क्या सही में लालू की वापसी हो रही है

"लालू ज़िंदा हो गया है । सब बोलते थे कि लालू ख़त्म हो गया । देखो कहाँ ख़त्म हो गया है ।" लालू यादव को जैसे ही मैंने कहा कि लोग बता रहे हैं कि आप बिहार में नंबर दो पर आ गये हैं । लालू ने कहना शुरू कर दिया कि मैं नंबर वन हूँ । चालीस का चालीस सीट जीत रहा हूँ । बिहार में बीजेपी को मैंने एक ही हेलीकाप्टर से रोक दिया है । हेलीकाप्टर से कोई रूका हो या न हो मगर हेलीकाप्टर न हो तो रैलियों में गड़गड़ाहट पैदा नहीं होती है ।


भीषण गर्मी में लालू का दावा सर के ऊपर से गुज़र रहा था । कैमराकार मोहम्मद की हालत ख़राब होने लगी थी । मुझे भी लग रहा था कि कुछ गड़बड़ हो रहा है । लगा कि शुगर डाउन हो गया है । बीच इंटरव्यू में लालू यादव से पूछ दिया कि आपके साथ कुछ खाने को है । मेरी हालत ख़राब हो रही है । लालू सकपका गए । फिर किसी को कहने लगे कि खाने का इंतज़ाम हो सकता है । तब तक चाय आ गई । मुझे तो चाय से राहत मिल गई पर मोहम्मद की तबीयत ख़राब होने लगी । कैमरा बंद । इंटरव्यू हो चुका था मगर मोहम्मद पेट पकड़ कर बैठ गए । शूटिंग करते वक्त कब क्या हो जाए पता नहीं ।हालत ख़राब थी पर कैमरे के सामने सामान्य दिखने के लिए मुस्कुरा रहे थे । लालू भाषण दे रहे थे और मैं उनके ड्राईवर से पानी मांग रहा था । कहा साहब के लिए एक ही बोतल है । दे दिया । दोपहर की गर्मी कभी कभी मार देती है । बाद में स्थानीय पत्रकार बंधु के घर भोजन मिला और हम सामान्य हुए । 

नरेंद्र मोदी ने रैलियों का स्तर इतना भव्य कर दिया है कि लोग भूल चुके हैं कि चुनावी सभाएँ भी होती हैं । नरेंद्र मोदी की रैली की तरह कोई इंतज़ाम नहीं । मीडिया का कोई कैमरा नहीं । कोई ओबी वैन नहीं । जबकि आज ही मोदी की बिहार में हुई सभी रैलियों का कुछ न कुछ हिस्सा चैनलों पर ज़रूर चला होगा । लालू, मायावती, मुलायम और नीतीश की सिर्फ बाइट चलती है । मोदी, राहुल, सोनिया और प्रियंका ही लाइव होते हैं । लालू की सभा का इंतज़ाम ऐसा था जैसे रास्ते में बारात का इंतज़ाम हो । कोई चमक दमक नहीं । प्रेस को संभालने वाला कोई मैनेजर नहीं । 

लालू की सभा में हेलीकाप्टर दिखने से पहले कोई सौ लोग भी नहीं थे । जैसे ही हेलीकाप्टर दिखाई दिया पता नहीं कहाँ से पाँच मिनट के भीतर सभा स्थल भर गया । समझ ही नहीं कि कहाँ से इतने लोग आ गए । जबकि ठीक उसी वक्त छपरा में मोदी की रैली चल रही थी । लोगों ने बताया कि धूप के कारण भीड़ बाग़ीचे में इंतज़ार कर रही थी । 

बिहार में अचानक लोग लालू के उभार की बात करने लगे हैं । क्या सचमुच लालू ने मोदी लहर को रोक दिया है । लालू के दावे और उनके प्रति भीड़ के आकर्षण के कारण ऐसा लग सकता है । आज भी लोग लालू की बात को ध्यान से सुन रहे थे । जब बीजेपी के दावे विश्वसनीय बताये जा सकते हैं तो लालू के क्यों नहीं । अगर लालू ने ऐसा कर दिया तो वे मोदी के सामने बड़े नेता बन जायेंगे । सोलह मई के बाद देखा जाएगा । 

इस चुनाव में जनमत बदल रहा है । वह जातियों के बंधन में ज़रूर फँसा है मगर उससे निकल भी रहा है । यही निकले हुए लोग बीजेपी को ऊर्जा दे रहे हैं । उन्हें रास्ता दिखाने में कांग्रेस के ख़राब प्रदर्शन का भी योगदान है । रिज़ल्ट क्या होगा पता नहीं मगर बिहार में चर्चाओं का तराज़ू बराबर दिख रहा है एकतरफ़ा झुका हुआ नहीं । मोदी ने खुद को बदलाव के एजेंट के रूप में पेश कर दिया है । इस दावेदारी को चुनौती देने के लिए दूसरी तरफ कोई उम्मीदवार नहीं है । दूसरी तरफ़ से मोदी की तरह कोई सपना नहीं बेचा गया है । इसलिए जाति या क्षेत्रिय दलों के सहारे मोदी को रोकने की बात दमदार तो लगती है मगर सारे दलील पुराने फ़ार्मूले पर आधारित हैं । ये नरेंद्र मोदी के पक्ष में है या नहीं मगर इस चुनाव में राजनीतिक सामाजिक संबंधों में व्यापक बदलाव हो रहा है । 

भाजपा या संघ का एक कमाल यह भी है कि उसने हर चौक चौराहे पर अपने समर्थकों को आक्रामक दलीलों से लैस कर दिया है । किसी की रैली में जाता हूँ तो ये लोग कैमरे के पास आकर मोदी मोदी करने लगते हैं । दमदार बहस करते हैं । मुझे बीजेपी की रैली में कोई सपाई या कांग्रेसी नहीं मिलता मगर बाक़ियों की रैली में बदलाव या मोदी मोदी करने वाला युवा ज़रूर मिलता है । अब पूछने लगा हूँ तो पता चलता है कि स्वयंसेवक है या बीजेपी नेता के रिश्तेदार । वैसे ये काम तो दूसरे दल वाले भी कर सकते थे, किसने रोका है । इनके मोदी मोदी करने से पहले भीड़ कुछ और बात कर रही होती है लेकिन अचानक ऐसे तत्वों के आने से भीड़ छँटने लगती है । एक ही पोस्टर में लालू सोनिया और शहाबुद्दीन की तस्वीर है । जो बिहार की राजनीति को जानता है वो इस तस्वीर का मतलब अपने आप समझ जाएगा । इस पर लिखूँगा तो फिर बीजेपी के समर्थन से लोजपा के टिकट से लड़ रही रहे सूरजभान सिंह की पत्नी भी हैं । ऐसे विषय अब चुनाव के आख़िरी दौर में अकादमिक हो चले हैं । फ़िलहाल सवाल यह है कि क्या वाक़ई लालू बीजेपी को रोक देंगे । 

बहुमत की ओर कांग्रेस

बीजेपी को मज़ाक़ भी नहीं आता । क्या कर सकती है । पिछले चुनाव में मनमोहन सिंह को गंभीरता से नहीं लिया जिसका ख़मियाज़ा हार से भरना पड़ा । कमज़ोर प्रधानमंत्री का मुद्दा लेकर आडवाणी निकले थे । आडवाणी को लगा कि जनता भाषण देने की कला के आधार पर उन्हें चुन लेगी और मनमोहन हार जायेंगे । ऐसा हुआ नहीं । कमज़ोर ही प्रधानमंत्री बना । मज़बूत आडवाणी कमज़ोर हो गए ।

इसलिए जब अपना वोट डालने के बाद मनमोहन सिंह ने कहा कि कांग्रेस को बहुमत आयेगा तो बीजेपी ने गंभीरता से लिया । मनमोहन सिंह को अनेकानेक मनोरंजक लतीफों से नवाज़ने वाली बीजेपी को हँसी नहीं आई । इस चुनाव में मनमोहन पहले कांग्रेसी हैं जो बहुमत का दावा कर रहे हैं । जिस राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव लड़ रही है वो भी मानती है कि दस साल सरकार में रहने के कारण काफी नुक़सान हो सकता है । यही बात किसी और नेता ने कही होती तो बीजेपी के प्रवक्ता हँसी में उड़ा देते मगर आश्चर्यजनक रूप से भाजपा के सभी बड़े नेताओं ने मनमोहन के इस बयान की धुलाई की है । कोई गुज़ाइश नहीं छोड़ी ।

अपने चुनाव अभियान में मोदी ने भी कमज़ोरी के नाम पर मनमोहन सिंह की आडवाणी छाप धुलाई नहीं की । लुधियाना में पगड़ी पहनकर भी नहीं कहा कि वे मनमोहन सिंह से ज़्यादा बड़े सरदार हैं । दिल्ली विधानसभा चुनाव की पहली रैली में मोदी ने मनमोहन के सरदार होने पर टिप्पणी की थी मगर उसके बाद से लचर और बेकार सरकार कह कर ही हमले करते रहे । मनमोहन सिंह भुला से दिये गए । इस चुप्पी को तोड़ा चुप रहने वाले मनमोहन सिंह ने । बीजेपी बेचैन हो गई । 

मनमोहन सिंह भी मोदी को देख कर हँसते होंगे । अपने किसी एकांत में कहते होंगे कि जिस कुर्सी पर मैं दस साल बैठा रहा उसे पाने को लिए इतनी मेहनत करनी पड़ती है ! बाप रे । ये मोदी जी इतनी रैलियाँ क्यों कर रहे हैं । इतने इंटरव्यू क्यों दे रहे हैं । इतने कुर्ते क्यों पहन रहे हैं ? लुंगी पहनकर रजनीकांत के साथ फोटू खींचकर ट्वीट क्यों कर रहे हैं । इतने ग़ुस्से में क्यों हैं । मैंने तो जी ये सब कुछ किया ही नहीं । मेरी रैली में लोग भी नहीं आए । फिर भी मैं दस साल प्रधानमंत्री रहा । वैसे मीडिया के दिग्गज इंटरव्यूबाज़ों ने यह क्यों नहीं सोचा कि जो प्रधानमंत्री दस साल रहकर जा रहा है उसका भी एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू छाप दें । सौ सुनार की तो एक सरदार की । कांग्रेस बहुमत लाएगी । किसी सर्वे ने कहा होता तो गाली देने के साथ हँसते कि नहीं । 


