सुबोध गुप्ता का संसार













पोस्टर एंड पोलटिक्स








पार्क से लौट कर

दक्षिण दिल्ली का डियर पार्क बेहद हरा भरा और ख़ूबसूरत है । आसमान कम पेड़ ज़्यादा दिखते हैं । दिनों से तमन्ना थी कि डियर पार्क के लम्बे रास्ते पर चलूँ । लंबा तो है मगर बहुत लम्बा नहीं मगर । पेड़ आसमान को ढंक कर इसके आधे हिस्से को ओझल कर देते हैं । लगता है कि रास्ता इतना लम्बा है कि दूसरा छोर दिख भी नहीं रहा । आज ओर छोर पार कर गया । जैसे ही थोड़ा वक्त मिला चलने चला गया । अद्भुत आनंद और शांति । लगा कि मैं खुद के साथ हूँ । 



रास्ते में व्यायाम करने के तरीके बताने वाले कई बाइलिंगुअल साइनबोर्ड मिले । इनके दोनों भाषाओं मेम साथ साथ पढ़ते हुए लगा कि हम एक साथ स्कूल और पार्क दोनों में चल रहे हैं । 




फिर एक बहुत पुरानी सीढ़ी भी मिली । चढ़ने से पहले सोचने लगा कि इन्हीं से एक दिन उतरना भी है । हम रोज़ चढ़ते उतरते भी रहते हैं । 

टिकट के लिए बात कर दीजिये न

कुछ लोगों को कुछ भी हो जाये कुछ भी न बदलने का जो भरोसा होता है वो ग़ज़ब का होता है । चुनाव आते ही टिकट के लिए फ़ोन आना हैरानी की बात नहीं । लेकिन मीडिया की इतनी आलोचनाओं के बाद भी कुछ को भरोसा रहता है कि अपना काम तो निकल जाए । 

अचानक से फ़ोन पर परिचित होगा अरे भाई साहब सब कह रहे हैं कि रवीश जी आपके मित्र हैं और आप हैं कि कोई मदद नहीं कर रहे हैं । सबको कैसे पता कि आप मेरे मित्र हैं और हम मित्र कैसे हुए । हम तो कभी मिले नहीं । तो क्या हुआ आपका नंबर है न मोबाइल में । वही दिखा के सबको बता देते हैं । हवा पानी टाइट रखना चाहिए न । पर ये तो ठीक नहीं है । अरे रवीश जी ठीक है पता है आप ये सब नहीं करते लेकिन समाज यार दोस्तों के लिए कुछ करिये दीजियेगा तो क्या हो जाएगा । मान लीजिये आप किसी को जानते हैं । मिलवाइये दिये । इसमें तो कोई हर्ज़ा नहीं है । हम लोग भी तो किसी टाइम आपका ख्याल करेंगे । बुरे वक्त का ख़ौफ़ दिखाने के बाद क्या कहें । कितना डाँटें चिल्लाये । सब चाहते हैं कि उनके बीच का कोई इस दुर्लभ संपर्क क्षमता का हो । मजबूरी में कह देता हूँ कि हाँ ठीक है लेकिन हमसे होता नहीं है । ऐसा कुछ होगा तो देखेंगे । मेरा फोन तो कोई नेता उठाता ही नहीं है ।  

अरे रभीस जी आपको लोग नहीं जानता है ! एतना भी सुध्धा मत बनिये । मीडिया का ही तो पावर है । जिसे चाहे उसे बना दे । पर हम उस पावर का इस्तमाल नहीं करते । पता है नहीं करते लेकिन क्या बाकी नहीं करते । आप क्या कर लेते हैं । उ सब के साथ रहते हैं कि नहीं । हम थोड़े न कह रहे हैं कि ग़लत काम कीजिये । उसी में से अपने लोगों के लिए तो करना पड़ता है । समझ में नहीं आता है कि मदद मांग रहा है या बुरे वक्त के नाम पर धमका रहा है । कितना हाँ में हाँ किया जाए मन रखने के लिए । मन तो ख़राब हो ही जाता है । अक्सर मैंने देखा है इस टाइप के दलाल संक्रमित लोग दलील अच्छी देते हैं । 

एक दिन इसी तेवर में फोन आ गया । भाई जी आशीर्वाद दीजिये । ले लीजिये । वैसे नहीं । त कइसे । एम एल सी का चुनाव लड़ रहे हैं । तो हम क्या मदद करें । अरे उसी में मदद तो कर ही सकते हैं । इसमें क्या होता है । अरे वार्ड काउंसलर, पंचायत परिषद का सदस्य और मुखिया वोट करता है । बहुत ख़र्चा है भाई । वो क्या ?

हर पंचायत में पंद्रह सोलह वार्ड काउंसलर होता है । एक वार्ड मेंबर को पंद्रह सोलह सौ देना होता है । डेढ़ ही हज़ार में वोट दे देगा ? हाँ त यही चलबे करता है । मुखिया ज़रा ज़्यादा माँगता है । कितना ? पचीस हज़ार । अच्छा । लेकिन उतना नहीं देंगे । पाँच सात हज़ार देकर काम चल जायेगा । वो व्यक्ति कितनी आसानी से सब कहे जा रहा था । दो साल से फ़ोन पर बात कर रहा है । मुलाक़ात तक नहीं । पता नहीं किस किस को बताता है कि मैं उसका मित्र हूँ । आशीर्वाद दीजियेगा न भइया । हाँ हाँ । विधान परिषद की सदस्यता का आलम यह है तो इसे आज ही समाप्त कर देना चाहिए । 

फ़ोन रखने के बाद यही सोचने लगा कि हम क्या समझें जा रहे हैं और यह कैसा समाज है । कोई फ़ोन कर यह नहीं कहता कि ईमानदारी से पत्रकारिता करो । कुछ होगा तो हम लोग हैं न मदद करने के लिए । एक रिश्तेदार ने तो लोजपा के टिकट की पैरवी के लिए फ़ोन कर दिया । आम आदमी की सफलता के बाद इसके टिकट के लिए भी लोग फ़ोन कर देते हैं । सब परिचित ही होते हैं । मुश्किल हो जाता है कि कैसे बात करें । हाँ देखते हैं भइया । अरे देखो नहीं करो । टाइम नहीं है । एक सजज्न दफ़्तर आ गए विशालकाय गुलदस्ते के साथ । कहा बीजेपी से टिकट दिलवा दीजिये । सुना है मोदी जी आपको मानते हैं । उनसे कहा कि हम ये सब नहीं कर सकते । पता चलेगा तो दर्शक नाराज़ हो जायेंगे । बिल्कुल पहली बार इस व्यक्ति ने भी यही कहा कि अरे साहब मदद कर अपना आदमी बनाइयेगा तभी न हम लोग बुरे दिन में काम आयेंगे ।

क्या कर सकते हैं । इस समाज को ख़ारिज कर कहाँ चल दिया जाए । सारे संबंधों की ऐसी व्याख्या करते हैं कि राहु केतु से प्राथर्ना करने लगता हूं कि बचा लेना । कोई मित्र नाराज़ हो जाता है तो कोई परिचित । कभी हाँ तो कभी हूँ बोलकर टाल तो देता हूँ मगर बहुत मामूली महसूस करने लगता हूँ । तब तो और जब क़रीब के मित्र भी समझने की जगह गाली देते हुए विवेचना करते हैं कि किसी काम का नहीं है । स्वार्थी है । अपने लोगों के लिए क्या किया इसने । 

