज ने हमारी पहचान की तत्कालिक ज़रूरतें तो पूरी की मगर इसी की बुनियाद में सांप्रदायिकता के स्वर्णिम और मिथकीय बीज भी पड़ गए। जहां से हम किसी अखंड भारत की तलाश करने लगे और किसी एक धर्म के वर्चस्व का सपना बांटने लगे। हमारी राजनीति को ऐसी उपमाओं से मुक्त करने की सख्त ज़रूरत है। अगर स्वर्ण युग का पैमाना जीडीपी का आंकड़ा है तो कई लोग यह भी तो कहते हैं कि जी़डीपी के रेट से विकास की असली तस्वीर नहीं दिखती। कहां है स्वर्ण युग । क्या गुजरात में हैं, क्या मध्य प्रदेश में है, क्या छत्तीसगढ़ में है, क्या दिल्ली में है, क्या यूपी और बिहार में है। अगर है तो सारे दल ग्रोथ रेट के इन गगनचुंबी आंकड़ों के बाद भी सत्तर से नब्बे फीसदी आबादी को सस्ता अनाज देने की होड़ में क्यों है। यही लोग एक वक्त पर कहते हैं कि विकास सबके द्वार तक नहीं पहुंचा। यही लोग मंच पर आकर कहते हैं कि हमारा वाला युग स्वर्ण युग था। कहीं ये राजनीतिक दल अपने घोटाले और कमाई के मौके को स्वर्ण युग तो नहीं बता रहे।

अच्छा है कि हमारी राजनीति में जीडीपी के सहारे विकास की बात हो रही है। मगर जीडीपी विकास की संपूर्ण तस्वीर नहीं है। हो सकता है कि किसी राज्य का जीडीपी काफी हो मगर आप ध्यान से देखेंगे कि यह रेट इसलिए ज्यादा है कि क्योंकि उस राज्य में किसी एक सेक्टर का एकतरफा विकास हुआ है। पचास फैक्ट्रियां लग जाने से जीडीपी बढ़ सकती है लेकिन क्या इससे सारा राज्य खुशहाल हो सकता है,यह बात गारंटी से नहीं कही जा सकती है। कुछ लोगों का कहना है कि यह राहत की बात है कि जीडीपी की बात हो रही है। पहचान की राजनीति पीछे जा रही है। पर ऐसा कहां हो रहा है। सबकुछ एक साथ चल रहा है. पहचान की राजनीति एक दिन तो दूसरे दिन जीडीपी की राजनीति। जीडीपी को भी किसी सतयुग या स्वर्ण युग से जोड़कर पहचान की राजनीति ही की जा रही है। नरेंद्र मोदी के इस बयान पर पी चिदंबरम ने कहा कि वे तथ्यों के साथ फर्जी एनकाउंटर करते हैं तो बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा ने कहा कि चिदंबरम तथ्यों का आतंकवाद फैला रहे हैं। दोनों अपने अपने हिसाब से तथ्यों को पेश कर रहे हैं। आम जनता को काफी सावधानी के साथ आंकड़ों की इस राजनीतिक बाज़ीगरी को समझना चाहिए। स्वर्ण युग एक प्रलोभन है। यह न तो कभी था और न कभी आएगा। दोपहर के वक्त अक्सर गलियों में ठग नकली सुनार बनकर आ जाते हैं। सोना चमकाने के नाम पर आपका असली सोना लेकर चंपत हो जाते हैं। ऐसे स्वर्ण युग के दावेदारों से सावधान रहियेगा।

(यह लेख आज के राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है)

ऐ भाय कोई है

दिलीप साब,

गंगा जमुना वाले नहीं आप मेरे लिए मशाल वाले दिलीप साब हैं और हमेशा रहेंगे । मुंबई की उस रात जब आप अपनी पत्नी सुधा की जान बचाने के लिए चीख़ रहे थे तब मैं पटना के सिनेमा हाल में बैठा उस अनजान शहर की ख़ौफ़नाक चुप्पी से सहम गया था । उस रात आप हर आती जाती मोटर के पीछे भाग रहे थे, ऐ भाय कोई है ! आप जितनी बार भाय भाय पुकारते मेरे भीतर मुंबई सायं सायं करने लगती थी । दिलीप साब आपने उस रात एक ऐसी अदाकारी की मिसाल रच रहे थे जहाँ अभी तक कोई नहीं पहुँच पाया । जिसने अपनी बेबसी, घबराहट, चीख़ से महानगर के तिलिस्म को तोड़ा हो । मैं ऐसे किसी भी महानगर की कल्पना से कोसों दूर था जिसके अजनबीपन की गोद में एक दिन मुझे भी अपने वजूद के लिए चीख़ना था । अपने भीतर । हर चीख़ चीख़ने के लिए नहीं होती । कुछ सुनने के लिए भी होती है ।  आज भी दिल्ली में कई कोने हैं जो मुंबई की उस रात जैसे लगते हैं । हमारी वहीदा जी पर्दे पर दम तोड़ रही थीं और मेरा महानायक इस तरह लाचार मुंबई को खटखटा रहा था, मुझसे देखा नहीं गया  । पटना होता तो साइकिल लिये हम दोस्तों के साथ आ जाते साब । 

सिनेमा हाल से निकलने के बाद भी मेरा किशोर मन आपकी उस चीख़ को भूल नहीं पा रहा था । दोपहर में ही मेरा क़स्बा जैसा पटना मुंबई की उस रात की तरह वीरान लगने लगा था । आपने महानगरों की उस बेबसी को जिस तरह से पोपुलर सिनेमा के दर्शकों के लिए पेश किया था वो अद्भुत था । दिल्ली आकर गोविंदपुरी की रातें ऐसी ही किसी आवाज़ से टकराती लगती थीं । हमें समझ नहीं आता था कि कभी कोई बुरा वक्त आया तो कौन सुनेगा । कौन आयोग । महानगर ट्रैफ़िक के शोर से भर तो जाते हैं मगर भीतर ही भीतर ख़ाली भी होते रहते हैं । अकेले लोगों की भीड़ अक्सर ख़ाली रह जाती है । आपका भाई की जगह भाय कहना उफ्फ ! ऐसे कहीं झकझोरा जाता है जनाब । 

शक्ति में आपके सामने अमिताभ कमज़ोर लगे थे । मशाल में अनिल कपूर अपने टीचर के सामने रिहर्सल करता हुआ अभिनेता । तब भी जब पोस्टर में अनिल को प्रमुखता दी गई थी क्योंकि वे उस वक्त उभरते स्टार थे । आपके बोलने और देखने का अंदाज़ हमेशा एक मास्टर की तरह नए अभिनेताओं को सीखाता रहेगा । आपके पास अमिताभ की तरह क़द नहीं था मगर जो धज था वो लाजवाब । जो ज़ुबान थी उसका कोई सानी नहीं । जो आँखें थीं उस जैसी नज़र कोई नहीं । मशाल की वहीदा का ख़ालीपन आपने कर्मा मेम नूतन की चूड़ियों की खनक से भर दिया था । क्या चांटा मारा था साब आपने अनुपम खेर को । 

आज जब न्यूज़ चैनलों पर एक बीमार और बच्चे की तरह दिखने वाले दिलीप साब आपको देखा तो मशाल की चीख़ से भर गया । आह मेरा नायक । सायरा बानों आपको खिचड़ी खिला रहीं थीं । आह मेरा महानायक । मुग़ले आज़म का सलीम सलीम न होता अगर आप दिलीप साब न होते । माँ मेरा दिल हिंदुस्तान नहीं जिस पर तुम्हारी हुकूमत चले । दिलीप साब इस संवाद को बोलने वाला कोई दूसरा न होगा । आप मेरे सगीना महतो  । साला मैं तो साहब बन गया । मालूम नहीं आप एक दूसरे नाम को कैसे जीते रहे । उसमें कितना हिस्सा युसूफ का है और कितना दिलीप का । पर आप मेरे ज़हन में पूरे के पूरे दिलीप कुमार हैं ।

"मैं मर के भी मरूँगा नहीं तुम्हारे अंदर रहूँगा राजा ।" मशाल का आपका आख़िरी संवाद अमर है। आप हमेशा ही रहेंगे । दिलीप कुमार किसी न किसी अभिनेता में रहेंगे । जो भी ख़ुद्दारी ख़ुदमुख़्तारी से अभिनय करेगा उसमें दिलीप साब आप थोड़े बहुत तो होंगे ही । आप जल्दी ठीक हो जाइये । 

आपका एक सिनेदर्शक

रवीश कुमार 'एंकर'

भाषा का फासीवाद- अपूर्वानंद

भाषा का कार्य न तो प्रगतिशील होता है और न प्रतिक्रियावादी, वह मात्र फासिस्ट है: क्योंकि फासिज़्म अभिव्यक्ति पर पाबंदी नहीं लगाता, दरअसल वह बोलने को बाध्य करता है. रोलां बार्थ का यह वक्तव्य पहली नज़र में ऊटपटांग और हमारे अनुभवों के ठीक उलट जान पड़ता है. हम हमेशा से ही फासिज़्म को अभिव्यक्ति का शत्रु मानते आए हैं. लेकिन बार्थ के इस वक्तव्य पर गौर करने से, और हमारे आज के सन्दर्भ में खासकर, इसका अर्थ खुलने लगता है. इसके पहले कि हम आगे बात करें, यह भी समझ लेना ज़रूरी है कि बार्थ की खोज कुछ और थी. 


वे अर्थापन की नई विधि या पद्धति की तलाश में थे. अंततः उनकी खोज अर्थ से मुक्ति की थी, एक असंभव संधान लेकिन दिलचस्प: स्पष्टतः वह एक ऐसी दुनिया का स्वप्न देखता है जिसे अर्थ से मुक्ति हासिल होगी( जैसे किसी को अनिवार्य सैन्यसेवा से छूट मिली होती है). हम हिन्दुस्तानियों के लिए इसका पूरा अभिप्राय समझना कठिन है लेकिन एक अमेरीकी या रूसी या इस्राइली के लिए नहीं. उन्हें पता है किवयस्क होते ही राज्य उनको  सेना में भर्ती होने के लिए बाध्य कर सकता है.प्रसंगवश अनेक न्यूनताओं के बावजूद भारतीय लोकतंत्र के पक्ष में यह बात भी है कि उसने अपने नागरिक को सैन्य पदावली में परिभाषित नहीं किया. भारतीय होने की शर्त या उसकी कीमत अपना सैन्यीकरण नहीं है.



भाषा से अर्थ की अपेक्षा क्या उसका सैन्यीकरण है? हर अर्थ क्या एक प्रकार की हिंसा के लिए जगह पैदा करता है? क्या इसलिए कि प्रत्येक अर्थ का प्रतिद्वंद्वी अर्थ अनिवार्यतः होगा? जब मैं अर्थ करता हूँ तो साथ-साथ यह अपेक्षा भी करने लगता हूँ कि मेरे इस अर्थ को सब स्वीकार कर लें. प्रति-अर्थ की आशंका मुझे लगी रहती है और मैं निश्चिंत हो जाना चाहता हूँ कि वह कहीं छिपा तो नहीं बैठा है! इसके लिए ज़रूरी होगा हर किसी के मेरे किए अर्थ के प्रति रवैये को जानना.यह तब तक मुमकिन नहीं जब तक उसे बोलने को बाध्य न किया जाए.इसी तरह मुझे अपने अर्थ की अजेयता की आश्वस्ति हो सकती है.