ये भी मोदी हैं

डिफ़ेंस कालोनी के इस होर्डिंग स्थल पर कुछ समय पहले तक नरेंद्र मोदी होते थे । आक्रामक चेहरा और नारे के साथ । अब यहाँ दूसरा मोदी है । सौम्य । शायद फ़ैशन डिज़ाइनर हैं । 


ध्रुवीकरण के धुरंधर

मुसलमान एक तरफ़ जाएगा तो उसके ख़िलाफ़ हिन्दू दूसरी तरफ़ जाएगा । इससे मिलता जुलता विश्लेषण आप टीवी पर ख़ूब सुनते होंगे । मतदान की आती तस्वीरों के साथ टीवी स्टुडियो में बैठे जानकार किस आधार पर यह बात कह रहे होते हैं समझना मुश्किल है । हमारी राजनीति में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण एक तथ्य है मगर यह मिथक भी है । ध्रुवीकरण सतही और सामान्य व्याख्या का ऐसा औज़ार हो गया है जिसके सहारे जानकार एक मतदाता को साम्प्रदायिक रंग से पेंट कर देते हैं ।  इसी के साथ एक और मिथक की रचना करने लगते हैं । 'टैक्टिकल वोटिंग' का मिथक । क्या अन्य जाति धर्म समूह इस तरह से वोटिंग नहीं करते अगर करते हैं तो क्या वो इस कथित टैक्टिकल वोटिंग के जैसा ही है ।

एक साइड मुसलमान तो दूसरी साइड हिन्दू । ऐसा लगता है कि स्टुडियो में बैठे जानकार एक ख़ास समुदाय की तरफ़ इशारा कर रहे हैं कि मुसलमान एकजुट हो रहे हैं । भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं लिहाज़ा स्वाभाविक रूप से हिन्दुओं को भी भाजपा के पक्ष में एकजुट हो जाना चाहिए । अख़बारों में भी ऐसी बातें ख़ूब लिखी जा रही हैं । कई बार लगता है कि एक रणनीति के तहत ऐसा किया जा रहा है । मतदान प्रक्रिया का एक अदना सा एक्सपर्ट भी जान सकता है कि कुछेक अपवादों को छोड़ सामान्य रूप से यह बात सही नहीं है । कई बार लगता है कि चुनाव के समय ऐसे विश्लेषणों के सहारे समाज में साम्प्रदायिकता को भड़काने का काम किया जाता है । 

क्या हिन्दू हमेशा यह देखकर वोट देता है कि मुसलमान किस तरफ़ वोट दे रहा है या मुसलमान यह देखकर वोट देता है कि हिन्दू किस तरफ़ देता है । इसका वैज्ञानिक आधार क्या है । हर चुनाव में मुस्लिम मतदाता को ब्रांड करने का खेल खेला जाता है । जैसे उसकी अपनी कोई आकांक्षा नहीं है और वो सिर्फ मुसलमान बनकर वोट करता है । अगर ऐसा होता तो यह बात सही होती कि एक आम मुस्लिम मतदाता इमाम बुख़ारी जैसे धर्मगुरुओं के कहने पर ही वोट कर देता । किसी भी चुनाव का आँकड़ा देखेंगे तो यह ग़लत साबित होता है । आम मुस्लिम मतदाता बड़े आराम से मतदान के फ़ैसले में मुल्ला मौलवियों की दख़लंदाज़ी को पसंद नहीं करता । खुलकर बोलता भी है लेकिन मीडिया ऐसे धर्मगुरुओं के बहाने मुस्लिम मतदाताओं का सांप्रदायिकरण करता रहता है । 

इसी संदर्भ में एक और बात कहना चाहता हूँ । बाबा रामदेव जैसे कई योग गुरु और धर्मगुरु भी तो किसी पार्टी के लिए वोट मांगते हैं । इमाम बुख़ारी का अपील करना साम्प्रदायिक और बाबा रामदेव या शंकराचार्य का अपील करना राष्ट्रभक्ति । कैसे ?  मैं दोनों की तुलना नहीं कर रहा लेकिन मूल बात यह है कि सभी प्रकार के मज़हबी नेता चुनाव के वक्त सक्रिय होते हैं । कोई आशीर्वाद के नाम पर इनके पास जाता है तो कोई अपने भाषणों में देवी देवताओं के प्रतीकों का इस्तमाल करके धर्म का इस्तमाल करता है । खुद को ईश्वर का दूत बताना क्या है । 

आम मतदाता को इससे सचेत होने की ज़रूरत है । यह भी ध्यान में रखने की बात है कि हमारे तमाम धर्मों के गुरुओं का समाज से गहरा नाता होता है । झट से उनके किसी राजनीतिक आचरण को साम्प्रदायिक क़रार देने से पहले देखना चाहिए कि वे क्यों ऐसा कर रहे हैं । उनका आधार सांप्रदायिक है धार्मिक है या राजनीतिक । अगर विरोध करना है तो एक साथ डेरों, मठों, मस्जिदों की राजनीतिक दख़लंदाज़ी का विरोध कीजिये । 

मैं फिर से लौटता हूँ अपनी मूल बात पर । तमाम अध्ययन बताते हैं कि मुस्लिम मतदाता अपनी पसंद के हिसाब से अलग अलग राज्यों में अलग अलग पार्टी और नेता को वोट करता है । मुसलमान एक नहीं कई दलों को वोट करने के साथ साथ बीजेपी को भी वोट करता है । मध्यप्रदेश राजस्थान और गुजरात में भी करता है । हो सकता है कि प्रतिशत के लिहाज़ से कम हो लेकिन आप यह भी तो देखिये कि बीजेपी ने इन राज्यों में लोकसभा के चुनावी मैदान में कितने मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं । उत्तर प्रदेश में कितने उतारे हैं । पिछले लोक सभा चुनाव में बीजेपी को पचीस छब्बीस प्रतिशत मत मिले थे शेष और पचहत्तर फ़ीसदी मत अन्य दलों को । अगर हिन्दू वोट जैसा कुछ होता तो बीजेपी को पचहत्तर फ़ीसदी वोट मिलते । जो हिन्दू बीजेपी को वोट नहीं करते उनके न करने के आधार क्या हैं । हमारे ये जानकार हिन्दू मतदाताओं के विवेक के साथ भी अन्याय करते हैं । मतदाताओं का अति हिन्दूकरण कर साम्प्रदायिक रंग देते हैं । 

चलिये इस बात को एक और तरीके से देखते हैं । हर समुदाय या जाति के लोग अपने उम्मीदवारों को वोट देते हैं । इसी आधार पर कांग्रेस बीजेपी सब अपने उम्मीदवार तय करते हैं । तब भी बीजेपी को हराने के लिए मुसलमान किसी मुसलमान उम्मीदवार को वोट नहीं करता है । वो उसी दल या उम्मीदवार को वोट करेगा जिसके पास पर्याप्त वोट हो । यह वोट कहाँ से आता है । कथित रूप से हिन्दू समाज से ही न । तो यह बात कैसे उचित ठहराई जा सकती है कि हिन्दू एक तरफ़ जाते हैं और मुस्लिम दूसरी तरफ़ । क़ायदे से तो एक दूसरे की पार्टी को हराने के लिए दोनों मिलजुलकर एक दूसरे के ख़िलाफ़ गोलबंद होते हैं । इसके बाद भी सारे मुसलमान किसी एक व्यक्ति या दल को वोट नहीं करेंगे । 

मुसलमानों को कथित रूप से बीजेपी के ख़िलाफ़ पेश किये जाने के बाद भी जानकार जानते हैं कि वे कहीं भी एकमुश्त वोटिंग नहीं करते । यह संभव भी नहीं है । ऐसा होने लगा तो समझिये कि मुस्लिम समाज के भीतर आपसी टकराव ही समाप्त हो जायें । आप भी जानते हैं कि मुसलमानों के बीच अगड़े पिछड़े और दलित मुसलमानों के हक़ को लेकर ज़बरदस्त टकराव है । पिछले दिनों कई राज्यों में जैसे उत्तर प्रदेश, केरल और असम, मुस्लिम दलों का उदय हुआ है क्या ये सभी बीजेपी के ख़िलाफ़ उभरे हैं ? नहीं । इनसे चुनौती कांग्रेस सपा बसपा लेफ़्ट को भी मिलती है ।

इसीलिए जानकारों को ध्रुवीकरण की बेहद सतही और ख़तरनाक व्याख्या से बचना चाहिए । बनारस में नरेंद्र मोदी जब अपने नामांकन के लिए जा रहे थे तो उस भीड़ में भी कैमरे मुसलमान ढूँढ रहे थे । उनका क्लोज़ अप दिखा रहे थे । मुझे इस बात से आपत्ति है । क्या कैमरे उस भीड़ में शामिल अन्य लोगों को भी उसी निगाह से देख रहे थे । अगर नहीं तो फिर एक या दो मुसलमान की तलाश क्यों हो रही थी । तब भी जब नरेंद्र मोदी के साथ मुख़्तार अब्बास नकवी नज़र आ रहे थे । बीजेपी भले हिन्दुत्व या संघ के कहने पर चले पर उसे मिलने वाला हर वोट इसके लिए नहीं मिलता । बीजेपी के कार्यकर्ता चाहें जितना हिन्दुत्व के रंग रूप में ढल कर आक्रामक हो जायें उनकी पार्टी को मिलने वाला हर वोट हिन्दू वोट नहीं है । ज़्यादातर दलित मतदाताओं को खुद को इस पहचान से जोड़ कर देखे जाने से आपत्ति हो सकती है जबकि हो सकता है कि वो वोट बीजेपी को दें ।