इन सब को बीच कुछ फ़ोन ऐसे भी आते हैं जो जीवन रक्षक और ज़रूरी होते हैं । पर फ़ोन करने वाला पहले से तय कर चुका होता है कि होना ही है । हमसे किसी की मदद हो जाए तो क्या बात, करने के लिए भी तत्पर रहता हूँ लेकिन मदद के नाम पर यही सब हो तो बात शर्मनाक है । करना पड़ता है और नहीं करेंगे के बीच कुछ तो बोलना पड़ता है जिसे बोलते हुए सौ मौंते मरता हूँ । ये समझा जाना कि हमारे पास पावर है और हम अरविंद मोदी राहुल से एक फ़ोन पर टिकट दिला देंगे कितना बेबस करता है । 

पहले भले ही यह सब बातें सामान्य रही होंगी या हमारे पेशे के लोग ये सब आसानी से कर गुज़रते होंगे पर अब समय बदल गया है । किसी भी पत्रकार को इन सब मजबूरियों के बारे में सोचना चाहिए और बचने का तरीक़ा निकालना चाहिए । ऐसा नहीं है कि दुनिया मदद नहीं करेगी । एक परिचित के पास पैसे नहीं थे । अस्पताल वाले को फ़ोन किया कि ये हालत है आप उनसे पैसे मत माँगना । अपना अकाउंट नंबर दे दीजिये मैं उसमें जमा कर दूँगा । परिचित को पैसे की पेशकश इसलिए नहीं की क्योंकि उन्हें शर्मिंदा नहीं करना चाहता था । उधर से आवाज़ आई आप रवीश टीवी वाले बोल रहे हैं । हाँ । अरे सर मज़ा आ जाता है आपको देखकर । आप चिंता मत कीजिये । मैं हैरान रह गया । उस आदमी ने मदद कर दी । समाज इतना भी गया गुज़रा नहीं है । ऐसा हो तो क्यों नहीं फ़ोन करूँगा ।  पर हम क्या से क्या होते जा रहे हैं और इतनी बहस के बाद भी अगर किसी को भ्रष्टाचार पर इतना भरोसा है तो फिर इसके ख़िलाफ़ बहस में शामिल कौन है ? वही जो भ्रष्ट है !

बातचीत

जयपुर से जहाज़ में आ रहा था । बगल की सीट पर दो 'बिज़नेस वुमन' बैठी थीं । उनकी बातचीत ही इस बात से शुरू हुई कि आजकल अजनबी बात नहीं करते हैं । उनकी बातचीत का नोट्स लेने लगा । बाद में उन्हें बता कर जब माफ़ी माँगी तो एक ने कहा कि वो आप हैं । हम आप नहीं है । हमें चिन्ता नहीं है । उनकी बातचीत को लिख रहा हूँ । कमाल की महिलायें । दुनिया भर में उड़ती हैं । टू इम्प्रेसिव वुमन टांकिंग टू इचअदर एज स्ट्रेंजर्स व्हेन अ स्ट्रेंजर वाज़ लिसनिंग देम टांकिंग । 


I am a gujju woman. We can fly from Surat to mumbai to delhi to France and finalize the design and come back.


Happy to meet the lalas of smaller destination in India.


They have huge money.


Have you been to any raipur wedding 


These royalties spend gold in wedding .


In smaller town they can make your business grow faster. 


Delhi has no brand loyalty . They can go to anyone from everyone.


I hate these page three faltu events .


I did sahara wedding but lost Jindal one. I had a wedding in Austria . 


Are you married and happy ?


Oh yes I am happy. But sometime these men needs to be kicked out. They are good for nothing. I think women are excellent in multitasking .


जब ये लिख रहा था तो एक ने मेरी तरफ़ देख के पूछ लिया आप टीवी में ? जी । ओह तो आपने सुन लिया हम मेन को बारे में क्या बात कर रहे थे । आप ठीक कह रही थी । फिर थोड़ी देर के लिए दोस्ती हो गई । शुभकामनायें । उनका आत्मविश्वास और उनकी उड़ान किसी कविता से कम नहीं थी । 


( इस बातचीत को लिखने की अनुमति ले ली गई थी ) 

सड़क का सहयात्री

मेरी प्यारी सड़क,

आशा है तुम जहाँ कहीं भी होगी सफ़र में होगी । आज तुम्हारी बहुत याद आ रही है । तुम कब से मेरी ज़िंदगी का हिस्सा हो मगर कभी तुमसे बात नहीं की । पता है लोग तुमसे नफ़रत करने लगे हैं । नफ़रत करने वाले वे लोग नहीं हैं जो सड़क पर रहते हैं बल्कि वे लोग हैं जो कभी कभार सड़क पर उतरते हैं मगर कितनी बार कोई उतरे उसे लेकर भ्रमित और क्रोधित हैं ।

धूमिल की एक कविता की किताब का नाम ही है संसद से सड़क तक । दो चार दिनों से अख़बारों और टीवी में कई बयान आ रहे हैं जिनमें सड़क को ग़ैर वाजिब और ग़ैर लोकतांत्रिक जगह के रूप में बताया जा रहा है । लोगों को आपत्ति है कि कोई बार बार सड़क पर उतर आता है । सरकार सड़क पर आ गई है । तुम जानती ही होगी कि सड़क पर आने का एक मतलब यह भी होता है कि किसी का घर बार सब चला गया है । वो बेघर और बेकार हो गया है । कई अंग्रेज़ी अख़बारों में तुम्हें स्ट्रीट लिखा जा रहा है । इस भाव से कि स्ट्रीट होना किसी जाति या वर्ग व्यवस्था में सबसे नीचले और अपमानित पायदान पर होना है । क्या राजनीति में भी सड़क पर आना हमेशा से ऐसा ही रहा है या आजकल हो रहा है । 

सड़क, तुम्हें याद है न कि इससे पहले तुम्हारे सीने पर कितने नेता कितने दल और कितने आंदोलन उतरते रहे हैं । ख़ुद को पहले से ज़्यादा लोकतांत्रिक होने के लिए दफ़्तर घर छोड़ सड़क पर आते रहे हैं । सड़क पर उतरना ही एक बेहतर व्यवस्था के लिए व्यवस्था से बाहर आना होता है ताकि एक नये यात्री की नई ऊर्जा के साथ लौटा जा सके । सड़क तुम न होती तो क्या ये व्यवस्था निरंकुश न हो गई होती । पिछले दो दिनों में सड़क पर आने का मक़सद और हासिल के लिए तुम्हें ख़त नहीं लिख रहा हूँ । यह एक अलग विषय है । जो राजनीतिक दल अपनी क़िस्मत का हर फ़ैसला बेहतर करने के लिए सड़क पर उतरते रहे वही कह रहे हैं कि हर फ़ैसला सड़क पर नहीं हो सकता । क्या सड़क ने कभी सरकार नहीं चलाई । महँगाई के विरोध में रेल रोक देने या ट्रैफ़िक जाम कर देने से कब महँगाई कम हुई है । हर वक्त इस देश में कहीं न कहीं कोई तुम्हारा सहारा लेकर राजनीति चमकाता रहता है । तुम तो यह सब देखती ही आ रही हो । 