फासिस्ट व्यवस्थाओं में इसका अनुभव रोज़मर्रा की ज़िंदगी में सब करते हैं. राजकीय अर्थ से वफादार होना भर  नहीं, दिखना भी अनिवार्य है. इस हिसाब से देखें तो फासिस्ट व्यवस्था मूक नहीं होती,वह अत्यंत ही वाचाल होती है. आपकी चुप्पी को स्वीकृत अर्थ को लेकर आपकी असहजता माना जा सकता है. साम्यवादी सोवियत संघ में चुनाव होते थे और लगभग शत प्रतिशत मतदान होता था. किसी भी लोकतंत्र के लिए यह ईर्ष्या की बात थी. मतदान में विकल्प जनता के पास नहीं था.सिर्फ और सिर्फ स्टालिन को चुना जा सकता था. इसलिए सोवियत संघ में अपने जोखिम पर ही मतदान से खुद को अलग रखने का निर्णय लेना संभव था.


भारत जैसे लोकतंत्र की परिपक्वता का एक लक्षण मतदान के प्रति उसके नागरिकों की एक अच्छी-खासी संख्या की उदासीनता को बताया जाता है. बीच-बीच में प्रस्ताव लाया जाता है कि मतदान हर वयस्क के लिए अनिवार्य कर दिया जाए और मत न देना जुर्म घोषित कर दिया जाए. सौभाग्य से भारतीय लोकतंत्र अभी फासिस्ट नहीं हुआ है!



वाचालता या अर्थ-मुखरता या अर्थासक्ति इस प्रकार एक चिंताजनक अवस्था है. लोकतांत्रिक समाज में बोलने या अभिव्यक्ति को ही एक सहज अवस्था माना गया है. जन संचार माध्यमों में तकनीकी परिष्कार के साथ ही विस्तार तो हो ही रहा है, समय का अंतराल भी प्रायः समाप्त हो गया है. इंटरनेट,मोबाईल आदि ने स्थान और कालजनित दूरी या अवकाश को मिटा दिया है.किसी घटना के होते ही उस पर उसी क्षण प्रतिक्रिया संभव भी है और ज़रूरी भी मानी जाने लगी है. फेसबुक पर क्षण-क्षण की खबर ली और दी जा सकती है और यह उम्मीद भी की जाती है कि उस पर अन्य लोग प्रतिक्रिया देने में विलम्ब नहीं करेंगे. इसकी छूट नहीं कि आप प्रतिक्रिया देने वाले समाज से अलग रहना चाहें. याचिकाएं सार्वजनिक तौर पर जारी की जाती हैं और आपका दस्तखत अगर किसी पर न हो तो आपकी उदासीनता को खतरनाक माना जासकता है.



चुप्पी संदेह पैदा करती है. तानाशाह और फासिस्ट हर किसी को बोलते पाकर ही निश्चिन्त होता है. सोल्झेनिस्तिन ने वह किस्सा मशहूर कर दिया है जिसमें स्टालिन के भाषण के बाद तालियों की गड़गड़ाहट थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.कई मिनटों के बाद या तो अपनी अभ्यर्थना से निश्चिन्त हो कर या झेंप कर(क्या तानाशाह को भी झेंप होती है?) स्टालिन को ही इशारा करना पड़ा कि जनता अपने उत्साह को नियंत्रित करे. ध्यान रहे यह किस्सा नहीं है.



भाषा के कई पहलू होते हैं. वह अपने आप में फासिस्ट ही हो,ज़रूरी नहीं.एक अभिव्यक्ति दूसरी अभिव्यक्ति को जन्म देती है. इससे और आगे बढ़ कर वह दूसरी अभिव्यक्ति को बाध्यकारी और अनिवार्य भी बना दे सकती है. इस दूसरी भाषावस्था में जब सामाजिक व्यवहार पहुँचने लगे तो हमें फिक्र होनी चाहिए. उसी तरह हम भाषा का  दो तरह से प्रयोग कर सकते हैं: एक, जब हम कुछ बोल या लिख कर सिर्फ फौरी नहीं,बल्कि कभी भी मुखर प्रतिक्रिया की अपेक्षा ही न करें. बल्कि उसके कारण चिंतन या मनन की एक प्रक्रिया मात्र के आरम्भ होने या गतिमान होने में ही उसकी सार्थकता का अनुभव करें.भाषा के व्यवहार की एक और परीक्षा यह भी है कि क्या वह अपने एक अनिवार्य प्रतिपक्ष की कल्पना से पैदा होती है जो उसके बाहर कहीं स्थित है. और क्या वह अपने इस प्रतिपक्षी को किसी उत्तर देने के लिए बाध्य करने की लालसा से ही पैदा होती है? 


हम अक्सर ऐसे वाक्चतुर लोगों के किस्से सुनते हैं जो सामने वाले को लाजवाब कर दिया करते हैं. किसी को निरुत्तर कर देने में विजयी होने की हिंसक खुशी होती है.यह भूलते हुए कि इसने अभी सामनेवाले में स्तम्भन या असमर्थता या वाक्शून्यता के कारण जो विवशता का भाव पैदा किया है वह प्रतिहिंसा का स्रोत हो सकता है. किसी पर,वह व्यक्ति हो या समाज,ऐसा आक्रमण करना कि वह प्रतिक्रिया दे न सके, प्रतिक्रिया को भूमिगत कर दे सकता है. फिर वह कहाँ , कैसे फूट निकलेगी, इसका अंदाज करना असंभव हो जाता है. इसलिए जब हम पोलेमिक्स का रास्ता अपनाते हैं तो एक प्रकार की भाषाई हिंसा को वैधता दे रहे होते हैं.यहाँ जीत या हार के अलावा तीसरी स्थिति संभव नहीं है.एक समय एक तर्क जो दूसरे की लाश पर विजय पताका लहराता है,औचक ही मारा भी जाता है.



भाषा का एक व्यापार या व्यवहार वह है जिसमें वह कहीं स्वयं को सम्बोधित करती है, खुद को भी टटोलती,खंगालती या ज़ख़्मी करती है.यह कह सकते हैं कि यह जनांतिक प्रदेश की भाषा है.ऐसा नहीं कि स्वयं को संबोधित भाषा बाहर सुनी नहीं जाती.उसका मूल्य यह है कि वह बाध्यकारी नहीं होती. उसकी रौशनी में हम फिर खुद को भी सुनने की कोशिश करते हैं.यह कोशिश किसी और के सामने अपना औचित्य सिद्ध करने,अपने आप को साबित करने के मकसद से आज़ाद होती है.


हम अक्सर हैरान रह जाते हैं कि ऐसा कैसे होता है कि हमें उसकी चीख नहीं सुनाई देती जिसे हम दूसरा मानते हैं. क्या यह इस वजह से होता है कि हमने कभी ठीक से खुद से बात नहीं की!



भाषा के इस प्रकार दो रुख हो सकते हैं:भीतर की ओर और बाहर की ओर.या बार्थ के अनुसार भाषा का संघर्ष उसके भीतर ही होगा. साहित्य इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जहां अर्थ तक पहुँच जाने में ही लेखक या पाठक की सार्थकता नहीं है. वह इसमें है कि भाषा के व्यवहार में अर्थ का स्थगन कितनी दूर तक किया जा सका है.यहाँ भाषा मात्र विचारों या भावों के सम्प्रेषण का माध्यम नहीं रहती,अपने आप में विचारणीय होती है.अर्थ का  स्थगन या उसका विलंबन ऐसा गुण है जिसे सब गुण नहीं मानते.इसके नतीजे में भाषा ताकत के खेल के अलावा और कुछ नहीं रह जाती.ताकत हमेशा नकारात्मक नहीं. लेकिन भाषा की ताकत किसी को हतवाक करने में नहीं और न  किसी जवाब देने को मजबूर करने में  है. सबसे अधिक ताकतवर भाषा तब होती है जब वह ऐसे मौन का सृजन कर सके जिसमें एक-दूसरे से जुड़ पाने के सूत्र की खोज की जा सके.

( यह लेख आज के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है )

उम्मीदों का शहर- फ़रीदाबाद

 दिल्ली आकर रहने वाले लोग फ़रीदाबाद से वाक़िफ़ हैं । मगर उस फ़रीदाबाद से नहीं जिसे आज़ाद हिन्दुस्तान के सपने जैसा बनाने का प्रयास किया गया था जो कामयाबी की कई मंज़िलों को पार करता हुआ हार गया । श्रीनिवासन जैन हमारे वरिष्ठ सहयोगी हैं । इन्हीं के पिताजी दिवंगत एल सी जैन विभाजन से विस्थापित हुए लोगों से एक शहर बसाने के श्रम से जुड़े थे । बेटे ने अपने पिता के संस्मरण को कलमबद्ध किया है । इस किताब का नाम है CIVIL DISOBEDIENCE - two freedom struggles one life . यह किताब 2010 में आई थी । तब शायद इसी ब्लाग पर थोड़ा सा लिखा था । आज फिर पढ़ा और लिखने का मन किया । हो सके तो the book review literary trust से छपी इस किताब को पढ़ियेगा ।

एल सी जैन छत्तरपुर में पुनर्वास कालोनी को बसाने में लगे थे तभी नेहरू के कहने पर फ़रीदाबाद आकर रह रहे शरणार्थियों लिए काम करने आ गए । उत्तर पश्चिम प्रांत के खुदाई ख़िदमतगारों के गांधी और आज़ादी की लड़ाई से गहरे रिश्ते के कारण नेहरू ने कहा था कि हम अन्य शरणार्थी शिविरों की तुलना में फ़रीदाबाद पर ज़्यादा ध्यान देंगे । इसके लिए फ़रीदाबाद विकास बोर्ड का गठन किया गया जिसके चेयरमैन देशरत्न डा राजेंद्र प्रसाद थे । तब वे राष्ट्रपति नहीं बने थे । इस तरह से शुरू होती है कोई अठारह हज़ार हिन्दू पठानों को बसाने, उन्हें काम देने और उनके बच्चों को तालीम देने की अमर कहानी ।

नेहरू ने इसे इतना महत्व दिया कि 1949 से जुलाई 1952 के बीच हुई बोर्ड की इक्कीस बैठकों में से बीस में हिस्सा लिया । कई तरह की योजनाओं बनीं । अंत में तय हुआ कि पाँच हज़ार स्थायी और पक्के मकान बनाकर देने हैं और यह सब कुछ रिफ्यूजी ही करेंगे । इसी में काम करेंगे और काम के बदले अनाज और मज़दूरी पायेंगे ! शरणार्थियों पेशेवर लोग थे । दुकानदार और व्यापारी थे । राजमिस्त्री आती नहीं थी । यह एक बड़ी चुनौती थी । उन्हें इस संवेदनशीलता के साथ श्रम में लगाया गया कि वे इमारती मज़दूर, बढ़ई, सफ़ेदी करने वाले मज़दूरों में बदलते गए बिना सम्मान से समझौता किये । 