हमें जनमत का साम्प्रदायिकरण नहीं करना चाहिए । सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण हमारी राजनीति की ख़तरनाक सच्चाई है लेकिन ऐसा हर जगह किसी एक फ़ार्मूले के तहत नहीं होता कि मुसलमान इधर गए तो हिन्दू उधर चले जायेंगे । कई बार लगता है कि जानकार मुस्लिम मतदाताओं का मज़हबी चरित्र चित्रण करते हुए ग़ैर मुस्लिम मतदाताओं को इशारा कर रहे होते हैं कि उन्हें वोट कहाँ देना चाहिए । 


बनारस सिर्फ घाट नहीं है

इस शहर को देखने के लिए लगता है एक ही चश्मा बना है । जिस चश्मे से बनारस के घाट दिखते हैं, प्रदूषित और मरनासन्न गंगा जी दिखती हैं, बुनकरों और जुलाहों के बीच फ़र्क करने वाले सवालों के साथ पावरलुम दिखते हैं और कुछ लोग जो पान खाते चाय पीते भी दिखते हैं जो ख़ुद को जितना बनारसी होने का दावा करते हैं उससे कहीं ज़्यादा उस एक चश्मे से देखने वाला पत्रकार उनके बनारसीपन को उभारता है । 

बनारस हमेशा से तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की निगाह से देखा जाने वाला शहर रहा है । दुनिया के किसी भी धार्मिक या पर्यटन महत्व वाले शहर के साथ ऐसा होता है । देखने वाला उस शहर की अन्य वास्तविकताओं को छोड़ उन्हीं प्रतीकों की अराधना में डूब जाता है जिनका मिनियेचर गली गली में बिक रहा होता है । पूरा पर्यटन तंत्र भी इन छवियों को एक कारोबार में बदल देता है । पोस्टकार्ड में छपी तस्वीरें सबके लिए प्रमाण बन जाती हैं । कोई इन तस्वीरों से पार जाकर उस शहर को नहीं देखता । साहित्य से लेकर रिपोर्टिंग तक में ये प्रतीक चेंपू टाइप के रूपक बन जाते हैं । आख़िर किस शहर में समोसे कचौरी की फ़ेमस दुकान नहीं होती । किस शहर में कोई प्रसिद्ध बर्फीवाला लस्सीवाला और नान वाला नहीं होता । अमृतसर जाकर भी छवियों के इस बारंबार पुनरउत्पादन से ऊब पैदा हो गई । नान और कुल्चे के अलावा भी तो कोई शहर होगा । 

किसी भी शहर में नदी या नहर के किनारे जाइये कुछ लोग डुबकी लगाते मिल जायेंगे । श्मशान घाट मिल जायेंगे । काशी इसलिए अलग है क्योंकि यह मोक्ष का मार्ग बताया गया है । इसका अपना सामाजिक धार्मिक इतिहास है । पर सारा काशी उन्हीं पोथी पतरों में बसता है ये तो नहीं हो सकता । जीवन के अंतिम समय में लोग मोक्ष प्राप्ति के लिए यहाँ आकर बसते रहे हैं । इस चाहत ने बनारस की कुछ कटु वास्तविकताओं को भी जन्म दिया है । विधवाओं की हालत और उनके क़िस्सों के बारे में आप जानते ही हैं ।

चुनाव के संदर्भ में टीवी और अख़बार ने इस शहर को श्रंगार रस में बदल दिया है । पोस्टकार्ड पर छपने वाली उन्हीं चंद तस्वीरों को बार बार दिखाया जा रहा है । जिनमें बनारस का नया विस्तार नहीं है । शहर और जीवन की विविधता नहीं है । ऐसा लगता है कि मीडिया वहाँ चुनाव कवर करने नहीं गया है । किसी धार्मिक उत्सव को कवर कर रहा है । मुद्दों और विचारधारा पर आस्था के प्रतीक हावी हैं । इस प्रक्रिया में आप उसी बनारस को जानते हैं जिसे पहले से जानते आये हैं । बनारस एक शहर के रूप में क्या चाहता है यह मुद्दा नहीं है । सारे कैमरे घाट पर चले जाते हैं । ऐसा नहीं है कि पूरा बनारस रोज़ घाट पर चला आता है । बनारस में ही कई लोग हैं जिन्हें घाट की तरफ़ गए महीनों हो गए होंगे । बनारसी सिर्फ घाट पर नहीं मिलते हैं । बनारस के उन गाँवों में रहने वाले बनारसी ही हैं जिनके पास कैमरे नहीं जाते । किसी को यह भी समझने का प्रयास करना चाहिए बनारस के गाँवों के लोग मीडिया और पर्यटन मंत्रालय की बनाई छवियों में अपनी छवि कैसे देखते हैं । बनारस  के जीवन में अतिरिक्त और विशिष्ठ मौज मस्ती देखने वाले पत्रकारों  को समझना चाहिए कि जीवन के प्रति मोह और त्याग, हताशा और आशा किसी और शहर में बनारस से कम नहीं है । बनारस है और रहेगा मगर बनारस का इतना रस मत निचोड़ों कि गन्ने की लुग्दी सूख जाए ।

एवरेस्ट के नीचे बसपा

"एक बार आप माउंट एवरेस्ट पर पहुँच जाते हैं तो उसके बाद उतरने का ही रास्ता रह जाता है " । यूपी में 2012 के विधान सभा चुनावों से पहले बसपा पर नज़र रखने वाले उस मित्र की बात याद आ रही है । नतीजों के बाद बसपा एवरेस्ट से उतर गई और सपा चढ़ गई । पर ये कहाँ लिखा है कि कोई एवरेस्ट पर दोबारा नहीं चढ़ सकता । यूपी के भीतर बसपा की लड़ाई पर नज़र डालने का वक्त है । क्या बसपा भाजपा को रोक देगी । रोकने वाली ताक़त भी बसपा ही है । भाजपा अपने उछाल के लिए बसपा ही माँगती है ! ये दिल माँगे मोर ।

बसपा इसबार 'चुपचाप' चुनाव लड़ रही है । आख़िर इस रणनीति का बसपा ने क्यों प्रचार किया । टाइम्स आफ इंडिया में बड़ा सा 'चुपचाप रणनीति' पर विश्वेषण छपता है ।'चुपचाप' चुनाव लड़ने का क्या मतलब होता है । क्या बसपा ने 2007 और 2012 का विधान सभा चुनाव भी चुपचाप लड़ा था । याद कीजिये टीवी पर माया सरकार का आठ दस मिनट का लंबा लंबा विज्ञापन । क्या सही में बसपा 'चुपचाप' चुनाव लड़ रही है । यह सही है कि मीडिया बसपा को कम या नगण्य दिखाता है लेकिन इस साल पंद्रह जनवरी को खुद ही मायावती ने कह दिया था कि बसपा के लोग मीडिया और सोशल मीडिया के चक्कर में न पड़ें । मायावती ने मीडिया को इंटरव्यू न देने की बात का एलान भी लखनऊ की रैली में ही कर दिया । पहले तो वो इंटरव्यू देती थीं । जबकि बसपा का अदना सा कार्यकर्ता भी मीडिया में न होने को कमी मान रहा है । कह रहा है कि समय बदल रहा है । टीवी के कारण लोगों को मोदी मुलायम का पक्ष तो मालूम है पर हमारा नहीं । मायावती ने ऐसा निर्णय क्यों लिया ? किसी से बात न करने का निर्णय क्या कुछ सवालों से बचने के लिए था ।

ऐसा भी नहीं कि वे अपने भाषणों में नरेंद्र मोदी से कोई रियायत बरतती हैं । जमकर हमले करती हैं पर यही हमला अन्य माध्यमों से प्रचारित हो जाए तो क्या हर्ज । रोज़ एक प्रेस रीलीज़ तो इनबाक्स में आती ही है जिसमें वो नरेंद्र मोदी की जमकर आलोचना करती हैं । फिर वो सामने से क्यों नहीं लड़ रही हैं । मैं भी नहीं मानता कि चुनाव में मीडिया का इतना असर होता है बशर्ते लड़ने वाला लड़ता रहे । अगर वह लड़ रहा है तो मीडिया का असर नहीं होता । जैसे बिहार में लालू कई जगहों पर मोदी को चुनौती देने की स्थिति में पहुँच गए हैं जबकि मीडिया ने उन्हें ठीक से कवर तक नहीं किया । विशेषकर टीवी मीडिया ने । मायावती के साथ मीडिया की नाइंसाफ़ी को छोड़ दीजिये तो क्या मायावती इस बार मोदी को रोकने के लिए लड़ रही हैं । ना कहने का कोई प्रमाण नहीं है मगर इसबार बसपा को देखकर हाँ भी ठीक से नहीं निकलता ।

लखनऊ में हुई पंद्रह जनवरी की रैली के बाद मायावती चुप हो जाती हैं । दो तीन महीने के बाद जब प्रेस में चर्चा होने लगती है तो प्रेस कांफ्रेंस कर सफ़ाई देती हैं कि वे राष्ट्रव्यापी रणनीति बनाने में व्यस्त हैं । खैर मायावती सभी ज़िलों में रैली तो कर रही हैं और उनकी रैलियों में भीड़ भी आती है । पर भीड़ के आगे क्या । जिन लोगों को मोदी को रोकने को लिए बसपा से उम्मीदें हैं उन्हें बसपा के चुनाव को क़रीब से देखना चाहिए । ज़मीन पर दलित पिछड़ा भाईचारा बनाने में बसपा सक्रिय है क्या । अगर मीडिया की चमक से बचकर बसपा का वोटर नहीं छिटका तो नतीजा कमाल का आएगा ।