प्यारी सड़क, तुम्हें कमतर बताने वाले ये कौन लोग हैं । उनकी ज़ात क्या है । कौन हैं जिन्हें किसी के बार बार सड़क पर उतर आने को लेकर तकलीफ़ हो रही है । क्या वे कभी सड़क पर नहीं उतरे । लेकिन सड़क पर उतरना अमर्यादित कब से हो गया । कब से ग़ैर लोकतांत्रिक हो गया । सत्ता की हर राजनीति का रास्ता सड़क से ही जाता है । तो फिर कोई सड़क पर रहता है तो उसमें तुम्हारा क्या दोष । रहने वाले का क्या दोष । दोष तो उसकी सोच में निकाला जाना चाहिए न । तुम्हें लोग क्यों अनादरित कर रहे हैं । तुम तो जानती ही होगी कि कितने नेता तुम पर उतरे और पानी के फ़व्वारे से भीग कर नेता बन गये । संघर्ष कहाँ होता है कोई बताता ही नहीं । संघर्ष कमरे में होता है या सड़क पर । क्या तुम पर उतरना उस विराट का नाटकीय या वास्तविक साक्षात्कार नहीं है जिसकी कल्पना में नेता सोने की कुर्सी देखते हैं । 

प्यारी सड़क समझ नहीं आता लोग तुमसे क्या चाहते हैं । तुमसे क्यों किसी को घिन आ रही है । तुमने तो किसी को रोका नहीं उतरने से फिर ये बौखलाहट क्यों । तुम तो अपने रास्ते चलने वाली हो लेकिन कोई तुम पर आकर भटक गया तो इसमें तुम्हारा क्या क़सूर । तुमसे लोगों को क्यों नफ़रत हो रही है ख़ासकर उन लोगों को जो सड़क पर उतरना नहीं चाहते या नहीं जानते । तुम इन तमाम मूर्खों को माफ़ कर देना । कोई नेता मिले तो कहना यार बहुत हो गया कुर्सी कमरा अब ज़रा सड़क पर तो उतरो । सड़क पर उतरना सीखना होता है । सड़क पर उतरना नकारा होना नहीं होता है । 

तुम्हारा सहयात्री,
रवीश कुमार 

हम सब एक हैं !

कारपोरेट की मौज है इन दिनों । मोदी भय के नाम पर दनादन प्रोजेक्ट क्लियर हो रहे हैं । तो मोदी पर्यावरण से जुड़ी तमाम आपत्तियों को रिश्वत से जोड़ कर संदिग्ध कर रहे हैं । पर्यावरण के सवाल तो उनके लिए बेमानी हैं । राहुल गांधी भी कारपोरेट के सामने नियम और झंझटों की खिल्लियां उड़ाते हैं जैसे किसी मूर्ख ने बनाये हों । दरअसल ये मोदी का मनमोहन पर या मनमोहन का मोदी पर हमला नहीं है । दोनों कारपोरेट के लिए आम सहमतियां बना रहे हैं । कौन कहता है मोदी प्रधानमंत्री नहीं हैं ! बधाई । रहा सवाल पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का तो उसे स्कूल के कोर्स में शामिल करने से कौन रोक सकता है । सरकार किसी की हो चलती कारपोरेट की है । चलनी भी चाहिए क्योंकि कारपोरेट ग्रोथ पैदा करता है और नेता ग्रोथ रेट बेचता है ।


कांग्रेस बीजेपी की विचारधारा क्या है ? पर्यावरण के सवाल से दोनों की शासित सरकारें टकराती होंगी । क्या किसी ने पूछा ? फ़ाइलों को क्लियर करने में देरी हो रही है । एक नज़र में यह सरकार की अक्षमता पर सवाल तो लगता है मगर क्या यह पैंतरा नहीं है कि इसके बहाने आप उन कंपनियों की पैरवी भी कर रहे हैं । एक तीर से दो निशाने । अरुण जेटली ने अपने लेखन में क्या यह बताया कि पर्यावरण को लेकर जिन आपत्तियों के नाम पर फ़ैसलों नहीं हो रहे थे उन पर जेटली या पार्टी का क्या सोचना है । उन पर राहुल गांधी का क्या सोचना है । फिर इन सवालों पर ये दोनों दल इतने दिनों चुप क्यों रहे । तभी ख़ारिज करते । कहते खुलकर कि ग्रोथ रेट चाहिए तो जंगल कटेंगे । फिर इन लोगों ने भूमि अधिग्रहण बिल पास करते वक्त किसानोन्मुख होने का ढोंग क्यों किया । जैसे मार्च लूट के वक्त सारी सरकारी फ़ाइलें भागने लगती हैं उसी तरह सरकार जाते जाते विपक्षी हमले और चुनाव जीतने के नाम पर फ़ाइलें क्लियर करने लगी हैं । मोइली मोदी मनमोहन । कोई भी आए होगा काम उनका ही जिनके हम सब नौकर हैं । कंपनियाँ किसे नहीं चाहिए । ज़रूरी भी हैं । लेकिन दिल्ली के ये दो बड़े दल अपनी नीति क्यों नहीं साफ़ करते । वो देरी या जयंती टैक्स का बहाना लेकर पर्यावरण के सवालों से बचते क्यों हैं । खुलकर सपोर्ट क्यों नहीं करते । कांग्रेस बीजेपी यू ही हेड टेल नहीं हैं ।

ना भाई ना

लिख चुके हैं फिर भी हमारी बिरादरी से कोई दाँत चियारते हुए फ़ोन करता है कि आप आदमी पार्टी में जा रहे हैं तो लगता है कि इस मूर्ख से बात क्यों कर रहा हूँ । अव्वल तो शर्म आनी चाहिए कि आप किसी को बिना वजह किसी दल से जोड़ दे रहे हैं या इसी बहाने ख़ुद जोड़ कर देखे जाने की ख़्वाहिश को हवा दे रहे हैं । 

राजनीतिक दलों से जुड़े लोग भी एक रणनीति के तहत हवा दे रहे हैं ताकि आम आदमी पार्टी के कवरेज को प्रोपैगैंडा क़रार दिया जाए । ताकि वे लोगों के सामने गिड़गिड़ा सकें कि टीवी वाले हमें नहीं दिखाते थे । फ़ुटेज नपवाइये तो ज़रा कि इस देश में किन दलों को ज़्यादा कवरेज मिलता रहा है । झूठ की भी हद होती है । देश में अनेक दल हैं । उनको टीवी ने कब दिखाया । कितना दिखाया और कैसे दिखाया । बड़े दलों को लगता है कि मीडिया उनकी ज़मींदारी का बेगार हैं । अब उनका खेत भूमिहीन कैसे जोत रहा है । मीडिया कोरपोरेट तो उनके क़रीबी हैं । उनके मालिकों को राज्य सभा सांसद बनवाते रहे हैं । 