सबसे पहले एक गवर्निंग काउंसिल बना जिसके सदस्यों का चुनाव भारत में आम चुनाव से पहले ही व्यस्क मताधिकार से किया गया । शरणार्थी पठानों में से ही अठारह साल से ऊपर के लड़के लड़कियों आदमी और औरतों ने वोट किया । मिट्टी तेल के कनस्तर को बैलेट बाक्स बनाया गया । कोई फ़्री राशन कमेटी का प्रधान बना तो कोई गृह निर्माण कमेटी का । दो दिनों के भीतर बिना किसी भ्रष्टाचार के पाँच हज़ार लोगों में प्लाट बाँट दिये गए । रूड़की,खड़गपुर और बंगलौर से पाँच इंजीनियर लाये  गए । इन्हें कहा गया कि शरणार्थियों ने कभी मज़दूरी नहीं की है इसलिए ज़रा ध्यान से । पाँच इंजीनियर पाँच हज़ार घर नहीं बना सकते थे और शरणार्थियों को काम बदले रोज़गार देना था इसलिए माडल के तौर पर कुछ घर बनाए गए । लोग सीखते गए और घर तय समय से पहले बन गया । पहली बार मज़दूर बने इन लोगों ने योजना के अनुसार घर बनाकर दिखा दिया । जल्दी बन तो गया मगर वे फिर से बेरोज़गार हो गए । हर परिवार का एक सदस्य अपने बन रहे घर की निगरानी करता था तो उसी परिवार का दूसरा सदस्य किसी और के मकान में मज़दूरी । 

कहानी इतनी दिलचस्प और उम्मीदों से भर देने वाली है कि जी करता है कि सारा डिटेल लिख दूँ पर यह किताब से नाइंसाफ़ी होगी । फ़रीदाबाद के बसने की कहानी के कई पात्र भी है । एक मंत्री है जो अपने रिश्तेदार को जेनरेटर का ठेका देना चाहते थे, एक 
अफ़सर का तंग आकर अमरीका चले जाना , एक अफ़सर का इस सपने को साकार करने वालों को अपमानित करना, नेहरू को उन्हें बुलाकर तथ्यों को सामने रखना, आधी रात को नेहरू का नोट लिखना, फिर उसी नेहरू का एक दिन थक हार जाना । बहुत कुछ एक सपने के जैसा । 

हम इस देश पर बहुत कोफ़्त करते हैं । फ़रीदाबाद की कहानी को पढ़ियेगा । आप एक अच्छा हिन्दुस्तान बनाने घर से निकल पड़ेंगे । 

मिलेनियम मैन राबर्ट वाड्रा

ला सिटी लाइफ़ स्टाइल पत्रिका है । डेढ़ सौ रुपये की । इसके सितंबर अक्तूबर अंक के कवर पर राबर्ट वाड्रा की तस्वीर है । भीतर भी कई तस्वीरें हैं । ख़ूबसूरत और फ़िट । खुद फिट नहीं हूं मगर कोई फिटनेस की बात करता है तो ठीक लगता है । आडवाणी ने अपने तरीके से फिटनेस का प्रदर्शन किया लेकिन आज कल कई सांसदों की फिटनेस हैरान करती है । खैर इस पत्रिका में वाड्रा का इंटरव्यू भी है और जीवन के प्रति नज़रिया भी । यहाँ इसलिए दे रहा हूँ कि ताकि आप समझ सकें एक व्यक्ति कितने नज़रियों के बीच रहता है । कुलीन क्लास के लिए वाड्रा कुछ और हैं और पोलिटिकल क्लास के लिए कुछ और । हमारे आपके लिए कुछ और । बाकी आप भी पढ़ियेगा ( प्रचार न समझें ) । ऐसी बात नहीं है कि वे इंटरव्यू नहीं देते ! कानूनी और राजनीतिक बातों के अलावा यह इंटरव्यू वाड्रा के जीवन में झाँकने का अच्छा मौक़ा है । हैंडसम बंदा है ! इंटरव्यू का डिटेल नहीं दिया वर्ना यह पत्रिका के साथ बेईमानी होती । पढ़ना है तो उन्हीं की साइट या कापी से पढ़ें । जब राबर्ट को चिट्ठी लिखूँगा तब ज़रूर इसका इस्तमाल करूँगा । 

जनरल वी के सिंह- यक रहैन ईर यक रहैन वीर

आदरणीय पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह जी, 

जैसा कि आप जानते हैं मैं बड़े लोगों को चिट्ठियाँ लिखता हूँ । दो दिनों से बोख़ार के कारण बेचैन मन के लिए समय व्यतीत करने का अच्छा तरीक़ा भी है । आप जानते ही हैं कि जब से पत्रकारिता शोरगुल वाली हो गई और दर्शक तू तू मैं मैं की चौपाल में टीवी से लेकर ट्वीटर तक पर मज़ा ले रहे हैं मैं घर पर समाचार माध्यमों से दूर रहता हूँ । आज जब इंडियन एक्सप्रेस में आपके बारे में ख़बरें पढ़ीं तो मैं गूगल करने लगा । कहाँ से शुरू करूँ । लिख रहा हूँ स्नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें समझाने को, खत पढ़कर चल मत आना हमीं को उल्टा समझाने को ! 

" भारत के सैनिक से ज़्यादा बहादुर, संवेदनशील,सहनशील सैनिक दुनिया में नहीं हैं " 

आप अपने राज्य हरियाणा के रेवाड़ी में भूतपूर्व सैनिकों की रैली में बोल रहे थे । राजनीति में सेना से कोई आता है तो अनुशासन और ईमानदारी की दिव्य छवि लेकर आता है । अपने तमाम सहयोगियों के महाभ्रष्टाचार का बचाव करने वाली पार्टियाँ आप लोगों को मेडल की तरह सजा कर दिखाती हैं ताकि लगे न कि राजनीति में सब चोर डाकू ही हैं । आप बोले जा रहे थे-

" आज जब देश की हालत अस्त व्यस्त है । आज जब देश एक मुश्किल दौर से गुज़र रहा है तो भूतपूर्व सैनिकों और सैनिकों आपकी बहुत ज़रूरत है क्योंकि कहीं पर कोई कमी होती है तो सेना को बुलाया जाता है । आज अगर निर्माण का काम करना है , परिवर्तन का काम करना है तो इसमें आपकी भूमिका है "

भूतपूर्व सैनिकों का आह्वान तो ठीक है मगर सैनिकों का ? परिवर्तन और निर्माण क्या है सर? सेना का आह्वान कर रहे हैं ? सैनिकों को बुला रहे हैं तो रेजीमेंटों में नेताओं के तंबू लगवा दीजिये न वोट माँगने की रैली वहाँ भी हो ही जाए । सिर्फ इसलिए कि आप ईमानदार है और सेनाध्यक्ष पद से रिटायर हुए हैं तो एक राजनैतिक मंच से सैनिकों का आह्वान कर सकते हैं । आप फिर बोल रहे है उसी रैली में -


" देश की सुरक्षा नीतियों को देखकर अफ़सोस होता है । हमारी नीतियाँ ठीक नहीं हैं । पड़ोसी देश हमारी सीमाओं का उल्लंघन करते हैं, पश्चिम, उत्तर और पूरब की सीमाओं का उल्लंघन करते हैं । बेखौफ और बेखटके । इसलिए कि हमारी नीतियां ठीक नहीं हैं । इसलिए नहीं कि हम कमज़ोर हैं । क्या आप कमज़ोर हैं ? नहीं न तो जो कमज़ोर नीतियाँ बनाते हैं उन्हें बदलने की ज़रूरत है । "

मैं सर गूगल कर रहा था । जनवरी २०११ का आपका बयान है लद्दाख में चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा के अतिक्रमण का ( सोर्स- newindianexpress.com और news.oneindia.com) । आप इस खबर का खंडन कर रहे हैं और बता रहे हैं कि यह अतिक्रमण नहीं बल्कि धारणाओं का मामला है । यानी आपके समय मे भी ऐसी बेसिर पैर की बातें होती थीं और आप खंडन करते थे । वर्ना आप कमज़ोर नीतियों के ख़िलाफ़ इस्तीफ़ा न दे देते । जब आप उम्र के सवाल पर सरकार को अदालत में खींच सकते हैं तो चीनी अतिक्रमण का विरोध तो कर ही सकते थे ।  अदालत वाली बात से पहले यह समझना चाहता हूँ कि आप बीजेपी के मंच पर क्यों होते हैं और बीजेपी के नेता आपके मंच पर क्यों ? बीजेपी आपका बचाव क्यों करने लगती है ? आपने अन्ना वाले मंच का क्या किया जिस पर आप रिटायर होते ही गए थे ।

( indiatoday.com, timesofindia.com, 02/02/2013, Day and Night news.com 20.9.2013) गूगल ने इस साइट से आपका एक बयान निकाल कर दिया है मुझे । जो अनुवाद के साथ इस प्रकार है-

" एक कमांडर के नाते मुशर्रफ का कारगिल युद्ध से पहले भारतीय सीमा में ग्यारह किमी अंदर आने के साहस की तारीफ करता हूँ । "

आप दुश्मन की करनी को साहस बताते हैं, कोई रोक सकता है आपको, आप सेनाध्यक्ष हैं न सर । खैर आगे जो कहते हैं अगर उसे नरेंद्र मोदी जी ने सुन लिया या संघ ने तो देख लिया तो हमको मत कहियेगा ।

 " कारगिल के दौरान भारतीय पक्ष से ग़लतियाँ हुईं थीं जिससे पाकिस्तानी सेना को हमारी सेना में आने का मौका मिला । हमें मुशर्रफ को बच कर जाने नहीं देना चाहिए था " 

आप कारगिल युद्ध को भारतीय नीतियों( या एनडीए सरकार की ? ) की ग़लती मानते हैं तो आपने उस वक्त कमज़ोर नीतियाँ बनाने वालों को बदलने का आह्वान किया था ? नीतिसेंट्रल की साइट पर खबर छपी है कि आप रायबरेली से सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ टिकट मांग रहे हैं । ( बीजेपी ने अपने कार्यकर्ताओं को जो बुकलेट दिया है उसमें दिया है कि किन वेबसाइट का अनुसरण करना है । इनमें नीतिसेंट्रल भी एक है )   

जनरल साहब बीजेपी में आपकी सेटिंग आडवाणी से भी बेहतर है । जिन्ना को अच्छा क्या बताया बेचारे को निपटा ही दिया गया । आप मुशर्रफ की तारीफ़ कर मोदी जी के साथ रैली करते हैं । उस मोदी जी के साथ जो गुजरात की चुनावी रैलियों में मियाँ मुशर्रफ पुकारा करते थे । संदर्भ बता दूँ या रहने दूँ सर ।  मोदी जी प्र म पद के उम्मीदवार बनकर पहली बार आपकी रैली में रेवाड़ी आते हैं । अभी आप बीजेपी में थोड़े न शामिल हुए हैं । तब ई हाल है । बीजेपी मरी जा रही है आपका बचाव करने में । कुछ तो बात है । जिन्ना सेकुलर और मुशर्रफ साहसिक । कहीं तब के सेनाध्यक्ष मलिक साहब पर तो टिप्पणी नहीं है ये । वाजपेयी जी की सरकार पर तो आप कर नहीं सकते न ! 