बसपा ने इस बार 21 ब्राह्मणों को टिकट दिये हैं जबकि भाजपा ने 19 को । एक दो सीट से ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता । सब जानते हैं कि यूपी के ब्राह्मणों का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ है । फिर भी बसपा ने पिछड़ों से ज़्यादा ब्राह्मणों पर भरोसा किया । 2007 में बसपा ने भाईचारा कमेटी बनाकर ब्राह्मणों को उसका अध्यक्ष बनाया था । ब्राह्मणों का पूरा वोट तो नहीं मिला मगर मिला । फूलपुर के एक ब्राह्मण बहुल गाँव में कई पंडितों ने कहा कि सपा को हराने के लिए बसपा को दिया था । वैचारिक तालमेल नहीं था । इस बार भाजपा को देंगे । 2012 के विधानसभा चुनावों में ब्राह्मण बसपा से दूर जा चुका था । बसपा चुनाव हार गई । क्या इस बार ब्राह्मण उम्मीदवार अपनी जाति का वोट ले आएगा जिसे जाटव और मुसलमान मिलाकर जीता देंगे । ऐसा होता दिख नहीं रहा है । ब्राह्मण मतदाताओं में सजातीय उम्मीदवारों के कारण बसपा के प्रति ख़ास उत्साह नहीं दिखता । तो इन इक्कीस ब्राह्मण उम्मीदवारों में से कितने जीतेंगे यह आपको ज़मीन पर दिख जाता है ।

इस बार यूपी की लड़ाई में पिछड़ी जातियों का बड़ा रोल रहेगा । बसपा ने पंद्रह या सत्रह ओबीसी को टिकट दिये हैं जबकि भाजपा ने 28 को । भाजपा के ओबीसी उम्मीदवारों में ग़ैर यादव ओबीसी जातियाँ ज़्यादा हैं । भाजपा ने लोध जाति के नेता कल्याण सिंह और पटेलों की नेता अनुप्रिया पटेल को मिलाकर अपनी ज़मीन मज़बूत की है । कुर्मी पटेल और कुशवाहा मतदाताओं का बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ़ जा रहा है । ये जातियाँ बसपा और सपा में हुआ करती थीं । इनसे पहले भाजपा के साथ रह चुकी हैं । इनका कहना है कि बसपा सपा दोनों अपनी प्रमुख जातियों को ही आगे बढ़ाती रही हैं इसलिए ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों का विश्वास बैकवर्ड सोशलिस्ट राजनीति से कम हो गया है । इसमें आर एस एस के प्रयासों को अनदेखा नहीं किया जा सकता । मुलायम सत्रह ओबीसी जातियों को अनुसूचित जाति में डलवाना चाहते हैं और मायावती इसका विरोध करती हैं । उसी तरह से मुलायम मुसलमानों के आरक्षण की बात करते हैं तो संघ या भाजपा ओबीसी को समझाते हैं कि उनके हिस्से से मुसलमानों को जायेगा । जो आरक्षण हिंदुत्व को कमज़ोर करने का हथियार बना था वही मज़बूत करने का औज़ार बन रहा है । मायावती या मुलायम दोनों इस आधार को खिसकने से बचाने के लिए वैचारिक संघर्ष करते नहीं दिख रहे हैं । सिर्फ टिकट देने की औपचारिकता काफी नहीं है ।

" भाई साहब आज भी बहन जी आक्रामक हो जायें तो हम बीजेपी को रोक देंगे" उस कार्यकर्ता को ऐसा क्यों लगा कि चुपचाप की रणनीति पर चल रही बसपा को लाभ नहीं हो रहा है । इतना भी क्या चुपचाप कि किसी को पदचाप तक सुनाई न दे । मतदाता भी न सुन पाये । हर पार्टी अपना अस्तित्व बचाकर रखना चाहेगी । लगातार मत प्रतिशतों में गिरावट का सामना कर रही बसपा के लिए यह चुनाव काफी अहम है । अगर इस चुनाव में बसपा एवरेस्ट पर दोबारा न चढ़ पाई तो तीन साल बाद के विधान सभा चुनाव में भी नहीं चढ़ पाएगी । दिल्ली में बैठे मोदी को 2019 में यूपी की ज़रूरत फिर पड़ेगी । जिस यूपी को इतनी मेहनत से हासिल करेंगे उसे इतनी आसानी से छोड़ देंगे । क्या वे पिछड़ी जातियाँ बसपा की तरफ़ लौट आयेंगी । क्या ब्राह्मण भाजपा को इतनी जल्दी छोड़ देंगे । तब बीजेपी का नारा होगा कि यूपी का विकास तभी होगा जब दोनों सरकार भाजपा की होगी । क्या तब भी बसपा चुपचाप चुनाव लड़ेगी ।

बनारस गए अविनाश दास ने फ़ेसबुक पर बसपा उम्मीदवार के पर्चा भरने की कहानी लिखी है । उम्मीदवार देरी से आता है, बिना किसी दमख़म के आता है । अविनाश लिखते हैं कि कहीं कोई गड़बड़ी तो नहीं  । बिना कांसपिरेसी थ्योरी के कोई चुनावी विश्लेषण पूरा नहीं हो सकता । यह थ्योरी क्या हो सकती है गेस कीजिये । क्या पता बसपा सबको ग़लत साबित कर तीस सीटें ले आये या क्या पता बसपा के कारण किसी को पचास सीटें आ जाये । बसपा ने कमाल कर दिया तो धमाल हो जाएगा और बसपा के कारण कमल खिल गया तो बवाल हो जाएगा । क्या पता किस वजह से किसका क्या हो जाए ।

अन्जान शहीद

आज़मगढ़ ज़िले के एक क़स्बे का नाम है अन्जान शहीद । 1857 की क्रांति के से बहुत पहले अंग्रेज़ों की सेना से लोगों लेते वक्त बड़ी संख्या में लोग शहीद हो गए थे । कहा जाता है कि कई लोगों ने इस तालाब में डुबकी लगा ली और कई लड़ते हुए मारे गए और इसमें फेंक दिये गए । इन शहीदों की पहचान आजतक अन्जान है । तालाब के पानी से न कोई हिन्दू का ख़ून अलग कर सकता है न मुसलमान का । जिन्हें इस देश की बुनियाद रखने में किसी क़ौम की भागीदारी पर शक है वे इस तालाब में गंजी उतारकर नहा लें । इतिहास और लोक विमर्श से ग़ायब कर दिया गया अन्जान शहीद ऐसे शंकाधारियों का इंतज़ार कर रहा है । इस चुनाव में हो रही बेहूदा स्तर की बातें ऐसे क़िस्सों का अपमान करती हैं । वोट के लिए शहादत का हिन्दू मुसलमान करने वालों अन्जान शहीद की पहचान बता दो बस । 


शायर माँ का मन्दिर

नाम देखकर कोई शायर बिला वजह उत्साहित न हो जाए । मैंने भी नाम का मतलब जानने का प्रयास नहीं किया । ज़रूर कोई पाठक इनकी जानकारी दे देगा इस विश्वास से तस्वीर चिपका रहा हूँ । हम पटेल बहुल एक गाँव में गए थे । हो सकता है शायर माँ इस जाति समूह की कुल देवियों में से एक हों जैसा कि कमेंट बाक्स में राजीव रंजन ने भी इशारा किया है । 

बाँटने से पहले बांचने तो दो

जो हो रहा है वो तो हो चुका है

अमरीका में २००८ में राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा था । ओबामा अपने विज्ञापन की टीम के साथ बातचीत कर रहे थे । एक बड़े बैंकिंग फ़र्म के ध्वस्त होने की अफ़वाह ज़ोरों पर थी । ओबामा की टीम अमरीका में आ रहे आर्थिक संकट को समझने के लिए विशेषज्ञों के पास रवाना कर दी जाती है । ओबामा अपनी टीम से कहते हैं कि आप लोगों को इसे समझने की ज़रूरत है । अगर आर्थिक संकट आया तो चुनाव हवा हो जाएगा । 

इसी बैठक में एक रणनीति तैयार होती है कि आर्थिक संकट पर लम्बे लंबे भाषण तैयार किये जायें  । टीवी पर पाँच पाँच मिनट के स्पाट ख़रीदें जायें । जिसे एक साथ टीवी और इंटरनेट पर चलाया जाए । बार बार दिखाया जाए ताकि लोग उसके बारे में बात करने लगे । ओबामा के कैंपेन मैनेजर डेविड प्लाफ कहते हैं कि बोलने की शैली ओवल आफिस के अभिभाषण जैसी होनी चाहिए । इस संकट के बहाने हम समाधान और अपने नेतृत्व का लंबा लंबा बखान करेंगे । तय होता है कि टीवी पर तीस सेकेंड के विज्ञापन का कोई मतलब नहीं है । जितने भी ऐसे विज्ञापन चल रहे हैं सब नकारात्मकता से भरे पड़े हैं । डेविड कहते है कि हमारे विज्ञापन में राहत की बात होगी । ( अच्छे दिन आने वाले हैं टाइप) । हम उम्मीद जतायेंगे । 

लेकिन उस वक्त टीवी पर कोई स्पेस खाली नहीं था । रणनीतिकारों ने समझा कि कम ही नेता हैं जो लंबे भाषणों से माहौल रच सकते हैं । उस वक्त मैक्केन टीवी इंटरव्यू और टाउन हाल में दक्ष माने जा रहे थे । डेविड लिखते हैं कि मैक्केन डायरेक्ट टू कैमरा वाले भाषणों में उतने माहिर नहीं थे । कैमरे में आँख मिलाकर भाषण देने में ओबामा माहिर लगते हैं । 

आप इसे प्रसंग को राहुल गांधी की तुलना करते हुए समझिये । इंटरव्यू देने में अरविंद केजरीवाल आगेसनिकल चुके थे । मोदी इंटरव्यू के इस रास्ते को बाद के लिए छोड़ देते हैं । लंबे लंबे भाषण देने लगते हैं ।  कैमरा क्लोज़ में होता है । वे पूरे देश की यात्रा पर निकल जाते हैं । यहाँ भाषण वहाँ भाषण । विरोधी घर बैठे रह जाते हैं । अगस्त से जनवरी तक बिना किसी ठोस चुनौती का सामना किये हुए उनका भाषण एकतरफ़ा लोगों के बीच पहुँचने लगता है । विरोधी गंभीरता से नहीं लेते हैं । घटिया प्रवक्ता भेजते हैं विरोध के लिए । मोदी ज़बरदस्त बढ़त हासिल कर लेते हैं । खैर आगे सुनिये ।