बड़े दल के कुछ चिरकुट टाइप के लोगों को इसमें मज़ा आ रहा है । कुछ नेताओं की दुकान ही चलती है दूसरे की साख मिटा कर । लेफ़्ट,बीएसपी, कांग्रेस, आप भी बीजेपी !, और अब आप । इतने दलों का मैं समय समय बताया गया हूँ । हद है यार । जब मन करता है कांग्रेसी जब मन किया आपाई भाजपाई बसपाई । 

सोशल मीडिया पर चार तस्वीर डाल कर कितना ब्लैकमेल कीजियेगा । बाहुबली पैदा करने की नई मशीन है क्या ये । रिलैक्स कीजिये । मैं कहीं नहीं जानेवाला कितनी बार कहें भाई । ढेर तेला-बेला मत करअ लोग । आप के कवरेज से टेंशन हो गया तो अपना दर्द कहिये । जब एक मुख्यमंत्री अपनी चुनावी सभी में एक अख़बार प्रमोट कर रहे थे तब किसने सवाल किया था ।चुनावों में जब पेड मीडिया उभरा तो क्या आपने उस पार्टी का झोला ढोना बंद किया जो पैसे के दम पर ख़बरें ख़रीद रही थी । कितने ऐसे अख़बारों को पढ़ना बंद किया आपने । ड्रामेबाज़ अफ़वाही कहीं के । जब कांग्रेस बीजेपी में पत्रकार राज्य सभा के ज़रिये घुस रहे थे तब भी अरविंद केजरीवाल ही थे क्या । वाजपेयी जी तो खुद वीर अर्जुन से आए । हज़ार नेता अख़बार से राजनीति में गए हैं । 

कौन किस संदर्भ में राजनीति में प्रवेश कर रहा है इसमें फ़र्क करेंगे या सब धान बाइस पसेरी । इतना क्या बवाल है । आप में पत्रकार का जाना ग़लत है तो कांग्रेस बीजेपी अपने यहाँ के पत्रकारों को निकाल देगी क्या या दोनों का मूल्याँकन उनके जीवन के अलग अलग हिस्सों के आधार पर करेंगे । गए वो हैं और सफ़ाई मैं दे रहा हूँ । आप के कवरेज से इतना भी टेंशन मत खा जाइयेगा कि अपनी पार्टी का सिंबल बदल कर अलग अलग रंग का झाड़ू ही करने लगें । अरे राजनीति कीजिये । अफ़वाह मत उड़ाइये । भरोसा रखिये खुद में और अपनी पार्टियों में । अब फ़ोन मत कीजियेगा । चिल्ल यार ! 

पोस्टर दर पोस्टर


















मोदी गुजरात और राज मराठा !

किरण बेदी ने अपने गुप्त मतदान को उजागर कर सिर्फ अपनी पसंद ज़ाहिर नहीं की है बल्कि टीवी की बहस में छाये केजरीवाल को रोक कर मोदी और उनके विकल्प को चर्चा के केंद्र में ला दिया है । बेदी पर नाहक हमले किये जा रहे हैं । उन्हें अपने वक्त से अपनी पसंद बताने का पूरा हक़ है । बल्कि इससे पहले भी वे नमो की ट्टीटर पर तारीफ़ कर चुकी है । इस बार की स्वीकृति उस रणनीति का भी हिस्सा है जिसके तहत ये संदेश दिया जा रहा है कि अच्छे लोग सिर्फ आम आदमी पार्टी से ही नहीं जुड़ रहे हैं । वैसे मोदी को चर्चा में लाने के लिए बेदी की ज़रूरत नहीं है लेकिन चुनावी रणनीतियों के तहत ये सब होते रहता है । क्या आपने यह सोचा कि राज ठाकरे ने अचानक मोदी को नसीहत रूपी चुनौती क्यों दे दी । नसीहत रूपी चुनौती इसलिए क्योंकि उन्होंने कहा कि मैं मोदी के काम की तारीफ़ करता रहा हूँ । अब भी करता हूँ और आगे भी करता रहा हूँ । 

इस सवाल को लेकर मैंने अपने सहयोगी प्रसाद काथे से बात की और फिर गूगल सर्च किया । प्रसाद ने कहा कि मुंबई में मोदी की रैली महाराष्ट्र के इतिहास की बड़ी रैलियों में एक तो गिनी ही जाएगी । राजनाथ सिंह ने तो बाल ठाकरे का नाम भी लिया मगर मोदी ने एक बार भी नहीं । तो मैंने कहा कि ठीक है शिवसेना सहयोगी है लेकिन रैली तो बीजेपी की थी । फिर ध्यान आया कि तब राजनाथ सिंह ने नाम क्यों लिया और मोदी ने क्यों नहीं । ( मैंने मुंबई रैली का भाषण नहीं सुना है) गूगल बताता है कि अगले दिन शिव सेना के अख़बार सामना में उद्धव ठाकरे ने तंज किया कि रैली को लेकर मुंबई के गुजराती और हिन्दुत्ववादी काफी उत्साहित थे जिन्हें आकर्षित करने के लिए राजधानी भर में महँगे और अच्छे होर्डिंग लगाये गए थे ।

हिन्दुत्ववादी को ध्यान में रखियेगा । पहले देखते हैं कि मोदी ने क्या कहा । मुंबई गुजरातियों का दूसरा घर है । उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा सौराष्ट्र कच्छ और सूरत के विकास में लगा है । ( पहली बार मोदी ने माना कि गुजरात में दूसरे राज्यों का भी ख़ून पसीना लगा है ! ) मोदी ने कहा कि विकास में गुजरात को गोल्ड मेडल मिला है और महाराष्ट्र काफी पीछे रह गया है । वे जब सरकार में आयेंगे तो ब्लैक मनी वापस लायेंगे । उम्मीद है कुछ अपवाद को छोड़ उस सूची में मराठियों का नाम नहीं होगा । मराठी ईमानदार होते हैं ।( चलिये काले धन की सूची से मराठी बाहर हो गए, तो क्या बिहारी यूपी गुजराती !?)  मोदी ने निश्चित रूप से महाराष्ट्र के बहाने वहाँ की कांग्रेस एनसीपी सरकार की आलोचना की लेकिन दोनों ठाकरे ने महाराष्ट्र के एंगल से उनकी बात को दिल पे क्यों ले लिया । 

सहयोगी का मतलब यह नहीं कि अपनी राजनीतिक ज़मीन किसी को सौंप देना । उद्धव ने रैली में गुजराती और हिन्दुत्ववादियों के होने को क्यों रेखांकित किया ? गुजराती और हिन्दुत्ववादी में फ़र्क क्यों क्या ? क्या हिन्दुत्ववादी में मराठी नहीं थे क्या गुजराती नहीं होंगे । जवाब आसान है । कर्नाटक चुनाव के वक्त सामना ने मोदी के बारे में लिखा था कि वे हिन्दुत्व से भटक रहे हैं । मोदी के पैकेज में हिन्दुत्व, विकास, मज़बूत नेतृत्व सब है जिसका ब्रांड नाम वन इंडिया है । शिव सेना को लगता है कि मोदी उग्र हिन्दुत्ववादी नहीं है शिव सेना है । क्या उद्धव ये कहना चाहते थे कि मोदी की रैली में उनके समर्थक गए ।