बीजेपी तो तब भी आपका पक्ष ले रही थी जब आप उम्र के सवाल पर सरकार से लड़ते हुए सुप्रीम कोर्ट चले गए । वहाँ जब सोलििटर जनरल आर एफ नरीमन ने वे सारे दस्तावेज़ दिखा दिए कि आपने कब कब दस मई १९५० का जन्मदिन मानने की बात कही है तो आपके पास बचाव में कुछ नहीं था । उससे पहले तक  आप भी सूत्रों से ऐसी ख़बरें लीक कर रहे थे । आप केस हार गए और पद पर भी बने रहे । इस्तीफ़ा नहीं दिया । मैं नहीं कह रहा कि आप ईमानदार नहीं है । बल्कि सेना मे आपकी यही कमाई है । लेकिन इतिहास यह भी है कि राजनीति में कई लोगों ने इस कमाई को भुनाया भी है । 

इस बीच आपने भी आरोप लगाया कि टेट्रा ट्रक के लिए किसी लेफ्टिनेंट जनरल ने आपको १४ करोड़ की पेशकश की थी । क्या सबूत दिया आपने, नाम लिया कि नहीं और सरकारी जाँच किस स्तर पर है ये सब बाद में गूगल कर यहाँ अपडेट कर दूँगा सर । वो मेजर वाला क़िस्सा भी जो वर्दी में आपके घर दिन के वक्त जासूसी उपकरण लगाने आया था ! कुछ तो चल रहा है आपके सरकार और बीजेपी के बीच ! खंडूड़ी साहब भी सेना से आए थे । ईमानदार और बढ़िया आदमी । निशंक जैसे घोटाले के आरोपी ने उन्हें चुनावी मैदान में हरवा दिया । ख़ैर । कांग्रेस में भी सही सब होता है । 


आज इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी कि आपने कोई सीक्रेट एजेंसी बनाई थी ( नहीं मालूम कि यह सेनाध्यक्ष ऐसा यूनिट बनाते हैं का) जो जम्मू कश्मीर में तख्तापलट पलट का प्रयास कर रही थी । अफ़सरों ने गवाही दी है मगर सबूत मिलने के आसार कम हैं क्योंकि रितु सरीन लिखती हैं कि सबूत मिटा दिये गए होंगे । आपने एनजीओ बनवाया । क्या क्या न किया । यह भी जानता हूँ कि सत्य तो सामने आएगा नहीं हम तो बस इधर उधर की दलीलें ही करते रह जायेंगे । 

तो बीजेपी की प्रवक्ता निर्मला सीतारमण ने कहा कि सवाल समय का है । राजनीति का यक्ष प्रश्न है समय । निर्मला पूछती हैं कि  रिपोर्ट मार्च में तैयार थी तो अभी क्यों लीक किया । मोदी जी के साथ दिखने के बाद । जो मोदी जी के साथ दिखेगा और राजनीति करेगा तो निर्मला जी सरकार भी तो राजनीति करेगी न । जनरल साहब राजनीति करें तो ठीक और सरकार करें तो बड़ी बेवकूफ ।  अरे भाई सारा सवाल टाइम को लेकर ही कीजियेगा या जो रिपोर्ट में सवाल किया गया है उस पर भी कुछ बोलियेगा । यह रिपोर्ट सरकार ने बनाई है या सेना के डीजी मिलिट्री आपरेशन ने ? निर्मला जी आपको सेना पर विश्वास नहीं है ? मोदी जी की विश्वसनीयता इतनी असंदिग्ध कब से हो गई कि आपको जनरल साहब उन्हीं के कारण फँसाया जा रहा है । आपकी वजह से क्या लेफ़्टिनेंट जनरल भाटिया पर संदेह करें कि वे सरकार के हाथ खेल रहे हैं या सेना में ईमानदारी आपके बाद समाप्त हो चुकी है । मैं तो पूछ रहा हूँ । मेरी मजबूरी है कि सरकार पर भी शत प्रतिशत भरोसा नहीं कर सकता लेकिन शक सिर्फ सरकार पर ही तो नहीं कर सकता न । निर्मला कहती हैं कि सेना का मनंोबल नहीं गिरना चाहिए । हद है । क्या रिपोर्ट बनाने वाले लेफ़्टिनेंट जनरल भाटिया सेना नहीं है क्या । क्या तब सेना का मनोबल नहीं गिरेगा जब उसके अफ़सर की जाँच रिपोर्ट पर बीजेपी इसलिए शक करे क्योंकि जिसके ख़िलाफ़ रिपोर्ट है वो अब पार्टी के साथ है । निर्मला जी अगर सरकार जनरल साब को बीजेपी के कारण टारगेट कर रही है तो आप भी तो उनका बचाव इसीलिए कर रही हैं कि वे आपके साथ हैं ।  गंगाजल की तरह ऐसी पवित्र राजनीति हमने देखी नहीं मैम । 

इस बीच किरण बेदी जी का भी ट्विट आया है कि सरकार जनरल वी के सिंह से सोच समझ कर व्यवहार करे क्योंकि सेना के लाखों जवानों की उन पर नज़र है । वे उनकी आवाज़ भी हैं । क्या बात है जनरल साहब । बेदी जी ने यह भी कहा कि सीक्रेट सर्विस फ़ंड की कोई ज़रूरत नहीं है । जब तक शिखर का सामूहिक नेतृत्व इस पर फैसला न करे । कहीं बेदी जी आप पर शक तो नहीं कर रही हैं ? या आपको बचाने के लिए नया सुझाव दे रही  हैं ! और ये क्या बेदी जी । आपके क़ानून में तो सब बराबर हैं फिर ये लाखों सैनिकों की नज़र वाली बात के क्या मायने हैं ? भड़का रही हैं ?  ठीक है जनरल साहब को चिट्ठी लिख रहा हूँ मगर वे आपको भी तो फार्वर्ड कर ही सकते हैं न । 

खै़र सरकार की तरफ़ से खबर आ रही है कि वो सीबीआई जाँच के लिए नहीं कहेगी । सीक्रेट फ़ंड और सैन्य ख़ुफ़िया का मामला है पता नहीं क्या क्या  
सामने आ जाए । जम्मू कश्मीर के उस मंत्री ने भी खंडन कर दिया है कि आपने उसे पैसे दिये थे राज्य सरकार गिराने को । लेकिन अन्ना जी जो एक सिपाही थे वे अपनी सेना के जनरल से नाराज़ हो गए हैं । उन्होंने कहा है कि अगर जनरल साहब मोदी के साथ गए तो देश का यह सच्चा सिपाही उनसे रिश्ता तोड़ लेगा ( बात सही है थोड़ी नमक मिर्च लगा दी है मैंने जैसे सच्चा सिपाही वाली बात ) 

अंत भला तो सब भला । आप राजनीति कर रहे हैं । ईश्वर करें आप सफल हों और वो दृश्य भी देख सकूँ कि आपके आह्वान पर सैनिक नीतियाँ बनाने वालों को बदलने निकल पड़ें ! ठीक सर । 

आपका ग़ैर सैनिक देशभक्त

रवीश कुमार' एंकर' 

अनंतमूर्ति का भारत

आदरणीय यू आर अनंतमूर्ति जी,

आप जानते हैं कि जब से टीवी में करने के लिए कोई काम नहीं रह गया है मैं ब्लाग पर बड़े बड़े लोगों को चिट्ठियाँ लिखते रहता हूँ । कई लोग कहते हैं कि मैं एक साधारण एंकर हूँ और मैं भी उसी तरह का कूड़ा उत्पादित करता हूँ जिस तरह का अंग्रेजी के बड़े एंकर करते हैं और अपनी बेहयाई का नित्य प्रदर्शन करते रहते हैं । टीवी की अंग्रेजी पत्रकारिता और हिन्दी पत्रकारिता दोनों के गटर छाप होने के इस दौर में हिन्दी को लेकर मेरी हीन भावना समाप्त हो गई है । बराबरी के दौर में एक ही हीन भावना बची है ।

आपने कहा है कि नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधानमंत्री बनने पर आप देश छोड़ कर जाने वाले हैं । वाउ ! हाउ क्यूट न ! मेरी हीन भावना ये है कि मुझे विदेशों में रहने का एतना शौक़ है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमत्री बनने से पहले ही और वो भी आज ही भारत छोड़ दूँ । मुझे नहीं मालूम कि आपका पहले से किसी देश में मकान-वकान है या लेने वाले हैं अगर हाँ तो एक जुगाड़ मेरे लिए भी कर दीजियेगा । 

दरअसल आपने जो यह बात कही है वो निहायत ही ग़ैर लोकतांत्रिक बात है । फासीवादी उद्घोषणा है । आपकी बात से ऐसा लगता है कि अगर यहाँ की जनता आपको भारत में रखना चाहती है तो नरेंद्र मोदी को न चुने । इस तरह की बात करने का मतलब यही है कि नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ आपके पास कोई तार्किक दलील नहीं बची है । इस तरह की बातों को हम ग़ैर साहित्यिक ज़ुबान में थेथरई कहते हैं । आपके पास मोदी के ख़िलाफ़ कोई दलील है तो पब्लिक में जाइये । मोदी के ख़िलाफ़ लड़िये । लड़ाई को लोकतांत्रिक बनाइये । फासीवाद का मुक़ाबला फासीवाद से होगा या लोकतंत्र से । रोज़ दस लोगों को समझाइये कि फासीवाद क्या होता है, क्यों ख़तरनाक होता है । लोग नहीं समझते तो उनकी क्या ग़लती है । अब वो तो साहित्य अकादमी वाले नहीं हैं न जी । आपका यह बयान नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ होता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती लेकिन आपने भारत की जनता को लानत भेज कर ठीक नहीं किया है । 