ओबामा कहते हैं कि यह रणनीति अच्छी है । चलो करते हैं । " लोग आर्थिक संकट को लेकर भ्रमित हैं, डरे हुए हैं और निराश हैं । इस तरह के लंबे विज्ञापन से यह सब तो नहीं बदल सकता लेकिन मैं उन्हें यह भरोसा जताते हुए दिखना चाहता हूँ कि मेरे पास इस संकट से उबरने की योजना है, कम से कम इस संकट से निकाल कर मैं उन्हें कुछ राहत तो दे ही सकता हूँ ।"

इसके बाद लंबे विज्ञापनों को चलाने के लिए पैसे जुटाये जाते हैं । ओबामा की टीम इतने पैसे जमा कर लेती है कि डेविड अपनी टीम को कहते हैं कि तुम सब बिगड़ जाओगे । चुनाव प्रचार में इतना पैसा कभी नहीं लगा होगा । ओबामा के लंबे भाषणों को टीवी पर बार बार चलाया जाता है । किस्से कहानियों को मिक्स किया जाने लगता है । हर तरफ़ ओबामा नज़र आने लगते हैं । उम्मीद बेचते हुए ओबामा । पहले कार्यकाल में अमरीका की अर्थव्यवस्था संकट में ही घिसटती रहती है । ओबामा नहीं सँभाल पाते हैं । दूसरा कार्यकाल ख़त्म होने जा रहा है । अमरीकी अर्थव्यवस्था अभी तक सँभल ही रही है ( इसके बारे में कम जानता हूँ ) । ओबामा ने अपनी टीम से ठीक कहा था । भरोसा बेचो । 

जो लोग भारत के इस चुनाव को समझना चाहते हैं उन्हें David plouffe की the audacity to win पढ़नी चाहिए । पेंग्विन ने छापी है । मुझे पढ़ते हुए लगा कि नरेंद्र मोदी का अभियान पूरी तरह से इस किताब से निर्देशित है । एक एक रणनीति मेल खाती है । संयोग भी हो सकता है मगर मैं पूरी तरह ग़लत भी नहीं हो सकता । जिस तरह मोदी के आने से पहले अन्ना और केजरीवाल टीवी के स्पेस में छाये हुए थे उसी तरह ओबामा के आने के पहले हिलेरी क्लिंटन छा गईं थीं । उनकी जीत का इंतज़ार हो रहा था मगर डेविड की टीम ने अपनी प्रचार रणनीति से सबकुछ बदल दिया । हिलेरी अरविंद की तरह हाशिये पर चली गईं और ओबामा अश्वेत, ईसाई, अफ़्रीकी और अमरीकी न जाने क्या क्या और किन किन क़िस्सों में ढाल कर उम्मीद बन गए । चाय वाला का क़िस्सा यू नहीं उभरा होगा । उस मित्र का शुक्रिया जिसने यह किताब भेजी थी । आप सबको पढ़नी चाहिए । एक टीवी क्या क्या कर सकता है । मोदी अकारण साल भर से टीवी पर लंबे लंबे भाषण नहीं दे रहे हैं । ओबामा दे चुके हैं । 

मन का मतदान

इस चुनाव में पीढ़ियों के बीच ज़बरदस्त टकराव हो रहा है । कहीं नौजवान अपने माँ बाप से लड़ कर बीजेपी को वोट कर रहा है तो कहीं पत्नियाँ पतियों से लड़कर आम आदमी पार्टी को । मतलब ये है कि इस बार जो मत पड़े हैं उसमें अपनी आज़ादी और मर्ज़ी से पड़े वोट को भी अलग से गिना जाना चाहिए । 

एक सत्यकथा सुना रहा हूँ । इस बात के बावजूद कि आजकल राजनीतिक दल अपने पक्ष में लिखी बातों को उठाकर प्रचारित करने लगते हैं और उस प्रक्रिया में लिखने वाला संदिग्ध होता चला जाता है । 

महाराष्ट्र का एक क़िस्सा है । एक शौहर ने कहा कि मोदी को वोट दोगी तभी साथ ले जाऊँगा । बीबी कहा कि नहीं जाती तब । उनके जाने के बाद बीबी ने आटो किया । अपनी सहेली को साथ लिया और पहुंच गई मतदान केंद्र । दोनों औरतों ने वोट दिया आम आदमी पार्टी को । वोट देकर घर आई तो बीबी ने शांति बनाए रखने के लिए कह दिया कि मोदी को वोट दे आई हूँ । बाद में उन्होंने किसी को ये क़िस्सा सुनाते हुए कहा कि वोट तो कम से कम अपने मन का दें । इस कहानी में वोट किसे दिया यह महत्वपूर्ण नहीं है । वोट किसी और को देकर मोदी को दिया ये बताना महत्वपूर्ण है । 

जनमत सर्वेक्षण का अंकेक्षण

I

ध्यान से देखिये । ये दस साल पहले का कवर पेज है । मोदी विरोधियों की आख़िरी उम्मीद कि इस बार भी सर्वे फ़ेल होंगे । इस चुनाव को 'सेकुलर आलस्य काल ' कहा जाना चाहिए जब सारे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे । कुछ यूँ समझ के मोदी हारने के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हैं । ये आलस्य की इंतहा है । दस साल पहले सर्वे ग़लत हुए थे तो इस बार भी होंगे । कोई यह नहीं बताता कि गुजरात मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ में बीजेपी के लिए सर्वे ग़लत क्यों नहीं हुए । लेकिन दस साल पुराना अनुभव सबक़ के काम तो आ सकता है । आउटलुक का यह कवर डराता है । किसी को गुदगुदा सकता है । काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती । हर बार ये ग़लत हो ज़रूरी भी तो नहीं । क्या पता इस बार सर्वे का तुक्का सही लग जाए ।

ज़ोर से बोलो तो ज़माना सुनेगा

नफ़ासत का ओढ़ा हुआ पुलिंदा लग रहा था । शख़्स की ज़ुबान से नाम ऐसे छलक रहे थे जैसे महल की सीढ़ियों से शख़्सियतें उतर रही हों । ऐसा लगा कि कोई मुझे उन नामों के बीच बाँध कर ले जाने आया है । उसने क़दर में भी कोई कमी नहीं की । फिर क्यों जाते जाते कह गया कि आपका शो देखा जाता है । आपको समझना चाहिए । जो तटस्थ हैं समय लिक्खेगा उनका भी अपराध । मेरा क्या अपराध हो सकता है और यह कोई कवि कह रहा है या किसी का कोतवाल । मैं कहां गया और किससे मिला इसमें उसकी दिलचस्पी कमाल की थी । धीरे से कही गई वो बात कविता तो नहीं ही थी । धमकी ? 

कहीं जाता हूँ ऐसा लगता है कि कोई निगाह रख रहा है । यार दोस्तों को बताता हूँ तो सब सतर्क रहने को कहते हैं । फ़ोन पर बात नहीं करने को कहते हैं । मैं फ़ोन पर उतना ही आयं बायं सायं करने लगता हूँ ।वो मेरा प्राइवेट स्पेस है । आजकल कई लोग ऐसी धमकियाँ देते हैं । उन्हें लगता है कि मैं कुछ फ़ेमस हो गया हूँ और वे मुझे मेरे 'नाम' का डर दिखा देंगे । उन्हें नहीं मालूम कि मै ऐसी लोकप्रियता पर रोज़ गोबर लीप कर सो जाता हूँ । 'वायरल' कर देंगे । हँसी आती है ऐसी बातों पर । घंटा । ऐसे लोग और ऐसी डरों को सटहां ( डंडा) से रगेद देता हूँ । चिन्ता मत कीजिये यह तथाकथित लोकप्रियता मेरे लिए कबाड़ के बराबर है । कुछ और कीजिये डराने के लिए ।

जहाँ जहाँ लोगों से घिरा रहता हूँ तो ऐसा क्यों लगता है कि कुछ कैमरे मुझसे चाहत के नतीजे में रिकार्ड कर रहे हैं । ऊपर वाले ने इतनी तो निगाह बख़्शी है । हम बाघ बकरी नहीं हैं ,कबूतर हैं । अंदेशों की आहट समझ लेते हैं । पहले बहस के लिए छेड़ते हैं फिर रिकार्ड करते हैं । यह प्रवृत्ति दिल्ली और सोशल मीडिया से शुरू हुई थी जो गाँवों तक पसर गई है । वैसे पहले भी देखा है ऐसा माहौल ।

ऐसा क्या अपने आप हो रहा होगा । किसी गाँव में भीड़ अपनी बात कह रही होती है । सब तरह की बातें । अचानक एक दो लोग उसमें शामिल होते हैं और नारे लगाने लगते हैं । भीड़ या तो संकुचित हो जाती है या नारे लगाने लगती है । उन एक दो लोगों के आने के पहले भी लोग बोलते हुए एक दूसरे को देखते रहते हैं कि उसकी बात सुनकर ये या वो बता तो नहीं देगा । फिर एक या दो लोग ज़ोर ज़ोर से बोलने लगते हैं । यही होगा । जाइये । यहाँ सब वही है । सारे लोग चुप हो जाते हैं । मेरा कैमरा ऐसी मुखर आवाज़ों से भर जाता है । वहाँ खड़ी भीड़ के बाक़ी लोग दबी ज़ुबान में बात करने लगते हैं । धीरे से कहते हैं नहीं ऐसा नहीं होगा । ये बोल रहे हैं ठीक है सबको बोलना है ।आप एकतरफ़ा सुनकर लौटते हैं ।