रैली तो बड़ी थी । ज़ाहिर है शिव सेना और मनसे को अपना आधार मोदी के पीछे जाते लग रहा है । मनसे को लग रहा है कि इस चुनाव में भी अगर लोक सभा की एक सीट न मिली तो लोग सवाल करेंगे । विधानसभा में उसके तेरह विधायक तो है हीं । इसलिए महाराष्ट्र के भीतर हिन्दुत्व के स्पेस में मोदी के सबसे बड़े दावेदार के रूप में उभरने के संदर्भ में राज और उद्धव के बयानों को देखा जाना चाहिए । जिस नाशिक से राज ने बयान दिया वहाँ बीजेपी के समर्थन से मनसे का मेयर है । बीजेपी की स्थानीय ईकाई ने समर्थन वापसी की चेतावनी दी है । महाराष्ट्र में मनसे के पास एक ही मेयर है । 

नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण में शामिल होने वाले राज ने ऐसा सवाल दागा कि बीजेपी चुप है । जिस दिन मोदी को पीएम का उम्मीदवार घोषित किया गया उसी दिन उन्हें सीएम पद छोड़ देना चाहिए था । बात तो क़ायदे की लगती है मगर क्या राज मोदी को इतना मासूम समझते हैं । ठीक है कि उन्हें भरोसा है कि वे पीएम बन रहे हैं । अपने भाषणों में भी वे खुद को पीएम मान कर ही चलते हैं लेकिन सीएम पद क्यों छोड़े भाई ? गुजरात चल रहा है न । किसी गुजराती ने को नहीं कहा कि मोदी इतना बाहर रहते हैं कि राज्य नहीं चल रहा ! 

ठाकरे बंधु एक हद से ज़्यादा मोदी के ख़िलाफ़ नहीं जा सकते । राज को ज़रूर चिंता होगी या लग रहा होगा कि मोदी उनके साथ समझौता नहीं करेंगे । सीधे तौर पर तो बिल्कुल नहीं । एकाध सीट छोड़ दें अलग बात है । जब मोदी के राजकीय अतिथि बनकर वे चर्चा में आ रहे थे तब क्या वाक़ई राज को नहीं लगा होगा कि मोदी महाराष्ट्र में दोनों बंधुओं की ज़मीन पर भी पसर सकते हैं । क्यों राज को कहना पड़ा कि पीएम उम्मीदवार के तौर पर मोदी को सभी राज्यों के साथ समान बर्ताव करना चाहिए । गुजरात गुजरात नहीं करना चाहिए । मोदी ने तो अन्य राज्यों में भी गुजरात गुजरात किया है । राज ने कहा कि महाराष्ट्र में आकर मोदी ने गुजरात और सरदार पटेल के बारे में बोला । शिवाजी महाराज के बारे में बोलते तो उचित रहता । वैसे पाँच जनवरी के इकोनोमिक्स टाइम्स में ख़बर छपी है कि मोदी ने महाराष्ट्र के रायगढ़ में कहा है कि "शिवाजी ने सूरत को नहीं लूटा था । सूरत में औरंगज़ेब के ख़ज़ाने को लूटा था । शिवाजी महाराज सिर्फ योद्धा ही नहीं अच्छे प्रशासक थे जो आज भी प्रासंगिक है । शिवाजी महाराज के इस पहलु को नज़रअंदाज़ किया गया है ।" राज ठाकरे की प्रेस कांफ्रेंस आठ जनवरी को हुई है । 

ज़ाहिर है हिन्दुत्व के स्पेस में यह की दावेदारों का झगड़ा है जिसमें से दो एक ही घर से आए हैं और तीसरा बाहर से आ गया है । राज ने मोदी को चुनौती देकर मराठी अस्मिता को उभारने का प्रयास किया है जिसके इतिहास में साठ के दशक का संयुक्त महाराष्ट्र अभियान का वो दर्द भी है जिसमें गुजराती मूल के मेरारजी देसाई के गोली चलाने के आदेश से हुई एक सौ पाँच लोगों की मौत शामिल है । मुंबई में इन शहीदों की याद में एक हुतात्मा चौक भी है । हमारी सहयोगी शिखर त्रिवेदी ने किसी और प्रसंग में कहा था कि कोई भी राजनीति अपने राज्य के इतिहास को नहीं भूलती है । जब महाराष्ट्र गठन का पचास साल हुआ था तब गणपति के पंडालों में उस दौर से संघर्षों की चित्रावलियां बनाईं गईं थीं । बात कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है । अभी अभी एक टिप्पणी आई है जिसे मैं इस लेख में जोड़ रहा हूँ । मोरारजी देसाई ने गोली चलाने के आदेश दिये तो उसमें गुजराती छात्र मारे गए और पूरे गुजरात में उनके ख़िलाफ़ आंदोलन भड़क गया था । मोदी से उनके अपने भी लड़ रहे हैं !

क्या मैं भी

पिछले कुछ दिनों से अपने बारे में चर्चा सुन रहा हूँ । आस पास के लोगों का मज़ाक़ भी बढ़ गया है । क्या तुम भी 'आप' हो रहे हो । आशुतोष ने तो इस्तीफ़ा दे दिया । तुम्हारा भी नाम सुन रहे हैं । एक पार्टी के बड़े नेता ने तो फ़ोन ही कर दिया । बोले कि सीधे तुमसे ही पूछ लेते हैं । किसी ने कहा कि फ़लाँ नेता के लंच में चर्चा चल रही थी कि तुम 'आप' होने वाले हो । साथी सहयोगी भी कंधा धकिया देते हैं कि अरे कूद जाओ । 

मैं थोड़ा असहज होने लगा हूँ । शुरू में हंस के तो टाल दिया मगर बाद में जवाब देने की मुद्रा में इंकार करने लगा । राजनीति से अच्छी चीज़ कुछ नहीं । पर सब राजनेता बनकर ही अच्छे हो जायें यह भी ज़रूरी नहीं है । ऐसा लगा कि मेरी सारी रिपोर्ट संदिग्ध होने लगी है । लगा कि कोई पलट कर उनमें कुछ ढूँढेगा । हमारा काम रोज़ ही दर्शकों के आपरेशन टेबल पर होता है । इस बात के बावजूद कि हम दिनोंदिन अपने काम में औसत की तरफ़ लुढ़कते चले जा रहे हैं, उसमें संदिग्धता की ज़रा भी गुज़ाइश अभी भी बेचैन करती है । उन निगाहों के प्रति जवाबदेही से चूक जाने का डर तो रहता ही जिसने जाने अनजाने में मुझे तटस्थ समझा या जाना । कई लोगों ने कहा कि सही 'मौक़ा' है । तो सही 'मौक़ा' ले उड़ा जाए ! दिमाग़ में कैलकुलेटर होता तो कितना अच्छा होता । चंद दोस्तों की नज़र में मैं भी कुछ लोकप्रिय (?) हो गया हूँ और यही सही मौक़ा है । क्योंकि उनके अनुसार एक दो साल में जब मेरी चमक उतर जाएगी तब बहुत अफ़सोस होगा । मेरा ही संस्थान नहीं पूछेगा । मुझे पत्रकारिता में कोई नहीं पूछेगा । लोग नहीं पहचानेंगे । मेरे भीतर एक डर पैदा करने लगे ताकि मैं एक 'मौके' को हथिया सकूँ । तो बेटा आप से टिकट मांग कर चुनाव लड़ लो । हमारे पेशे में कुछ लोगों का ऐसा कहना अनुचित भी नहीं लगता । हम चुनें हुए प्रतिनिधियों के संगत में रहते रहते खुद को उनके स्वाभाविक विस्तार के रूप में देखने और देखे जाने लगते हैं । यह भ्रम उम्र के साथ साथ बड़ा होने लगता है । कई वरिष्ठ पत्रकार तो मुझे राज्य सभा सांसद की तरह चलते दिखाई देते हैं । तो मैं भी ! हँसी आती है । मुझे यह मुग़ालता है कि इस भ्रम जाल में नहीं फँसा हूँ और चमक उतर जाने का भय कभी सताता भी नहीं । जो जाएगा वो जाएगा । इसलिए जो आया है उसे लेकर कोई बहुत गदगद नहीं रहता । न हीं कोई काम यह सोच कर करता हूँ िक तथाकथित लोकप्रियता चली जाएगी । जाये भाड़ में ये लोकप्रियता । 