गुजरात में ३९ फ़ीसदी जनता नरेंद्र मोदी को वोट नहीं करती है लेकिन क्या उनके पास भारत छोड़ने के विकल्प हैं । ३९ फीसदी लोग तीन चुनावों से मोदी के ख़िलाफ़ वोट दे रहे हैं । इस बार उन्हें एक मामूली कामयाबी मिली । ३८ फ़ीसदी से बढ़कर ३९ फ़ीसदी हो गए । मोदी को दो तिहाई बहुमत तो नहीं ही मिली उनके खाते की दो सीटें भी कम हो गईं । यह बहुत ही मामूली कामयाबी है । इसका मतलब यह नहीं कि वे गुजरात या भारत छोड़ कर चले जाएँ । ग़नीमत है इन ३९ फ़ीसदी लोगों में से कोई अनंतमूर्ति नहीं है वर्ना हवाई अड्डों पर भसड़ मच जाती । गुजराती वैसे ही विदेश चले जाते हैं मगर इस कारण से पलायन करते तो भी क्या मोदी का कुछ बिगाड़ लेते । आप उन ३९फीसदी लोगों के धीरज की कल्पना कीजिये । तीन बार से हार रहे हैं फिर भी मोदी के पक्ष में गुजरात को शत प्रतिशत नहीं होने दिया । आपने उनका अपमान किया है । 

मैंने आपको नहीं पढ़ा है क्योंकि मेरे लिए पढ़ने का मतलब नौकरी प्राप्त करना था और वो हो जाने के बाद मैंने लोड लेकर पढ़ना बंद कर दिया । आप शायद मेरे कोर्स में नहीं रहे होंगे । पर सुना बहुत है कि आप कमाल के रचनाकार हैं । होंगे ही । इसीलिए इस बयान को बदलिये, लोगों के बीच काम कीजिये और लोकतांत्रिक तरीके से मोदी के विरोध का साहस दिखाइये । भारत में नहीं रहेंगे ! आपके ऐसे बयान से मोदी को मज़बूती ही  मिली है । मैं यह पत्र मोदी के समर्थन में नहीं लिख रहा हूँ । आप जैसे महान परंतु किन्हीं कारणवश बचकानी हरकतों में संलग्न हो जाने के ख़िलाफ़ लिख रहा हूँ ।  अपनी दलीलों में भरोसा है तो यहीं रहिये । लड़िये और हारने के बाद भी लड़ते रहिए । हम आपका सम्मान करेंगे । हार के डर से लड़ने वालों को पहले ही भागने का रास्ता मत दिखाइये । मोदी का जीत जाना कत्तई महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण और दुर्भाग्यपूर्ण है प्रतिरोध करने वालों के पलायन का एलान करना । आपने मोदी के ख़िलाफ़ मतदान करने वाले करोड़ों लोगों का अपमान किया है । आप मोदी का विरोध कीजिये । कहिये कि मैं पूरा प्रयास करूँगा । सबको मिलकर लड़ना है । जितना बन सकता है उतना ही कीजिये । ये क्या कि भारत छोड़ दूँगा और वो भी अकेले अकेले ! 


अगर आप मेरे लिए भी विदेशों में फ़्लैट देख सकें तो चलूँगा । क्योंकि मैं विदेशी बनना चाहता हूँ । टाइम मिलते ही आपको पढ़ता हूँ सर । 

आपका ग़ैर पाठक
रवीश कुमार ' एंकर' 

( कई लोगों को आपत्ति है कि मेरी भाषा ख़राब है । शायद शीर्षक में सनकमूर्ति लिखने की वजह से । मुझे भी लग रहा है इसलिए संशोधन कर रहा हूँ मगर लेख में जिस तरह से लिखा है उसकी भाषा ठीक है । दिक्क्त है कि लोग इसे साहित्यकार के प्रति अपनी निष्ठा और मोदी के प्रति आस्था के चश्मे से देख रहे हैं । जो भी हो अगर भाषा का व्यवहार मुझे टूटा है तो ठीक नहीं है । मैं सनकमूर्ति हटा रहा हूँ । बाकी मेरे हिसाब से मेरी दलील ठीक है । वैसे मैं लेख प्रकाशित होने के कुछ दिनों तक बदलाव करता रहता हूँ । शब्दों को हटाता रहता हूँ, वाक्यों को सीधा करता रहता हूँ । )

लाइन आॅफ कंट्रोल

आज दिल्ली के एक अस्पताल में जाना हुआ । काॅफी डे के काउंटर के सामने थकान मिटाने के लिए बैठा ही था कि लाइन आफ़ कंट्रोल की इस बेहतरीन उपयोगिता पर दिल आ गया । हम घर समाज में भी पाकिस्तानों के बीच बँटे हुए रहते हैं न ! बर्तन माँजने के लिए । 

रामदेव हैं जहाँ तंदुरूस्ती है वहाँ...रामदेव

रामदेव के कंपनी आश्रम के कुछ उत्पादों का मैंने सेवन किया है । अच्छा ही अनुभव रहा है ।  इस स्वीकृति के साथ आज जब 'स्वामी रामदेव मीडिया' नाम के ईमेल से यह सूचना आई तो कुछ लिखने का मन किया । रामदेवीय आध्यात्मिक उद्योग जगत का यह मिनरल वाटर ' दिव्य जल' कहलाएगा । रामदेव ने आर ओ टेक्नालजी को स्वदेशी बताते हुए अन्य मिनरल वाटर को विदेशी बता दिया है । कह रहे हैं कि विदेशी उत्पादों का बहिष्कार करें । स्वामी जी किसी चीज़ का उत्पादन कर रहे हैं वह अपने आप स्वदेशी हो जाती है । ' आर ओ' टेक्नालजी किस ग्रामोद्योग की देन है ? अगर गाँवों के जल संसाधनों को बचाना है तो इसका यह तरीक़ा तो नहीं हो सकता न जी । मिनरल वाटर तो धंधा है बाबा, ग्रामोद्योग कब से हो गया । बाबा नाम केवलम । जो कह दिया सो कह दिया । 

इस प्रेस रीलीज़ में यह भी लिखा है कि बाबा चुनाव तक हरिद्वार के अपने योग पीठ में नहीं लौटेंगे । स्वामी जी कांग्रेस को हरा कर ही दम लेंगे लेकिन साथ में दिव्य जल का कारोबार भी चल निकले तो क्या हर्ज । गली गली मे लोग पानी का कारोबार कर रहे है उम्मीद है स्वामी जी उन्हें भी स्वदेशी में गिनते होंगे । स्वामी रामदेव को इसके ज़रिये स्वावलंबन ही लाना था तो आर ओ प्लांट की मशीनें बीस पचीस नौजवान ग़रीबों को दान कर देते ताकि वे स्वावलंबी हो सकें । रामदेव ने तो स्वदेशी ग्रामोद्योग और स्वावलंबन की पूरी अवधारणा ही बदल दी है । बदली नहीं बल्कि ये दूसरे के माल को अपना बताने की आज़माई हुई चतुराई है । उन्हें लगता है कि लोग तो कुछ समझेंगे नहीं । मिनरल वाटर ज़रूर बेचिये मगर इसे ग्रामोद्योग और स्वावलंबन तो मत कहिये । प्लांट आपका, प्लांट का प्लाट आपका और उत्पाद भी आपका तो स्वावलंबन कैसे हुआ स्वामी जी । अब योग गुरु के साथ बिसलेरी बाबा भी कहलाने लगेंगे ! मुझे बाबा से पंगा नहीं लेना है, कपालभाती करनी है भाई । बस इतना ही । 




सांप्रदायिकता एक सवर्ण मानसिकता है

सांप्रदायिकता एक मानसिकता है जिसमें रहने वाले लोग दूसरी तरफ़ की कमियों को नाजायज़ मानते हैं और अपनी तरफ़ की कमियों को जायज़ । सांप्रदायिकता हमेशा समूह में होने का अहसास कराती है । सत्ताखोर और रक्तपिपासु लोग राष्ट्रवाद की आड़ में मज़हबी राजनीति करते हैं और दूसरे तरफ़ को तुष्टीकरण कहते हैं । सांप्रदायिकता का घर एक होता है मगर उसके आँगन दो होते हैं । गोतिया युद्ध की तरह एक दूसरे का ख़ून पीते हैं और गिरती बूँदों को गिनते हैं । आपकी मानसिकता साम्प्रदायिक है तो आप उसका बचाव अंत अंत तक करते हैं । इस बचाव का सबसे सशक्त ढाल है दूसरी तरफ़ की ग़लतियाँ, कमियाँ और नाकामियां ।

सांप्रदायिकता एक सवर्ण मानसिकता भी है । सवर्ण समाज और सवर्ण मानसिकता इसकी वाहक होती है । क्योंकि उसका अस्तित्व धर्म से जुड़ा होता है । इसके शिकार होने वाले ज़्यादातर गैर सवर्ण रहे हैं । इसलिए गैर सवर्णों पर ख़ासकर दलितों या पिछड़ों पर वर्चस्व क़ायम करने की यह अचूक रणनीति है । यह धर्म को एक करने की ताक़त के विचार का प्रदर्शन करती है । इसकी बुनियाद सामने वाले के धर्म के नाम पर नहीं बल्कि अपने धर्म के भीतर भी समुदायों को बाँटकर बनाई हुई गोलबंदी पर टिकीहोती है । आप सांप्रदायिक है इसका प्रमाण समाजवादी या कांग्रेस में नहीं है बल्कि यह है कि आपको हिंसा की इन बातें पर कोई अफ़सोस नहीं होता । आप इन कारणों का इस्तमाल कर सांप्रदायिकता का बचाव कर रहे होते हैं । उसने ऐसा किया, उनके लोगों ने किया टाइप । 


जिस राष्ट्रवाद की समझ किसी धर्म पर आधारित हो उसका बेड़ाग़र्क होना तय है । हमने इसका एक प्रमाण देख लिया है इसके बावजूद कुछ लोग राष्ट्रवाद को धर्म से परिभाषित करते हैं । उसमें यानी जो जो हो चुका है और इसमें जो होना चाहता है कोई फ़र्क नहीं है । धर्म के आधार पर राष्ट्रवाद विभाजन की उस प्रक्रिया को अपनी सीमा में जारी रखता है जो १९४७ से शुरू हुआ था । राष्ट्रवाद एक समस्याग्रस्त और कृत्रिम अवधारणा है । इसे दुनिया भर के साहसिक सैनिकों के बलिदान की गाथाओं की चासनी में गढ़ा जाता रहा है । राज्य विस्तार की क्रूर आकांक्षाओं ने इसे रचा और बाद में आर्थिक संसाधनों के लिए होड़ करता हुआ ठोस रूप पाया । अब यही राष्ट्रवाद धंधे के लिए सीमाओं को ख़ारिज कर ग्लोब को गाँव कहता है । हम खुद को ग्लोबल नागरिक ! 