इसीलिए मतदान से पहले जनमत जानना बेकार है । विज्ञापन ऐसा ताक़तवर माहौल रच देता है कि कमज़ोर मज़बूत को देख कर बोलने लगता है । सब वही बोल रहे हैं जो सब सुनना चाहते हैं । इतने शोर शराबे के बीच एक भयानक खामोशी सिकुड़ी हुई है । या तो वो मुखर आवाज़ के साथ है या नहीं है लेकिन कौन जान सकता है । क्यों लोग अकेले में ज़्यादा बात करते हैं । चलते चलते कान में कुछ कहते हैं । धीरे धीरे यह नफ़ासत दूसरे लोग भी सीखने लगे हैं । अब मतदान केंद्र पर बूथ लूटना नहीं होता । वो उसके मोहल्ले में ही लूट लिया जाता है । टीवी को भी एक लठैत ही समझिये।  


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बातचीत चल रही थी । हर तरह की बात । दिल्ली से आए पत्रकार से जानने बहस करने की उत्सुकता में । छात्रों की प्रखरता और मुखरता पर भावुक हुआ जा रहा था । सोच रहा था कि अलग अलग तरीके से सोचने वाले ये छात्र हिन्दुस्तान का शानदार भविष्य हैं । अचानक एक दो लोग मुखर हो जाते हैं । सारे लोग फिर से चुप या सतर्क । एक ही तरह की आवाज़ किसी भीड़ की विविधता को क्यों ख़त्म कर देती है । एक ही तरह की आवाज़ हूट करती है । भीड़ में घुसकर नारे बोलने लगती है । एक शख़्स किनारे खड़े मेरे सहयोगी से कहता है कि रवीश जी इनकी बाइट चलायेंगे तो 'वायरल' कर दूँगा । यह शख़्स नक्सल समर्थक है । यू ट्यूब से निकाल कर वायरल कर दूँगा । फिर उस शख़्स जैसे कुछ और लोग भीड़ में शामिल हो जाते हैं । कर दो भाई 'वायरल '। दलाल और हत्यारा कहाकर लोग मत्री बन जाते हैं । लोग उनके नारे लगाते हैं । माला पहनाते हैं । यह भी कोई शर्मिंदा होने की बात है । धमकियाँ ऐसी दीजिये कि उसे आप अकेले किसी चौराहे पर मेरे सामने दोहरा सके । प्यारे भीड़ पर इतना मत उछलो । भीड़ में उछलने की तुम्हारी इस कमज़ोरी को अपनी बाँहों में भर कर दूर कर दूँगा । आके गले मिलो और महसूस कर जाओ मैं कौन हूँ । 

अक्सर बोलने वाला ताक़तवर की तरह क्यों प्रदर्शित करता है । कौन लोग हैं जो इनबाक्स या ब्लाग के कमेंट में डराने की भाषा में बात कर जाते हैं । यह जाना पहचान दौर इतिहास में पहले भी गुज़रा है और ग़ायब हो गया है । आता रहता है और जाता रहता है । इसीलिए मैं सतर्क नहीं हूँ पर बेख़बर भी नहीं ।





विज्जी और बनारस

सफ़ेद मगर मटमैली हो चुकी इस मूर्ति को देख कर लगा कि अंबेडकर की है । हैरान मन तेज़ निगाह से देख रहा था कि आख़िर कौन हो सकता है जो बनारस के अस्सी घाट जाने के रास्ते पैड और बैट के साथ खड़ा है । कार रोक दी मैंने । तस्वीर लेने के लिए पीछे आ रही गाड़ियों की पीं पां झेलते हुए सड़क पार कर गया । ये तो विज्जी है । ऐसा नहीं कि मैं उन्हें पहचानता था पर मूर्ति के नीचे लिखा पढ़ कर मैं एक ऐसे बनारस में चला गया जिसकी बात ही कोई नहीं करता ।

मैंने अपनी ज़िंदगी में चंद राज्यों के ही शहर देखे हैं । कहीं किसी शहर में क्रिकेटर की मूर्ति नहीं देखी । बनारस में देखी । विज्जी और बनारस । हमने कभी विज्जी के बहाने बनारस के बारे में सोचा ही नहीं था । विजयनगरम के महाराज की मूर्ति । मूर्ति के नीचे लिखा पढ़ने लगा । काशी के मैदान में विज्जी की टीम ने एम सी सी इंग्लैंड की टीम को हराया था । बस इस एक सूचना ने बनारस के बारे में बार बार बनाई जा रही एकरसीय छवि को पलट दिया । मैं उस दौर में चला गया जब विज्जी की यह जीत बनारस को बताये बिना गुज़र गई होगी । तब क्रिकेट इतना लोकप्रिय था कहाँ । फिर भी कल्पना करने के पैसे नहीं लगते । कुछ तो होंगे जो भाग कर इस मैच को देखने गए होंगे । इस शहर के वे कौन से बड़े लोग रहे होंगे जिन्होंने उस मैच को देखा होगा । विज्जी को देखने वाले बनारसियों की स्मृतियाँ कहाँ दर्ज पड़ी होंगी । 



विज्जी न्याय मंत्री रहे हैं । विधानसभा के सदस्य रहे हैं । क्रिकेट बोर्ड के उपाध्यक्ष से लेकर अध्यक्ष तक रहे हैं । उन लोगों का शुक्रिया जिन्होंने अस्सी घाट जाने के रास्ते पर विज्जी की मूर्ति लगाई । मुझे नहीं मालूम कि किन लोगों ने यह मूर्ति लगाई और लगाने का इतिहास क्या है मगर बनारस के इतिहास के इस सफ़ेद पन्ने को देख मियाज़ हरिहर हो गया । विज्जी के बारे में ज़्यादा नहीं जानता लेकिन विज्जी ने मेरे लिए बनारस को नया कर दिया । जो लोग बनारस को जानने का दावा करते हैं दरअसल वो बनारस के बारे में उतना ही जानते हैं । बनारस आएं तो ऐसे टूरिस्ट गाइड टाइप बनारसियों से बचने से बचें जो बनारस के बारे में सब जानते हैं । बनारस को खुद की नज़र से देखिये । इस शहर के वजूद में सिर्फ बाबा फ़क़ीर और कबीर नहीं हैं विज्जी भी हैं । 

बनारस की तस्वीरें






योगेंद्र यादव

बनारस का विरोध रस

बनारस इस चुनाव का मनोरंजन केंद्र बन गया है । बनारस से ऐसा क्या नतीजा आने वाला है जिसे लेकर कृत्रिम उत्सुकता पैदा की जा रही है । यहाँ का चुनाव इस क़दर सांकेतिक हो गया है कि मोदी विरोध नक़ली लगने लगा है । ऐसा लगता है कि कोई रस्म अदा करनी है जिसके लिए बनारस जाना है । मोदी को हराने बनारस जाना है । मोदी विरोधी कार्यकर्ता उस कर्मकांड को पूरा करने का भ्रम पाल चुके हैं जिसे बनारस में कोई गंभीरता से नहीं लेता ।

क्या मोदी सिर्फ बनारस में लड़ रहे हैं ? क्या इसी एक सीट से सरकार का फ़ैसला होने जा रहा है । क़रीब चार सौ सीटों पर बीजेपी लड़ रही है । क्या वहाँ मोदी नहीं हैं । मोदी ने खुद से लड़ने के लिए साल भर का मौक़ा दिया । वो सितम्बर से अभियान पर हैं । सैंकड़ों रैलियाँ कर चुके हैं । विरोधियों के पास इतना लंबा वक्त था । मोदी ने प्रोपैगैंडा किया तो वे क्या कर रहे थे । उन्हें किसने रोका था जनता के बीच जाकर बताने के लिए । क्या वे गए । मोदी जीत के लिए नए नए गठबंधन बना रहे हैं और विरोधी आपस में लड़ने के लिए बेताब हैं । मोदी का लक्ष्य साफ़ है मगर विरोधी को पता नहीं कि पहले मोदी से लड़े या सपा से सीपीएम से या बसपा से या किसी से । विरोधी आपस में लड़ते हुए मोदी से लड़ने का स्वाँग रचा रहे हैं । क्या लेफ़्ट के लिए सोशल मीडिया नहीं बना है । मोदी का विरोध करने वाले सोये रहे । युवाओं को शुरू से ही नकारा बताने लगे । उनसे संवाद का प्रयास नहीं किया । अपने इसी आलस्य पर पर्दा डालने के लिए सब बनारस जा रहे हैं । कान खुजाते हुए ताल नहीं ठोकी जाती । सब लस्सी पीकर और पान खाकर चले आयेंगे । 

ज़ाहिर है मोदी विरोधियों के पास ठोस एजेंडा है नहीं । कम से कम मोदी कर तो रहे हैं कि मुझे मौक़ा दो मैं ये कर दूँगा या वो कर दूँगा । विपक्ष से कौन कह रहा है कि मुझे मौक़ा दो मैं मोदी से भी बेहतर कर दूँगा । विरोधियों को सुनकर जनता किसे चुनें । आप ग़ौर से देखिये मोदी से कोई लड़ ही नहीं रहा । कोई सरकार बनाने का दावा भी नहीं कर रहा है । उनके खेमे में कोई स्पष्टता या रणनीति नहीं है । विरोधी ख़ुद को नहीं जनता को धोखा दे रहे हैं । 

मान लीजिये मोदी बनारस से हार गए और उनकी पार्टी को बहुमत या क़रीब करीब मिल गया । आप नतीजों के दिन कवरेज और अगले दिन अख़बारों के पन्नों की कल्पना कीजिये । जो शख़्स जीत कर शपथ लेने जा रहा होगा उससे जुड़ी ख़बरें होंगी या उस एक सीट की ख़बर होगी जहाँ हार कर भी वह शपथ लेगा । बनारस की हार को दो लाइन जगह नहीं मिलेगी । हफ़्ते भर बाद कहीं विश्लेषण छप जाएगा । फिर बनारस की लड़ाई का क्या महत्व है । विरोध के नाम पर विरोध पर्यटन होने लगा है । 