इसका मतलब यह नहीं कि राजनीति को किसी और निगाह से देखता हूँ । इसका मतलब यह भी नहीं कि हम पत्रकारिता ही कर रहे हैं । पत्रकारिता तो कब की प्रदर्शनकारिता हो गई है । जब से टीवी ने चंद पत्रकारों के नाम को नामचीन बनाकर फ़्लाइओवर के नीचे उनकी होर्डिंग लगाई है, भारत बदलने वाले उत्प्रेरक तत्व( कैटलिस्ट) के रूप में, तब से हम अपने पेशे के भीतर और कुछ दर्शकों की नज़र में टीवी सीरीयल के कलाकारों से कुछ लोकप्रिय समझे जाने लगे हैं । नाम वालों का नामचीन होना कुछ और नहीं बल्कि समाप्त प्राय: टीवी पत्रकारिता की पुनर्ब्रांडिंग है । इसलिए कोई पत्रकार टीवी छोड़ दे तो बहुत अफ़सोस नहीं किया जाना चाहिए । राजनीति असीम संभावनाओं का क्षेत्र है । टीआरपी की दासी है पत्रकारिता । बीच बीच में शास्त्रीय नृत्य कर अपनी प्रासंगिकता साबित करती हुई आइटम सांग करने लगती है । 

अच्छे लोगों को राजनीति में प्रतिनिधि और कार्यकर्ता दोनों ही बनने के लिए आना चाहिए । आम आदमी पार्टी के बारे में पहले भी लिखा है कि इसके कारण राजनीति में कई प्रकार के नए नए तत्व लोकतंत्र का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं । समय समय पर यह काम नई पार्टियों के उदय के साथ होता रहा है । मगर जिस स्तर पर आम आदमी पार्टी ने किया है वैसा कभी पहली बार कांग्रेस बन रही कांग्रेस ने किया होगा । मेरी सोसायटी के बच्चे भी लिफ़्ट में कहते हैं कि अंकल प्लीज़ अरविंद केजरीवाल से मिला दो न । मेरी बेटी कहती है कि सामने मिलकर सच्ची में आटोग्राफ लेना है । अरविंद को सतर्क रहना चाहिए कि उन्हें इन उम्मीदों को कैसे संभालना है । अरविंद ने राजनीति को सम्मानजनक कार्य तो बना ही दिया है । इसलिए उन पर हमले हो रहे हैं और हमले करने वाले उनके नोट्स की फोटोकापी करा रहे हैं । सस्ते में नंबर लाने के लिए । 


जहाँ तक मेरा ताल्लुक़ है मैं उस बचे खुचे काम को जिसे बाज़ार के लिए पत्रकारिता कहते हैं अंत अंत तक करना चाहता हूँ ताकि राजनीति का विद्यार्थी होने का सुख प्राप्त करता रहूँ । टीवी में महीने में भी एक मौक़ा मिल जाता है तो असीम संभावनाओं से भर जाता हूँ । कभी तो जो कर रहा हूँ उससे थोड़ा अच्छा करूँगा । राजनीति जुनून है तो संचार की कला का दीवानापन भी किसी से कम नहीं । हर किसी की अपनी फ़ितरत होती है । राजनीति को आलोचनात्मक नज़र से देखने के सुख को तब भी बचाकर रखना चाहता हूँ जब दर्शकों की नज़र से मैं 
उतार दिया जाऊँगा । 

मैं वर्तमान का कमेंटेटर हूँ, नियति का नहीं और वर्तमान का आंखो देखा हाल ही बता रहा हूँ । मैंने कभी आम आदमी पार्टी की रिपोर्टिंग इस लिहाज़ से नहीं की कि इसमें मेरे लिए भी कोई संभावना है । बल्कि मैंने इसमें राजनीति के प्रति व्यापक और आलोचनात्मक संभावनाए टटोली है । इस लिहाज़ से किसी दल की रिपोर्टिंग नहीं की । मेरे मास्टर ने कहा था कि बेटा बकरी पाल लेना मुग़ालता मत पालना । बकरी पालोगे तो दूध पी सकते हो, खस्सी बियाएगी तो पैसा कमाओगे, कुछ मटन भी उड़ाओगे । मुग़ालता पालोगे तो कुछ नहीं मिलेगा । 

इसका मतलब यह नहीं कि आशुतोष ने ग़लत फ़ैसला लिया है बल्कि बहुत सही किया है । पत्रकार पहले भी राजनीति में जाते रहे हैं । बीजेपी कांग्रेस लेफ़्ट सबमें गए हैं । आशुतोष का जाना उसी सिलसिले का विस्तार है या नहीं इस पर विद्वान बहस करते रहेंगे । उन्होंने एक साहस भरा फ़ैसला लिया है । इससे राजनीति के प्रति सकारात्मकता बढ़ेगी । वो अब अंतर्विरोधों की दुनिया से बचते बचाते निकल आएं और समाज का कुछ भला कर सकें इसके लिए मेरी शुभकामनायें ( हालाँकि पेशे में उनका कनिष्ठ हूँ ) । अब वो राजनीतिक हमलों के लिए खुद को तैयार कर लें । खाल तो मोटी चाहिए भाई । और आप लोग मुझे हैरत भरी निगाहों से न देखें । कुर्ता पजामा पहनने का शौक़ तो है कुर्ता पजामा वाला बनने की तमन्ना नहीं है । एक दिन बड़ा होकर पत्रकार ही बनना है ! पत्रकार बने रहना कम जोखिम का काम नहीं है भाई ! बाक़ी तो जो है सो हइये है ! 

 

तो मेरे गाँव में बिजली आ रही है !