भारत जैसे धर्म बहुल एक देश में राष्ट्रवाद को सिर्फ एक धर्म से चिन्हित करना सवर्णों के वर्चस्व प्राप्ति की लालसा से ज़्यादा कुछ नहीं । यह धार्मिक प्रतिस्पर्धा का चयन करता है और उसके भय के नाम पर बाक़ी धर्मों को अपनी पहचान में शामिल करने के लिए प्रचार तंत्रों का सहारा लेता है । जिन सैनिकों ने बलिदान दिया उन्होंने किसी धार्मिक राष्ट्रवाद के लिए नहीं दिया । उस भारत के लिए दिया जो भारत है न कि जिसका राष्ट्रवाद धार्मिक है । एक चतुर रणनीति के तहत सांप्रदायिक मानसिकता धार्मिक राष्ट्रवाद का सहारा लेती है । यह बहस की हर संभावना को समाप्त कर हिंसक तरीके से अपनी सोच थोपेगी । आप सांप्रदायिक हैं तो आपको ये बातें अच्छी लगेंगी । कोई सांप्रदायिक और धार्मिक राष्ट्रवादी जुनून की बात करे तो उसकी जात पर ध्यान दीजियेगा । ज़्यादातर सवर्ण मिलेंगे । वे सवर्ण जो धार्मिक बहुलता को समाप्त कर अपना खोया हुआ ऐतिहासिक वर्चस्व पाना चाहते हैं जो आज की राजनीति उन्हें नहीं दे पाती है । इस सोच के दायरे में बाक़ी जातियाँ भी मिलेंगी लेकिन नेतृत्व सवर्ण का होगा । ये बाकी जातियाँ  सांप्रदायिकता से पैदा किये जाने वाले राजनीतिक अवसरों में छोटी हिस्सेदारी की ताक में होती हैं । यही प्रवृत्ति आप प्रतिस्पर्धी धार्मिक सांप्रदायिकता में भी देखेंगे । वहाँ भी मरने वाले निचले तबके के लोग होते हैं । ऊपरी तबक़ा उनका रक्षक बनकर नेतृत्व हासिल करने का प्रयास करता है । सेकुलर सत्ता से लाभ प्राप्त करता है और व्यापक समाज को पिछड़ने के लिए छोड़ देता है ।

फिर कहता हूं सांप्रदायिकता एक मानसिकता होती है । उसके पास दूसरे पक्ष की ग़लतियों की जानकारी का अंबार होता है । अपनी कमी नहीं बतायेगा मगर दूसरे की कमी गिनेगा । राजनीति इस मानसिकता का लाभ उठाने के लिए इन ग़लतियों की पृष्ठभूमि तैयार करती है क्योंकि उसे लाभ मिलता है । कई राजनीतिक दलों ने इसका खूब फ़ायदा उठाया । सरकार को ऐसे भेदभाव करने की छूट दी जिससे सांप्रदायिक विमर्श की खुराक कम न हो । विरोधी पक्ष ने भी यही किया । जब तक सरकार और राजनीति धर्म निरपेक्ष नहीं होंगे सांप्रदायिकता ज़िंदा रहेगी । राजनीति चाहती है कि ज़िंदा रहे ताकि इन अंतरों को उभार कर वोट ले सके ।

यह सब हम जानते हैं । मूल बात है कि सांप्रदायिक लोग सामने वाले की मज़हब को बर्दाश्त नहीं करते । ख़ून के प्यासे होते हैं । अपनी कृत्रिम कुंठा को वीरगाथा के रूप में प्रदर्शित करने के लिए एक अभाववादी और पीड़ित मानसिकता का सहारा लेते हैं जिसकी बुनियाद झूठ पर टिकी होती है । कुछ बातें सही भी होती हैं । सवर्ण मानसिकता दूसरे के नागरिक अधिकारों को हमेशा तुष्टीकरण के रूप में देखती है । अपने धर्म के भीतर और दूसरे धर्म के भीतर भी । आप सांप्रदायिक हैं इसीलिए आपको ये बातें जँचती हैं न कि कोई छद्म सेकुलर है इससे । अपने भीतर की सांप्रदायिकता से लड़िये । पहले इस बीमारी को दूर कीजिए फिर सेकुलर नाम की राजनीति के बंदरबाँट के घावों को दूर कर लिया जाएगा । बल्कि ये सेकुलर घाव अपने आप सूख जायेंगे । हर धर्म में सांप्रदायिक तत्व होते हैं । हर धर्म में लोग इनसे लड़ते हैं । जैसे कभी दलितों और पिछड़ों ने मिलकर सांप्रदायिकता या धर्म आधारित राजनीतिक अवसरों को कुंद कर दिया था । अब धार्मिक राष्ट्रवाद की सांप्रदायिक सोच दलित पिछड़ों में से किसी को आगे कर अपनी व्यापकता प्राप्त करने का प्रयास कर रही है । पिछड़ी जाति के नेता इसके ध्वजवाहक हैं और नेतृत्व अभी भी सवर्णों के पास है ।

राष्ट्रवाद किसी धर्म की चादर में लिपट कर महान होता है या उसका अवसान । अगर राष्ट्रवाद अपने दम पर टिकने लायक नहीं है तो धर्म की आड़ में जल्दी ही निर्मल बाबा की दुकान बनने वाला है । बन चुका है । सोचियेगा । आसपास देखते रहियेगा । कौन दबा रहा है राजनीतिक असहमतियों को । सेकुलर होने में सौ समस्याएँ हैं क्योंकि यह एक तकलीफ़ देह और जटिल प्रक्रिया है । क्योंकि आप सेकुलर दलो को देखकर होना चाहते हैं , खुद को देखकर नहीं । सेकुलर दलों की सांप्रदायिकता भी कम खतरनाक नहीं है । तब भी क्या आप यह कहेंगे कि सांप्रदायिक होना गर्व की बात है क्योंकि सेकुलरों ने छला है । तभी कह रहा हूँ ऐसा आप इसलिए नहीं कहते कि सेकुलरों ने ठगा है बल्कि आप सांप्रदायिक हैं । अगर हैं तो !

सवालों के जवाब कहाँ हैं राहुल जी

आदरणीय राहुल गांधी जी,

मोदी की तरह आप भी इंडियन मीडिया को कम इंटरव्यू देते हैं । कम इसलिए लिखा कि आप दोनों बाइट देकर कट लेते हैं । विदेशी मीडिया को ज़रूर मोदी भाई का इंटरभू मिलता रहा है । आपका तो वो भी । खैर लिखने का मतलब यह नहीं कि आप दोनों के बीच संतुलन बनाऊँ । हिन्दी वाले को इंटरव्यू मिलने से रहा । अच्छी बात है कि मैं ऐसा कोई शो नहीं करता जिसके कारण आप दोनों को फ़ोन करते रहना पड़े । अगर मोदी और आपका इंटरभू मिला तो मैं शौक़ से जुड़े हल्के फुल्के सवाल ही पूछूँगा । 

पिछले हफ़्ते से आपका भाषण सुन रहा हूँ । आप पर आरोप लगा है कि आप नहीं बोलते हैं । मंच पर तो आप जो मन में आए वो बोल ही सकते हैं । आप मंच पर भी कम बोलते हैं । इस मामले में आप मोदी जी से 'लेसन लर्न' (सीख) कर सकते हैं । राजस्थान में दिये आपके दो भाषणों को सुनकर लगा कि आप कट रहे हैं । सवालों को टाल रहे हैं । आपको क्यों लगता है कि आप अपना बोल कर जायेंगे और पब्लिक सुनती रह जाएगी । जो पब्लिक सुनना चाहती है उसे कब बोलेंगे । 

राहुल जी आपका भाषण ज़मीन अधिग्रहण बिल और खाद्य सुरक्षा बिल के आस पास ही है । इन बातों को सुनकर कुछ बातें मेरे मन में भी उठीं हैं । जो मैं यहाँ रखने वाला हूँ । आपका भाषण औसत तो है ही बेजान भी लगता है । आप बेवजह सतर्क हो गए हो । मोदी को देखिये एक महीना पहले पाकिस्तान पर कुछ और एक महीना बाद कुछ । वो आप ही विपक्ष हैं और आप ही सत्ता । न आप सवाल करते हैं और न आपकी पार्टी का कोई । आप क्यों चिंता करते हैं । आप भी बोलिये न दायें बायें सायं । पहले बोलिये तो ताकि लोगों को पता चले । क्यों आपको लगता है कि इस चुनाव में बीजेपी को अमीरों के पास ठेल कर आप ग़रीबों का वोट जीत लेंगे । चलिये इस मामले में आपकी रणनीति साफ़ लगती है । यही कि आपने अमीरों या मध्यमवर्ग से वोट मिलने की उम्मीद छोड़ दी है । आप कहते हैं बीजेपी ( पार्टी का बीिा नाम लिये)  अमीरों की तरफ़दारी करती है । पूछती है पैसा कहाँ से आएगा । विपक्ष अमीरों के लिए यह सवाल नहीं करता ,तभी करता है जब ग़रीबों को कुछ मिलने वाला होता है । ऐसा लगता है कि आप सिर्फ ग्रामीण और ग़रीब वोटर को टारगेट कर रहे हैं । आप इस चुनाव को शहर बनाम गाँव और अमीर बनाम ग़रीब में बदलना चाहते हैं । ये चलेगा नहीं । 

समस्या इस बात से है कि आप कुछ कन्नी काट रहे हैं । आप राबर्ट वाड्रा मामले पर नहीं बोलते । यूपीए के भ्रष्टाचार पर नहीं बोलते । कोयला घोटाले की ग़ायब हुई फ़ाइलों पर नहीं बोलते । आप टू जी पर नहीं बोलते । पवन बंसल पर नहीं बोलते । अश्विनी कुमार पर नहीं बोलते । महँगाई पर चुप रहकर आप ठीक करते हैं क्योंकि कोई ठोस दलील नहीं है आपके पास । लोग वो नहीं सुनेंगे जो आप बोल रहे हैं । जो वो सुनना चाहते हैं अगर वो नहीं बोलेंगे तो क्यों सुनेंगे । 

नरेंद्र मोदी आपको इन्हीं सवालों से घेर रहे हैं । उनका बिना जवाब दिये किसी और मुद्दे पर जाने से आपकी अपील कम होगी । मेरे ख्याल में आपको इन सवालों के जवाब देने चाहिए । बताना चाहिए कि क्यों आप बीजेपी से अलग हैं । फेंकू के लोग आपको पप्पू कहते है तो आपके लोग भी उन्हें फेंकू कहते हैं । लेकिन आप जवाब नहीं देंगे तो हमें आपकी राय का अंदाज़ा कैसे होगा । भ्रष्टाचार पर अगर चुनाव हो रहा है तो इस पर बोलना ही चाहिए । कम से कम लोकपाल पर ही बोलिये । गुजरात और केंद्र में लोकपाल को लेकर सियासी घपले पर चर्चा तो हो । पर आपने तो नाम लेना बंद कर दिया है । मोदी आपकी पार्टी का नाम लेकर कांग्रेस मुक्त भारत का मुद्दा बना रहे हैं और आप बीजेपी का नाम लिये बग़ैर विपक्ष विपक्ष कह रहे हैं । 