इसलिए बनारस का महत्व उसी तरह और उतना ही सांकेतिक है जितना विरोधियों को राजनाथ सिंह सुष्मा स्वराज और मुरली मनोहर जोशी से उम्मीद है । विरोधियों में इतनी ईमानदारी तो होनी चाहिए कि वे कह दें कि मोदी नहीं जीते बल्कि हम ही नहीं लड़े ।   हम चाहते थे कि मोदी जीत जायें और विरोध भी दर्ज हो जाए । मोदी विरोधी अस्पष्टता के शिकार हैं । वे हास्यास्पद हो चुके हैं । इतनी मेहनत अगर वे अन्य सीटों पर करते तो नतीजा बदल सकता था । इन्हें इतनी चिंता थी तो क्यों नहीं ये लोग दिल्ली से सटे पश्चिम उत्तर प्रदेश के इलाक़ों में गए जहाँ समाजवादी और भाजपा के नेता आग उगल रहे थे । अमित शाह की ज़ुबान को लेकर हमले हो रहे हैं लेकिन कोई आज़म ख़ान को लेकर समाजवादी पार्टी को क्यों नहीं घेरता । 

इसलिए जो लड़ नहीं रहे थे वे बनारस जा रहे हैं ताकि दिखा सकें कि हम भी मोदी से लड़े थे । बनारस में सब हैं । हम भी हैं । बनारस हिन्दू विश्विद्यालय गया था । खूब बहस हुई छात्रों के बीच मज़ा आ गया । इस बात को लेकर नहीं कि मोदी जीतेंगे या नहीं बल्कि पूरे देश के मुद्दों को लेकर । शानदार कैम्पस है । लड़के लड़कियाँ भी सजग सतर्क । अच्छा लगा कि दिल्ली मुंबई के बाहर भी कुछ अच्छा है । कैम्पस के गलियारे चमक रहे हैं । कैंटीन लगता है किसी कारपोरेट का जलपान गृह है । चाय अच्छी लगी और कटलेट भी । देवी जी से मिला । वहाँ से लौटा तो कैम्पस में ही कोई नेता जी मिलने आ गए । दही लेकर । बेजोड़ दही ।क वहाँ से घाट पर गया तो सीढ़ियों पर मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के कुछ कार्यकर्ता मिले । घाट पर उच्च स्तरीय नींबू की चाय पी गई । झटा झट फोटू खींच लिया गया । फ़ेसबुक पर शेयर हो चुका होगा ! तभी बीजेपी प्रवक्ता नलिन कोहली का फोन आ गया । तब तक अस्सी से पैदल चलकर दशाश्वमेघ घाट जाने का मूड बन चुका था । नाव ली गई और घाट पर गंगा की आरती की दिव्यता में समाहित हो गया । बनारस हो गया । इस पर बाद में लिखूँगा । 

टीवी दिखाता नहीं डराता है

टीवी हांफ रहा है । दमा है या टीबी ये तो ख़ून या बलगम की जाँच से पता चलेगा । टीवी अब साथी कम पार्टी ज़्यादा लगने लगा है । किसी गाँव या शहर में जाइये टीवी को लेकर लोग सवाल करने लगे हैं । टीवी के दो पर्यायवाची शब्द आम फ़हम हो चले हैं । चैनल और सर्वे । मैं जिन लोगों से मिला वो अब पत्रकार को एजेंट के रूप में देखने लगे हैं । सफ़ाई देते देते थक गया कि प्लीज़ ऐसा मत कहिये । जवाब यही कि हम आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं कह रहे हैं । उन्हें लगता है कोई गुड्डा हाथ में कैमरा और माइक लिये आ गया है जिसकी डोर किसी और के हाथ में है । मीडिया इतना क्यों दिखा रहा है और एक ही का क्यों दिखा रहा है । "पहले टीवी बताता था, दिखाता था अब टीवी डराता है ।" एक गाँव का बुज़ुर्ग किसी चौमस्की की तरह आराम से कह गया । 

शहर,क़स्बा और गाँव । चाय वाला से लेकर टीचर । कई लोग मिले जिन्हें लगता है कि जो वो कह रहे हैं वो दिखेगा नहीं । इसलिए जो पहले से दिख रहा हैं वही कह रहे हैं । विकास और नेतृत्व जैसे सवालों पर वैसे ही बोल देते हैं जैसे टीवी बोलता है । जैसे टीवी सुनना चाहता है । कैमरा बंद होने के बाद ऐसी कई आवाज़ें सुनने को मिलीं जो अपने ही कहे का उल्टा थीं । लोग भी टीवी से खेल रहे हैं । झट से कोई कार्यकर्ता आम आदमी बन जाता है । बाद में पता चलता है कि वो किसी पार्टी का है । सारे कार्यकर्ताओं को पता है कि चुनाव के टाइम में पत्रकार आ सकता है । गाँव के किसी कोने में शूट कर रहे हैं अचानक पार्टी के लोग चले आते हैं । प्रभुत्व पार्टी के लोग । पीछे से ज़ोर ज़ोर से नारे की शक्ल में बात करने लगते हैं । अचानक भीड़ भी वही बोलने लगती है । टीवी के पैदा विमर्श ने ज़मीन पर ऐसे लोगों का दबदबा बढ़ा दिया है । ऐसे लोगों के आने के बाद लोग चुप हो जाते हैं । उसे ही बोलने देते हैं । जिसे मैं कई बार भरमाना कहता हूँ । जो ऊँचा बोलता है समाज उसे बोलने देता है । लेकिन इसका असर हो रहा है । कई लोग वैसा ही बोलने लगते हैं जैसा बोलने की छूट टीवी पर दिखती है । हम सब एक मीडिया समाज में रहते हैं । यह टीवी का 'बेंग काल' है जहाँ टीवी और उसका दर्शक टर्र टर्र करने लगते हैं । अविश्वसनीय होकर भी टीवी विश्वसनीय माध्यम हो गया है । टीवी इस चुनाव का सबसे सशक्त राजनीतिक कार्यकर्ता है । टीवी के असर को कम मत आँकिये ।

गाँवों में लोग विज्ञापन को लेकर सवाल करते हैं । उन्हें शक है कि जो पत्रकार सामने हैं वो स्वतंत्र है भी या नहीं । "आप अच्छे हैं लेकिन आप जिस सिस्टम में काम करते हैं उस पर आपका कितना बस चलता है ।" यह बात तमाचे की तरह लगी । " कल पुर्ज़ा से कारख़ाना बनता है पर पुर्ज़ा कारख़ाना नहीं होता साहब" ये पंक्ति एक बेरोज़गार युवक की है जिसने सोशल मीडिया पर टीवी की हो रही आलोचना की ज़ुबान को पढ़ा भी नहीं होगा । 

किसी भी दर्शक को ऐसे ही होना चाहिए । इन सब बातों पर तिलमिलाया तो नहीं पर मुस्कुराया ज़रूर । दाँत चियारने के अलावा चारा भी क्या था । कहीं कहीं तो टीवी को लेकर ग़ुस्सा इतना भयानक था कि पूछिये मत । हर आदमी घेरकर यही पूछ रहा था । नाप रहा था कि आप किसकी तरफ़ से बिके हैं । आपका मीडिया बिका हुआ है । बार बार सुनाई दिया । कई लोग मिले जो कहते नज़र आए कि अब तो साहब टीवी बंद कर दिया है । क्या देखना है । वही बातें बार बार । ख़बर तो होती नहीं है । 

'टीवी कम देखिये' मैं रोज़ रात को ट्वीट करता था लेकिन लगता है उन लोगों ने पढ़ लिया जो ट्वीटर पर नहीं टीवी पर हैं । वे टीवी कम देखने लगे हैं । हालाँकि यह भी आँकड़ा आने ही वाला होगा कि चुनाव में टीवी के दर्शकों की संख्या बढ़ गई है । ऐसा होता भी है । टीवी को लेकर सवाल करने वाले ऐसे कितने लोग हैं । पर ऐसे लोगों की तादाद बढ़ने लगी है । 

टीवी उस नेता की तरह है जिसके बारे में सब जानते हैं कि यह किसका एजेंट है, इसके धंधे क्या है, किस चीज़ का माफ़िया है, जात क्या  है, यह कभी हमारा काम नहीं करेगा लेकिन वोट तो लोग उसी नेता को देते हैं । यह अविश्वास से पैदा हुआ प्रेम है !  जैसे राजनीति का विकल्प नहीं वैसे अख़बार टीवी का भी तो नहीं है । सोशल मीडिया ? सोशल मीडिया लोगों का कितना रहा । वहाँ भी वही अख़बार टीवी चल रहा है । हम अख़बार टीवी के बग़ैर नहीं रह सकते । काश के लोग ऐसी नाराज़गी पर केबल कटवा दें और अख़बार बंद कर दें । 

मैं अक्सर कहता हूँ कि किसी वोटर को किसी नेता का फ़ैन नहीं होना चाहिए वैसे ही किसी दर्शक को किसी एंकर या रिपोर्टर का फ़ैन नहीं होना चाहिए । फ़ैन्स बनते ही आप चतुर निगाहों से देखना बंद कर देते हैं । किसी के प्रति लगाव स्वाभाविक है मगर ऐसा भी न हो जो विश्वसनीयता आपके बीच कोई बना रहा है उसका इस्तमाल कोई और कर ले । डेढ़ महीने से अख़बार नहीं पढ़ा हूँ । टीवी नहीं देखा हूँ । अपवादों के चंद मिनटों और पन्नों को छोड़कर मैं भी उन दर्शकों की तरह हो गया हूँ जो टीवी को लेकर सवाल करते हैं । हम सब कृत्रिम रूप से पैदा एक महान विमर्श का पीछा करने वाले लोग हैं । यह बहुत अच्छा है । मीडिया पर अविश्वास लोकतंत्र को समृद्ध करता है । ये वो लोग हैं जो टीवी के बनाए भ्रमजाल से निकल आए हैं और इन लोगों के पास वैकल्पिक विमर्श पैदा करने की ताक़त नहीं है । जैसे नेता वोटर की मजबूरी जानता है वैसे ही टीवी दर्शकों की । बाक़ी तो जो है सो हइये है ।