यक़ीन नहीं हो रहा है पर यक़ीन सा हो रहा है । मेरे गाँव में बिजली आने की संभावना प्रबल हो गई है । खम्भे लगने शुरू हो गए हैं । इससे यक़ीन गहरा गया है कि बिजली आ जाएगी । किसी को लग रहा है कि मेरे यहाँ आएगी की नहीं । मुझे भी लग रहा है कि मेरा यहाँ लगेगी कि मेरे यहाँ । मेरा घर तो नहीं छूट जायेगा । या सिर्फ पत्रकार के ही घर लगेगी । जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार ट्रांसफ़ॉर्मर  लगने के बाद कैम्प लगेगा । क्षमता के अनुसार सबसे आवेदन लिये जायेंगे ।ट्रांसफ़ॉर्मर कहाँ लगेगा इस बात को लेकर भी चर्चा है और लँगड़ी मार राजनीति । जो लोग अभी तक सोये रहे सब जाग गए हैं । किसी को लग रहा है कि मेरे गाँव में आ ही रही है तो पास के टोले में भी आ जाए । सबकी चिन्ता स्वाभाविक है । सबके यहाँ जानी चाहिए । पर आ रही है ंयही सुनकर गुदगुदी हो रही है । 

शायद २००५ का साल था । बिहार में चुनाव हो रहे थे । अपने ही गाँव से रिपोर्ट कर दिया । मेरे गाँव में बिजली कब आएगी । पर कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि देश के लाखों गाँव में बिजली नहीं है । उस रिपोर्ट के उत्साह में सुशील मोदी जीत के दिन पटना दफ़्तर आए थे । खुद से कह दिया कि आपके गाँव में भी बिजली आएगी । भूलने की शिकायत नहीं है । नीतीश श्रेय लें या मोदी लेकिन सच यही है कि बिहार के कई गाँवों में बिजली तो आई ही । मेरे गाँव के आस पास के गाँवों में भी बिजली आ गई है । वहाँ का जीवन काफी बदला है । बिजली की उपलब्धता में भी लगातार सुधार है । ज़िला मुख्यालयों में भी लोग बता रहे हैं िबदली रहने लगी है । वर्ना तो उसकी बात आने जाने के संदर्भ में ही होती थी । कब आती है कब जाती पता नहीं चलता । अब लोग कहते हैं कि बिजली रहती है । इस सुख को गुजरात पंजाब वाले नहीं समझेंगे ! उन्हें तो बिजली काफी समय से मिल रही है । अगर नीतीश कुमार और उनके बिजली मंत्री ने गाँव गाँव बिजली दे दी तो यह उनकी तरफ़ से बड़ा योगदान हो जायेगा । बाक़ी तो जो है सो हइये है ।

कुछ जानकारियाँ मिली हैं कि बिहार सरकार ने पिछले नवंबर को केंद्र के पास एक एक टोला और मोहल्ला में बिजली पहुँचाने के लिए डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट भेजा था । इस रिपोर्ट को तैयार करने को लिए जीपीएस का इस्तमाल किया गया है । एक महीने के भीतर केंद्र ने मंज़ूरी दे दी है । शायद नौ हज़ार करोड़ रुपया बिहार को मिलेगा । बिहार सरकार का बिजली मंत्रालय दिन रात इस बात में लगा है कि फ़रवरी तक काम के आदेश जारी कर दिये जायें ताकि एक साल के भीतर बिहार के हर गाँव और टोले में बिजली चली जाए । 

मेरे पिताजी तो बिना बिजली का स्वागत किये ही दुनिया से चले गए । पंद्रह सोलह साल पहले घर में वायरिंग करा दिया था कि बिजली तो बस आने वाला है । हर महीने साल बिजली के आने की बात करते थे । तरह तरह की योजनाएँ बनाते थे । फिर पुराना टीवी सेट ले गए और मेज़ पर सज़ा कर दिखा कि बिजली आएगी । बाद में टीवी बैटरी से चलने लगा और जनरेटर से । पाँच साल पहले जब नीतीश कुमार से मुलाक़ात हुई थी तब कहा था कि सर क्या मेरे गाँव में बिजली आ सकती है । उन्होंने कहा कि जब सबके यहाँ आएगी तो आपके यहाँ भी आ जाएगी । बीच बीच में कुछ अफ़सरों से ज़रूर कहा । अन्य लोगों ने भी अर्ज़ी पर्ची लगाई । सबके प्रयास से बिजली आने की संभावना निकट है । धीरज रखना पड़ता है । बिजली को लेकर हम इतने सामान्य होते जा रहे हैं कि इस उत्सुकता को कोई दर्ज ही नहीं कर रहा । कोई अख़बार भी नहीं लिख रहा है कि किसी गाँव में पहली बार बिजली पहुँची तो वहाँ क्या हुआ । दिल्ली में माता जी ख़बर सुनकर ही खिल जाती हैं । वहाँ फिर से रहने की योजना बना रही हैं । बिहार सरकार का शुक्रिया । आस पास के टोलों में भी पहुँच जाए तो क्या बात । इस खुशी में वहाँ काम कर रहे बिजली विभाग के अफ़सरों का भी शुक्रिया । अगली बार गाँव गया तो सबके पास गुलाब का फूल लेकर जाऊंगा । थैक्यूं कहने । सरकारी अधिकारी भी हमारे अपने ही हैं । 


इस खुशी को आप नहीं समझेंगे । बिजली आ रही है भाई । अंजोर ! अन्हार भाग जाईं । गाँव में वक़ील साहब रात को मुक़दमे की फ़ाइल पढ़ सकेंगे । मोबाइल चार्ज हो जाएगा । टीवी चलेगा । टार्च और डिजिटल लाइट को रेस्ट मिलेगा । बच्चे होमवर्क करेंगे । टीवी के चक्कर में लोग देर रात जागेंगे । अगर गाँव की लँगड़ी मार राजनीति का बुरा अनुभव रहा तब तो सलाम नमस्ते वर्ना अब दूसरी प्राथमिकता गाँव का स्कूल है । प्रस्ताव बना रहा हूँ । टीचर अच्छे ही होंगे । उन्हें प्रोत्साहन और सुविधायें दी जायें तो क्या नहीं कर सकते हैं । छात्र कितनी इज़्ज़त करते हैं उनकी । एक टीचर ह्रदय कुमार के साथ घूम रहा था । खेत खलिहान से गुज़रने वाला हर बच्चा परनाम माट साब कहता है । तो दोस्तों दुआ कीजिये कि बिजली का आगमन हो जाए । दायें बायें करने की स्थानीय राजनीति से भी निपट लिया जाएगा । पहले बिजली आ तो जाय ।  अब तो कोई नहीं कहेगा न कि क्या तुम्हारे गाँव में बिजली नहीं है ! 

वैशाली वसुंधरा के पोस्टर




युवा प्रवक्ता

बड़े दलों के युवा प्रवक्ताओं के फ़ोन आते रहते हैं । टीवी की बहस में कैसे भाग लेना चाहिए । क्या सुधार करना चाहिए । हर दल के प्रवक्ताओं को फ़ीडबैक देता रहता हूँ । इन सबकी चिन्ता यह है कि कैसे वे जेटली या थरूर टाइप के प्रवक्ताओं से बेहतर कर सकें । पार्टी का नाम नहीं ले रहा मगर फटने करने वाले प्रवक्ताओं में दो दलों के तो है हीं ।ये प्रवक्ता पहनावे से लेकर शैली तक की बात करते हैं । पार्टी के अंतर्विरोधों का कैसे सामना करें इसे लेकर काफी परेशान रहते हैं । कई बार जब कोई पार्टी किसी मुद्दे को लेकर फँस जाती है तो युवा प्रवक्ताओं को भेज दिया जाता है । उनकी अक्सर यही प्रतिक्रिया होती है "ग़लत तो हुआ है पर हमें कुछ न कुछ तो डिफ़ेंड करना था इसीलिए आज मैं चुप ही रहा "। येदुरप्पा दुरागमन या लालू गठबंधन ऐसे ही मुश्किल मुद्दे हैं जो युवा प्रवक्ताओं को डराते हैं । अच्छा है कि वे सीखना चाहते हैं । फ़ीडबैक माँगते हैं । युवा प्रवक्ता तैयारी भी करते हैं । अक्सर इनके हाथ में प्रिंट आउट होते हैं । ब्रेक के दौरान सैमसंग और आईफ़ोन में गूगल करते हैं । इस बात को लेकर भी चितिंत रहते हैं कि अगला इतना नौटंकी करता है तो क्या उन्हें भी करनी चाहिए । हा हा । मैं सबको उनकी पार्टी के हिसाब से पढ़ने के लिए बोल देता हूँ । मगर इनमें भी वही घाघपन आ गया है जो इनके बड़े नेताओं में होता है । कोई एकांत में नहीं पनपता । हर पौधे में खाद पानी की ज़रूरत होती है । हमारे में भी किसी न किसी ने डाला ही था । 

कुछ लोग टिकट की चाह में फ़ोन कर देते हैं ं । प्लीज़ ये मत कीजिये । राजनीति का अध्ययन करना और किसी पार्टी की प्रक्रिया संचालन में हस्तक्षेप करना दोनों अलग बात है । मैं दूसरे कार्य योग्य नहीं हूँ । 

हम आपके हैं कौन !

आज सुबह दफ़्तर में एक फ़ोन आया । फ़ोन रखते ही मैं एक अनजान वृद्ध महिला के एकांत से घिर गया । दिल्ली के नीतिबाग में रहने वाली ये महिला किसी बड़े अफ़सर की पत्नी हैं । पहले तो अपनी कविता सुनाई । फिर कहने लगी तुम इतना बीमार क्यों रहते हो । मैंने मज़ाक़ में कह दिया कि छुट्टी मिलती है । वो रोने लगी । कहने लगीं कि मैं माँ हूँ । तुम मेरे बेटे हो । मैं रोज़ रात को नौ बजे तुम्हारा इंतज़ार करती हूँ । तुम नहीं आते हो तो अच्छा नहीं लगता है । वो अब फूट फूट कर रोने लगी थीं । कह रही थीं कि जहाँ पैदा हुए वहाँ का सब छूट गया । तुम मेरी पुरानी भाषा के शब्द दोहराते हो तो सब लौट आता है । नहीं आंटी ऐसा क्यों कहती हैं । आप प्लीज़ मत रोइये । मैं तुम्हारी आंटी नहीं हूँ । माँ हूँ । तो ठीक है आशीर्वाद दीजियेगा । मैं दूसरी तरफ़ चुप और वो उस तरफ़ रोये जा रही थीं । रोते रहीं किसी तरह फ़ोन रख दिया । पहले भी बात हुई थी । तब क्या झटाकेदार अंग्रेज़ी में अधिकार से फ़ोन किया था । नंबर सेव कर लिया था । ( मैं यह अपनी तारीफ़ और शो के प्रचार में नहीं लिख रहा ) मुझे उनका वो आलीशान घर खंडहर की तरह नज़र आने लगा ( जिसे देखा भी नहीं बताया था कि बड़ा घर है ) और उसमें इस शहर में भटकती रूह की चित्कार । हम किस किस के घर में किस किस रूप में उतरते हैं अंदाज़ा नहीं कर सकते । मगर उनका रोना काट रहा है । घर जाने का वादा तो कर दिया मगर उस घर में कैसे जायें जहाँ कोई सब कुछ पाकर एकांत के मातम से घिरा हुआ है । लेकिन जाऊँगा । कितना भयानक अलगाव है ये ।


हम सिर्फ ख़बर या बहस लेकर आपके ड्राइंग रूम में नहीं आते हैं । हम आपकी गुदगुदी बेचैनियां और ग़ुस्से का भी हिस्सा हैं । आप दर्शकों की ज़िंदगी की किस तकलीफ़ में हम मरहम की तरह काम कर जाते हैं ये लिखना आसान तो हैं मगर समझना बहुत मुश्किल । पहले भी रिपोर्टर एंकर की इन अनाम और अनगिनत रिश्तेदारियों पर लिख चुका हूँ । हमारे ख़ून के रिश्ते तो ख़ून के प्यासे रहते हैं , नहीं निभता फिर भी निभाते रहते हैं । ये वो लोग हैं जो ख़ून के रिश्तेदार नहीं हैं । काम में ईमानदारी और बेहतर प्रस्तुति के अलावा कोई ज़रिया भी इन रिश्तों को निभाने के लिए । कई लोगों से मिल लेते हैं । घर भी गया हूँ । एक के बारात में चला गया था । बाज़ार में रोज़ अपने देखने वालों से मिलता हूँ । उनके साथ फोटो भी खिंचा लेता हूँ । मगर इस भीड़ में ख़ुद के अकेलेपन की प्रक्रिया भी चलती रहती है । खुद के लिए भी किसी को ढूँढता रहता हूँ । माता जी की व्यथा को समझ सकता हूँ । आगरा में एक किराने की दुकान चलाने वाले इक़बाल भाई को भी समझ सकता हूँ जिन्हें फ़ोन किया तो कहा कि दो मिनट होल्ड कीजिये । कार में बैठ लूँ । फिर इक़बाल भाई रोने लगे कि हमें क्यों नहीं अपना समझा जाता है । हम क्यों किसी हिन्दू मुस्लिम डिबेट में बाहरी की तरह दिखाये जाते हैं । रोते ही रहे । अकेलापन कितने स्तरों पर आदमी की पहचान का पीछा करता है । आज रात नौ बजे क्यों नहीं आए , जब भी ऐसा एस एम एस आता है , यह बात खटक जाती है कि आज कोई अकेला रह गया होगा । 


चलते चलते:  एनडीटीवी में एक मित्र हैं पीटर । आफिस की कार चलाते हैं । पीटर चुप रहते हैं । बहुत साल पहले एक शूट के दौरान पीटर ने कहा कि केक खायेंगे । किसी का इंतज़ार लम्बा हो रहा था । उस केक पर झूम गया । पीटर ने कहा कि ये रम केक है । क्रिसमस में बनता है । पहली बार रम केक खाया था । पीटर हर साल क्रिसमस का रम केक मेरे लिए बना कर लाते हैं । शानदार । गले मिलते हैं और केक पकड़ा देते हैं । आज भी केक पकड़ा गए । कहा कि कब से इंतज़ार कर रहा था । रोज़ ला रहा था पर आज मिले ।