आप इतना कम बोलेंगे तो आपकी चिट्टी में भी नमो का ही ज़िक्र होगा । हमें ऐसा लगता है िक आप नमो की कही बातों का जवाब देने में सहज नहीं है । आप राजस्थान में काफी सक्रिय लग रहे थे । मंच पर उत्साही भाषण दे रहे थे मगर पता नहीं क्यों खोखला लगा । मोदी आप पर सीधा हमला कर रहे हैं और आप दायें बायें से । मोदी पर चुप रहने की आपकी रणनीति गुजरात में तीन बार फेल हुई है । इसलिए अबकी बोल कर देख लीजिये न ! मोदी का बिना नाम लिये आप विपक्ष को अमीरों का पक्षधर बता रहे हैं । अमीरों या कारपोरेट का पक्षधर ? कारपोरेट का पोषण तो मनमोहन सिंह ने भी किया । आपकी पार्टी के कई मंत्री उसी कारपोरेट से प्रेरित हैं जो इन दिनों मोदी की तारीफ कर रहे हैं । कई बार लगता है कि कारपोरेट ने बीजेपी और कांग्रेस नाम से दो पार्टियां लांच कर रखी है । साफ़ साफ़ कहिये न भाई । आमने सामने फ़ाइट नहीं करेंगे तो आप टाइट कर दिये जायेंगे । 

यह चुनाव अमीरी और ग़रीबी पर नहीं हो रहा है । यह चुनाव हो रहा है भ्रष्टाचार और लाचार सरकार के ऊपर । शहरी मतदाता आपसे इन्हीं सवालों पर जवाब चाहता है । सांप्रदायिकता के सवाल पर भी आप सामने से नहीं लड़ रहे हैं । इसीलिए कहा कि या तो खुद बदल जाइये या भाषण लिखने वाले को बदल दीजिये । दम नहीं है बाॅस ! गाँव के लोग भी शहरों में आ जा रहे हैं । उनका संपर्क बेहतर हुआ है । गाँव के वोटर को यह मत समझिये कि उसे आपकी पार्टी की मनमोहन सरकार के कारनामे नहीं मालूम । गाँव के लोग भी मिज़ाज से शहरी हो गए हैं । मेरे गाँव में सब मैगी खा रहा है । केक काटने लगा है जबकि वहाँ बिजली नहीं है । 

राजनीति में जवाब देना पड़ता है । वोटर दोनों को सुनता है । आप काहे घबरा गए हैं । पहले स्कूल कालेज जाते थे वो भी छोड़ दिया । देखिये मोदी जी कैसे कालेजों में जाने लगे हैं । आपका आइडिया लेकर वो आगे निकल गए हैं । ऐसा प्रचार कर दिया है कि युवाओं से सिर्फ मोदी ही बात करते हैं । आप हैं कि फुड बिल और ज़मीन बिल से आगे जा ही नहीं रहे । भट्टा परसौल जाकर रैली कीजिये न ताकि वहाँ के लोग सुन सकें । दिग्विजय सिंह के सहारे आप मोदी से नहीं लड़ सकते । पहले लड़िये तो । हारने का अपना मज़ा है और जीत का एलान अभी बाक़ी है । मगर इतना ख़राब भाषण देंगे और विरोधी दल के सवालों का जवाब नहीं देंगे तो कैसे काम चलेगा । 

बाक़ी आप हैं और आपके पास मंच है माइक है बोलिये न जेतना बोलना है । मेरे ब्लाग पर आडवाणी वाली चिट्टी भी पढ़ लीजियेगा । आपने कई प्रखर प्रवक्ताओं की सूची बनवाई है । उनमें से कई नेता नहीं आते । ये युवा मंत्री आपके ही बचाव में नहीं आते । उन्हें चिंता इस बात की रहती है कि हिन्दी की बजाए अंग्रेजी चैनल पर बैठे । आप ग्रामीण वोटर टारगेट कर रहे और आपका नाम लेकर नेतागिरी करने वाले शहरी और अंग्रेजी को । बीजेपी में लोग टीवी और सोशल मीडिया पर आ कर,छा कर प्रधानमत्री के दावेदार तक बन जाते हैं और आपके यहाँ के लोगों को लगता है कि उनके कुछ बनने का चांसे नहीं है । उन्हें लगता है कि बेकार भाषण देने से अच्छा है चुप ही रहा जाए । यह भी ठीक है । 

आपका 
रवीश कुमार'एंकर' 

सुपर पावर एक नशा है जानेमन

हम सुपर पावर क्यों बनना चाहते हैं ? हमारे भीतर ये चाहत कहाँ से आ रही है  ? इसका कोई तो मनोवैज्ञानिक राजनीतिक, समाजिक और आर्थिक कारण होगा । अगर भारत सुपर पावर बन गया तो क्या होगा और नहीं बन पाया तो क्या होगा ? इन दिनों सुपर पावर एक नया ड्रीम है जो किसी पुराने माल की तरह मीरका और ब्रिटेन में इस्तमाल होकर इंडिया आया है । उनका ' यूज़्ड' माल हमारे यहाँ इम्पोर्टेड होकर काफी इज़्ज़त पाता है । एन आर आई की तरह । 

अक्सर मोहल्ले में हम किसी बलशाली बलवान को देखते हैं तो यह जानते हुए भी कि वो ग़लत है, हम प्रेरित हो जाते हैं । क्योंकि वो एक मोबाइल कोर्ट की तरह नज़र आता है जिसकी विधिवत स्थापना जावेद अख़तरीय सिनेमा ने हमारे दिलो दिमाग में कर दी है । हम हीरो का मतलब एक अच्छा और हैंडसम विलेन समझते हैं । हीरो और विलेन में बारीक अंतर होता है । दोनों ग़रीबी और सिस्टम की नाकामी की देन होते हैं । बस हीरो के साथ एक हिरोइन होती है और अच्छे वाले लव सांग । इस चकाचौंध में हीरो का मोबाइल कोर्ट एक मोरल अथारिटी लगता है । विलेन के भी कपड़े लत्ते कम अच्छे नहीं लगते । ध्यान से देखेंगे कि एक हीरो अपने ही जैसे एक विलेन को ख़त्म करता है । हीरो न तो सिस्टम है न ही उसकी जीत सिस्टम में बदलाव । सुपर पावर की इसी चाहत में हम बदमाशों को सांसद बना देते हैं और दबंग जैसी फ़िल्म पर सौ करोड़ लुटा देते हैं । 

सुपर पावर एक गैर लोकतांत्रिक चाहत है । जो सारे सिस्टम को अपने हिसाब से चलाता है । ओबामा सीरीया पर हमला करने के लिए संयुक्त राष्ट्र नहीं जाते । खुद एलान कर देते हैं । हम अमरीका से सुपर पावर बनने की प्रेरणा लेते हैं जो राजा भैया या शहाबुद्दीन की तरह दिन भर किसी दूसरे के खेत खलिहान में घुसकर कब्ज़ा करने की योजनाएँ बनाता रहता है । अगर हम भारत को ऐसा सुपर पावर बनाना चाहते हैं तो राजा भैया को प्रधानमंत्री बना दीजिये । और प्लीज़ परमाणु बम बनाने का एक कारख़ाना मेरे मोतिहारी में खुलवा दीजिये । 

सुपर पावर एक हीन ग्रंथी है हमारी । महान देश से हम ब्रिटानिया प्रायोजित शक्तिमान सीरीयल बनने लगे हैं । दरअसल सुपर मैन या सुपर पावर की नौटंकी या एनिमेशन बच्चों में खूब हिट होती है । क्योंकि उन्हें मज़ा आता है । सुपर पावर का सपना भी एक एनिमेशन फ़िल्म है जो इंडिया के बच्चों को दिखाया जा रहा है । संयोग भी अच्छा है । अर्जुन रा वन, क्रिश, रजनीकांत की फ़िल्में खूब आ रही हैं ।  हमारे हीरो अपने सिनेमाई नायकवाद से बोर हो गए हैं इसलिए जांघिया बनियान बाहर पहन कर एनिमेटेड होने लगे हैं । ये सुपरमैन वाले सारे किरदार एनिमेशन में ही क्यों आते हैं ? सोचियेगा ? इसमें धर्म गुरु भी एक्टिव हो गए हैं । वो भी भारत को जगत गुरु बनाने की चाहत का बाज़ार फैला रहे हैं । आध्यात्मिक सुपर पावर भारत । 

आजकल के नेता भी इस एनिमेशन का खूब इस्तमाल कर रहे हैं पी आर एजेंसियों के ज़रिये कि वे हार्लिक्स बालक की बजाय एक्स डियो लगाने और जाकी पहनने वाला माचो लगे । हम नायक के भूखे लोग हैं । नायक चाहिए । सुपर पावर और मर्दाना शक्ति को बढ़ाने की एक दवा है मूसली पावर, मुझे देनों में फ़र्क नज़र नहीं आता । हिन्दी के अख़बारों में मूसली पावर का विज्ञापन खूब होता है अंग्रेजी के अख़बारों में सुपर पावर का । जिम के विज्ञापनों की तरह सुपर पावर बनने के कई खोमचे लगा दिये गए हैं । ऐसे बाज़ार में सुपर पावर सुपर माल की तरह सुखद क्यों लगता है ? सोचना चाहिए । 

मज़बूत नेतृत्व की चाहत सुपर पावर वाली है । इसका उभार भी हमारी कुंठा से आता है । बिना ठीक से समझे इसका नारा लगाने लगते हैं । नेतृत्व अच्छा और सदाचारी होना चाहिए । मज़बूत क्या होता है । उसकी ताक़त जनता है न कि नेता की अपनी सनक । नेताओं का मूल्याँकन उनकी सामूहिकता से होना चाहिए न कि एकांगीपन से । मज़बूत नेतृत्व सुपर पावर की तरह एक सांप्रदायिक सोच है । जो राजनीति के शिखर पर पहुँचता है वो मज़बूत ही होता है । एक कृत्रिम अवधारणा है मज़बूत नेतृत्व । ओबामा को पुतिन ने एक ही घुड़की में शांत कर दिया । दरअसल दोनों ही मज़बूत नेतृत्व के नाम पर बदमाश नेतृत्व हैं । 


मैं यहाँ सुनना चाहूँगा कि भारत को कैसा सुपर पावर होना चाहिए ? सुपर पावर बनते ही हमारे लिए कौन सी संभावनाओं के द्वार खुलेंगे ? हम कहाँ कहाँ युद्ध करेंगे ? हम कहाँ कहाँ बम गिरायेंगे ? कौन कौन से काम बाकी रह गए हैं जो हमें सुपर पावर बनकर पूरा करना है । भारत सुपर पावर बने न बने लेकिन अच्छा भारत ही बन जाए बहुत है । जिसमें सबकी भागीदारी हो और सबका भला हो । 

( आई आई टी दिल्ली के लिए लिखा था कि क्या भारत सुपर पावर बन सकता है ? ) 
Ravish Kumar

हबीब के लक्ष्मी गणेश

कल शाम को शिप्रा माॅल के एक छोटे से खोमचे में बाल कटाने गया था । मशहूर केश काटक हबीब का खोमचा । कई महीनों से नौशाद के पीछे पीछे बाल कटाने के लिए इस खोमचे से उस खोमचे घूमता रहता हूँ । 

लेकिन मेरा मक़सद यह बताना नहीं कि मैं कहाँ केश कतरवाता हूं । नौशाद के साथ साथ देहरादून के एक नौजवान से बातें होने लगी । अचानक नज़र पड़ी खोमचे के ऊपर । लक्ष्मी गणेश का छोटा सा मंदिर टंगा था । दियासलाई,रूई और कपूर रखा था । जिस दीवार पर मंदिर टंगा था उसके चारों तरफ़ हबीब हबीब लिखा था । सोचा कि मालिक हिंदू होगा जिसने एक मुस्लिम ब्रांड का फ़्रेंचाइज़ी लिया होगा । लेकिन क्या फ़र्क पड़ता है जब तक वो ब्रांड और भगवान को लेकर अलगाव की बात नहीं करता । इस देश में अल्लाह और भगवान दोनों में कोई फ़र्क नहीं किया जाता ।

ट्विटर और समाज में सक्रिय कई सांप्रदायिक अनेक उदाहरणों को देकर हिन्दू मुस्लिम करते रहते हैं । उसके पास खूब मिसालें होती हैं कि हिन्दुओं के साथ मुसलमान नेताओं ने क्या किया । झूठी बातों को सत्य की तरह बताकर आम लोगों को भड़काते हैं । दिन भर सेकुलर मिज़ाज को गरियाते रहते हैं । उन्हें दिखना चाहिए कि आम ज़िंदगी में मज़हबी फ़र्क कितना निजी है । कोई फ़साद नहीं । कोई दलील नहीं मिलेगी तो मारने से लेकर पेड मीडिया से पेंट करने का प्रयास करते हैं । 

मैंने कुछ बोला नहीं । चुपचाप वापस आया और क़स्बा पर लिख रहा हूँ । हिन्दु और मुस्लिम सांप्रदायिकता ख़तरनाक तरीके से भड़काई जा रही है । कभी ऐसी बातों पर नज़र डालियेगा । पता चलेगा कि क्यों धार्मिक राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता ख़तरनाक है । हम लोग बहुत सरलता से मिलकर जीना चाहते हैं । सत्ता कि ख़ातिर सरकार या विपक्षी दल आपको भड़काते हैं । सावधान रहियेगा । 

पता चला आई आई टी बदल गया है

शीर्षक से ही आप जज कर सकते हैं कि आई आई टी को लेकर इस लेखक की पहले से कोई तय राय रही होगी । आज जिस टापिक पर आई आई टी दिल्ली में चर्चा का संचालन करने जाना था उसके बारे में सुनते ही कोफ़्त हो गई थी । भारत के सुपर पावर बनने का चांस है ? आमतौर पर स्कूल कालेज और सेमिनार में जाना बंद कर चुका हूँ फिर भी किसी वजह से इंकार नहीं कर सका । मैं वाक़ई उस आई आई टी दिल्ली में जाना चाहता था जो मेरे लिए मुनिरका और बेर सराय प्रवास के दौरान सस्ता और अच्छा खाना खाने का अड्डा हुआ करता था । बेर सराय के पीछे वाला आई आई टी । जिसके छात्र छात्राओं को इस हसरत से निहारता रहता था कि ये लोग कितने प्रखर और प्रतिभाशाली हैं । शियर्स जिमान्सकी और रेस्निक हेलिडे बना लेते होंगे । बाप रे । इन दो किताबों को देखते ही मेरे कानों में आकाशवाणी हुई थी रे मूर्ख गणित में फ़ेल करने वाला तू रेस्निक हेलिडे बनायेगा । जा तू किसी लायक नहीं है । डूब मर या आर्टस पढ़ ! 

आई आई टी ने आई ए एस ( जो कभी दिया नहीं और जिसका अफ़सोस भी नहीं ) से ज़्यादा तकलीफ़ दिया है । बाद में आई आई टी के प्रति मेरी यह छवि धूमिल होती गई और धारणाओं के सफ़र में कही से एक धारणा समा गई कि इंजीनियर को सोशल साइंस या समाज से ही कोई मतलब नहीं होता । उनकी पोलिटिक्स गड़बड़ होती है । ये सांप्रदायिक किस्म की बातों में ज़्यादा यक़ीन करते हैं । सब पढ़ाकू होते हैं लेकिन अच्छी नौकरी और सैलरी से आगे इनकी दुनिया नहीं होती । ऐसी कई तरह की बातें सुनने लगा । साम्प्रदायिकता के सवाल को अलग कर दें तो क्या राजनीतिक सामाजिक स्वीकृति के लिए कम्युनिस्ट ही होना ज़रूरी है ? वैसे जब अरविंद ने सांप्रदायिकता के सवाल को उठाया तो सबने तालियां बजाकर संदेश दिया कि हम नेताओं की यह चाल समझते हैं । किसी वजह से पहले के युवा आंदोलनों में आई आई टी की कम भागीदारी ने इसे और पुष्ट किया होगा ( जे एन यू की तुलना में ) तो खैर इन सब सामानों से भरा अपना ब्रीफ़केस लेकर आई आई टी दिल्ली में प्रवेश किया । 

मंच पर अरविंद केजरीवाल, प्रभात कुमार, त्रिलोचन शास्त्री और सुमंत कुमार के साथ प्रवेश कर ही रहा था तो बारह तेरह सौ छात्रों की क्षमता वाला हाल तालियों से गूँज गया । सबने अरविंद केजरीवाल का ज़बरदस्त स्वागत किया और उनकी राजनीति पर गर्व भी । तभी लगा कि ये वो आई आई टी नहीं है जिसके एकाध छात्रों को आगे पीछे घुमाकर राजनीतिक दल खुद को टेक्सैवी जताते हैं । आई आई टी के छात्र एक ऐसे आईटीयन का गर्व से स्वागत कर रहे थे जो किसी मिलियन डालर कंपनी का सी ई ओ बनकर नहीं आया है बल्कि अपना करियर दाँव पर लगाकर राजनीति को बदलने निकला है । उत्साह देखते बना । हो सकता है यही छात्र किसी और नेता के लिए ऐसी ही तालियाँ बजा दें मगर अरविंद के प्रति एक सम्मान तो दिखा ही । 

यह वो आई आई टी नहीं है जो सिर्फ अपनी दुनिया रच रहा है । अरविंद के लिए तालियाँ बजाई तो उनसे सवाल भी किया । बाटला हाउस और आरक्षण को लेकर । पूछा कि आरक्षण पर साफ़ से क्यों नहीं बोलते । ये और बात है कि मैंने जवाब देने से रोका क्योंकि यह विषय का हिस्सा नहीं था । वक्त कम होने के कारण भी । ऐसे सवालों के जवाब चुटकियों और ज़ुमलों में नहीं मिलते हैं । जब मैं खुद सुपर पावर बनने की चाहत पर सवाल उठा रहा था तब तालियों से समर्थन हो रहा था कि हम क्यों सुपर पावर बनना चाहते हैं । भारत को अच्छा भारत बनना है । सुपर पावर भले न बन पायें । मुझे बराक ओबामा और शहाबुद्दीन में कोई अंतर नहीं लगता । दोनों हर वक्त किसी के खेत में घुसे रहते हैं । सुपर पावर अमरीका का ' यूज़्ड' सपना है जो इंडिया में अब आ रहा है । समय समय पर यह सपना अलग अलग देशों में घूमता रहता है । आजकल ये भारत में घुमाया जा रहा है ।  जल्दी ही सब सुपर पावर के सपने से निकल कर राजनीति की मूलभूत समस्याओं पर बात करने लगे और ताली बजाने लगे । 

अरविंद ने अपनी पार्टी और उसकी नीति के हवाले से राजनीति को बदलने की बात कही तो एक ने सवाल कर दिया कि आप इस मंच का राजनीतिक इस्तमाल कर रहे हैं । एक ने पूछा कि आपने अन्ना का इस्तमाल नहीं किया ? ये सवाल तब हुए जब सबने अरविंद की हर बात का तालियों से ज़ोरदार स्वागत किया । अरविंद उनके लिए किसी अचरज से नहीं । एक लड़के ने पूछा कि हम अापको पार्टी से जुड़ने के लिए क्या सकते हैं । 

तो क्या अरविंद ने आई आई टी को राजनीतिक रूप से जगा दिया है ? एक सेमिनार के आधार पर कहना नादानी होगी लेकिन उनके प्रति उत्साह को देखकर कहा जा सकता है कि अरविंद के बाद का आई आई टी वो आई आई टी नहीं रहा बल्कि इस मामले में जल्दी ही जे एन यू को टक्कर देने वाला है । अच्छा है कि आई आई टी अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरूआत अरविंद और उनके कोरे स्लेट के साथ कर रहा है । उनका ही असर होगा कि एक लड़का खुद को आई आई टी खड़गपुर का बताता हुआ खड़ा हुआ और कहने लगा कि हम आई आई टी के भीतर के भ्रष्टाचार पर कब सवाल करेंगे । मुझसे अनायास निकल गया कि ये दूसरा केजरीवाल है । अब दो दो हो गए । कहना ये चाहिए था कि ये नया आई आई टी है । मुझे आई आई टी की राजनीतिक भूमिका के बारे में सही ज्ञान भी नहीं है लेकिन वहाँ की छात्र राजनीति हिन्दू मुसलमान आईपीएल के खेल को खूब समझ रहे थी । 

सचमुच आज का आई आई टी 'पब्लिक डोमेन' में आकर सवाल कर रहा है । वो न तो बीजेपी का अंध भक्त है न कांग्रेस का । कम से कम हाॅल में यही लगा । आई आई टी के ही हैं त्रिलोचन शास्त्री जिनकी संस्था ए डी आर राजनीति में अपराधीकरण के आँकड़े बटोर रही है ताकि इसे लेकर बहस चलती रहे । आई आई टी सिस्टम से निकल कर कई लोग साहित्य में क़दम रख रहे हैं । अंग्रेजी और हिन्दी में । कई लोग फ़िल्में बना रहे हैं । ज़रूरत है इस नए आई आई टी को समझने की । लीडर बनने की चाहत नई है और उत्साह जगाती है । आई आई टी के छात्रों के पास कुछ करने के लिए प्रतिभा और सामाजिक मान्यता दोनों हैं । 

इसीलिए आज आई आई टी दिल्ली जाकर मज़ा आया । जीवन में कभी मौक़ा मिला को रेस्निक हेलिडे पर शोध करूँगा । पढ़ने वाले छात्रों से किस्से बटोर कर एक किताब लिखना चाहता हूँ । रेस्निक हेलिडे को सम्मान दिलाना चाहता हूँ । वे जहाँ के हैं वहाँ जाकर जानकारी जुटाना चाहता हूँ । आख़िर कौन है ये रेस्निक हेलिडे जो लाखों की संख्या में पढ़े जाते हैं । हिन्दुस्तान के गाँव से लेकर शहर तक में । इसके लिए आई आई टी जाना होगा । ज़रूर जाऊँगा । शुक्रिया आईटीयन बदलाव का वाहक होने के लिए ।