दर्दे टेम्पो इन बनारस

पेड़ पर बोतल

मार्केटिंग के गुर सिर्फ मुंबई की विज्ञापन कंपनियों को नहीं आते । हिन्दुस्तान के क़स्बों शहरों से गुज़रते हुए एक से एक स्लोगन और सामान बेचने की तरकीब से टक्कर हो जाती है । आज़मगढ़ में एक दुकानदार ने अपने बोतलों को पेड़ पर ही टाँग दिया है ताकि दूर से ही दिख जाए । आसपास की दुकानों से लोहा लेने के लिए उसमें ऐसा किया क्योंकि उसकी दुकान भीतर है और सड़क पर लगे ठेलों के कारण ग्राहक की नज़रों से छिप जाने का ख़तरा है ।






यूपी की सड़क पर गुजरातन अलबेली

चाय


कानपुर लखनऊ राजमार्ग पर यह चाय की दुकान मौजूद है । इस शख़्स को अपनी दुकान के एकांत में इस तरह बैठा देख देर तक देखता रहा । कोई नई बात तो नहीं है । ऐसे लोग तो बहुत हैं । अंतिम आदमी की तरह बैठे इस शख़्स के क़रीब गया तो साँस की तकलीफ़ से काँप रहा था । छाती ज़ुबान को खींच ले रही थी ।

इन्होंने बताया कि दिन में बीस रुपया कमा लें बहुत है । इतनी धूल है कि कोई आता नहीं । बस इस बुढ़ापे में एक जगह मिल गई है । वोट दे देंगे । किसे देंगे मालूम नहीं । अख़बार ख़रीद नहीं सकते । हम तो बस चाय बेचते हैं । इनकी दुकान के वक्त अंबेडकर की एक मूर्ति लगी थी । बिल्कुल इनकी तरह सिकुड़ कर छोटी हो चुकी मूर्ति । मूर्ति के नीचे शराब की छोटी बोतलें गिरी थी । अंतिम आदमी की आँखें नाच रही थीं । हम दोनों एक दूसरे को अपराधी की निगाह से देख रहे थे । 

थोड़ी देर बाद कानपुर इलाहाबाद मार्ग पर शुक्ला ढाबा पर था । वहाँ चाय की यह प्याली आई । पूछा कि नीचे सिल्वर पत्ती क्यों लगी है । प्याला रिस रहा है क्या । नहीं सर । शोभा के लिए है । चाय चाय का फर्क है बाबू ।

नारायण नारायण



खंडहर होते मकानों की कशिश

शहर गाँव क़स्बों से गुज़रते हुए ऐसे मकानों को देख कुछ हो जाता है । मैं इनके वक्त में चला जाता हूँ । जब से बने होंगे । चमकते होंगे । कोई बड़ा आदमी होगा या पहली बार पैसा कमाया होगा । घर की नक़्क़ाशी कराई होगी । बालकनी और बाहरी दीवारों को जालीदार बनाया होगा । एक समय लोग हैरत से इतने बड़े घरों को देखते होंगे । इनमें रहने वालों का अपनी कोई सपना होगा । 


इसी ब्लाग पर आप पन्ने पलटेंगे तो ऐसे मकानों की तस्वीर दिखेंगी । एक दौर में हमारे शहरी होने का अनुभव बेहद कुलीन तरीके से दर्ज है । मुंबई दिल्ली के पुराने मकानों का अध्ययन तो है मगर बाक़ी शहरों का नहीं । अन्य जगहों के नवजात अमीरों या मध्यम वर्ग का कोई क़िस्सा नहीं है ।

हर शहर में कुछ लोग समृद्ध होते हैं कुछ लोग कंगाल । एक शहर में एक सज्जन मिलने आए । सत्तर के दशक में उनके दादा के भाई केंद्र में वित्त राज्य मंत्री और सूचना मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री रहे थे । दादा जी संविधान सभा के सदस्य । जिस सड़क पर रहते हैं वो अब दादा जी के नाम पर तो है लोग उन्हें भूल चुके हैं । जनाब अपने दादाजी या परिवार के उस इतिहास को पुराने कंबल की तरह लपेटे हुए लगे । शायद कुछ गर्मी मिलती होगी ।


मैं क्यों लौटता हूँ उस दौर में पता नहीं । पर ये बचे खुचे मकान मुझे रोमांचित करते हैं । घर किसी का सपना होता है और हर सपने का अपना एक वक्त या दौर । कभी कभी लगता है कि जिसने पलायन नहीं किया वो जड़ हो गया । वो अपने दौर में चूक जाता है । हर शहर में पुराने रईसों के मकान जड़ हो गए हैं । कइयों ने तो ढहाकर उस अतीत से छुटकारा पा लिया है मगर कुछ मकान बचे मिल जाते हैं । जिनके लिए मैं अपने फ़ोन का कैमरा तैयार रखता हूँ । गाड़ी से गुज़रते हुए दिखा नहीं कि क्लिक ।


छोटी सी इक बात

जशोदाबेन को लेकर जो कहा जा रहा है उसमें गंभीर विमर्श कम चटखारे ज़्यादा है । मोदी ने क्यों पहले स्वीकार नहीं किया और अब क्यों नहीं किया इसके आगे जशोदाबेन को घसीटना उचित नहीं है । नेताओं को इससे बचना चाहिए । नरेंद्र मोदी का विरोध करने के लिए सौ चीज़ें हैं मगर यह मामला दो व्यक्तियों के बीच का है । दोनों वयस्क हैं । सार्वजनिक व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह पति पत्नि का रिश्ता भी आदर और बराबरी से निभाये मगर इसके बाद भी बात हज़म नहीं हो रही है कि यह चुनावी मुद्दा कैसे हैं । है भी तो क्या इसलिए कि इसमें मज़ा आ रहा है । चुनावों के समय राजनीतिक दलों की टीम ऐसी रणनीतियों से लैस होती है । कोई किताब लिखता है तो कोई शादी की तस्वीर लेकर आ जाता है । इसी में चुनाव के समय के दो चार दिन निकल जाते हैं । 

जशोदाबेन के आत्मसम्मान का आदर किया जाना चाहिए । यह जीवन और चुनाव उनका है । बल्कि अगर पति ने छोड़ भी दिया तो क्या यह कम तारीफ़ की बात है कि उन्होंने खुद को उनके सामने कातर की तरह पेश नहीं किया । यह एक महिला का आत्म सम्मान है । मोदी तीन बार से चुनकर मुख्यमंत्री हैं । वो चाहतीं तो प्रेस कांफ्रेंस कर तमाशा कर सकती थीं । मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया । वो गिड़गिड़ा सकती थीं पर ऐसा भी नहीं किया । उन्होंने अपनी ज़िंदगी का रास्ता सम्मान के साथ चुना जिसका हमें आदर करना चाहिए । मियाँ बीबी के बीच सौ बातें होती हैं । तलाक़ होता है और संबंध विच्छेद भी । इसके कई पक्ष होते होंगे लेकिन इसका राजनीतिक इस्तमाल किसी के विरोध के नशे में ख़राब राजनीतिक परिपाटी बनाता है । 

जशोदाबेन की चुप्पी में सिसकियाँ हो सकती हैं मगर स्वाभिमान ज़्यादा लगता है । मोदी मुख्यमंत्री बनने से पहले भी पार्टी में महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं । वे तब भी उनके पास लौटने के लिए गुहार कर सकती थीं । हमें मालूम नहीं कि दोनों के बीच क्या हुआ इसलिए इसे लेकर अटकलें करना रसरंजन लगता है । यह सवाल बड़ा है तो सही मेें इसे सिर्फ मोदी के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए । राहुल वारिस क्यों बनते हैं प्रियंका क्यों नहीं । यह भी तो सवाल है । नारायण दत्त तिवारी का बेटा अपने हक़ की लड़ाई लड़ता है । यह एक क्रांतिकारी नज़ीर है । न जाने ऐसे कितने बच्चे नाजायज़ रिश्तों की आड़ में हकों से वंचित किये गए होंगे । जशोदाबेन ने ऐसा कोई रास्ता नहीं चुना । मुलायम का दूसरा बेटा प्रतीक किसी औपचारिक रिश्ते से है या नहीं जब इस पर बहस नहीं हुई तो फिर मोदी जशोदाबेन को लेकर क्यों । बीजेपी के लोग भी अति कर रहे हैं । बनारस में पोस्टर लगा रहे हैं कि वे बुद्ध की तरह संशोधकों को छोड़ कर चले गए । हास्यास्पद है । ऐसा कर वे भी जशोदाबेन को सता रहे हैं । 

इसलिए जशोदाबेन को लेकर सहानुभूति जताने वालों या चटखारे लेने वालों को थोड़ा संयम बरतना चाहिए । ऐसा कर हम जशोदाबेन की ख़ुद्दारी का भी सम्मान करेंगे । सार्वजनिक व्यक्ति का निजी कुछ नहीं होता मगर कुछ चीज़ें इस दायरे में आती हैं । इस मसले पर मोदी का विरोध करने वाले अचानक कूदने लगे हैं । हम सब अनौपचारिक बातचीत में नेताओं के निजी प्रसंगों को लेकर चटखारे लेते हैं लेकिन उसे सार्वजनिक और औपचारिक रूप देना ठीक नहीं । विरोधियों को चाहिए कि वे जशोदाबेन की चुप्पी का चुनावी लाभ उठाने की जगह कुछ और मसलों पर घेरने का परिश्रम करें । जशोदाबेन को छोड़ दें । राजनीति की मर्यादा इसलिए नहीं गिराई जानी चाहिए कि सामने वाले ने गिराई है । 



तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती